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सफल व्यवसाय से सीखें

दिलचस्प बात यह है कि इस व्यवसाय की शुरुआत उन लोगों में से किसी ने नहीं की जो हमारे देश में पारंपरिक रूप से कचरे को ठिकाने लगाने का काम करते आ रहे हैं। इस उद्योग की स्थापना करने वाले भाई बनिए हैं। किसी भंगी या अन्य दलित के दिमाग में ऐसा विचार क्यों नहीं आया

प्रिय दादू,

आपके पत्र बहुत दिलचस्प होते हैं और उनसे हमें ढेर सारी उपयोगी जानकारी मिलती है। परंतु आपकी बातें व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत प्रासंगिक प्रतीत नहीं होतीं। वे सैद्धांतिक अधिक होती हैं और व्यावहारिक कम। कृपया आप मुझे किसी ऐसे व्यवसाय का उदाहरण दें जो शुरू हो चुका हो।

सप्रेम,

दौलत

प्रिय दौलत,

सच यह है कि सभी व्यवसायों की शुरुआत तभी होती है जब कोई यह पाता है कि समाज में कोई ऐसी आवश्यकता है, जो पूरी नहीं हो रही है। उदाहरणार्थ, हमारे आस-पास ढेर सारा ‘कचरा’ होता है। इसमें कीड़े-मकोड़े और बीमारियां पलती हैं और हमें इससे छुटकारा पाना होता है। परंतु उसमें कुछ ऐसी उपयोगी चीजें भी होती हैं जिनका इस्तेमाल किया जा सकता है। इनमें शामिल हैं कचरे का जैविक हिस्सा, जिससे खेती में काम आने वाली खाद बनाई जा सकती है। जैविक कचरे से एस्बीओ गैस भी बनाई जा सकती है, जिसकी ऊर्जा का उपयोग खाना पकाने और घरों में प्रकाश करने के लिए किया जा सकता है। कचरे के गैर-जैविक हिस्से में भी अक्सर कई कीमती रासायनिक पदार्थ होते हैं।

कचरेमें कुबेर

पिछले कुछ सालों से बेकार हो चुके कम्प्यूटरों व अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणों का कचरा भी बहुत तेजी से बढ़ रहा है। मेरे पास दिल्ली से संबंधित आंकड़े तो नहीं हैं परंतु मुझे बताया गया है कि बेंगलुरु में हर साल 18,000 मीट्रिक टन ‘कम्प्यूटर-वेस्ट’ निकलता है। और इसकी मात्रा प्रतिवर्ष 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। इसके अलावा, भारत में हर वर्ष हजारों टन कम्प्यूटर-वेस्ट गैरकानूनी तरीके से आयात भी किया जाता है (भारत ने सन् 2010 में कम्प्यूटर-वेस्ट के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया था)।

एक केमिकल इंजीनियर अपना बेकार हो चुका लेपटॉप फेंकना चाहते थे। परंतु उन्हें बहुत खोजने पर भी ऐसा कोई तरीका नहीं मिला, जिससे वे अपने लेपटॉप को इस ढंग से नष्ट कर सकें कि उससे पर्यावरण को कोई हानि न पहुंचे। उनके दिमाग में यह प्रश्न आया कि क्या दुनिया में ऐसी कोई तकनीक उपलब्ध है जिससे कम्प्यूटर-वेस्ट को बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए ठिकाने लगाया जा सकता हो। उन्होंने यह विचार भी किया कि अगर ऐसी कोई तकनीक उपलब्ध है तो क्या उसका इस्तेमाल कर कोई नया व्यवसाय शुरू किया जा सकता है? उन्होंने अपने भाई के साथ मिलकर, सन् 2007 में, ऐसा व्यवसाय शुरू करने की योजना बनाई। इसके लिए भारी पूंजी की आवश्यकता थी। वे अपने व्यवसाय की योजना लेकर कई जगह भटके। उन्होंने ड्रिपर फिशर जर्विशटन व एनईए-इंडोयूएस वेंचर जैसे कई वित्तीय संस्थानों से संपर्क किया। एक साल के कठिन प्रयासों के बाद, उन्हें 60 लाख अमेरिकी डॉलर का कर्ज मिल गया और इस धन से उन्होंने ‘ऐटोरो रिसाईक्लिंग’ नामक कंपनी शुरू की।

आज पांच साल बाद, एटोरो, देश भर के 500 शहरों से हर महीने 1000 मीट्रिक टन कम्प्यूटर-वेस्ट इकट्ठा कर उसका पुनर्चक्रण कर रही है। इस ‘कचरे’ से एटोरो, प्लेटिनम, सोना व सेलिनियम जैसी कीमती धातुएं निकालती हैं। मार्च, 2013 में कंपनी ने पहली बार मुनाफा कमाया। उसका वार्षिक कारोबार 1.5 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया है। चूंकि हमारी दुनिया में कम्प्यूटर-वेस्ट की समस्या बढ़ती ही जा रही है इसलिए कंपनी की ख्याति पूरे विश्व में फैल गई और उसने अब मैक्सिको और आयरलैण्ड में भी अपने कारखाने स्थापित करने के लिए आवश्यक धन जुटा लिया है।

