डॉ. भीमराव आंबेडकर को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में उनके लेखन का अहम योगदान है। एक सामाजिक कार्यकर्ता और दलित समाज के महानायक के रूप में तो उस समय सिर्फ दलित समाज ही डॉ. आंबेडकर की भूमिका को देख पा रहा था, लेकिन एक सजग चिंतक के रूप में वे अपने लेखों, पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से दुनियाभर में ख्यात हो चुके थे। उनकी अपनी लिखी किताबों में ‘रुपये की समस्या’ (द प्रॉब्लम ऑफ रुपी), ‘ब्रिटिश भारत में प्रांतीय अर्थव्यवस्था’ (प्रॉविंशियल फायनेंस इन ब्रिटिश इण्डिया), ‘जाति प्रथा का उन्मूलन’ (एनिहिलेशन आफ कास्ट), ‘शूद्र कौन थे’ (हू वर शूद्राज) आदि शामिल हैं। शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार द्वारा डा. आंबेडकर के लेखन और भाषणों को संकलित कर निम्नलिखित 21 भागों में प्रकाशित किया गया है।
हिंदी में भी उनकी कुछ किताबें आई हैं- ‘अछूत कौन और कैसे’, ‘शूद्रों की खोज’, ‘बुद्ध या कार्ल मार्क्स’, ‘धर्मान्तरण क्यों’, ‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’, ‘हिन्दू धर्म की रिडल’, ‘रानाडे गांधी और जिन्ना’, ‘बुद्ध और उनका धम्म’, ‘जातिभेद का उच्छेद’, ‘ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन और वित्त‘, ‘प्राचीन भारतीय वाणिज्य’ आदि।
जहां तक डॉ. आंबेडकर के शिक्षा संबंधी लेखन का सवाल है, उन्होंने बहिष्कृत हितकारिणी सभा की ओर से भारतीय सांविधिक आयोग को बंबई प्रेसीडेंसी में दलित वर्ग की शिक्षा की स्थिति के बारे में एक वक्तव्य दिया जो डॉ. आंबेडकर- संपूर्ण वांड्मय (भाग-4) में संकलित है। इसके अलावा डॉ. आंबेडकर- संपूर्ण वांड्मय (भाग-3) में उनका लेख शिक्षा के लिए अनुदान संकलित है। बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल के समक्ष 12 मार्च 1927 को दिए अपने इस वक्तव्य में डा. आंबेडकर ने शिक्षा के लिए सरकार का अनुदान बढाने की वकालत की और वंचित तबकों के लिए सस्ती शिक्षा का पक्ष लिया। डॉ. आंबेडकर- संपूर्ण वांड्मय (भाग-19) में अनुसूचित जातियों की बाकी शिकायतों के साथ शैक्षणिक शिकायतों का भी उल्लेख किया गया है जिन्हें दो भागों में बांटा गया है- उच्च शिक्षा के लिए सहायता का अभाव और तकनीकी प्रशिक्षण के लिए सुविधाओं का अभाव।
डॉ. आंबेडकर का दलितों की शिक्षा हेतु संघर्ष
आम तौर पर आजादी की बात करते समय लोग दलितों की आजादी की बात भूल जाते हैं। लेकिन आज जब हम फिर से आजादी का जश्न मनाने जा रहे हैं तो इस बार दलितों की आजादी की बात भी होगी। यह एक ऐसा तबका था, जो दोहरी गुलामी का शिकार था। जिसे आजादी दिलाई डॉ. आंबेडकर ने। 12 नवंबर 1930 को गांधी जी के नागरिक अवज्ञा आंदोलन से घबराई अंग्रेज सरकार ने लंदन में गोलमेज सम्मेलन बुलाया। लेकिन इस सम्मेलन में शामिल एक युवा बैरिस्टर ने गांधी जी को पूरे भारत का नेता मानने से इंकार कर दिया। उनका नाम था डॉ. बी. आर. आंबेडकर। उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस के ज्यादातर नेता भी ऊंच-नीच में विश्वास रखते हैं। वे दलितों को संवैधानिक प्रक्रिया में भाग नहीं लेने देंगे इसलिए जरूरी है कि ऐसे पृथक निर्वाचक मंडल बनाए जाएं जहां दलित उम्मीदवार हों और जिन्हें सिर्फ दलित चुनें।
16 अगस्त 1932 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मेकडॉनल्ड ने कम्युनल अवार्ड यानी सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा कर दी। इसके तहत दलितों को हिंदुओं से अलग मानकर अलग निर्वाचन मंडल का प्रावधान किया गया था। गांधी जी तब पूना की जेल में थे। ये घोषणा उन्हें दलितों को हिंदुओं से अलग करने का सरकारी षड्यंत्र लगा। 20 सितंबर 1932 को गांधी जी ने कम्युनल अवॉर्ड के खिलाफ आमरण अनशन शुरू कर दिया। देश भर में हाहाकार मच गया। डॉ. आंबेडकर से गांधी जी की जान बचाने की गुहार लगाई गई। हर तरफ से पड़ रहे दबाव को देखते हुए डॉ. आंबेडकर समझौते के लिए राजी हुए। लेकिन शर्त थी कि दलितों को हर स्तर पर आरक्षण दिया जाए। गांधी जी मान गए। 26 दिसंबर को उन्होंने अनशन तोड़ दिया।
डॉ. आंबेडकर से पहले 19वीं सदी के आखिरी दौर में महाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले जैसे समाजसुधारक ‘गुलामगीरी’ जैसी किताब लिखकर ब्राह्मणवादी कर्मकांडों पर कड़ा प्रहार कर चुके थे। उधर, दक्षिण में नारायाण गुरु और पेरियार भी वर्णव्यवस्था के खिलाफ बिगुल बजा रहे थे। डॉ. आंबेडकर के महत्व को समझते हुए उन्हें देश का संविधान लिखने की जिम्मेदारी सौंपी गई। वे देश के पहले कानून मंत्री भी बनाए गए। डॉ. आंबेडकर के विचार, आजादी के हर बढ़ते साल के साथ ज्यादा प्रासंगिक होते गए हैं
आजादी से पहले भी वे एक कानूनविद के रूप में जाने जाते थे। बांबे लेजिस्लेटिव काउंसिल में एक कानूनविद की हैसियत से उन्होंने 12 मार्च 1927 को भारतीय समाज में शिक्षा के बारे में कुछ जरूरी सवाल उठाए। यह उनके लिए बेहद चिंता का विषय था कि हमारे देश में शिक्षा के मामले में कुछ खास प्रगति नहीं की है। उस समय भारत सरकार ने शिक्षा के बारे में जो रिपोर्ट पेश की, उसके मुताबिक देश के स्कूल वाली उम्र के लडकों को 40 साल और लडकियों को 300 साल लगेंगे। इस पर डा. आंबेडकर ने सुझाव देते हुए कहा कि ”हमारे पास इस (बॉम्बे) प्रेसिडेंसी में दो विभाग हैं, जो मेरे अनुसार एक-दूसरे से उल्टा काम कर रहे हैं। हमारे पास शिक्षा विभाग है, जिसका काम लोगों को नैतिकता सिखाना और उनको समाज में रहने लायक बनाना है। दूसरी ओर हमारे पास उत्पाद शुल्क विभाग है, जो मेरे विचार से एकदम विपरीत दिशा में काम कर रहा है। महोदय, मेरे विचार से मेरी मांग बडी नहीं है, अगर मैं कहूं कि हम शिक्षा पर कम से कम उतनी राशि तो खर्च करें ही, जितनी हम लोगों से उत्पाद शुल्क के रूप में लेते हैं। हम इस प्रेसिडेंसी में शिक्षा पर प्रति व्यक्ति 14 आना खर्च करते हैं, परंतु उत्पाद शुल्क से हमारी प्राप्ति 2.17 रुपये होती है। मेरे विचार से यह न्यायोचित होगा कि शिक्षा पर हमारा खर्च इस प्रकार तय किया जाए कि हम लोगों की शिक्षा पर उतना खर्च करें, जितना उनसे लेते हैं।”[i] आज जब शिक्षा पर बजट का हिस्सा बढाए जाने के लिए छात्र आंदोलन से लेकर देश के तमाम परिवर्तनकामी लोग सडकों पर उतर रहे हैं, ऐसे में आंबेडकर के विचार निश्चय ही उनके लिए दिशा देने वाले साबित हो सकते हैं।
