महिषासुर अब एक कल्पना नहीं, वास्तविकता है। मेरे इस वक्तव्य का आधार यशस्वी लेखक और पत्रकार प्रमोद रंजन द्वारा संपादित ताजातरीन किताब ‘महिषासुर : मिथक और परंपराएँ’ है। इस किताब में सत्ताईस लेखकों की रचनाएँ शामिल है, जिन्हें पाँच खंडों में बाँटा गया है। सभी लेखों में महत्वपूर्ण जानकारी है या कहिए कुछ निश्चित जानकारी तक पहुँचने की ईमानदार कोशिश है। सभी लेखक उस संभावित संस्कृति की खोज में हैं जिसका संघर्ष आर्य या ब्राह्मण संस्कृति से हुआ था और जिसमें पराजित हो कर वह नष्ट हो गयी थी। लेकिन कोई भी इतिहास पूरी तरह से जाता नहीं है। घटनाएँ भुला दी जाती हैं, पर उनके नायक-नायिकाएँ मिथक के रूप में जन-स्मृति में बने रहते हैं। महिषासुर या भैंसासुर ऐसा ही एक मिथक है, जिसके पीछे भयावह वास्तविकताएँ छुपी हुई नजर आती हैं।
देवी दुर्गा ने महिषासुर की हत्या की थी। दुर्गा गोरी हैं और महिषासुर का रंग काला था। महिष का अर्थ भैंस होता है। इसी से महिषासुर भैंसासुर बन गया। दुर्गा को महिषासुर की हत्या क्यों करनी पड़ी? क्योंकि वह आर्य संस्कृति पर हमला कर रहा था और देवताओं के राजा इंद्र तक को पराभूत कर दिया था। यहाँ हम दो संस्कृतियों के संघर्ष की कहानी को खुलते हुए पाते हैं। प्रमोद रंजन ने महिषासुर की खोज में अपने मित्र राजन के साथ बुंदेलखंड की यात्रा का बहुत ही सरस वर्णन किया है।
प्रमोद और राजन के पास सिर्फ दो तस्वीरें थीं – ‘एक तस्वीर में पत्थर का एक ढाँचा है जो न मंदिर की तरह दिखता है, न ही घर की तरह। वह पत्थर की अनगढ़ सिल्लियों से बनी छोटी-सी झोपड़ी जैसा है। दूसरी तस्वीर में किसी सड़क पर लगा एक साइनबोर्ड है, जिस पर लिखा है – “भारत सरकार : केंद्रीय संरक्षित स्मारक, भैंसासुर स्मारक मंदिर, चौका तहसील, कुलपहाड़ – भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, लखनऊ मंडल, लखनऊ, उपमंडल महोबा, उत्तर प्रदेश।”। इन दो धुँधले संकेतों के साथ जो एक लंबी सांस्कृतिक यात्रा संपन्न होती है, उसमें महिषासुर नाम के प्राचीन राजा के इतने स्मारक, अवशेष और मिथक मिलते हैं कि हम प्राचीन भारत का जो इतिहास जानते हैं, उसका एक प्रति-संस्करण उभरने लगता है। संकलन में शामिल कई लेख भारत के विभिन्न क्षेत्रों में महिषासुर या ऐसे ही लोकनायकों के बारे में विस्तृत जानकारी देते हैं, जिनके लिए संभ्रांत इतिहास या साहित्य में कोई जगह नहीं है, पर जिनके साथ साधारण जनता, खासकर दलित और मध्यवर्ती जातियों, का जीवन गुँथा हुआ है और जो उनके सांस्कृतिक जीवन में अनेक रूपों में और अनेक प्रसंगों के साथ उपस्थित हैं।
वैदिक काल से ही हम आर्य-अनार्य संघर्ष के बारे में जानते हैं। इस संघर्ष में आर्य विजयी हुए थे। भारत के पढ़े-लिखे लोग अपने को उन्हीं आर्यों की संतान मानते हैं। लेकिन काफी मंथन के बाद भी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि अनार्य कौन थे, उनका सामाजिक संगठन कैसा था, उनकी जीवन शैली क्या थी और पराजित होने के बाद वे किस प्रक्रिया में आर्य संस्कृति के साथ घुल-मिल गये। क्या ये असुर ही द्रविड़ संस्कृति के निर्माता थे, जो डॉ. भीमराव अंबेडकर के शोध के मुताबिक एक समय पूरे भारत में छायी हुई थी? डॉ. सिद्धार्थ का लेख बतलाता है कि डॉक्टर साहब ने इसे नाग संस्कृति की संज्ञा दी है और कहा है कि तमिल ही, जो सभी मान्यताओं के अनुसार संस्कृत से पुरानी भाषा है, बाद में द्रविड़ हो गया।
