अनिल वर्गीज की रिपोर्ट
12 जनवरी 2017 को हम लोग राजस्थान के बिलाड़ा के राजा बलि मंदिर में महंत के जागने का इंतजार कर रहे थे। वे मंदिर के अहाते में कंबल ओढ़े, जनवरी की दोपहर की गुनगनी धूप में निद्रारत थे। समय का उपयोग करने के लिए हमने उनके सहयोगियों से चर्चा की और फिर मंदिर परिसर को देखने चल पड़े। हमें राजा बलि के कुछ छोटे-छोटे चित्र दिखे, जिनमें से एक बहुत हल्की रोशनी वाले, बिना खिड़की के एक कमरे में था। हम उस छोटे-से कमरे में कुछ सीढियाँ चढ़कर और फिर कूद कर दाखिल हुए।
वहां हमें पत्थरों के टुकड़े नज़र आये, जो शायद प्रतीकात्मक महत्व की किसी वस्तु के अवशेष थे, जिसे इस गर्भगृह के निर्माताओं ने बनाया होगा। अब पत्थरों के उस ढेर पर नयी मूर्तियाँ विराजमान थीं। यह उस मंदिर का, सबसे पुराना हिस्सा था,जो शायद राजा बलि की स्मृति में बनाया गया होगा, । अब यह हिस्सा मंदिर का मुख्य आकर्षण नहीं है. परिसर के दूसरे छोर पर एक नया मंदिर बन चुका है, जिसमें पत्थर की एक मूर्ति हैं, जिसमें विष्णु को राजा बलि के सिर पर पैर रखे हुए दिखाया गया है। मंदिर के सौंदर्यीकरण और विस्तार का काम चल रहा था, जिसमें संगमरमर के खम्भे लगाए जाना शामिल था। यह काम सरगारा समाज नामक दलितों का एक संगठन, जो इस मंदिर का प्रबंधन करता है, करवा रहा था।
परिसर के पीछे स्थित कमरे, जिसके बगल में महंत आराम फरमा रहे थे, के पास सोने का पानी चढ़ा एक रथ था, जिस पर महंत विशेष अवसरों पर सवारी करते थे। वहीं एक त्रिशूल गड़ा था और टाटा सफारी सहित कुछ लग्जरी गाड़ियाँ और घोड़े थे। कुछ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां और चित्र भी थे। मंदिर के मुख्यद्वार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था “राजा बलि वामन अवतार धाम”। कुल मिलकर, अब यह राजा बलि का मंदिर नहीं रह गया था। इसे वामन का मंदिर बना दिया गया था, यद्यपि वहां पूजा करने वाले अधिकांश दलित ही थे और यह “एससी मंदिर” के नाम से जाना जाता था।
जोती राव फुले ने अपनी पुस्तक “गुलामगिरी” में दलित-बहुजनों या शूद्रों के लिए वामन-बलि मिथक की पुनर्व्याख्या की थी और इतिहास को मिथक से अलग करने का प्रयास किया था। फुले ने लिखा कि उदार दैत्य राजा बलि का राज्य महाराष्ट्र से उत्तरप्रदेश के अयोध्या और काशी और उसके भी आगे तक फैला हुआ था। वामन ने उनके राज्य पर कब्जा करने का प्रयास किया और हमला बोला। इस लड़ाई में राजा बलि मारे गए। फुले लिखते हैं, “बलि, विरोचन के उत्तराधिकारी और एक वीर योद्धा थे। उन्होंने अपने क्षत्रपों को लुटेरों और अराजक तत्वों से मुक्ति दिलाई और अपने राज्य क्षेत्र को सुव्यवस्थित आकार दिया। उसके बाद उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना शुरू किया। वामन, जो कि विप्रों का अगुआ था, उसे यह रास नहीं आया। उसने चुपचाप एक विशाल सेना बनाई और बलि के राज्य पर कब्ज़ा करने के इरादे से उसकी सीमा पर डेरा डाल दिया। वामन बहुत उद्यमी परन्तु लालची और अहंकारी था।”