इसी बहस में दूसरा मुद्दा उठाते हुए डा. आंबेडकर कहते हैं- ”हम इस समय शिक्षा पर जो खर्च कर रहे हैं, उसके अधिकांश भाग का वास्तव में अपव्यय हो रहा है। प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य यह है कि प्राथमिक विद्यालय में दाखिल होने वाला हर बच्चा स्कूल तभी छोडे, जब वह साक्षर हो जाए और अपने शेष जीवन में वह साक्षर बना रहे। लेकिन हम आंकडों पर नजर डालें तो हमें पता चलेगा कि प्राथमिक स्कूलों में दाखिल होने वाले हर एक सौ बच्चों में से केवल 18 बच्चे ही कक्षा चार तक पहुंचते हैं, शेष बच्चे, यानी 100 में से 82 बच्चे पुनः निरक्षरता की दुनिया में चले जाते हैं।”[ii]
आज तक हम ड्रॉप-आउट की समस्या से नहीं उबर पाये हैं। डॉ. आंबेडकर ने देश के एक सजग नागरिक के रूप में और एक कानूनविद के रूप में इस समस्या को उसी समय समझ लिया था। बच्चों को स्कूल पहुंचा देना ही काफी नहीं हे, उन्हें बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने तक स्कूल से जोडे रखना भी जरूरी है। ठीक ऐसे ही जैसे कि पेड लगाना ही पर्याप्त नहीं है, उन पेडों को खाद-पानी देकर सींचना भी जरूरी है, वर्ना उन्हें मरने में देर नहीं लगेगी। ड्रॉप आउट की इस समस्या के बारे में डा. आंबेडकर आगे कहते हैं कि ‘मैं माननीय शिक्षा मंत्री से अनुरोध करता हूं कि वह प्राथमिक शिक्षा पर अधिक से अधिक खर्च करें, कम से कम यह देखने के लिए ही करें कि वह जो खर्च करें अंततः उसका कुछ परिणाम तो निकले’।
डॉ. आंबेडकर ने अगला मुद्दा शिक्षा के व्यावसायीकरण का उठाया। उन्होंने असेंबली में कहा कि ”उन आंकडों की, जो मुझे यह जानकारी देते हैं कि इस (बॉम्बे) प्रेसिडेंसी में शिक्षा का प्रबंधन कैसे होता है, छानबीन करने से मुझे यह पता लगा है कि आर्ट्स कालिजों पर जो खर्च किया जाता है उसका 36 प्रतिशत भाग फीस से मिलता है, हाई स्कूलों पर जो खर्च होता है, उसका 31 प्रतिशत भाग फीस से आता है। मिडिल स्कूलों पर जो खर्च होता है उसका 21 प्रतिशत भाग फीस से आता है। महोदय, मेरा निवेदन है कि यह शिक्षा का व्यावसायीकरण है। शिक्षा तो एक ऐसी चीज है जो कि सबको मिलनी चाहिए। शिक्षा विभाग ऐसा नहीं है, जो इस आधार पर चलाया जाए कि जितना वह खर्च करता है, उतना विद्यार्थियों से वसूल किया जाए। शिक्षा को सभी संभव उपायों से व्यापक रूप से सस्ता बनाया जाना चाहिए।”[iii] चूंकि बाबा साहब आंबेडकर का ध्यान समाज के निचले तबकों पर अधिक था इसलिए वे इस संदर्भ में यह कहना नहीं भूलते कि ‘अब हम इस स्थिति में आ गए हैं, जब समाज के निचले तबके के लोगों के बच्चे हाई स्कूल, मिडिल स्कूल और कालिजों में जा रहे हैं। इसलिए इस विभाग की नीति यह होनी चाहिए कि निचले वर्गों के लिए उच्च शिक्षा को जितना संभव हो, सस्ता बनाया जाए।’
इसी बात को आगे बढाते हुए डॉ. आंबेडकर अगला मुद्दा उठाते हैं- ”प्रेसिडेंसी की जनगणना रिपोर्ट ने विभिन्न जातियों में शिक्षा के विकास की तुलना के लिए कुल जनसंख्या को चार वर्गों में बांटा है। पहला वर्ग ‘विकसित हिंदुओं’ का है। दूसरे वर्ग में ‘मध्यवर्ती हिंदू’ आते हैं और इस वर्ग में वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें अब राजनीतिक उद्देश्यों के लिए गैर-ब्राह्मण, जैसे मराठा तथा अन्य संबंधित जातियां कहा जाता है।” इसी क्रम में वे आगे कहते हैं, ”तीसरा वर्ग पिछडी जातियों का है – जिसमें दलित वर्ग, पहाड़ी आदिम जातियां और अपराधी आदिम जातियां शामिल हैं। चौथे वर्ग में मुसलमान आते हैं। शिक्षा के मामले में इन विभिन्न जातियों की तुलनात्मक प्रगति में बहुत भारी असमानता है।”[iv] डॉ. आंबेडकर के लिए चिंता का मूल विषय था- देश में व्याप्त सामाजिक असमानता। वे कहते हैं कि ”यह देश विभिन्न जातियों से मिलकर बना है। इन सभी जातियों का समाज में स्थान और विकास एक समान नहीं है। आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से पिछडी जातियां जिस तरह बाधित हैं, उस तरह कोई भी दूसरी जाति नहीं है। इसलिए मेरा खयाल है कि उनके लिए सहानुभूतिपूर्ण रवैये का सिद्घांत अपनाया जाए। जैसा कि मैंने बताया है कि पिछडी जातियों (सभी वंचित जातियों) की स्थिति मुसलमानों से बहुत खराब है, और मेरा केवल यही निवेदन है कि सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार के वे सबसे अधिक हकदार हैं और उन्हें वास्तव में यह मिलना चाहिए, तो इस मामले में सरकार द्वारा मुसलमानों की अपेक्षा पिछडी जातियों की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।”[v]
इसी बहस में डॉ. आंबेडकर विद्यार्थियों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति का विरोध करते हुए उस पैसे को छात्रावास निर्माण में लगाने की सलाह देते हैं। कुल मिलाकर एक कानूनविद के रूप में डॉ. भीमराव आंबेडकर शिक्षा के बारे में चिंतन भारत की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों के अनुकूल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण है।
डा. आंबेडकर के शिक्षा संबंधी विचार
आंबेडकर दलितों की शिक्षा के प्रति हमेशा चिंतित रहे। वे निश्चिततौर पर आधुनिक भारत के प्रमुख सिद्धांतकारों में एक विशेष महत्व रखते हैं। उन्होंने अपने कार्यों से आधुनिक भारत के इतिहास को गहराई से प्रभावित किया। लेकिन उनके योगदान का ज्ञान की विविध शाखाओं में उचित मूल्यांकन नहीं किया गया, खासकर शिक्षा के क्षेत्र में। जैसा कि जॉन एडम ने कहा ”शिक्षा दर्शन का एक गत्यात्मक पहलू है”, यह बात राष्ट्रभक्त, समाज सुधारक और दार्शनिक आंबेडकर के संदर्भ में सही साबित होती है। शिक्षा के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए आधुनिक भारत के शिक्षाविदों में महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महर्षि अरविंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, मदनमोहन मालवीय आदि प्रख्यात हैं। डा. भीमराव आंबेडकर के शिक्षा संबंधी विचारों का विधिवत अध्ययन अभी तक नहीं हो पाया