कमलेश वर्मा की यह किताब कबीर विषयक विमर्श का एक पृथक गवाक्ष है, जहां से हम कुछ बुनियादी सवालों से रू-ब-रू होते हैं। विद्धान लेखक ने कबीर की सामाजिकता गहराई से विचार किया है और रूसी आलोचाक चेर्नीशेक्की की तरह उनका आग्रह है कि इससे गुजरे बिना हम उनकी कविता का सम्यक विश्लेषण कर ही नहीं सकते। अपना अध्ययन प्रस्तुत करते हुए वह अपने पूर्ववर्ती अनेक महार्घ विद्वानों को वैचारिक चुनौती भी देते हैं। वह उन विद्वानों की खबर भी लेते हैं जो कबीर को लेकर किस्म-किस्म की दावेदारी कर रहे हैं। सब मिलाकर यह किताब अपने दिलचस्प विश्लेषण और केवल विचारों के लिए लंबे समय तक याद की जाएगी – प्रेमकुमार मणि
नामवर सिंह, पुरूषोत्तम अग्रवाल और धर्मवीर सहित अन्य दलित लेखकों के कबीर संबंधी विमर्श को चुनौती देते युवा लेखक कमलेश वर्मा की पुस्तक ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ को पढ़ना प्रीतिकर अनुभव रहा। आलोचना से जब बेबाकी, निर्भीकता, तर्कशीलता, सच्चाई आदि गुण कम हो रहे हैं तब कबीर के एक अध्येता की पुस्तक में इन गुणों की मौजूदगी हिंदी आलोचना के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हुई लगी – गोपेश्वर सिंह
भक्ति आंदोलन धार्मिक आवरण में सामाजिक मुक्ति का एक व्यापक आंदोलन था। सामाजिक मुक्ति का सबसे प्रखर स्वर कबीर की रचनाओं में सुनाई देता है। यही कारण है कि अन्य भक्त कवियों की तुलना में कबीर अधिक प्रासंगिक और सामाजिक विमर्श से जुड़ी बहसों के केंद्र में हें। कमलेश वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ के माध्यम से इन बहसों में सार्थक हस्तक्षेप किया है – दिनेश कुमार
कबीर को हम किस जाति में जनमा मानते हैं? कबीर स्वयं को किस जाति का बताते हैं? आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. धर्मवीर और प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तकों से कबीर की जाति के बारे में उपलब्ध तथ्यों को यहाँ रखा जा रहा है। कबीर को दलित या अछूत या अस्पृश्य बताने वाली व्याख्याएँ भी यहाँ रखी जा रही हैं। इन सबका उद्देश्य यह पता लगाना है कि कबीर की सामाजिक पृष्ठभूमि आखिर क्या थी? कमलेश वर्मा, फारवर्ड प्रेस, 30 अप्रैल 2016
युवा आलोचक ‘कमलेश वर्मा’ की पुस्तक ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ कबीर को नए नजरिए से देखने की प्रस्तावना करती है। पुस्तक कबीर पर लेखक के जाति सम्बन्धी निबंधों का संकलन है, जो समय-समय पर अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। पुस्तक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि लगभग दो दशक पूर्व तक आलोचना के क्षेत्र में ‘मार्क्सवादी विमर्श के वर्चस्व’ के दौरान शायद इस किस्म की बहस की गुंजाइश नहीं थी। लेखक पुस्तक की भूमिका में इस ओर इशारा भी करता है। “कबीर की जाति और धर्म को लेकर कई प्रकार के दावे किए जाते रहे हैं। अनेक अगर-मगर के बीच कबीर के दो सामाजिक पक्ष हमारे सम्मुख हैं, एक यह है कि कबीर दलित थे और दूसरा कबीर मनुष्य थे। डॉ. धर्मवीर पहले पक्ष में हैं और डॉ. पुरूषोत्तम अग्रवाल दूसरे पक्ष में। पहला पक्ष कबीर के सामाजिक पक्ष पर दलित दृष्टि से विचार करता है जबकि दूसरा पक्ष इसे गौण करने का प्रयास करता है – स्वदेश कुमार सिन्हा, फारवर्ड प्रेस, 20 जनवरी 2018