बिलाड़ा पहुंचने से पहले बहुजन संस्कृति की तलाश में हम नाथ पंथ द्वारा संचालित गोगा की मेड़ी गए थे। वहां की समतावादी और समावेशी परंपरा ने हमें काफी प्रभावित किया। वहां ब्राह्मणवाद के कुछ पहलुओं (जैसे अन्धविश्वास) की खिलाफत और वैज्ञानिक चेतना (जैसे श्रद्धालुओं से प्लास्टिक का इस्तेमाल न करने का आग्रह) के विकास के लिए व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रयास किये जा रहे थे. मेड़ी के भोजनकक्ष में फुले, आंबेडकर और पूर्व राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन की तस्वीरें टंगी हुई थीं। वहां नाथ पंथ के महंत योगी आदित्यनाथ की तस्वीर भी थी। उस समय तक वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बने थे।
बिलाड़ा पहुंचने के साथ ही हमारी नज़र राजा बलि के मंदिर के बोर्ड पर पड़ी थी। हम यहां उस उम्मीद से आये थे कि शायद हमें बहुजन संस्कृति के कुछ चिन्ह देखने को मिलें। परन्तु यहां राजा बलि के गिने-चुने चित्रों और उस गर्भगृह, जिसके बहुजन इतिहास को मिटा दिया गया था, के सिवाय हमें कुछ नहीं मिला। महंत के जागने का लगभग एक घंटे तक इंतजार करने के बाद हमारा धैर्य जवाब दे गया और हमने उन्हें उठा दिया। वे 25-30 साल के दुबले-पतले और ऊंचे कद के नौजवान थे। उनकी हल्की मूंछे थीं और उनके बाल कंधों तक झूल रहे थे। वे कानों में बड़ी-बड़ी बालियाँ पहने हुए थे। उन्हें कोई भी कॉलेज का विद्यार्थी समझ सकता था।
नींद की खुमारी से बाहर आने में उन्हें कुछ वक्त लगा। एक चेले ने उन्हें पानी का गिलास पकडाया और फिर उन्होंने मंदिर के बारे में बताना शुरू किया। अपना नाम उन्होंने श्री श्री 1008 अर्जुनदास बताया था। उन्होंने कहा कि वह जब इस मंदिर में आये थे, तब वे बहुत छोटे थे। अपने गुरूजी के बाद वे मंदिर के कर्ताधर्ता बने। वे यहां के चौदहवें महंत थे। जब हमने बलि के सिर पर पैर रखे विष्णु के बारे में उनसे पूछा, तो उन्होंने जो कथा सुनायी, वह ब्राह्मणवादी आख्यान से तनिक भी अलग नहीं थी।
बिलाड़ा, राजस्थान के ह्रदयस्थल में, जोधपुर और जैतारन के बीच, राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित एक छोटा-सा शहर है। यहां के अधिकांश लोग ओबीसी हैं और अपेक्षाकृत समृद्ध नज़र आते हैं। आई माता का उपासक सीरवी यहां का सबसे बड़ा समुदाय है। यह बहुत ही धार्मिक शहर प्रतीत होता है। अधिकांश दुकानों के नाम वैदिक देवी-देवताओं के नाम पर हैं। यहां एक विशाल श्मशान घाट है, जिसमें अलग-अलग जातियों के लोगों के दाह संस्कार के लिए अलग-अलग स्थान निर्धारित हैं। राजा बलि का ब्राह्मणीकृत मंदिर इस शहर के मिजाज़ के अनुरूप ही है। यह ब्राह्मणीकरण शायद यहां की अर्थव्यवस्था के ग्रामीण से अर्द्धशहरी बनने की प्रक्रिया और सरगारा समाज जैसे तुलनात्मक रूप से समृद्ध जाति संगठनों के उभरने का परिणाम है।