है जबकि उन्होंने 1924 की शुरूआत में बहिष्कृत हितकारिणी सभा के गठन से ही इस क्षेत्र में कार्य शुरू कर दिया था। सभा ने शिक्षा को प्राथमिकता बनाया और खासकर पिछडे वर्गों के बीच उच्च शिक्षा और संस्कृति के विस्तार हेतु कॉलेज, हॉस्टल, पुस्कालय, सामाजिक केन्द्र और अध्ययन केन्द्र खोले। सभा के निर्देशन और मार्गदर्शन में विद्यार्थियों की पहल पर ‘सरस्वती बेलास’ नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया गया। इसने 1925 में सोलापुर और बेलगांव में छात्रावास और बंबंई में मुफ्त अध्ययन केन्द्र, हॉकी क्लब और दो छात्रावास खोले। डा. आंबेडकर ने 1928 में डिप्रेस्ड क्लास एजूकेशनल सोसाइटी का गठन किया। उन्होंने 1945 में समाज के पिछडे तबकों के बीच उच्च शिक्षा फैलाने के लिए लोक शैक्षिक समाज की स्थापना की। इस संस्था ने पर्याप्त संख्या में कॉलेज और माध्यमिक विद्यालय खोले। कुछ छात्रावासों को इन्होंने वित्तीय सहायता भी दी। संक्षेप में, लोक शैक्षिक समाज ने दलितों के बीच उच्च शिक्षा के प्रसार में अहम योगदान दिया।
डॉ. आंबेडकर ने केवल अर्थशास्त्र, विधि, संविधान और राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में ही काम नहीं किया। उन्होंने समाजशास्त्र, दर्शन, धर्म, मानवशास्त्र आदि से संबंधित काफी लेखन किया। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी, वे केवल सैद्धांतिक तौर पर ही इस क्षेत्र में काम नहीं कर रहे थे, बल्कि अच्छे सिद्धांतों को अमली जामा पहनाने के लिए भी वचनबद्ध थे।
आंबेडकर सोचते थे कि लोगों का जीवन-स्तर उठाने लिए शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण अस्त्र है। उनका नारा भी था- ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’। दलितोत्थान के लिए अन्य क्षेत्रों में उनके अभूतपूर्व योगदान की वजह से उनके शिक्षा संबंधी विचारों का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया है। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने सिद्धांत निर्माण ही नहीं किया बल्कि अपनी शैक्षणिक संस्थाओं में उन सिद्धांतों को व्यावहारिक धरातल पर लागू भी किया।
जैसा कि हमने पिछले अनुच्छेद में देखा कि डा. आंबेडकर का मशहूर नारा ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ है, इसमें शिक्षा को सबसे पहले रखा गया है। इसकी स्पष्ट वजह है- मानवीय व्यक्तित्व और चेतना के निर्माण में शिक्षा की निर्विवाद भूमिका। शिक्षित व्यक्ति ही अपने वर्गीय हितों को समझ सकता है और वर्गीय आधार पर संगठित हो सकता है। यही प्रक्रिया व्यक्ति को संघर्ष के लिए प्रेरित करती है। डा. आंबेडकर ने कहा, ”शिक्षा वह है जो व्यक्ति को निडर बनाए, एकता का पाठ पढाए, लोगों को अधिकारों के प्रति सचेत करे, संघर्ष की सीख दे और आजादी के लिए लडना सिखाए।”
शिक्षा एक आंदोलन है। अगर शिक्षा उपर्युक्त लक्ष्यों को पूरा नहीं करती तो वह निरर्थक है। डा. आंबेडकर के स्पष्ट विचार थे कि जो आदमी को योग्य न बनाए, समानता और नैतिकता न सिखाए, वह सच्ची शिक्षा नहीं है, सच्ची शिक्षा तो समाज में मानवता की रक्षा करती है, आजीविका का सहारा बनती है, आदमी को ज्ञान और समानता का पाठ पढाती है। सच्ची शिक्षा समाज में जीवन का सृजन करती है।
शिक्षा का उद्देश्य
शिक्षा का उद्देश्य शिक्षा-दर्शन का एक महत्वपूर्ण पहलू है। आंबेडकर के सामाजिक-दार्शनिक विचार मानवता पर आधारित हैं। डा. आंबेडकर के समाज-दर्शन में मानवीय गरिमा और आत्मसम्मान का स्थान सर्वोपरि है। शिक्षा के माध्यम से वे समाज में न्याय, समानता, भाईचारा, स्वतंत्रता और निर्भयता स्थापित करना चाहते थे। वे जन्माधारित सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर मूल्याधारित समाज बनाना चाहते थे और जाहिर है नैतिक मूल्यों का विकास अच्छी शिक्षा के माध्यम से ही संभव है।
आंबेडकर बौद्ध दर्शन से प्रभावित थे और इसीलिए वे सभी मनुष्यों में नैतिकता के विकास के पक्षधर थे। उन्होंने शिक्षा के केवल उन्हीं उद्देश्यों को सार्थक बताया जो मानवीय सुख, समृद्धि और सामाजिक विकास की तार्किक प्रासंगिकता में सहयोगी हो। वे शिक्षा को रोजगार से जोडने के भी पक्षधर थे। शिक्षा समाज में स्थिरता लाने में मददगार साबित होती है। अच्छा व्यवहार और चरित्र व्यक्ति की तार्किक समझ पर निर्भर करता है और वह शिक्षा, अनुभव और संवाद के माध्यम से ही अर्जित की जा सकती है। इस तरह आंबेडकर के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य वही है जो स्वयं उनके जीवन और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विचारों में है। वे हमेशा तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा के पक्षधर रहे।
प्रस्तावित पाठ्यक्रम
डा. भीमराव आंबेडकर अपनी व्यवहारवादी दृष्टि की वजह से मानते थे कि पाठ्यक्रम के निर्माण में उपयोगिया मुख्य आधार होना चाहिए। लेकिन वे किसी रूढ पाठ्यक्रम के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने कहा ”कुछ भी अमर नहीं है, कुछ भी अनिश्चितकाल के लिए बाध्य नहीं है, हर चीज की जांच और परीक्षा जरूरी है, कुछ भी अंतिम नहीं है, हर चीज कार्य-कारण संबंध के दायरे में आती है, कुछ भी सनातन नहीं है, हर चीज परिवर्तनीय है। चीजें लगातार हो रही है।”
बॉम्बे विश्वविद्यालय की सुधार समिति ने डा. आंबेडकर के पास उनकी राय लेने के लिए निम्न प्रश्नावली भेजी-
- क्या विभिन्न विश्वविद्यालयों के वर्तमान विषय और पाठ्यक्रम से आप संतुष्ट हैं? यदि नहीं, तो कृपया बताएं कि आप क्या परिवर्तन चाहते हैं?
- क्या आप पास और ऑनर्स के रूप में (ए) और (बी) के रूप में दो एकदम अलग पाठ्यक्रमों की स्थापना पक्ष में हैं? ऐसा विभाजन कैसे कॉलेजों और विद्यार्थियों को प्रभावित करेगा?
- क्या आप कलावर्ग के पाठ्यक्रम से विज्ञान वर्ग को पूरी तरह बाहर निकालने के पक्ष में हैं? क्या आप वर्तमान विज्ञान में अध्ययन के कला और साहित्य से पूर्ण अलगाव के पक्ष में हैं।
- क्या आपको लगता है कि स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं का वर्तमान पाठ्यक्रम पर्याप्त विकल्पों और संतुष्टिपूर्ण संतुलन और सहसंबंध बना पर रहा है?
