वैसे तो हर कलाकार एक सतत बेचैनी में जीता है, लेकिन अगर वह दलित समाज में जन्मा है, तो उसकी बेचैनी कई गुना बढ़ जाती है, क्योंकि वह बहुजनों की हजारों वर्षों की अथाह पीड़ा के साथ, उनके संघर्ष की कथा भी कहना चाहता है। इतना ही नहीं, उसे यह बात भी सालती रहती है कि आखिर कब उसके अपने लोगों को अन्याय और अपमान की यातना से मुक्ति मिलेगी। इसी बात को अपनी एक कविता में, कंवल भारती ने इन शब्दों में प्रकट किया है-
“मैं उस अंधी निशा की
भयानक पीड़ा को/जब भी महसूस करता हूं
तुम्हारे विचारों के आन्दोलन में
मुखर होता है एक रचनात्मक विप्लव
मेरे रोम-रोम में”
कंवल भारती के रोम-रोम में व्याप्त यह रचनात्मक विपल्व, एक नए रूप में सामने आया है। उन्होंने ब्राह्मणवादियों के अन्यायों, मनुवादी नजिरए और बहुजनों की वेदना, संघर्ष और बेहतर भविष्य की चाह को प्रकट करने के लिए एक नई विधा को अपनाया। खुद की लिखी कविताओं, गीतों और दोहों को गाकर लोगों तक पहुंचाना। इसके लिए उन्होंने फेसबुक को अपना माध्यम बनाया है। फेसबुक पर गा कर प्रस्तुत की गई, इन रचनाओं में एक कलाकार की बैचैन और उद्विग्न कर देने वाली अभिव्यक्ति दिखायी देती है। जो कलाकार निरंतर लिखित शब्दों या भाषणों के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त कर रहा हो, आखिर उसे क्या जरूरत आन पड़ी कि, उसने गाने की ठानी? इस प्रश्न के उत्तर की तलाश के पहले आइये देखें कि जिन रचनाओं को इस कलाकार ने अपना स्वर दिया है, उसकी विषय-वस्तु क्या है और वे अपने पाठकों-श्रोताओं तक क्या पहुंचाना चाहत
फेसबुक पर पोस्ट की गयी रचनाओं की इस श्रृखंला की पहली रागिनी ‘अतीत के बहुजन नायकों के साथ’ ब्राह्मणवादियों के छल-कपट से संबंधित है। कलाकार महान बहुजन नायकों को एक-एक करके याद करता है, साथ ही इनके साथ की गई धूर्तता की भी कहानी कहता है। कंवल भारती पहली ही पंक्ति में साफ घोषणा कर देते हैं कि –
‘हमें मतलब नहीं तेरे धरम से,
हमें खतरा तेरे करम’।
वे कहते हैं कि अब सारी बात हमारी समझ में आ गई है, तुमने (ब्राह्मणवादियों) कैसे हमारे संघर्षों के इतिहास को अपनी कलम से उलट दिया था। फिर वे एक-एक कर बहुजन महानायकों बलि और महिषासुर की चर्चा करते हैं। कैसे छल से वामन (विष्णु) ने बलि की ह्त्या की। कैसे प्यार का ढोंग रचकर दुर्गा ने महिषासुर का वध किया। क्यों राम ने शंबूक की हत्या की, क्यों द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा काटा। वे बलि, महिषासुर, शंबूक और एकलव्य के बारे में फैलाए गए ब्राहमणवादी झूठ को भी उजागर करते हैं। वह यह भी बताते हैं कि अब तुम लोगों का सारा झूठ समझ में आ गया है, लेकिन तुम अभी भी धमकाने से बाज नहीं आते हो। इसी रचना में वे ब्राह्मणवादियों के झूठ के जाले को साफ करने में जोती राव फुले के साथ अंग्रेजों की भी सराहना करते हैंं और कहते हैं कि उनके कारण ही भारत के वंचितों को मुक्ति मिली।
यह रचना इस बात का सबूत है कि यदि कलाकार शिद्दत से किसी चीज को महसूस करता हो, उसकी इतिहास दृष्टि साफ हो, उसका पक्ष न्याय के साथ हो तो, वह कितने कम शब्दों में, इतने मारक तरीके से हजारों वर्षों के इतिहास को प्रस्तुत कर सकता है। एक ऐसी प्रस्तुति, जिसमें धूर्तों के प्रति आक्रोश और अपनों के प्रति प्रेम के साथ ही साथ बेहतर भविष्य के निर्माण के उम्मीद भी है। इस उम्मीद को एक पंक्ति ‘समझ में अब सारा आता’ में प्रकट कर दिया गया है।