गेल ऑमवेट अपनी किताब “अंडरस्टेंडिंग कास्टः फ्रॉम बु्द्धा टू आंबेडकर एण्ड बियांड” में लिखती हैं कि “उस पौराणिक मिथक, जिसमें ब्राह्मण बालक वामन, बलि से तीन वरदान मांगता है और फिर उसकी छाती पर पैर रखकर उसे पाताल लोक में धकेल देता है, को फुले आर्यों के छलपूर्ण आक्रमण की कथा बताते हैं. यह पुनर्व्याख्या, जनसंस्कृति से मेल खाती है। महाराष्ट्र (और दक्षिणी राज्यों, खासकर केरल के कुछ हिस्सों) में बलि को एक लोकप्रिय ‘किसान’ राजा के रूप में देखा जाता है और मराठी की एक कहावत “इडा पिडा जावो बालिका राया येवो” (दुख और पीड़ा जाए, बलि का राज आए) इसे अभिव्यक्त करती है। इसी प्रकार, ग्रामीण क्षेत्रों में कई धार्मिक मेलों के केंद्र में गैर-वैदिक देवता हैं और इनके पुजारी (प्रसिद्ध विठोबा को छोड़कर) गैर-ब्राह्मण होते हैं”।
जब हम गुजरात के रास्ते, पहाड़ी आदिवासी इलाकों को पार करते हुए, महाराष्ट्र पहुंचे तब हमें वहां के ग्रामीण क्षेत्रों के बारे में गेल ऑमवेट की बात एकदम सही जान पड़ी। केवल गूगल मैप ही म्हसोबा के 18 मंदिरों को दिखा रहा था और हम जिन पांच मंदिरों में गए, उनमें से केवल एक ही गूगल मैप पर था। फुले ने ‘गुलामगिरी’ लिखते समय इसी जनसंस्कृति को अपने निष्कर्षों का आधार बनाया था। वे लिखते हैं, “वे (बलि राजा) पददलितों के मित्र थे। उन्होंने महाराष्ट्र में दो उच्च अधिकारियों को नियुक्त किया था, जिन्हें महा-सुभा और नौ विशाल भूभागों के मुख्य न्यायाधीश के नाम से जाना जाता था। ये दोनों अधिकारी उनके विशाल राज्य के राजस्व और न्याय (कानून) विभागों को देखते थे। इनके मातहत अन्य अनेक अधिकारी थे। म्हसोबा, महा-सुभा का ही अपभ्रंश है। महा-सुभा फसलों और अन्य कृषि कार्यों की देखभाल करते थे और सभी खेतिहरों को ज़रुरत पड़ने पर, लगान आदि में छूटें देकर उन्हें प्रसन्न और संतुष्ट रखते थे। यही कारण है कि महाराष्ट्र के किसान अपने खेत के एक कोने में चटक सिंदूरी रंग की महा-सुभा की एक पत्थर की पिण्डी स्थापित करते हैं।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी डी.डी. कौशंबी अपनी पुस्तक “मिथ एंड रियलिटी” में लिखते हैं कि “भैंस के सींग वाले देवता म्हसोबा, दरअसल म्हतोबा या महिषासुर का ही एक अन्य नाम है, जिनकी हत्या देवी दुर्गा ने की थी”। गूगल मैप दो म्हतोबा मंदिर दिखाता है। दोनों पुणे क्षेत्र में -एक हिंजावाड़ी में राजीव गांधी इंफोटेक पार्क के नज़दीक और दूसरा कोथरुड के म्हतोबा नगर में। दुर्भाग्यवश, जब हम वहां से गुजर रहे थे, तब जल्दी-जल्दी में इन दो मंदिरों पर हमारा ध्यान नहीं गया।
शिर्डी से एलोरा गुफाओं की ओर जाते समय हमें वैजापुर में म्हसोबा का एक छोटा-सा मंदिर दिखा। जिस चौराहे पर यह मंदिर स्थित है, उसका नाम भी म्हसोबा था। मंदिर के पुजारी शैलेश, तेली समुदाय से हैं और मंदिर से कुछ ही मीटर की दूरी पर चाय की गुमटी चलाते हैं। वे कहते हैं कि मुगलकाल में उनके पूर्वजों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। उन्होंने यह भी बताया कि म्हसोबा के मंदिर हमेशा गांव के बाहर होते हैं और ऐसा माना जाता है कि म्हसोबा गांवों के अभिभावक अथवा संरक्षक होते हैं। सभी जातियों के लोग मंदिर में आते हैं।