इन सवालों के जवाब में डा. आंबेडकर ने कहा, ”मेरे खयाल से ये प्रश्न नए संकाय सदस्यों से पूछे जाने चाहिए। मेरी राय है कि ऑनर्स उपाधि में भी विद्यार्थियों को एक कमजोर पाठ्यक्रम पढाया जाता है।” इस जवाब से स्पष्ट है कि वे बाहर से किसी पाठ्यक्रम के थोपने के पक्ष में नहीं थे। उनके अनुसार पाठ्यक्रम बनाने का काम संबंधित अध्यापकों को ही होना चाहिए। हालांकि वे बंबई विश्वविद्यालय के स्नातक ऑनर्स के तत्कालीन पाठ्यक्रम के स्वरूप से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने हमेशा एक लोकतांत्रिक पाठ्यक्रम की वकालत की जिसे संबंधित अध्यापक विद्यार्थियों और विषय की जरूरत के हिसाब से बनावें। वे ऐसे पाठ्यक्रम के पक्ष में थे जो विद्यार्थियों को रोजगार से जोड़े और योग्य बनाए। डा. आंबेडकर ने हमेशा पूर्ण एवं अनिवार्य शिक्षा का पक्ष लिया और तकनीकी शिक्षा पर बल दिया। वे कमजोर वर्गों को विभिन्न प्रकार का छात्रवृत्तियां देने के पक्षधर थे। उच्च शिक्षा की जरूरत को भी वे बराबर रेखांकित करते रहते थे।
जहां तक लडके और लडकियों की शिक्षा का सवाल है, डा. आंबेडकर दोनों की समान शिक्षा के उतने पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि मैटि्रक तक की शिक्षा पर्याप्त है। इसके बाद उन्हें घरलू कार्यों की शिक्षा दी जानी चाहिए।
आंबेडकर की समझ व्यवहारवादी थी। वे शिक्षा को चरित्र, व्यवहार, संगठन, अनुभव, आत्मसंवेदन और आत्माभिव्यक्ति का जरिया मानते थे। उनका मानना था कि विद्यार्थियों को शिक्षा की सहायता से लौकिक और पारलौकिक रहस्यों को समझना चाहिए और उनका पर्दाफाश करना चाहिए। वे शिक्षा को व्यवसाय से जोडने की हिमायती थे। उनका मानना था कि बच्चों को शिक्षा देश की विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में दी जानी चाहिए। सभी भाषाओं के प्रति सम्मानपूर्ण दृष्टि रखने के बावजूद वे देश की एकता और अखण्डता के लिए एक ऐसी भाषा की जरूरत महसूस करते थे जो देश के तमाम लोगों के बीच संवाद का माध्यम बन सके। वे अध्यापन के वैज्ञानिक तरीकों के साथ थे, विशेष तौर पर उच्च शिक्षा के संबंध में। वे कहते थे कि असली शिक्षा हमें भयभीत करने की जगह तार्किक बनाएगी। इसलिए उनके शिक्षा-दर्शन के मुताबिक धार्मिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में किसी कीमत में शामिल नहीं करना चाहिए। चूंकि वे शिक्षा का पूरी तरह लौकिक मानदण्डों से मूल्यांकन करते थे, इसलिए वे इसे रोजगार से जोडने के भी पक्षधर थे। वे सभी वर्गों के लिए समान शिक्षा के पक्षधर थे। इसलिए वे सामाजिक लोकतंत्र के सिद्धांतों पर आधारित एक प्रगतिशील और वैज्ञानिक ढंग का पाठ्यक्रम बनाने की वकालत करते थे।
आदर्श शिक्षक
डा. आंबेडकर ने पढने-समझने की प्रक्रिया में शिक्षक को बहुत अधिक महत्व दिया है। वे स्वयं अपने बचपन में अपने अध्यापकों से बहुत प्रभावित रहते थे, इसलिए उन्होंने अपने एक शिक्षक का उपनाम ‘आंबेडकर’ अपने नाम के साथ जोड लिया और जीवनभर जोडे रखा। वह शिक्षक ब्राह्मण था। इस उदाहरण से पता चल जाता है कि उनके मन में शिक्षकों के लिए कितना सम्मान था। शायद इसीलिए वे ब्राह्मण जाति के नहीं, ब्राह्मणवादी विचारधारा के खिलाफ थे। उन्होंने आदर्श शिक्षक के बारे में कहा कि ‘वह केवल बहुपठित ही नहीं, अच्छा वक्ता और अनुभवी व्यक्ति होना चाहिए।
डा. आंबेडकर की राय में, ‘जरूरी नहीं कि हम अपने शिक्षक के निष्कर्षों से सहमत हो, जो अध्यापक इस बात को अनुकूल मानता हो, वह ही सच्चा शिक्षक है। शिक्षक का काम विद्यार्थी की मानसिक क्षमताओं का समझना और उनका विकास करना है। उनको विद्यार्थियों को संक्षेप में निर्देश करना चाहिए। एक अच्छा अध्यापक विद्यार्थियों का एक दोस्त, मार्गदर्शक और दार्शनिक होता है। डा. आंबेडकर की स्पष्ट धारणा थी कि एक अध्यापक को सिर्फ बहुपठित ही नहीं होना चाहिए बल्कि उसे समाज की व्यावहारिक सच्चाइयों का भी ज्ञान हो ताकि वह विद्यार्थियों को आसपास के संसार से उदाहरण चुनकर चीजों को ज्यादा अच्छे से समझा सके। ऐसी स्थिति में ही वह विद्यार्थियों के सम्मान का हकदार होता है।
शिक्षण विधियां
डा. आंबेडकर प्राथमिक स्तर से ही वैज्ञानिक शैक्षणिक विधियों के पक्षधर थे। उनका मानना था कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए सफाई की आदत और शारीरिक शिक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। समाज के वंचित तबकों के बच्चों के बारे में उन्होंने कहा, ”ऐसे बच्चों के लिए पहला पाठ नहा-धोकर स्वच्छ रहना होना चाहिए, दूसरा पाठ साफ-सुथरा संतुलित भोजन होना चाहिए। और जो ऐसा करते हैं उन्हें विद्यालय में प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि बाकी बच्चे सबक ले सकें।” इसके साथ ही डा. आंबेडकर ने शुरू से ही बच्चों में अच्छे संस्कार व अच्छी आदतें डालने की वकालत की। उनके अनुसार ”अच्छे संस्कार लंबी कोशिश व कठोर संयम का नतीजा होते हैं, जो दूसरों की सहूलियतों का भी ध्यान रखते हैं। अच्छे संस्कार प्राथमिक रूप से मां-बाप व अध्यापकों से सीखते हैं लेकिन बाद में खुद इनकी जांच-पडताल कर इन पर अपना विश्वास दृढ करते हैं। अच्छी आदतें बहुत मुश्किल से आती हैं जबकि बुरी आदतें बच्चे तेजी से ग्रहण करते हैं, इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। बुरी आदतें ही व्यक्ति और समाज का पतन करती हैं। शांत व्यवहार, मीठी बोली, सभ्य तरीका आदि ही तो अच्छी संस्कृति का निर्माण करते हैं।”
हालांकि डा. भीमराव आंबेडकर कोई व्यावसायिक शिक्षाशास्त्री नहीं थे, उन्होंने शिक्षण विधियों पर कोई सैद्धांतिक विवेचन नहीं किया, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने शिक्षण पर काफी बेहतरीन विचार रखे हैं। उनका स्पष्ट मत था कि स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं में शिक्षण के तरीके में ज्यादा फर्क नहीं होना चाहिए। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि अगर हम ऐसा करेंगे तो इसका आशय होगा कि हम अध्ययन को शोध से अलग कर रहे हैं। विश्वविद्यालय में शिक्षकों की नियुक्ति के संदर्भ में उनका मत था कि इसका अधिकार विश्वविद्यालय को ही होना चाहिए और यथासंभव बाहरी हस्तक्षेप से इस प्रक्रिया को दूर रखना चाहिए। वे प्रवेश, शिक्षण, परीक्षा और नियुक्तियों के मामले में विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता के पक्षधर थे। वे शिक्षण संस्थाओं, खासकर विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भूमिका को काफी अहम मानते थे। इसलिए उनकी स्वतंत्रता के भी पक्षधर थे।
