1870 के दशक के शुरुआती वर्षों में वंदना के रूप में लिखे गए “वन्दे मातरम” को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृति मिली परन्तु…इसमें प्रयुक्त छवियों, शब्दावली और प्रछन्न मूर्तिपूजा के कारण, यह कई तरह के विवादों में फंस गया[1]। सन 1881 में बंकिमचन्द्र चटर्जी ने अपनी पुस्तक “आनंदमठ” में इसे सम्मिलित किया। बंकिमचन्द्र ने भारत माता को एक पवित्र प्रतीक के रूप में चित्रित किया, जो राष्ट्र की छवि थी और दैवीय शक्तियों से युक्त थी[2]। राष्ट्र-राज्य को देवी और मां के रूप में देखने पर जोर देते हुए सुमथि रामास्वामी ने रवीन्द्रनाथ टैगोर को उद्धृत करते हुए कहा, “क्या मैंने तुम्हें नहीं बताया कि तुममें (महिलाओं), मैं हमारे देश की शक्ति देखता हूं?”[3]सन 1915-1916 में, जब रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ये पंक्तियाँ लिखीं, तब तक देशप्रेमी भारतवासियों के बीच भारत को एक महिला, एक देवी और भारत माता के रूप में देखना आम हो गया था।
राष्ट्र के संबंध में आंबेडकर की सोच
अपने समकालीनों के विपरीत, आंबेडकर ने भारत माता की अवधारणा को ख़ारिज किया। उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ का विचार दिया, जो टुकड़ों में बंटे इस देश के यथार्थ को प्रतिबिंबित करता था। भारत, विभिन्न समुदायों और पहचानों का देश था लेकिन उन सभी को ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मकता का वर्चस्व मजबूरी में स्वीकार करना पड़ता था। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मकता ने सामाजिक और धार्मिक जीवन को ही नहीं, वरन राजनीति को भी प्रभावित किया। तिलक और उनके जैसे अन्य लोगों ने राष्ट्र को एक करने के लिए ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्दे मातरम’ जैसे नारों का उद्घोष किया। इन राष्ट्रवादियों को ब्राह्मणवाद से कोई तकलीफ नहीं थी और वे साम्राज्यवादी सत्ता द्वारा महिलाओं की स्थिति में सुधार के हर प्रयास का पुरजोर विरोध करते थे। तिलक ने भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर “ऐज ऑफ़ कंसेंट” (वह आयु, जिसके बाद किसी व्यक्ति द्वारा किसी लड़की से यौन संबंध स्थापित करने की स्वीकृति को कानूनी वैधता प्राप्त होती है) अधिनियम का कड़ा विरोध किया। इस प्रकार, राजनीति के क्षेत्र में भी लैंगिक श्रेणीक्रम का बोलबाला था। महिलाओं के हित में किए जा रहे किसी भी सुधार को भारत की समृद्ध संस्कृति पर हमला बताकर, उसका कड़ा विरोध किया जाता था।
इस तरह, देश में हिंदू सांस्कृतिक और धार्मिक वर्चस्व तो कायम रहा, जाति व्यवस्था भी कायम रही। हालांकि, अंग्रेजों के आने के बाद, भारतीय समाज को मजबूर होकर राष्ट्र और नागरिकता जैसी अवधारणाओं को स्वीकार करना पड़ा। सर राबर्ट होप रिज़ले के अनुसार, “इतिहास यह मानने का कोई कारण नहीं देता कि स्याह और पतित परिस्थितियों में राष्ट्रवाद का अलख जगाया जा सकता है। जो समाज अपनी नारियों को मूलतः बौद्धिक दृष्टि से शून्य और नैतिक दृष्टि से अकर्मण्य मानता है वह साहस, निष्ठा और आत्मोत्सर्ग जैसे गुणों, जो राष्ट्रनिर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं, के विकास की आशा नहीं कर सकता।”[4]
