द्वितीय मराठी साहित्यिक सम्मलेन का आयोजन 24 मई, 1885 को कृष्णशास्त्री रजवाड़े की अध्यक्षता में पूना (महाराष्ट्र ) के सार्वजनिक हॉल में हुआ था। साहित्य से जुड़े करीब 300 लोगों ने इसमें भाग लिया था। सम्मलेन के संयोजक जस्टिस एम.जी. रानाडे ने जोती राव फुले से सम्मलेन में भाग लेने का लिखित आग्रह किया था। परंतु फुले ने नहीं भाग ले पाने के संबंध में उन्हें पत्र लिखा। सम्मेलन में करीब 43 लोगों के पत्र पढ़े गये जो भाग नहीं ले सके थे। पढ़ा गया पहला पत्र फुले का था, जिसमें उन्होंने संक्षिप्त में बहुजन साहित्य के संबंध में अपने विचार का उल्लेख किया था। ज्ञानोदय नामक अख़बार ने इस पत्र को 11 जून, 1885 को छापा था। फॉरवर्ड प्रेस इसे पुनः प्रकाशित कर रहा है :
ज्ञानोदय, दि. 11 जून 1885
विनंती विशेष!
आपका दिनांक 13 का निमंत्रण पत्र के साथ संलग्न प्रार्थना पत्र प्राप्त हुआ। उससे बड़ा परमानंद हुआ। किंतु मेरे भोंदू भैय्या (घालमोड्या), जिस आदमी के द्वारा कुल मिलाकर सभी मनुष्य के मानवाधिकारों के विषय में यथार्थ रूप में विचार विमर्श कर उनके अधिकार उनकी खुशी से और खुलकर नहीं दिए जा सकते और वर्तमान स्थिति के अनुसार अनुमान लगाया जा सकता है कि आगे भी नहीं दिए जा सकेंगे, ऐसे लोगों द्वारा आयोजित सभाओं से और उनके पुस्तकों में किए गए भावार्थ से हमारी सभाओं और पुस्तकों का मेल नहीं बैठता।
क्योंकि उनके पूर्वजों ने हमसे बदला लेने के इरादे से हमें दास बनाने का अध्याय उन्होंने अपने बनावटी धर्मग्रंथ में कृत्रिमता से दबा दिया। इसके बारे में उनके पुराने दुष्ट ग्रंथ साक्ष्य दे रहे हैं। इससे हम शूद्रातिशूद्रों को किन विपत्तियों और तकलीफों का सामना करना पड़ता है, यह उनमें से ऊँट पर बैठकर बकरियों को हाँकने वाले ग्रंथकारों को और बड़ी-बड़ी सभाओं में आगंतुक बनकर भाषण करने वालों को कहाँ से पता चलेगा? यह सब उनके सार्वजनिक सभा को पैदा करनेवाले को पता हो तब भी उन्होंने सिर्फ अपने और अपने बाल-बच्चों के क्षणिक हितों के लिए आँखों पर पट्टी बाँधकर, उसे अंग्रेज सरकार से पेंशन मिलते ही वह फिर से घुटे हुए जाति-अभिमानी, पक्के मूर्तिपूजक, छद्म पवित्र बनकर हमारे शूद्रातिशूद्रों को नीच मानने लगा और अपने पेंशनदाता सरकार द्वारा छापी गई कागज की नोट को भी अपनी शुद्धता के बहाने ऊँगली लगाने में छुआछूत मानने लगा! क्या इसी प्रकार अंत में वे सभी आर्य ब्राह्मण इस हतभागी देश की उन्नति करेंगे!
ठीक, अब इससे आगे हम शूद्र लोग हमें ठगकर खाने वाले लोगों की बातों में नहीं आने वाले। सारांश, उनके साथ मेल-मिलाप करने से हम शूद्रातिशूद्रों को कोई लाभ नहीं होने वाला, इसके बारे में हमें ही अपना विचार करना चाहिए। अजी, उन भाईसाहब को अगर सबको एक करना हो तो वे कुल मिलाकर सभी मनुष्य-प्राणियों में परस्पर अक्षय बंधु-प्रीति क्या करने पर बढ़ेगी, उसका बीज खोज निकालें और उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करें। ऐसे समय आँखें मूँद लेना किसी काम का नहीं। इसके ऊपर उन सबकी मर्जी।
यह मेरा अभिप्राय के रूप में छोटा-सा पत्र उन लोगों के विचार-विमर्श के लिए उनके पास भेजने की मेहरबानी करें। सामान्य बनकर बुड्ढे का यह पहला सलाम लो।
आपका दोस्त,
जोतिराव गो. फुले
(ज्ञानोदय, दि. 11 जून 1885)
(महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित मराठी फुले समग्र वांग्मय से साभार)
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