मील के पत्थर के आकार के सिन्दूरी रंग में रंगे मिट्टी या पत्थर के पिण्ड और एक दीपक के अतिरिक्त इन मंदिरों में और कुछ नहीं होता और ये मंदिर, इतिहासविद रोजालिंड ओ ‘हैनलन के शब्दों में ‘स्थानीय परंपराओं’ के वाहक होते हैं। इसके उलट हैं हिन्दू धर्म की “अखिल भारतीय परंपरा” के मंदिर, जिनकी श्रेणी में अभी हाल में शिर्डी का साईंबाबा के मंदिर का प्रवेश हुआ है। शिर्डी, होटलों का शहर बन गया है। देश के कोने-कोने से लोग बसों में भरकर यहां आते हैं। यहां जो धार्मिक समृद्धि दिखाई देती है, वह साईं बाबा की सादगी से तनिक भी मेल नहीं खाती। ऐसे शिर्डी को पीछे छोड़कर, अब हम फुले के उस महाराष्ट्र में प्रवेश कर रहे थे, जो उनकी गुलामगिरी में वर्णित है। यहां हम लोगों ने एक ब्रेक लेकर एक-एक दिन एलोरा, अजन्ता और कार्ला में बिताया। पत्थरों को तराश कर बनाई गईं यहां की गुफाएं अचंभित करने वाली हैं। हमें यहाँ बौद्ध धर्म, जो कि बहुजनों के इतिहास का एक महत्वपूर्ण आयाम है, के क्रमविकास की एक झलक देखने को मिली। अजंता से लौटते समय, औरंगाबाद के नज़दीक हमें म्हसोबा का एक स्थान दिखा, जहां सिंदूरी रंग का बेलनाकार पिण्ड था और फिर एक महिशाश्वोर मंदिर, जिसमें सिन्दूरी रंग में रंगीं एक विशाल चट्टान थी। दिलचस्प बात यह थी दूसरे मंदिर के पुजारी वन्दारी नामक एक घुमंतु कबीले से थे। सभी जातियों के लोग इस मंदिर में आते हैं और इनमें दूर-दूर से आने वाले लोग भी शामिल हैं।
मुंबई में हम बिहार के एक पत्रकार मित्र अविनाश दास के मेहमान थे। हमने उनके घर रात बिताई। उन्होंने अभी-अभी अपनी पहली फिल्म ‘आरा वाली अनारकली’ पूरी की थी और मुम्बई की फिल्मी दुनिया, उन्हें जानना शुरू कर रही थी। अगली सुबह हमें दलित पैंथर के पूर्व सदस्य जे.वी. पवार के नजरिए से मुम्बई के इतिहास को समझने का मौका मिला। उन्होंने हमें बताया कि किस प्रकार वे मुंबई के एक रेडलाइट क्षेत्र में पले-बढ़े और कैसे उन्होंने 1970 के दशक में जातिगत अत्याचारों के खिलाफ अभियान का नेतृत्व किया।
हमारा अगला पड़ाव था फुलेवाड़ा, जहां रहते हुए फुले दंपत्ति ने ब्राह्मणवाद के चंगुल से लोगों को मुक्त करवाने के लिए अथक प्रयास किये। वहां हमने सुबह-सुबह उनके घर, जिसे अब संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है, में लगी तस्वीरों को देखा। ये तस्वीरें इस महान समाजसुधारक दंपत्ति को जीवंत करने की कोशिश करतीं तो दिखतीं हैं परन्तु सफल नहीं होतीं। शु्क्र है कि उनके जीवन, लोगों के प्रति उनकी हमदर्दी और संवेदना की कहानी सुनाने के लिए, उनका क्रान्तिकारी लेखन मौजूद हैं। फुले के घर से म्हसोबा ज्यादा दूर नहीं हैं। एक पेड़ के नीचे स्थापित एक छोटे से पिंड के पास एक दंपत्ति फूलों का माला बना रहे थे। पिण्ड के पास ही मारुती (हनुमान), शंकर और शनि की छोटी-छोटी मू्र्तियां भी थीं। उस दंपत्ति ने हमें बताया कि वहां एक मंदिर था, जिसे नगरपालिका ने सड़क बनाने के लिए ढाह दिया था। संभवतः वह म्हसोबा का मंदिर रहा होगा।