राष्ट्र के विचार का सार प्रस्तुत करते हुए पार्थ चटर्जी ने लिखा, “राष्ट्रवादी विमर्श अपने स्वरूप में ऐतिहासिक है परन्तु मूलतः वह कुछ अवधारणाओं का बचाव करता है। इसलिए, राष्ट्रवादियों के लिए राष्ट्र की स्वायत्तता बनाए रखना मुश्किल है”[5]
राष्ट्र का विचार कैसे उभरा, इसका अध्ययन करते हुए, डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्रीयता के एक सैद्धांतिक ढ़ांचे का विकास किया। उन्होंने भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका पर गहन मनन किया और इस पर भी कि कैसे उनके दमन और निर्णय प्रक्रिया से उनको बाहर के परिणामस्वरूप अंतर्विवाह, बालविवाह, कन्या भ्रूणहत्या और सती जैसी घातक प्रथाओं का जन्म हुुआ। इन बुराईयों के सामाजिक ही नहीं बल्कि राजनैतिक दुष्परिणाम भी हुए और देश की लगभग आधी आबादी के लिए राजनीति में प्रवेश निषेध हो गया।
आंबेडकर ने कहना था कि, “महिला जिस तरह से राष्ट्रवाद की जन्मदात्री और पोषक रही है, उस तरह पुरुष कभी नहीं हो सकते। राष्ट्रवाद को गति देने में महिलाओं की भूमिका को पर्याप्त तवज्जो नहीं दी गयी[6]। आंबेडकर के लिए राष्ट्र सिर्फ राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक विचार भी था। उन्होंने लिखा, “सामाजिक एकजुटता के बगैर राजनीतिक एकता हासिल करना मुश्किल होगा। अगर वह हासिल कर भी ली जाती है तो उसका बच पाना उतना ही अनिश्चित होगा, जितना कि गर्मी में लगाये गए एक छोटे-से पौधे का, जिसे प्रतिकूल दुनिया की हवा का एक झोंका कभी भी उखाड़ देगा। महज राजनीतिक एकता से भारत एक राज्य बन सकता है लेकिन राज्य होने का मतलब राष्ट्र होना नहीं है और जो राज्य, राष्ट्र नहीं होता, उसका अस्तित्व बने रहने की संभावना कम ही होती है। यह विशेष तौर पर आज सही है जब सब जगह राष्ट्रवाद – जो आधुनिक काल की सबसे गतिशील शक्ति है – मिश्रित राज्यों को नष्ट कर रहा है। मिश्रित और साझा संस्कृति और नागरिकों वाले राज्यों को बाहरी आक्रमण से उतना खतरा नहीं है, जितना कि जबरन लादे जाने वाले, दमित और खंडित राष्ट्रीयताओं के पुनरुत्थान से।”[7]
महिलाओं को कैसे पिंजरे में बंद कर दिया गया? उनका दमन कैसे किया गया? आंबेडकर कहते हैं कि “महिलाओं की तुलना में पुरुष हमेशा से अधिक शक्तिसंपन्न रहे हैं। हर समूह में उनका बोलबाला रहा है और दोनों लिंगों में से हमेशा उनकी अधिक प्रतिष्ठा रही है। महिलाओं पर पुरुषों की इसी उच्चता के चलते, हमेशा पुरुषों की इच्छाओं को तवज्जो दी जाती रही। दूसरी ओर, महिलाएं हमेशा हर तरह के अन्यायपूर्ण धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंधों का शिकार बनती रहीं।”[8] उनका मानना था कि, “भारत में पितृसत्तामकता की शुरुआत पुरुषों द्वारा अपने परिवार की महिलाओं को नियंत्रित करने से हुई होगी, परन्तु कालांतर में उसने जाति व्यवस्था को पुष्ट और चिरस्थायी बनाया। अब पितृसत्तामकता को बनाये रखने के लिए जाति व्यवस्था का बना रहना ज़रूरी बन गया है”।[9] जातिगत और लैंगिक सामाजिक संबंधों को बल प्रयोग से जस का तस बनाए रखा गया। इस बल के कई आयाम हो सकते हैं – वह प्रत्यक्ष और सीधे आदेशों के रूप में भी हो सकता है और इस अर्थ में भी कि वह महिलाओं को उनके लिए निर्धारित दायरे के बाहर के मुद्दों को उठाने के अनुमति ही न दे।[10]