स्त्री-शिक्षा
ब्राह्मणवाद को डा. भीमराव आंबेडकर ने भारतीय समाज की सबसे अहम समस्या माना है और महिलाओं की खराब स्थिति के लिए भी वे ब्राह्मणवाद को जिम्मेदार मानते थे, दूसरे शब्दों में कहें तो वे ब्राह्मणवाद और पुरुषवाद को गहरे में संबंधित मानते थे। उन्होंने कहा, ” इस समाज में ऐसी कोई बुराई नहीं है जो ब्राह्मणों के सहयोग के बिना पनपी हो। जाति व्यवस्था जहां पुरुष-पुरूष के बीच भेद करती है वहीं इसी का विस्तार करते हुए स्त्री को दोयम दर्जा देती है। सतीप्रथा की वजह भी ब्राह्मणवाद की देन है। ब्राह्मणों की वजह से ही विधवाओं को पुनर्विवाह से रोका गया। लडकियों का विवाह 8 से भी कम की उम्र पर कर दिया जाता था और मर्दों को हर उम्र में मनचाहे विवाह करने का अधिकार था।”
ऐसा माना जाता है कि वैदिक युग में महिलाओं को काफी अधिकार प्राप्त थे। इसके बाद लगातार उनकी स्थिति गिरती चली गई। डा. आंबेडकर ने दिखाया कि मनुस्मृति ने औरतों का दर्जा नौकरों से भी नीचे कर दिया, उन्हें शिक्षा से वंचित कर दिया गया, संपत्ति से बेदखल कर दिया गया। डा. आंबेडकर इस संदर्भ में एक क्रांतिकारी चिंतक कहे जा सकते हैं जिन्होंने महिलाओं के लिए समाज में समान अधिकारों की वकालत की। उन्होंने महिलाओं के लिए व्यक्तिगत गरिमा और अपने विकास के लिए उचित अवसर उपलब्ध कराए जाने की वकालत की।
उन्होंने हिंदू विवाह अधिनियम बनाया जो केवल एक विवाह की अनुमति देता है। इस अधिनियम में स्त्रियों को संपत्ति के अधिकार एवं उत्तराधिकार के अधिकार का प्रावधान किया गया है, जिससे मनुस्मृति के माध्यम से मनु ने औरतों को वंचित कर दिया था। इसके अनुसार स्त्री और पुरुष को कानून के समक्ष हमेशा समान माना जाएगा। डा. आंबेडकर ने उन तमाम नीति-नियमों की भर्त्सना की जो स्त्री की समानता के विरोधी थे। वे स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता के पक्षधर थे। मदनमोहन मालवीय और डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम का विरोध किया गया। इसके बावजूद यह बिल पास हुआ और यह समानता के लिए किये जा रहे महिला संघर्ष के इतिहास की 20वीं सदी में सबसे बडी विजय थी। हिंदू विवाह अधिनियम के माध्यम से डा. आंबेडकर भारत में महिलाओं के सबसे बडे हितैषी कहे जा सकते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद (14), 15(3), 16(1) और 16(2) में महिलाओं के साथ भेदभाव के खिलाफ उचित प्रबंध किये गए हैं और उन्हें समानता का दर्जा देने के लिए प्रावधान किये गए हैं।
महिलाओं की शिक्षा और उनके व्यक्तित्व विकास के बारे में डा. आंबेडकर के विचार तत्कालीन समाज के चल रहे स्त्री मुक्ति के आंदोलनों से किसी भी मामले में कम नहीं हैं। वे महिलाओं को अनिवार्य शिक्षा के पक्ष में थे। स्त्री-शिक्षा के संबंध में उनकी सोच की सीमा यह है कि वे उनको मैटि्रकुलेशन तक ही शिक्षा देने के पक्षधर थे, इससे आगे नहीं। इससे आगे वे चाहते थे कि महिलाएं गृह विज्ञान की चीजें पढें जिससे कि वे घर को अच्छे से चला पायें। वे महिलाओं और पुरूषों को समान शिक्षा दिए जाने के पक्षधर नहीं थे क्योंकि उनकी समझ थी कि जीवन में दोनों के काम अलग है, इसलिए उनको शिक्षा भी अलग-अलग दी जानी चाहिए।
इसके बावजूद संविधान सभा के अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने महिलाओं के विकास और आत्मनिर्भरता के लिए संविधान में कई जरूरी प्रावधानों को शामिल किया जिससे कि आजाद भारत में स्त्री समानता के लिए मजबूती से अपना दावा पेश कर पाये।
धार्मिक शिक्षा
अधिकांश शिक्षाशास्त्रियों ने धर्म और धार्मिक शिक्षा पर स्पष्ट मत नहीं रखे हैं क्योंकि उनको यह भय सताता है कि कहीं किसी की भावनाएं न आहत हो जाएं। इससे उन्हें भी नुकसान उठाना पड सकता है। लेकिन डा. आंबेडकर ने इस संदर्भ में दूसरा ही रुख अख्तियार किया। इसकी वजह यह थी कि वे अपने समय में हिंदू समाज के सबसे विवादित व्यक्तित्व के रूप में उभर चुके थे। उन्होंने जीवनभर आलोचनाएं सुनीं लेकिन कभी उनकी ज्यादा चिंता नहीं की और हमेशा सही बात कहते रहे। उन्होंने कहा, ‘मेरा सामाजिक दर्शन एक मिशन है। मुझे धर्मांतरण पर काम करना है।’ डा. आंबेडकर को भगवान की सत्ता पर यकीन नहीं था। वे भारतीय समाज को धर्म के स्थान पर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर पुनर्गठित करना चाहते थे। लेकिन उन्होंने ये सिद्धांत कहीं से उधार नहीं लिए। उन्होंने सभी धर्मों की अच्छाइयों को लेने से इन्कार नहीं किया लेकिन बौद्ध धर्म में उनकी विशेष दिलचस्पी थी। उन्होंने स्वीकार किया ये तमाम सिद्धांत मैंने अपने गुरू बुद्ध से लिए हैं। उनके दर्शन में स्वतंत्रता और समता के लिए जगह सुरक्षित है लेकिन उन्होंने आगे कहा कि असीमित स्वतंत्रता समानता का नाश कर देती है, और असीमित समानता में स्वतंत्रता के लिए कोई जगह नहीं बचती। उनके सिद्धांतों कानून एक रक्षक की भूमिका में ही आया है- स्वतंत्रता और समानता का रक्षक। लेकिन वे मानते थे कि केवल कानून स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित नहीं कर सकता। इसलिए उन्होंने बंधुत्व को सबसे उपर रखा- समानता और स्वतंत्रता के असली रक्षक के रूप में। और बंधुत्व सिखाने के लिए धर्म से अच्छा कोई माध्यम नहीं। इसलिए शिक्षा में इन मूल्यों को शामिल किया जाना बहुत जरूरी है।
दलित शिक्षा पर विशेष बल
डा. आंबेडकर ने बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल में दलित शिक्षा का मुद्दा उठाते हुए कहा- ”प्रेसिडेंसी की जनगणना रिपोर्ट ने विभिन्न जातियों में शिक्षा के विकास की तुलना के लिए कुल जनसंख्या को चार वर्गों में बांटा है। पहला वर्ग ‘विकसित हिंदुओं’ का है। दूसरे वर्ग में ‘मध्यवर्ती हिंदू’ आते हैं और इस वर्ग में वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें अब राजनीतिक उद्देश्यों के लिए गैर-ब्राह्मण, जैसे मराठा तथा अन्य संबंधित जातियां कहा जाता है।” इसी क्रम में वे आगे कहते हैं, ”तीसरा वर्ग पिछडी जातियों का है जिसमें दलित वर्ग, पहाडी आदिम जातियां और अपराधी आदिम जातियां शामिल हैं। चौथे वर्ग में मुसलमान आते हैं। शिक्षा के मामले में इन विभिन्न जातियों की तुलनात्मक प्रगति में बहुत भारी असमानता है।”[[vi] डा. आंबेडकर के लिए चिंता का मूल विषय था- देश में व्याप्त सामाजिक असमानता। वे कहते हैं कि यह देश विभिन्न जातियों से मिलकर बना है। इन सभी जातियों का समाज में स्थान और विकास एक समान नहीं है। आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से पिछडी जातियां जिस तरह बाधित हैं, उस तरह कोई भी दूसरी जाति नहीं है. इसलिए मेरा खयाल है कि उनके लिए सहानुभूतिपूर्ण रवैये का सिद्घांत अपनाया जाए। जैसा कि मैंने बताया है कि पिछडी जातियों की स्थिति मुसलमानों से बहुत खराब है, और मेरा केवल यही निवेदन है कि सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार के वे सबसे अधिक हकदार हैं और उन्हें वास्तव में यह मिलना चाहिए, तो इस मामले में सरकार द्वारा मुसलमानों की अपेक्षा पिछडी जातियों की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।