जब हमने म्हसोबा के ठीक बगल में मारुती (हनुमान) की मूर्ति देखी तब हमें जोती राव फुले के नाटक ‘तृतीय रत्न’ की याद आई, जिसमें एक किसान, जो मृर्तिपूजा को घृणास्पद मानता है, गुस्से से फूट पड़ता है:
“मैं अब समझ पाया हूँ कि यह पत्थर (मारुती) पूजा के योग्य नहीं है. यदि मैं इसे चकनाचूर कर मिट्टी में मिला कर इससे रंगोली बना दूं तो शायद मेरे जैसा कोई अन्य भोला-भला व्यक्ति ब्राहणवाद के झांसे में नहीं आयेगा और कर्ज में नहीं डूबेगा”।
फुलेवाड़ा के ठीक बाहर, सड़क किनारे म्हसोबा का एक और स्थान था। ऐसे कुछ ही लोग हैं जिन्होंने फुले दंपत्ति के बारे में इतना गहरा अध्ययन किया हो, जितना कि फुले के गांव से 200 किलोमीटर दूर कसेगाँव में रहने वाले इस दंपत्ति ने किया है। गेल ऑमवेट और भरत पतंकर, जो एक पुराने और साधारण घर में रहते हैं, ने फुले और आंबेडकर से दृष्टि लेकर और उसमें अपना परिप्रेक्ष्य जोड़कर, भारतीय समाज और संस्कृति पर विपुल लेखन किया है। सेवानिवृत्ति की उम्र कब की पार कर चुके पतंकर, अब भी गांव वालों को उनका वाजिब हक दिलवाने के लिए लड़ रहे हैं। उदाहरण के लिए, उन कम्पनियों से “हवा का किराया”, जिन्होंने आसपास के गांवों में बिजली बनाने के लिए पवन चक्कियां स्थापित की हैं। पतंकर जब यह सब कर रहे होते हैं तब उनके भाई, जो उनके ही साथ रहते हैं, उनकी खेती की देखभाल करते हैं और प्रतिदिन शाम को सिंचाई करने खेत निकल जाते हैं। दरअसल, वे ऐसे क्षेत्र में रहते हैं, जहां पानी की कमी है और उनके रसोईघर में एक के ऊपर जमे पानी से भरे स्टील के बरतन इसके गवाह हैं। जब हममे से एक ने अक्टूबर, 2014 और फरवरी 2016 में दिल्ली में महिषासुर शहादत दिवस के मुद्दे पर मचे बवाल के बारे में चर्चा छेड़ी तो पतंकर ने बताया कि महाराष्ट्र के लगभग हर गांव के बाहर म्हसोबा का स्थान है।
इसके बाद हम ऐसे ही एक गांव हिटनी के लिए निकले, जो महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर है। लेकिन इसके पहले हमने शाहूजी महाराज के कोल्हापुर में रात बिताई।
अगले दिन दोपहर हम लोग हिटनी पहुंचे। यह एक मनोरम स्थल था। राजमार्ग नीचे घाटी की ओर जा रहा था। जहां तक आँखें देख सकती थीं, एक सपाट हरा-भरा मैदान दिखाई दे रहा था। इसी विशाल मैदान में ही कहीं हिटनी था। एक व्यक्ति, हमें वह पहुँचाया, जिसने हमसे लिफ्ट ली।
मुंबई और हैदराबाद से तक लोग यहां म्हसोबा से अपनी मुरादें मांगने आते हैं और उनके पूरा होने के बाद आभार स्वरूप प्रसाद चढ़ाने भी। प्रवेशद्वार से घुसते ही एक बरामदा था, जहां एक तरफ शंकु के आकार का म्हसोबा का प्रतीक सिंदूरी रंग में रंगा एक पत्थर था। वह एक झरने पर विराजमान था, जो कभी सूखता नहीं है। म्हसोबा के बगल में एक पुजारी बैठा था, जो रेलिंग के बाहर बैठे श्रद्धालुओं की ओर से प्रसाद चढ़ा रहा था। प्रांगण के अंदर सिंदूरी रंग की ही एक दूसरी पिंडी थी, जिसे ब्रह्मदेव माना जाता है। सन 2004 में इस प्रांगण के प्रवेशद्वार पर कंक्रीट का एक नया चौखट बनाया गया, जिसमें विष्णु की तस्वीर उकेरी गयी है।
क्या यह इस स्थान पर ब्राह्मणवाद की आहट का प्रतीक था?