उदहारण के लिए, गांधी ने सत्याग्रह और असहयोग आन्दोलन जैसे कई राजनीतिक और राष्ट्रीय आंदोलनों में महिलाओं को शामिल कर उनके लिए सार्वजनिक जीवन में स्थान बनाया। गांधी ने महिलाओं की स्थिति पर बहुत कुछ बोला-लिखा। उन्होंने पर्दा प्रथा जैसे उन हिन्दू रीति-रिवाजों पर सवाल उठाए, जिनकी वजह से महिलाएं राष्ट्रीय जागरण का हिस्सा नहीं बन पा रही थीं। गांधी ने यह स्थापित किया कि महिलाएं, राष्ट्रीय आंदोलन में विशिष्ट और अहम भूमिका निभा सकती हैं। यह एक धीमी प्रक्रिया थी, जिसमें महिलाओं को चरखे के माध्यम से राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ा गया। इस प्रक्रिया में गाँधी कभी एक कदम आगे चलते तो कभी एक कदम पीछे। सन 1920 आते-आते इस संबंध में उनके विचारों ने ठोस रूप ले लिया।[11] हालांकि गांधी, पुरुष-महिला के बीच भेद करते रहे। वे वर्णाश्रम धर्म के समर्थक थे, जिसने सती, दहेज़, बालविवाह आदि जैसी कुप्रथाओं को संरक्षण और प्रोत्साहन दिया। उनके लिए महिलाओं की राष्ट्रीय जागरण में भागीदारी का अर्थ था घर में चरखे पर सूत कातना[12]। इस तरह, जिन लोगों ने महिलाओं को राष्ट्रीय आन्दोलन का हिस्सा बनाया, उन्होंने भी उनके लिए लक्ष्मण रेखाएं निर्धारित कर दीं और उन्हें उनके घर की चहारदीवारी में कैद कर दिया।
इसलिए सफ़ेद साड़ी पहने, हाथों में झंडा लिए भारत माता को आदर्श महिला के रूप में परिभाषित करना एक प्रहसन है क्योंकि, जैसे कि आंबेडकर मानते थे, जब तक महिलाओं को एक व्यक्ति के रूप में उनके अधिकार और सुरक्षा नहीं मिलेगी तब तक भारत लोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं बन सकेगा। उनके अनुसार, राज्य समाजवाद, देश में सामाजिक-आर्थिक समानता और एकता के लिए अनिवार्य है। उनका मानना था कि व्यक्तियों का कोई समूह राष्ट्र तभी बन सकता है जब वह स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे और न्याय के आदर्शों की स्थापना के लिए संघर्ष करे। सभी नागरिकों को यह महसूस होना चाहिए कि उन्हें राष्ट्र की संपत्ति, सत्ता और अवसरों में समान हिस्सेदारी हासिल है। उनको ऐसा नहीं लगना चाहिए कि दूसरे लोग उन्हें सामाजिक लाभों से वंचित कर रहे हैं। इस तरह का समाज ही विभिन्न भाषाओं, धर्म और आदतों के होते हुए भी एक राष्ट्र कर निर्माण कर सकता है।[13]”