दलित विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा पर बल
शिक्षा पर विचार करते वक्त तमाम भारतीय शिक्षा शास्त्रियों का बल प्राथमिक शिक्षा पर रहा है। डा. आंबेडकर इससे थोडे अलग ढंग से सोचते हैं। उन्होंने आंकडों द्वारा इस बात को रेखांकित किया कि अस्पृश्य जातियों में प्राथमिक शिक्षा के स्तर तो विद्यार्थी आ रहे हैं लेकिन वे उच्च शिक्षा तक नहीं पहुंच पाते। इसकी वजहों के तौर पर डा. आंबेडकर ने रेखांकित किया कि दलित वर्गों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती इसलिए वे उच्च शिक्षा तक नहीं पहुंच पाते। डा. आंबेडकर बहुत दूर तक की सोचते थे। वे दलितों के लिए उच्च शिक्षा की वकालत तो करते ही थे, साथ ही भारत में शिक्षण संस्थाओं की दयनीय हालत को देखते हुए वे दलितों को विदेशी विश्वविद्यालयों तक दलितों की पहुंच संभव बनाना चाहते थे। तत्कालीन भारतीय और ब्रिटिश सरकारों के बारे में डा. आंबेडकर की स्पष्ट आलोचना थी कि वे दलितों के लिए उच्च शिक्षा मुहैया कराने हेतु पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही हैं।
दलित विद्यार्थियों के लिए तकनीकी शिक्षा
यह उच्च शिक्षा से जुडा हुआ मसला ही है। दलित विद्यार्थियों की उच्च शिक्षा में प्रगति के बारे में डा. आंबेडकर का निष्कर्ष था-
”विज्ञान और इंजीनियरी में शिक्षा ने कोई प्रगति नहीं की है”[vii] इसी क्रम में उन्होंने आगे कहा कि ”कला और विधि के विषयों में शिक्षा अनुसूचित जातियों के लिए अधिक मूल्यवान नहीं हो सकती। अनुसूचित जातियों को विज्ञान तथा टैक्नॉलोजी में उन्नत प्रकार की शिक्षा अधिक सहायक होगी।”
उस वक्त आज की तरह तकनीक और तकनीकी शिक्षा ने विकास नहीं किया था लेकिन फिर भी विज्ञान और तकनीक के लिए अलग शिक्षण संस्थाएं स्थापित हो चुकी थीं। डा. भीमराव आंबेडकर हमेशा दलितों के लिए विज्ञान और तकनीक की शिक्षा की वकालत की। इसका कारण स्पष्ट है- विज्ञान और तकनीक की शिक्षा का रोजगार से गहरा संबंध। डा. आंबेडकर की कही यह बात आज भी उसी रूप में विद्यमान है। कला वर्ग के विषयों की तुलना में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पढने वालों को रोजगार के अधिक व बेहतर अवसर उपलब्ध हैं। डा. आंबेडकर ने दलित बच्चों के लिए स्कूल ऑफ माइन्स[viii] में प्रवेश का पुरजोर समर्थन किया। उन्होंने पता लगाया कि उस वक्त स्कूल ऑफ माइन्स के 97 विद्यार्थियों में से एक भी दलित नहीं था। इसलिए उन्होंने कहा कि भारत सरकार को कुछ ऐसे उपाय करने चाहिए जिससे अनुसूचित जातियों के विद्यार्थी भी उसका लाभ उठा सकें।
इसके साथ ही डा. आंबेडकर तकनीकी प्रशिक्षण संस्थानों में भी दलितों की भागीदारी के पक्षधर थे। चूंकि तकनीकी शिक्षा बहुत अधिक महंगी थी इसलिए वह दलितों की पहुंच के बाहर थी। इसलिए डा. आंबेडकर ने सरकार से दरखास्त की- ”भारत सरकार दलितों के भाग्य को सुधारने के लिए बहुत कुछ कर सकती है। भारत सरकार द्वारा नियंत्रित अथवा चलाए जाने वाले उन व्यवसायों में अनुसूचित जाति के लडकों को प्रशिक्षार्थी के रूप में रखा जा सकता है जहां तकनीकी प्रशिक्षण देने की संभावनाएं विद्यमान हैं” इसके उदाहरण के तौर पर उनहोंने दो महकमों का जिक्र किया- सरकारी प्रिंटिंग प्रेस व रेलवे वर्कशॉप।
इस तरह डा. आंबेडकर ने अलग-अलग मंचों पर दलितों के लिए तकनीकी शिक्षा की जरूरत पर बल दिया।
दलित विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति
दलित विद्यार्थियों के लिए तकनीकी शिक्षा में सबसे बडी बाधा उसका महंगा होना है। इसलिए डा. आंबेडकर ने उनके लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था किये जाने की मांग की। उनकी इस मांग से पहले छात्रवृत्ति का प्रावधान सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए था। उन्होंने कहा, ”सरकारी सहायता के बिना विज्ञान और टैक्नॉलोजी की उन्नत शिक्षा का क्षेत्र कभी भी अनुसूचित जातियों के लिए सुलभ नहीं होगा और यह केवल न्यायसंगत तथा उचित है कि केन्द्रीय सरकार इस संबंध में उनकी सहायता के लिए आगे आए।”[ix] इसी प्रक्रिया में डा. आंबेडकर ने प्रस्ताव दिया कि
”1. अनुसूचित जातियों के उन विद्यार्थियों को 2 लाख रुपये की छात्रवृत्तियां प्रतिवर्ष दी जाएं जो विश्वविद्यालयों में विज्ञान और टैक्नॉलोजी के पाठ्यक्रम में अथवा भारत के अन्य वैज्ञानिक और तकनीकी प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रवेश लें।
2. अनुसूचित जातियों के विद्यार्थियों को विज्ञान और टैक्नॉलोजी की शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड, यूरोप, अमेरिका और डॉमीनियन के विश्वविद्यालयों में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्तियों पर एक लाख रुपये वार्षिक अनुदान व्यय किया जाए।”[x]
विधि विशेषज्ञ डा. आंबेडकर ने इसके लिए कानूनी रास्ता भी सरकार को दिखा दिया। छात्रवृत्ति के लिए उन्होंने अनुदान पद्धति को ऋण पद्धति में बदलने का प्रस्ताव भी दिया। छात्रवृत्तियों के साथ डा. आंबेडकर निशुल्क शिक्षा की धारणा भी लेकर आए। आज वह हमारी आंखों के सामने एक सच बन चुकी है।
दलित विद्यार्थियों के लिए आरक्षण
शिक्षा के क्षेत्र में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित करने का सबसे सफल प्रयोग आरक्षण रहा है। इसकी नींव डा. आंबेडकर ने रखी। उन्होंने कहा, ”अनुसूचित जातियों के ऐसे लडकों के लिए कुछ सीटों का आरक्षण जिन्हें प्रवेश पाने के लिए आवश्यक शिक्षा का न्यूनतम स्तर प्राप्त है।”[11][xi] इसी प्रक्रिया में उन्होंने इस आरक्षण का प्रतिशत (10 फीसदी) भी सुझाया। उनका लक्ष्य स्पष्ट था- दलित विद्यार्थियों की भागीदारी। यह भागीदारी वे वैधानिक संस्थाओं में भी चाहते थे। केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड में भी अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधित्व का सवाल उन्होंने उठाया।