हम इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकते थे।
हम अब और आगे मैसूर की ओर बढ़े, जहां पहाड़ी के शीर्ष पर महिषा की एक मूर्ति है। यहां प्रोफेसर महेश चन्द्र गुरू और उनकी तरह सोचने वाले अन्य अध्यापक और विद्यार्थी खुलकर ब्राह्म्णवाद का विरोध करते हैं। हमने उनके अनुकरणीय साहस के बारे में सुन रखा था। राम पर टिप्पणी करने के कारण उनकी गिरफ्तारी की खबरें हमने पढ़ी थीं परन्तु हम उनसे व्यक्तिगत तौर पर मिले नहीं थे। अब हम उनकी बगल में बैठ कर उनके अनुभव साझा करना चाहते थे। यह हमारे मिशन में शामिल था। जिसके तहत अपनी यात्रा के अगले चरण में हम गोवा जाने के क्रम में पश्चिमी घाट और म्हाडी वन्य प्राणी अभ्यारण्य से होते हुए समुद्र तट के किनारे-किनारे कुर्ग जिले की मेडीकेरी की पहाड़ियों को पार कर मैसूर पहुंचे।
कर्नाटक
प्रोफेसर गुरू एक दलित हैं और जानेमाने परिवार से हैं परन्तु ब्राह्मणवाद के उनके कटु विरोध को उनके रिश्तेदार भी पचा नहीं पाए और उन्होंने गुरु से दूरियां बना लीं। परन्तु इससे न तो प्रोफेसर गुरू का समतावादी समाज की स्थापना का संघर्ष कमज़ोर पड़ा और ना ही उन्होंने ऐसे समाज के निर्माण की आशा खोई। वे अपने विद्यार्थियों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। उनके विद्यार्थी उन्हें ‘अच्छे दिल’ का आदमी बताते हैं। सन 2016 में राम पर टिप्पणी करने के लिए जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था, तब उन्हें भारी जनसमर्थन मिला था। उन्होंने कहा था, “रामायण के राम ने मानवाधिकारों का उल्लंघन किया। उन्होंने सीता की वफ़ादारी पर संदेह किया और उन्हें प्रताड़ित किया। मैं इसे मानवाधिकारों का उल्लंघन मानता हूं।” वे कहते हैं कि “245 ईसा पूर्व में बौद्ध सम्राट अशोक ने बौद्ध भिक्षु महादेव को कर्नाटक के ‘महिषमंडल’ भेजा। बाद में महिष नामक राजा ने महिषमंडल राज्य की स्थापना की। महिष के शासन की ऐतिहासिकता के कई प्रमाण हैं लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नही है कि चामुंडेश्वरी देवी (दुर्गा) ने महिषा की हत्या की थी। ब्राह्मणवादी उन्हें ‘असुर’ बताते हैं।”
प्रोफेसर गुरू ने हमें मैसूर से 60 किलोमीटर दूर एक दलित गांव होसाविडू हुंडी के बारे में बताया, जहां एक स्कूल परिसर में स्थित राम मंदिर को बौद्ध विहार में बदल दिया गया है। वहां के निवासियों ने राम की मूर्ति की जगह बु्द्ध की प्रतिमा और आंबेडकर की तस्वीर लगा दी है। इसने एक आंदोलन का स्वरूप ले लिया है और अन्य गांवों में भी यही हो रहा है। हम इस गांव में भी गये और स्कूल में बने मंदिर को अपनी आंखों से देखा। लेकिन इससे पहले चामुंडी की पहाड़ी पर चढ़ कर महिषा की प्रतिमा के समक्ष गर्व के साथ फोटो खिंचवाई।
[फारवर्ड प्रेस टीम की भारत-यात्रा वृतांत का अंश। दिल्ली से कन्याकुमारी तक की इस यात्रा में मेरे अतिरिक्त प्रमोद रंजन, और समाजशास्त्री साथी अनिल कुमार थे। 5 जनवरी- 15 फरवरी, 2017 के बीच की इस यात्रा में हमने 9 राज्यों और एक केंद्र शासित राज्य (हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, दमन, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तामिलनाडु, केरल) में लगभग 12000 किलोमीटर का सफर तय किया]
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