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि “इस भूमि को मातृभूमि या पितृभूमि कहने या हिन्दू हिन्दू-बन्धु बंधू के नारों से कुछ नहीं होगा। भारत को राष्ट्र बनाने के लिए उसके सामाजिक ढ़ांचे और सामाजिक मूल्यों में बदलाव जरूरी है[14]. आंबेडकर ने लोगों को अंधभक्ति के खिलाफ चेताया। उन्होंने कहा कि राजनैतिक नायकों की भक्ति की बजाय लोगों की सेवा बेहतर है। उनका विचार था कि भक्ति, आत्मा की मुक्ति का साधन तो हो सकती है लेकिन राजनैतिक नायकों की भक्ति, पतन और अंततः तानाशाही का मार्ग प्रशस्त करती है। उनका तर्क था कि राजनैतिक नायकों की भक्ति, सार्वजनिक हित की भावना को मार देती है क्योंकि ये नायक केवल उनके भक्तों की चिंता करते हैं और मानवता के हितों की उपेक्षा। उन्होंने भारत की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक समस्याओं का हल लोकतांत्रिक मानवतावादी तरीकों से करने का प्रयास किया। हालांकि वे उच्च शिक्षित थे और पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित थे, फिर भी उन्होंने हमारी संस्कृति और सभ्यता के अच्छे तत्वों का संरक्षण करने हुए सांस्कृतिक पुनर्जागरण पर जोर दिया[15]।
संविधान निर्माण के दौरान उन्होंने लोकतंत्र को बदलाव के एक उपकरण के रूप में देखा। संविधान केवल सरकार के लिए नहीं था बल्कि वह समाज के लिए भी था और आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों को प्रभावित करता था। संविधान ने एक व्यक्ति, एक मत के सिद्धांत को अपनाया और व्यक्ति के रूप में महिलाओं को समानता और स्वतंत्रता का अधिकार दिया। इस तरह, आंबेडकर ने महिलाओं की पहचान को स्वायत्त और पुरुषों के समकक्ष दर्जा दिया। वे एक प्रगतिशील और क्रान्तिकारी सोच वाले व्यक्ति थे, जिनके आसपास मिथक, परम्पराएं और धार्मिक मान्यताएं, तार्किकता पर भारी पड़ रहीं थीं। ऐसी परिस्थिति में आंबेडकर ने राष्ट्र निर्माण के प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल करने के लिए तीन अनूठे विचार दिए।
पहला, उन्होंने मांग की कि महिलाओं को सिर्फ राजनीति में ही प्रतिनिधित्व न मिले,इसके साथ ही विकास, संरक्षण और प्रजनन के मामलों में भी उन्हें स्वायत्तता मिलनी चाहिए। चूंकि उन्हें यह संदेह था भारतीय जनमत आगे बढ़कर महिलाओं को राजनैतिक प्रतिनिधित्व देगा, इसलिए उन्होंने इसके लिए संवैधानिक प्रावधान किये। इससे यह सुनिश्चित हो सका कि वे महिलाएं ऐसे मुद्दे भी उठा सकें, जिनका उनसे सीधा सम्बन्ध नहीं हैं। तीसरे, उन्होंने विकास की प्रक्रिया का लाभ महिलाओं तक पहुंचाने के लिए नीतियों के निर्माण की बात भी कही।
इस तरह, राष्ट्र का उनका विचार समावेशी और महिला अधिकारों की रक्षा करने वाला था। बहिष्कृत भारत के बाद उन्होंने प्रबुद्ध भारत की बात की। उनका मानना था कि एक मज़बूत भारत तभी बन सकता है जब उसके विविधवर्णी समाज में समन्वय और सहयोग हो। राष्ट्र के सम्बन्ध में उनके विचार तार्किकता, समानता, भाईचारे और स्वतंत्रता पर आधारित थे।
आंबेडकर के विचार में एक सशक्त राष्ट्र का केंद्रबिंदु है व्यक्ति की विशिष्ट पहचान – फिर चाहे वह व्यक्ति महिला हो या फिर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य। व्यक्ति की विशिष्ट पहचान हमेशा विकसित और परिवर्तित होती रहती है, यह पहचान वासस्थान, समुदाय, राष्ट्रीयता और मानवता से जुड़ी रहती है। सामाजिक और राजनीतिक सोच, जो पहचान (यहा विशिष्टतः महिलाओं से संबधित) से जुड़ी होती है, उसके अंदर वास्तविकता के हिसाब से ढल जाने और उसके