एटोरो की सफलता का राज यह है कि दोनों भाईयों ने इस काम के लिए उपलब्ध सभी तकनीकों का गंभीरता से अध्ययन किया। इन तकनीकों का इस्तेमाल दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां कम्प्यूटर-वेस्ट पुनर्चक्रण के लिए कर रहीं हैं। उन्होंने उपलब्ध तकनीकों में से ऐसी तकनीक चुनी जो कम खर्चीली थी और कम मात्रा में पुनर्चक्रण करने के लिए उपयुक्त थी। इस क्षेत्र में काम कर रही दुनिया की बड़ी कंपनियों के कारखानों की लागत कम से कम 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर है और लाभ कमाने के लिए उन्हें हर वर्ष कम से कम 1 लाख मीट्रिक टन कचरे का पुनर्चक्रण करना होता है। दोनों भाईयों ने मिलकर एक ऐसा छोटा संयंत्र स्थापित करने का तरीका खोज निकाला, जिसकी लागत मात्र 20 लाख डॉलर थी और जो प्रतिवर्ष 2000 मीट्रिक टन कचरे का पुनर्चक्रण करने में सक्षम था। आश्चर्य नहीं कि उनकी परियोजना सफल रही।

रूड़की में स्थापित एटोरो के 1 लाख वर्गफीट में फैले संयंत्र की स्थापना में कुल 20 लाख डॉलर खर्च हुए। परंतु दोनों भाईयों ने 60 लाख डॉलर का कर्ज लिया। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए क्योंकि संयंत्र को चलाने के लिए भी पैसा चाहिए होता है। कच्चा माल खरीदना पड़ता है और उसे रूड़की तक ढोना पड़ता है। कर्मचारियों के वेतन और कार्यालयीन खर्च के लिए भी धन चाहिए होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आपको अपने उत्पाद के विपणन के लिए धन की जरूरत होती है। इसके अलावा, सोना व अन्य ऐसी ही धातुओं की कीमतों में बहुत उतार-चढ़ाव आता रहता है। इसलिए आपके पास कम से कम इतना अतिरिक्त धन होना चाहिए कि आपको उस समय अपना उत्पाद न बेचना पड़े जब उसकी कीमत कम हो।

अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करें

दिलचस्प बात यह है कि इस व्यवसाय की शुरुआत उन लोगों में से किसी ने नहीं की जो हमारे देश में पारंपरिक रूप से कचरे को ठिकाने लगाने का काम करते आ रहे हैं। इस उद्योग की स्थापना करने वाले भाई बनिए हैं। किसी भंगी या अन्य दलित के दिमाग में ऐसा विचार क्यों नहीं आया? निस्संदेह हम में से कई इतने शिक्षित नहीं हैं कि इस तरह के तकनीक आधारित व्यवसाय को अपना सकें और हममें से कई इतने बड़े सपने देखने से डरते हैं। परंतु मुख्य कारण यह है कि हम अपनी वर्तमान जिंदगी के यथार्थ की जरूरत से ज्यादा नजदीक होते हैं।

रोजमर्रा के कामों से किंचित् मानसिक दूरी बनाकर ही हम कोई नया अवसर ढूंढ सकते हैं या कोई नया द्वार खोल सकते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि हम रोज चिंतन करने के लिए समय निकालें और उस समय हम अपनी सोच और कल्पनाशीलता पर किसी तरह की कोई रोक न लगाएं। परंतु यह भी ध्यान में रखना होगा कि व्यवसाय की जो पहली योजना हमारे दिमाग में आए, हम उस पर ही तुरत-फुरत अमल शुरू न कर दें। हमें उस विचार को उलट-पलटकर, हर कोण से बार-बार देखना चाहिए। संभव हो तो हमें दूसरों से चर्चा करनी चाहिए। कभी-कभी इससे हमें उपयोगी सुझाव मिल सकते हैं। कई योजनाओं पर गहराई से विश्लेषण करने के बाद हमें उनमें से एक चुनना चाहिए। यह भी आवश्यक नहीं है कि हम किसी नए व्यवसाय के बारे में ही सोचें। जो व्यवसाय दूसरे लोग अभी कर रहे हैं, उसे बेहतर ढंग से करने का नया तरीका भी हम खोज सकते हैं। नकल करने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते नकल, मूल से बेहतर हो।

मुझे उम्मीद है कि इससे तुम्हें हमारे देश का एक व्यावहारिक उदाहरण मिल गया होगा। तुम यदि अपनी आंखें खोलकर अपने आस-पास देखोगे तो तुम्हें नए विचारों और नए तरीकों का इस्तेमाल कर सफ लता हासिल करने वाले कई लोग दिख जाएंगे।

सप्रेम,

दादू           

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2014 अंक में प्रकाशित )


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

दादू

''दादू'' एक भारतीय चाचा हैं, जिन्‍होंने भारत और विदेश में शैक्षणिक, व्‍यावसायिक और सांस्‍कृतिक क्षेत्रों में निवास और कार्य किया है। वे विस्‍तृत सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक मुद्दों पर आपके प्रश्‍नों का स्‍वागत करते हैं

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