प्रिय दादू,
मेरे पति ने मुझे बताया है कि उनकी कंपनी जल्द ही उन्हें काम पर विदेश भेजने वाली है। यह उनकी पहली विदेश यात्रा होगी और हमें कम से कम एक साल वहां रहना होगा-शायद दो साल या उससे भी लंबे समय तक। मैं रोमांचित हूं और भयभीत भी। मुझे बताया गया है कि विदेशों में रहने से व्यक्ति बदल जाता है-और वह पहले से बेहतर नहीं बनता। क्या यह सही है? इस सिलसिले में क्या मैं कुछ कर सकती हूं या करना चाहिए?
सप्रेम,
हंसिका
प्रिय हंसिका,
मैं तुम्हारी भावनाएं समझ सकता हूं। तुम जो महसूस कर रही हो वह बहुत स्वाभाविक है। परंतु तुम्हें यह समझना चाहिए कि तुम्हारे पति, तुमसे भी अधिक रोमांचित होंगे। आखिर विदेश में काम करके उन्हें नए अवसर और जिम्मेदारियां निभाने का मौका मिलेगा। दूसरी ओर, उन्हें इस बात का गम भी होगा कि उन्हें उनके परिवार व मित्रों से दूर जाना पड़ेगा। दूसरी ओर, तुम्हारे मित्रों व परिजनों को भी इस बात का दुख होगा कि तुम उनसे दूर जा रही हो, यद्यपि वे यह सोचकर अपने मन को समझा रहे होंगे कि इससे तुम्हें जो नए अनुभव मिलेंगे, वे तुम्हें आनंद और ज्ञान दोनों देंगे। इसमें तो कोई शक है ही नहीं कि पेशेवर बतौर, यह तुम्हारे पति के लिए बहुत फायदेमंद होगा।
परंतु तुम यह बिलकुल ठीक कह रही हो कि जो चीज पेशेवर बतौर लाभप्रद हो वह व्यक्तिगत स्तर पर भी ऐसी होगी, यह आवश्यक नहीं है। जैसा कि मैंने आशा को लिखे अपने पत्र (फारवर्ड प्रेस, अगस्त 2014) में कहा था, अलग-अलग लोगों की उपस्थिति में हमारे व्यक्तित्व का अलग-अलग पक्ष सामने आता है। यही बात, अलग-अलग संदर्भों के लिए भी सही है। इसलिए जब तुम और तुम्हारे पति अलग परिस्थिति में और अलग लोगों के बीच रहोगे तो तुम लोग अपने आप ही अलग बन जाओगे। तुम्हारी अपेक्षाएं और विचार भी बदल जाएंगे और यह बहुत स्वाभाविक भी है।
इसका तुम्हारे पेशेवर, भावनात्मक, बौद्धिक व आध्यात्मिक जीवन पर सकारात्मक या नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़ सकते हैं और तुम्हारे आपसी रिश्ते भी इससे प्रभावित होंगे। इसलिए सबसे जरूरी यह है कि तुम दोनों एक-दूसरे का साथ दो क्योंकि तुम लोग एक अलग दुनिया में जा रहे हो जो तुम्हें चुनौती भी देगी और कुछ नया करने की प्रेरणा भी।
मैंने आशा को वार्तालाप और अवलोकन के महत्व के बारे में बताया था और ये दोनों निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण हैं। परंतु सबसे बड़ी चुनौती होगी समय की भारी कमी। विदेशों की जिंदगी बहुत व्यस्त है। वहां घरेलू कामकाज के लिए नौकर नहीं मिलते (जब तक कि तुम बहुत धनी न हो) इसलिए तुम्हें सभी काम स्वयं करने होंगे-खाना पकाने से लेकर साफ-सफाई तक और सामान खरीदने जाने से लेकर हिसाब-किताब रखने तक। वहां तुम्हें नौकरशाही से भी खुद ही निपटना होगा, यद्यपि विदेशों में, कम से कम पश्चिम में-नौकरशाही, यहां की तुलना में कहीं अधिक कार्यकुशल है।
भारत में तुम्हारे पति जितनी देर घर से बाहर रहते हैं, हो सकता है, विदेश में उससे कम या उससे ज्यादा समय बाहर रहें परंतु यह पक्का है कि यहां की तुलना में वहां वे कहीं अधिक तनावग्रस्त रहेंगे क्योंकि विदेशों में काम का बोझ बहुत ज्यादा रहता है व अक्सर कार्यालयों व व्यापारिक संस्थानों में अपेक्षाकृत कम लोगों को ढेर सारा काम करना होता है। काम की गुणवत्ता के मानक भी यहां की अपेक्षा कहीं ऊंचे रहते हैं। इसलिए, अगर तुम्हें अपने रिश्ते को जीवित रखना है तो यह जरूरी है कि तुम दोनों पर्याप्त समय एक साथ बिताओ।