इस श्रृंखला की दूसरी कविता यह प्रश्न पूछती है कि क्या जिसे हिंदू अपनी मातृभूमि कहते हैं, क्या वह दलितों-बहुजनों के लिए भी मातृभूमि रही है। इस संदर्भ में वे सवालों की झड़ियां लगा देते हैं, वे सवाल करते हैं कि किस आधार पर इसे अपनी मातृभूमि कहूं। जो लोग इस मातृभूमि को नमन करने को कहते हैं, उनसे कंवल भारती प्रश्न पूछते हैं कि आखिर दलित-बहुजन क्यों इसका नमन करें। वे भारत माता से भी प्रश्न पूछते हैं कि क्यों मैं तुम्हे नमन करूं। जब इस मातृभूमि के खेत, खलिहान, कल-कारखानों पर हमें कोई हक नहीं मिला। कभी भी इस भारत माता का प्यार, हम दलितों-बहुजनों के बच्चों को नहीं मिला। हमने जब भी अपना हक माना, तब-तब हमारे ऊपर अत्याचार किए गये। इस मातृभूमि पर हमारे ऊपर जितना अत्याचार हुआ, उतना दुनिया में किसी के साथ भी नहीं हुआ। हमने इस धरती की रात-दिन सेवा की, लेकिन हमें इसके बदले में भारत माता ने कुछ भी नहीं दिया। इस रचना में वे हिंदुओं के इस पाखंड की भी पोल खोलते हैं कि हिंदू-हिंदू भाई है। वे प्रश्न पूछते हैं कि यदि भाई हैं तो हमें बराबर का हक और प्यार क्यों नहीं मिला। इन सबके बावजूद कोई यदि कहता है कि भारत माता को नमन करो, तो तन में आग लग जाती है। वे भारत माता के तथाकथित बेटोंं से पूछते हैं, क्या तुम्हें हमारी जलालत नहीं दिखाई देती है? वे इस रागिनी के अन्त में कहते हैं कि यही सब कुछ देखकर कंवल भारती बचपन में ही बागी हो गया।
“कंवल कहैं मैं बागी हो गया
अपने बाले पन में
कहां हमारी मातृभूमि है
किसको करूं नमन मैं”
यह रचना डॉ. आंबेडकर द्वारा गांधी से कही गई, उस बात की याद दिलाती है, जिसमें वह गांधी से कहते हैं, “मिस्टर गांधी हमारा कोई राष्ट्र नहीं है।”
कंवल भारती की तीसरी रागिनी भारत में जैसा भी, जितना भी लोकतंत्र है, उस पर मंडराते खतरे से संबंधित है। अपने समय के सजग और जनसरोकार वाले कलाकार की तरह,, वे देश के जन को हिंदू राष्ट्र के खतरे और आरएसएस के विचारों से सावधान रहने की चेतावनी देते हुए कहते हैं कि-
‘सावधान रहना रे साथियों!
हिंदू राष्ट्र के नारों से
आरएसएस के नेताओं के गलत विचारों से”
ये पंक्तयां आंबेडकर के उस कथन की याद दिलाती हैं, जिसमें उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि – ‘अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है, तो इस देश के लिए एक भारी ख़तरा उत्पन्न हो जाएगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है। इस आधार पर यह लोकतंत्र के अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए’
वे बहुजनों को इसके बात के लिए भी चेताते हैं कि आरएसएस वाले आंबेडकर का नाम लेकर, उन्हेंं अपनी जाल में फंसाना चाहते हैं। वे आंबेडकर का चारे की तरह, बहुजनों को फंसाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। वे दलितों के यहां खाना खाने का ढोंग रचते हैं। इस प्रकार के सारे झूठ-फरेबों और ढोंग-पाखण्डों को उजागर करते हुए कंवल भारती बताते हैं, दलितों-बहुजनों इनसे सावधान रहना, ये वही लोग हैं, जो शब्बीरपुर में दलितों का घर जलाते हैं, गोरक्षा के नाम पर ऊना में दलितों को पीटते हैं। वे आरएसएस के सांप्रदायिक विचारों से भी सावधान रहने की चेतावनी देते हैं। इसी विचार ने देश का विभाजन कराया था, जिसमें हिंदू-मुसलमानोंं ने एक-दूसरे का कत्लेआम किया था, लाखों लोग मारे गए थे। वे दो टूक शब्दों में कहते हैं कि ब्राह्मणवादी सरकारों से कभी कोई भलाई नहीं हो सकती है। वे सतर्क करते हुए कहते हैं कि यदि देश हिंदू राष्ट्र बन गया तो, ये ब्राह्मणवादी इस संविधान को बदलकर मनुस्मृति के आधार पर देश चलायेंगे, जिसमें शूद्रों-दलितों की क्या स्थिति होगी, इसे कोई भी समझ सकता है। यह रागिनी देश के सामने आसन्न संकटों की,सामान्य भाषा में कितनी सशक्त अभिव्यक्ति देती है, इसका अंदाजा उनके गाने के तेवर और उसमें अभिव्यक्त होने वाले भावों को देखकर ही लगाया जा सकता है। कैसे साधारण से दिखते शब्द, जब गहरी संवेदना का हिस्सा बनकर आते हैं तो, कितने प्रभावी हो जाते हैं, यह रागिनी इसका प्रमाण है। इसकी कुछ पंक्तियां देखिए –
“दलितों के घर खाना खावैं
करते खूब दिखावें
शब्बीरपुर में ये ही
दलितों के घर जलावें।”