डा. आंबेडकर के शिक्षा संबंधी विचारों का मूल्यांकन
डा. आंबेडकर के विचारों को चुनौती देने का काम महात्मा गांधी ने किया। इसके उलट यह भी कहा जा सकता है कि महात्मा गांधी के विचारों को डा. आंबेडकर ने चुनौती दी। दोनों ने इस बहस से अपने विचारों को परिवर्द्धित किया। अन्य शिक्षाशास्त्रियों से आंबेडकर का कुछ संवाद नहीं हो सका इसलिए यहां हम महात्मा गांधी और आंबेडकर के विचारों की ही तुलना कर रहे हैं।
बाबासाहब अम्बेडकर और महात्मा गांधी सिर्फ दो व्यक्ति नहीं, दो ‘स्कूल’ हैं, दो वैचारिक केन्द्र हैं, दो संस्थाएं हैं। दोनों आधुनिक भारत के सर्वाधिक विवादास्पद चरित्रों में हैं। चूंकि दोनों लीक से हटकर चले, इसलिए उन पर उनके समय से लेकर आज तक सवाल उठाए जाते रहे हैं। दोनों की मंजिल एक-दूसरे से जितनी मिलती थी, रास्ते उतने ही जुदा थे। दोनों के संदर्भ में सर्वाधिक दुखद यह है कि दोनों के अनुयायियों ने दो ऐसे विशाल खेमे बना लिए हैं जो आपस में संवाद की कोई जरूरत नहीं समझते। अम्बेडकरवादियों के लिए गांधी दलितविरोधी हैं तो गांधीवादियों के लिए अम्बेडकर देशद्रोही। गांधीवादियों से अम्बेडकर को पढने की क्या अपेक्षा की जाए, वे गांधी को भी नहीं पढना चाहते। कुछ ऐसी ही स्थिति आंबेडकरवादियों की है। इसका परिणाम यह हुआ कि आंबेडकर और गांधी के मूल्य और उनका संघर्ष कहीं पीछे छूट गया है।
कांग्रेस और गांधी के लिए ‘अस्पृश्यों की मुक्ति’ एक अंदरूनी समस्या थी जबकि आंबेडकर के लिए सर्वाधिक अहम समस्या। जमींदारी प्रथा की तरह जाति प्रथा और अस्पृश्यता का समाधान गांधी हृदय परिवर्तन में खोजते थे। वे वर्णाश्रम को बनाये रखते हुए अस्पृश्यता खत्म करने के पक्षधर थे जबकि आंबेडकर वर्ण और जाति को ही अस्पृश्यता की जड मानते हुए इनका खात्मा जरूरी समझते थे। गांधी के ‘दयाभाव’ के बरक्स आंबेडकर अस्पृश्यों के लिए अधिकारों की मांग करते हैं।
पूना समझौते से पूर्व दोनों के मतभेद चरम पर थे। गांधी के अनशन ने आंबेडकर लिए द्वंद्व पैदा कर दिया। एक तरफ दलितों के लिए अधिकारों की लडाई का प्रश्न था, दूसरी तरफ गांधी का जीवन। अंततः संवाद से इस स्थिति का समाधान निकलता है।
गांधी और आंबेडकर, दानों जीवन के तमाम क्षेत्रों के बारे में काफी अलग-अलग ढंग से सोचते थे। शिक्षा के बारे में भी उनके मतों में यह अंतर देखा जा सकता है। गांधी ब्रिटिश शिक्षा पद्धति का विरोध करते थे और स्वयं की बनाई शिक्षा पद्धति प्रस्तावित करते थे जिसे बुनियादी शिक्षा के नाम से जाना जाता है। गांधी जी का लक्ष्य था कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास हो और वह सत्य व अहिंसा पर आधारित जीवन जिए। उनकी शिक्षा दर्शन मूलतः आदर्शवादी कहा जा सकता है। इसके विपरीत आंबेडकर का लक्ष्य शिक्षा को कमजोर से कमजोर व्यक्ति तक पहुंचाना था और वे एक ऐसी व्यवस्था की कल्पना करते थे जो समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित हो। बौद्ध धर्म से ली गई उनकी धम्म की अवधारणा मुख्यतः व्यक्ति के नैतिक विकास पर बल देती है। वे अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ नहीं थे, बल्कि अंग्रेजी शिक्षा को मानवीय रूप देना चाहते थे। वे ऐसी शिक्षा पद्धति के हिमायती थे जो पढने वाले को तार्किक बनाते हुए पूरे समाज का तार्किक आधार पर निर्माण करने में सहायक हो। शिक्षा व्यक्ति के अंदर न केवल समानता का भाव पैदा करे बल्कि उसके मस्तिष्क को खोले, वस्तुनिष्ठ बनाए, तार्किक और आलोचनात्मक व्याख्या की समझ पैदा करे। डा. आंबेडकर का मत था कि एक लोकतांत्रिक व समाजवादी राष्ट्र बनाना है तो उसके लिए सभी के लिए समान शिक्षा बेहद जरूरी है। साथ ही उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम आधुनिक ढंग का होना चाहिए जो वैज्ञानिक सोच का हो और जिसमें उत्पादन की आधुनिक तकनीकें शामिल की जाएं। वे उत्पादन के तमाम साधनों का राष्ट्रीयकरण करने के पक्षधर थे। इसलिए उनका कहना था कि विद्यार्थियों को उत्पादन और रहने के समाजवादी ढर्रे से परिचित कराया जाना चाहिए।
डा. आंबेडकर और गांधी जी के विचारों की तुलना करें तो पायेंगे कि दोनों के चिंतन में संवाद की संभावनाओं के साथ एक स्पष्ट दूरी थी। परंपरा गांधी जी के लिए एक सम्मानीय चीज थी जबकि आंबेडकर अधिकांश परंपराओं के खिलाफ थे। दोनों विचारक गरीबों को लेकर चिंतित थे लेकिन आंबेडकर हमेशा कमजोर के समानता के अधिकार को लेकर चिंतित रहते थे और अपने जीवन में उन्होंने इसके लिए बहुत काम किया। अभिजात्य वर्ग से गांधी जी का कोई विरोध नहीं था जबकि आंबेडकर अभिजात्य वर्ग के खिलाफ थे और वे इन्हें मानवता के लिए खतरा मानते थे। गांधी देश की चिंता अधिक करते थे जबकि आंबेडकर का ध्यान पिछडे और गरीब तबकों पर ज्यादा था। गांधी गांवों में हाथकरघा से लेकर दूसरी स्थानीय चीजों से बुनियादी शिक्षा देने के हक में थे जबकि आंबेडकर का ध्यान उन वर्गों की शिक्षा पर था जिन्हें सदियों से शिक्षा से वंचित किया जाता रहा है। उनका सुझाव था कि सभी के लिए प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य और मुफ्त हो और सरकार इसकी जिम्मेदारी ले। गांधी प्राथमिक स्तर पर ही व्यावसायिक शिक्षा के पक्षधर थे जबकि आंबेडकर का मत था कि प्राथमिक स्तर पर साक्षरता को लक्ष्य बनाया जाना चाहिए। आंबेडकर शिक्षा के साथ स्वच्छता, शारीरिक शिक्षा व सांस्कृतिक विकास को अहम मानते थे। उनका मानना था कि प्राथमिक शिक्षा बच्चे में सभ्यता और संस्कृति का इस तरह विकास करे कि उसे सभ्य समाज का हिस्सा बनने में आसानी हो।
गांधीजी ने उच्च शिक्षा के बारे में ज्यादा विचार नहीं किया जबकि आंबेडकर ने उच्च शिक्षा पर अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्ति किये हैं। यहां तक कि आंबेडकर ने एक आदर्श विश्वविद्यालय के लिए प्रशासनिक ढांचा भी प्रस्तावित किया है। उनके उच्च शिक्षा संबंधी विचार आज भी प्रासंगिक है। गांधी धार्मिक शिक्षा के पक्षधर थे जबकि आंबेडकर की इसमें कम दिलचस्पी थी। उनका मानना था कि सरकारी स्कूलों में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। उनका कहना था कि नैतिक शिक्षा धर्म के माध्यम से नहीं बल्कि समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के बुनियादी सिद्धांत के माध्यम से दी जानी चाहिए। दोनों के चिंतन में यही फर्क है कि एक (गांधी) धार्मिक था, दूसरा धर्मनिरपेक्ष। एक प्राकृतिक जीवन के पक्ष में था, दूसरा आधुनिक जीवन के। कुल मिलाकर गांधी के लिए मूल चिंता थी चरित्र निर्माण की और आंबेडकर के लिए एक तार्किक व्यक्तित्व के निर्माण की। दोनों के चिंतन में एक समान विशेषता यह है कि दोनों ही क्षेत्रीय व देशज भाषाओं में शिक्षा के पक्षधर थे।