इसके अलावा, तुम्हें एक-दूसरे से बातें करने और एक-दूसरे को अपनी बातें बताने की आदत भी डालनी होगी। यह मत सोचो कि ‘मैं उस महिला के बारे में अपने पति को क्यों बताऊं जो मुझे किराना दुकान में मिली थी। वे उसे जानते नहीं हैं और शायद ही कभी उससे मिलेंगे।’ और ना ही तुम अपने पति को यह सोचने का मौका दो कि तुम्हें उनके काम में कोई रुचि नहीं है (भले ही तुम उन तकनीकी शब्दों का अर्थ न समझ सको जिनका वे इस्तेमाल करते हैं-यद्यपि यह जान लो कि अधिकांश तकनीकी शब्दों का अर्थ समझना बहुत कठिन नहीं होता, बशर्ते तुम उन्हें समझने की कोशिश करो और अपने पति को इस बात के लिए राजी कर सको कि वे उनके अर्थ तुम्हें समझाएं)।
इसके अलावा, एक और बात का ध्यान रखो। अगर तुम्हारे पति विदेश में काम करने की चुनौती का सफलतापूर्वक सामना कर सकेंगे तो इससे उनके व्यक्तित्व में निखार आएगा। इसके लिए तुम्हें उनके कदम से कदम मिलाकर चलना होगा। यह सोचो कि तुम कौन-से नए कौशल सीख सकती हो या तुममें ऐसी कौन-सी योग्यता है जो वहां तुम्हारे काम आ सकती है। याद रखो, विदेशों में हमारे देश की तुलना में कहीं अधिक अवसर उपलब्ध होते हैं।
तुम अपने और अपने पति के बीच बदलते शक्ति संतुलन पर भी चिंतन करो। शुरुआत में तुम्हें ऐसा लग सकता है कि तुम अपने पति पर अत्यधिक निर्भर हो गई हो और यह तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा। तुम्हें ऐसा लग सकता है कि तुम केवल अपने पति की पिछलग्गू हो और तुम्हें जबरन घसीट कर एक अनजान देश में पटक दिया गया है। आखिरकार, तुम विदेश क्यों गई-तुम्हारे पति की नौकरी की खातिर, उनकी कंपनी के कारण, उनकी व्यावसायिक जरूरत की पूर्ति के लिए। परंतु यह सब सोच-सोचकर अपना दिल छोटा करने की बजाय तुम्हें अपने पति पर अधिक निर्भरता के इस दौर को एक अवसर की तरह लेते हुए, उनसे अपने रिश्ते और मजबूत बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
जैसे-जैसे तुम नए मित्र बनाओगी व अपने पुराने व नए शौकों में अधिक रुचि लोगी, तुम्हारी पति पर निर्भरता कम होती जाएगी और तुम स्वयं को अधिक स्वतंत्र महसूस करोगी। वे इसे पसंद करेंगे या नहीं, यह इस पर निर्भर करेगा कि जो नई चीजें तुम सीख रही हो और जो नए काम तुम कर पा रही हो, उनसे वे उतने ही रोमांचित व प्रसन्न हैं या नहीं, जितनी कि तुम। इसलिए प्रयास यह करना कि तुम्हारे पति तुम्हारे उत्साह में सहभागी बनें और उन्हें लगे कि तुम जो कुछ नया सीख रही हो या कर रही हो, उसका श्रेय अंशत: उन्हें भी है।
जैसे-जैसे तुम नई चीजें करना शुरू करोगी और तुम्हारे पति को नई जिम्मेदारियां मिलेंगी, यह और भी जरूरी होगा कि तुम यह सुनिश्चित करो कि तुम दोनों के जीवन में कोई समान या साझा उद्देश्य हो। कब-जब बच्चे वह साझा उद्देश्य प्रदान कर सकते हैं परंतु इसके लिए केवल बच्चों पर निर्भर होना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। तुम दोनों की साझा रुचियां भी होनी चाहिए चाहे वे बौद्धिक हों, आध्यात्मिक, राजनीतिक या कोई और। और यदि कोई भी ऐसी चीज नहीं है, जिसमें तुम दोनों की रुचि हो तो जल्दी से जल्दी उसे ढूंढ़ने का यत्न करो।
कुल मिलाकर, विदेश में रहने से जहां एक ओर आगे बढऩे की अपार संभावनाएं उपलब्ध होती हैं वहीं कठिन चुनौतियों का सामना भी करना पड़ता है। और इन चुनौतियों से मुकाबला, एक दूसरे का साथ देकर, एक दूसरे में रुचि लेकर ही किया जा सकता है।
सप्रेम,
दादू
(फारवर्ड प्रेस के सितम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in
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