जायज ठहराने की क्षमता होती है। उदाहरण के लिए, स्वतंत्रता की अवधारणा तभी महत्वपूर्ण है जब राष्ट्र का विचार सामाजिक यथार्थ के अनुरूप और उदार हो। आंबेडकर के ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ के नारे का मकसद न सिर्फ जनता को नैतिकता का बोध कराना था बल्कि भारतीय महिलाओं को अपनी बात कहने और राष्ट्र निर्माण में सक्रिय योगदान देने के लिए शक्ति संपन्न बनाना भी था। कोई राष्ट्र तभी प्रगति कर सकता है, जब उसकी महिलाएं भी प्रगति करें।
संदर्भ :
[1] सब्यसाची भट्टाचार्य, “वन्दे मातरम: द बायोग्राफी ऑफ़ ए सोंग” (2013); प्राइमस बुक्स, नयी दिल्ली, पृष्ठ 13
[2] गीती सेन, “आइकोनाइसिंग द नेशन: पॉलिटिकल एजेंडास” इंडिया इंटरनेशनल सेंटर क्वार्टरली, खंड 29, नंबर 3/4, इंडिया: ए नेशनल कल्चर? (विंटर 2002 – स्प्रिंग 2003) पृष्ठ 158
[3] सुमति रामास्वामी, “मैप्स एंड मदर गॉडेसस इन मॉडर्न इंडिया”, इमागो मुंडी, खंड 53 (2001), पृष्ठ 106
[4] सर हर्बर्ट हॉप रिसले, “द पीपल ऑफ़ इंडिया” (1969), डब्ल्यू क्रूक (संपादित), ओरिएंटल बुक्स रीप्रिंट कारपोरेशन, दिल्ली, पृष्ठ 171
[5] पार्थ चटर्जी, “नेश्नलिस्ट थॉट कोलोनियल वर्ल्ड: ए डेरीवेटिव डिस्कोर्स” (1986), ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, पृष्ठ 9
[6] बी आर आंबेडकर, “पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ़ इंडिया”, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेस, खंड 8, गवर्नमेंट ऑफ़ महाराष्ट्र, (1990), बंबई, पृष्ठ 243
[7] उपरोक्त, पृष्ठ 193-194
[8] बी आर आंबेडकर, “कास्ट इन इंडिया: देयर जेनेसिस, मैकेनिज्म एंड डेवलेपमेंट” (2013), क्रिटिकल क्वेस्ट, नई दिल्ली। यह लेख मूलतः कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क में डॉ एए गोल्डनवाईज़र द्वारा आयोजित मानवविज्ञान संगोष्ठी में 9 मई, 1916 को पढ़ा गया शोधप्रबंध है।
[9] वंदना सोनलकर, “एन एजेंडा फॉर जेंडर पॉलिटिक्स”, इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, खंड 34, नंबर 1/2 (2-15 जनवरी, 1999), पृष्ठ 24
[10] वसंत कन्नाबिरन एवं कल्पना कन्नाबिरन, “कास्ट एंड जेंडर: अंडरस्टैंडिंग डायनामिक्स ऑफ़ पॉवर एंड वायलेंस”, इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, सितंबर, (1991), पृष्ठ 253
[11] सुजाता पटेल, “कंस्ट्रक्शन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ वुमन इन गाँधी”, इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, खंड 23, नंबर 8 (फरवरी 20, 1988), पृष्ठ 378
[12] उपरोक्त, पृष्ठ 378
[13] डॉ. प्रदीप अग्लावे, “डॉ. आंबेडकर ऑन नेशन एंड नेशनलिज्म”, डॉ. आंबेडकर चेयर, राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज यूनिवर्सिटी, विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित (2014), नागपुर, पृष्ठ 12
[14] उपरोक्त, पृष्ठ 15
[15] कांस्टीटूएंट असेंबली डिबेट्स (2003), खंड 11, लोकसभा सचिवालय द्वारा पुनर्मुद्रित, नई दिल्ली, पृष्ठ 12
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