चौथी रागिनी हिदु्त्ववादी हिंदू साहित्य के खिलाफ दलित-बहुजन रचनाकारों के संघर्षो का इतिहास बताती है। यह एक अदभुत रागिनी है, जो हिंदी साहित्य के ब्राह्मणवादी-द्विज चरित्र की पोल खोलने वाले और तथाकथिक महान हिंदी साहित्यकारों के चेहरे से ‘प्रगतिशीलता’ का नकाब हटा देने वाले दलित-बहुजन साहित्यकारों की गाथा कहती है। हिंदुत्ववादी साहित्यकारों में यदि पंत, प्रसाद और निराला के साथ नामवर सिंह भी शामिल है। कंवल भारती, जहां एक ओर छायावाद के इन महान कहे जाने वाले कवियों के माध्यम से हिंदी साहि्त्य के रचनाकारों के हिंदु्त्ववादी चरित्र को सामने लाते हैं, वही ‘नामवरों’ संबोधन सेे हिंदी के नामी-गिरामी आलोचकों के द्विज चरित्र की ओर इशारा करते हैं।
लेकिन इस रागिनी का मुख्य विषय, वे दलित-बहुजन साहित्यकार हैं, जिन्होंने न केवल हिंदी साहित्य के हिंदूवादी चरित्र को उजागर किया, साथ ही उसे ललकारा भी-
‘हिंदी चिन्तन, हिंदू चिन्तन बना हुआ था, सारा
दलित चिन्तकों ने हिंदी के चिन्तन को ललकारा
हिंदी के साहित्य में जब ब्राहमण ही राज करे थे,
पंत, निराला, जयशंकर भी मनु पर नाज करे थे’
कंवल भारती बताते हैं कि हिंदी साहि्त्यकारों के इस मनुवादी चिन्तन को सबसे पहले अछूतानन्द ‘ हरिहर’ ने बेनकाब किया। चन्द्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने इसे एक नई उंचाई पर पहुंचा दिया। ललई सिंह यादव ने अपनी रचनाओं के माध्यम से बहुजन साहित्य में बहार ला दिया। कवि बिहारी लाल ‘हरित’ ने डॉ. आंबेडकर के जीवन और विचारों पर ‘भीमायण’ नामक महाकाव्य लिख, उनके जीवन और विचारों को जन-जन तक पहुंचाया। अयोध्यानाथ ‘ब्रह्मचारी’ ने अपनी रचनाओं के माध्यम से दलित-बहुजनों की चेतना को जगाया। केवलानंद ने गांव-गांव घूमकर अपनी रचनाओं के माध्यम से मनुवाद की पोल-पट्टी खोली। मनुवादी हिंदी साहित्यकारों ने कबीर और रेैदास जैसे ब्राह्मणवाद विरोधी रचनाकारोंं को बैष्णव धर्म से जोड़ दिया था। इस संदर्भ में डॉ. धर्मवीर के काम को याद करते हुए, कंवल भारती कहते हैं कि-
‘ रेैदास, कबीर को ब्राहमणों ने बैष्णव धर्म से जोड़ दिया.
इन दुष्टों का खंडन कर मुंह, धरमवीर ने तोड़ दिया’
इसके बाद कंवल भारती तुलसी राम को याद करते हुए, उनकी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ का जिक्र करते हैं, कैसे इस रचना ने ब्राह्मणवादियों के छद्म को उजागर किया। कैसे उन्होंने दलित-बहुजनों को बुद्ध, आंबेडकर और मार्क्स की ओर मोड़ा। इसके बाद वे मलखान सिंह को उनकी तीखी कविताओं, ओमप्रकाश वाल्मिकी को उनकी आत्मकथा ‘ जूठन’ के लिए याद करते हैं। जूठन दलितों के संताप का कालजयी दस्तावेज है।
भारती दलित-बहुजन महिला रचनाकारों के अद्वितीय योगदान को नहीं भूलते हैं। वे कौशल्या वैसंत्री को उनकी महत्वपूर्ण आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ के लिए याद करते हैं, तो रजनी तिलक की हृदय विदारक कविताओं को याद करते हैं। इस क्रम में वे मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम और श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ को याद करते हुए कहते हैं कि इन लोगों ने टाप क्लास की रचनाएं लिखी हैं। फिर स्वयं कंवल भारती ने, कैसे हिंदी के मनुवादी आलोचकों के चेहरे से नकाब उतारकर, उनका असली चेहरा दिखाया इसकी चर्चा करते हैं-
‘कंवल कहें मैंने नामवरों के चेहरों से नकाब उतारा,
दलित चिंतकों ने हिंदी के चिंतन को ललकारा’
कंवल भारती की ये चारों रागिनियां एक ऐसे कलाकार की, बेचैनी अभिव्यक्तियां हैं, जो अन्याय की मुखालफत करने के लिए अभिव्यक्ति के विविध रूपों की तलाश करता रहा है। इस बार उसने गायन को चुना। इन रागिनियों को उन्होंने 18, 19, 20 सिंतबर 2017 को अपने फेसबुक वॉल पर पोस्ट किया था।
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। द मार्जिनालाज्ड प्रकाशन, इग्नू रोड, दिल्ली से संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in