निष्कर्ष व प्रासांगिकता
डा. आंबेडकर के विचार आज न केवल दलित समाज के लिए बल्कि पूरे भारतीय समाज के लिए बहुत उपयोगी है। आज हम शिक्षा पर बजट का हिस्सा या संपूर्ण खर्च बढाने की बात करते हैं तो हम अधिक से अधिक 2 प्रतिशत तक ही पहुंचा पाते हैं, लेकिन बॉम्बे प्रेसिडेंसी की एक बैठक में डा. भीमराव आंबेडकर यह मांग काफी जोर-शोर से उठा चुके थे। वे कहते हैं- ”हमारे पास इस (बॉम्बे) प्रेसिडेंसी में दो विभाग हैं, जो मेरे अनुसार एक-दूसरे से उल्टा काम कर रहे हैं। हमारे पास शिक्षा विभाग है, जिसका काम लोगों को नैतिकता सिखाना और उनको समाज में रहने लायक बनाना है। दूसरी ओर हमारे पास उत्पाद शुल्क विभाग है, जो मेरे विचार से एकदम विपरीत दिशा में काम कर रहा है। महोदय, मेरे विचार से मेरी मांग बडी नहीं है, अगर मैं कहूं कि हम शिक्षा पर कम से कम उतनी राशि तो खर्च करें ही, जितनी हम लोगों से उत्पाद शुल्क के रूप में लेते हैं। हम इस प्रेसिडेंसी में शिक्षा पर प्रति व्यक्ति 14 आना खर्च करते हैं, परंतु उत्पाद शुल्क से हमारी प्राप्ति 2.17 रुपये होती है। मेरे विचार से यह न्यायोचित होगा कि शिक्षा पर हमारा खर्च इस प्रकार तय किया जाए कि हम लोगों की शिक्षा पर उतना खर्च करें, जितना उनसे लेते हैं।”[xii]
गांधी और आंबेडकर की तुलना करते वक्त हमने पाया कि आंबेडकर ने उच्च शिक्षा के बारे में काफी विचार व्यक्त किए, उनके वे विचार आज भी प्रासंगिक है क्योंकि आज हमारा देश इस कगार पर खडा है जहां प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर तो शिक्षा का अधिकार लागू कर दिया है लेकिन इसके आगे विद्यार्थी कहां जाएगा, इसकी चिंता किसी को नहीं है। आंबेडकर तर्कशील समाज पर आधारित एक आधुनिक भारत का निर्माण करना चाहते थे। जब तक इसकी जरूरत बनी रहेगी, आंबेडकर प्रासंगिक रहेंगे।
डा. आंबेडकर – दलितों के लिए शिक्षा व रोजगार का मार्ग प्रशस्त करने वाले महानायक
अगर हमें पूरे भारतीय इतिहास में से एक ऐसा आदमी चुनना हो जिसने दलितों के लिए शिक्षा और रोजगार का मार्ग प्रशस्त किया, उनके अधिकारों के प्रति उन्हें जागरूक बनाया, दूसरे समुदायों के शोषण से उन्हें मुक्त किया, बुद्धि के क्षेत्र में भी उनकी श्रेष्ठता साबित कर दी- इन तमाम विशेषताओं से युक्त अकेले आंबेडकर ही मिलेंगे। उन्होंने शिक्षा के बारे में महात्मा गांधी या दयानंद सरस्तवी या विवेकानंद की तरह शिक्षाशास्त्रीय ढंग से तो विचार नहीं किया लेकिन उन्हें जहां भी अवसर मिला, उन्होंने शिक्षा के बारे में अपनी स्पष्ट बात रखी और इसी प्रक्रिया में उनकी दलित-समाज की शिक्षा को लेकर चिंताएं भी प्रकट हुईं। उन्होंने लिखा- ‘यदि सरकार दलित जातियों के बीच शिक्षा का प्रसार सच्चे मन से करना चाहती है तो कुछ ऐसे उपाय हैं जो सरकार को करने ही चाहिए-
”1. जब तक अनिवार्य शिक्षा अधिनियम को रद्द नहीं किया जाता और सकूल बोर्डों को प्राथमिक शिक्षा का हस्तांतरण बंद नहीं किया जाता, तब तक आशंका है कि दलित वर्गों की के हित को भारी आघात लगता रहेगा।
- जब तक प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता को बाध्यकारी नहीं बनाया जाता और जब तक प्राथमिक स्कूलों में दाखिले के नियम का कठोरता से पालन नहीं किया जाता तब तक पिछडी जातियों की शैक्षिक प्रगति के लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न नहीं होंगी।
- जब तक हंटर आयोग द्वारा मुसलमानों की शिक्षा के बारे में की गई सिफारिशों को दलित जातियों की शैक्षिक प्रगति के लिए भी लागू नहीं किया जाता तब तक उनकी प्रगति अधूरी ही रहेगी।
- जब तक दलित जातियों को सरकारी नौकरियों में नहीं लिया जाता, तब तक उनका शिक्षा के प्रति अनुराग नहीं बढेगा।”[xiii]
भारतीय संविधान में भी उनहोंने ऐसे प्रावधान किए जो दलितों और वंचितों को शिक्षा और रोजगार से जोडने में मदद करें। कुछ उदाहरण देखें-
अनुच्छेद 15 (ए)- किसी भी समुदाय या अजा/अजजा के लिए शैक्षिक रूप से पिछडे होने पर विशेष प्रावधान करना।
अनुच्छेद 17- अस्पृश्यता का निवारण व प्रत्येक व्यक्ति को समानता का दर्जा।
अनुच्छेद 29- सरकारी शिक्षण संस्थाओं में कमजोर तबकों के प्रवेश के बारे में।
अनुच्छेद 30- अल्पसंख्यक संस्थान बनाने के बारे में।
अनुच्छेद 30 (ii)- शैक्षणिक संस्थाओं को आर्थिक मदद के बारे में।
अनुच्छेद 39- पुरुष और महिलाओं को समान काम व समान जीवनाधिकार।
आंबेडकर और गांधी के बीच हुए पूना समझौते के बाद से ही आरक्षण की राह निकली जिसने दलितों के शैक्षणिक स्तर व जीवन स्तर में आमूल परिवर्तन कर दिया। आज जीवन के जिन क्षेत्रों में दलितों की उपस्थिति दिखाई पड रही है, वह आरक्षण की वजह से ही संभव हो पाया है। इस तरह डा. आंबेडकर हमेशा से ही दलितों की शिक्षा व रोजगार को लेकर चिंतित रहे। दलित समाज के लिए उनके विचार आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं।
[i] बाबा साहेब डा. आंबेडकर, संपूर्ण वा्ङ्मय, खंड-3, पृष्ठ- 55-56
[ii] बाबा साहेब डा. आंबेडकर, संपूर्ण वा्ङ्मय, खंड-3, पृष्ठ- 56
[iii] बाबा साहेब डा. आंबेडकर, संपूर्ण वा्ङ्मय, खंड-3, पृष्ठ- 56-57
[iv] बाबा साहेब डा. आंबेडकर, संपूर्ण वा्ङ्मय, खंड-3, पृष्ठ- 57
[v] वही, पृष्ठ- 59
[vi] बाबा साहेब डा. आंबेडकर, संपूर्ण वा्ङ्मय, खंड-3, पृष्ठ- 57
[vii] बाबा साहेब डा. आंबेडकर संपूर्ण वांड्मय, खण्ड-19, पृष्ठ-23
[viii] स्कूल ऑफ माइन्स भारत सरकार के नियंत्रण में धनबाद में स्थित खनन, इंजीनियरी और भूविज्ञान में उच्च शिक्षा का एक बडा केन्द्र था.
[ix] बाबा साहेब डा. आंबेडकर संपूर्ण वांड्मय, खण्ड-19, पृष्ठ-24
[x] बाबा साहेब डा. आंबेडकर संपूर्ण वांड्मय, खण्ड-19, पृष्ठ-24
[xi] बाबा साहेब डा. आंबेडकर संपूर्ण वांड्मय, खण्ड-19, पृष्ठ-25
[xii] बाबा साहेब डा. आंबेडकर, संपूर्ण वा्ङ्मय, खंड-3, पृष्ठ- 55-56
[xiii] बाबा साहेब डा. आंबेडकर संपूर्ण वांडमय (भाग-4), पृष्ठ– 146
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