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‘गोंडी पुनेम दर्शन और महिषासुर’ शीर्षक अत्यंत सारगर्भित लेख के लेखक संजय गोठे के अनुसार, ‘इसी तरह प्राचीन जनजातीय समाजों में बहुपति की व्यवस्था भी पायी जाती थी, जिसमें पुनः स्त्री को केंद्रीय स्थान प्राप्त था। इस प्रकार विस्तार से देखा जाये तो मातृसत्तात्मक परिवार, वधूमुल्य, घोटुल, विवाह, पुनर्विवाह और तलाक में स्त्री अधिकारों का होना और सब से प्रमुख स्त्री की उर्वरा शक्ति को प्रकृति की उर्वरा शक्ति से जोड़ कर देखना एक बहुत प्राचीन भारतीय भौतिकवादी दर्शन की तरफ इशारा करता है। इसे लोकायत दर्शन कहा गया है।’ यह एक ऐसी संस्कृति थी, जिसमें जाति प्रथा नहीं थी, सामाजिक विषमता नहीं थी, कर्मकांड नहीं थे और लोग प्रकृति की छाँव में सुखी और सामूह-बद्ध जीवन जीते थे।
आर्य या ब्राह्मण संस्कृति से विद्रोह सब से पहले तमिलनाडु में उभरा था, जिसके अनुयायी संस्कृत और संस्कृत ग्रंथों का विरोध करते थे और अपने को अनार्य संस्कृति का उत्तराधिकारी मानते थे। पिछले कुछ वर्षों से उत्तर भारत की नीची मानी जाने वाली जातियों में भी इस लुप्त संस्कृति के बारे में जिज्ञासा पैदा हुई है और वे अपने पूर्वजों की खोज में लग गये हैं। कहने की जरूरत नहीं कि यह उस ब्राह्मणवादी संस्कृति की प्रतिक्रिया में हुआ है, जो समाज को कुलीन और शूद्र में बाँटती है, श्रमजीवी वर्ग को हेय दृष्टि से देखती है और स्त्री को कैद करके रखती है। इससे मुक्ति पाने के लिए डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को अपनाया था, लेकिन शोषित और वंचित वर्गों के बुद्धिजीवी उस प्राचीन संस्कृति की कड़ियों की तलाश में बड़े उत्साह के साथ लगे हुए हैं जो वे मानते हैं कि उनकी अपनी मूल संस्कृति थी। यह अफसोस की बात है कि इतिहास की स्थापित धारा के विद्वान इस वैकल्पिक विद्वत्ता के प्रति उदासीन हैं। कायदे से यह एक राष्ट्रीय प्रयत्न होना चाहिए।
इतिहास को न जानने से इतिहास को जानना हमेशा अच्छा होता है। भारत का प्राचीन इतिहास अभी भी कुहरे में खोया हुआ है। तथ्यों के बजाय मिथकों की बहुतायत है और पुराणों ने पुराकथा का स्थान ले लिया है। ऐसे माहौल में अगर एक वैकल्पिक इतिहास के धुँधले सूत्र दिखाई पड़ने लगे हैं, तो इसे एक नये सूर्योदय के रूप में लेना चाहिए। देशप्रेम का अर्थ यह भी है कि अपने देश को अच्छी तरह जाना जाये। इस दृष्टि से‘महिषासुर : मिथक और परंपराएँ’ जैसे शोध ग्रंथों का निश्चित रूप से महत्व है।
लेकिन यह सवाल भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि आज हम महिषासुर का क्या करें? यह तो कोई नहीं चाहेगा कि हम उस संस्कृति को अपना लें। यह धारणा भी एकतरफा है कि आर्य संस्कृति की सभी उपलब्धियाँ नकारात्मक हैं। आज कोई दावे के साथ नहीं कह सकता कि वह आर्य है या अनार्य। दलित भी गोरे दिखाई पड़ जाते हैं और ब्राह्मण भी काले मिल जाते हैं। शायद एक साझा संस्कृति ही हमारा वाजिब भविष्य है, जिसमें हम अपने देश के सांस्कृतिक द्वंद्वों को जानते और समझते हुए एक ऐसा समाज बना सकते हैं, जो न केवल भारत की सभी बौद्धिक और सांस्कृतिक परंपराओं को भली भाँति जानते और समझते हुए विश्व संस्कृति के श्रेष्ठतम तत्वों को एक वैज्ञानिक संस्कृति में समाहित कर सके, बल्कि सभी देशवासियों को एक सूत्र में बाँध सके। महिषासुर को प्रेम और न्याय का प्रतीक बनाया जाना चाहिए।
(दैनिक जागरण के 24 दिसंबर के राष्ट्रीय संस्करण में ‘महिषासुर का सांस्कृतिक भविष्य’ शीर्षक से प्रकाशित)
किताब : महिषासुर : मिथक और परंपराएं
संपादक : प्रमोद रंजन
मूल्य : 350 रूपए (पेपर बैक), 850(हार्डबाऊंड)
पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली
प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)
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