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दलितों और आदिवासियों के आरक्षण पर खतरा

सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर दलितों और आदिवासियों में क्रीमीलेयर निर्धारित कर आरक्षण नहीं दिये जाने की बात कही गयी है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा सहित तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने इस मामले में संज्ञान लिया है। इस पूरी खबर और आरक्षण खत्म करने की साजिश के खिलाफ विस्तार से बता रहे हैं सत्येंद्र मुरली :

देश में पिछड़े वर्ग के आरक्षण में क्रीमीलेयर के बाद अब देश के आरक्षण विरोधियों की नजर दलितों और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण पर है। हाल ही में दलितों और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण में क्रीमीलेयर की मांग करने के बाबत एक मामला उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में जनहित याचिका के जरिए लाया गया। इस याचिका की सुनवाई प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर तथा न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की खंडपीठ ने की।

सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने पहली सुनवाई में इस याचिका को महत्वपूर्ण माना। खंडपीठ ने याचिकाकर्ता संगठन समता आंदोलन समिति को निर्देश दिया कि वह इस याचिका की एक प्रति केंद्र सरकार को एक सप्ताह के अंदर भेजें। साथ ही खंडपीठ ने इस मामले की अगली सुनवाई दो सप्ताह बाद किये जाने का निर्देश दिया।

सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने शुरू की याचिका पर सुनवाई

याचिका में कही गयी है दलितों और आदिवासियों में क्रीमीलेयर की बात

याचिकाकर्ता समता आंदोलन समिति द्वारा याचिका में कहा गया है कि एससी और एसटी के लिए आरक्षण और अन्य सरकारी योजनाओं के लाभ वास्तविक लाभार्थियों तक नहीं पहुंच रहे हैं क्योंकि इन समुदायों में क्रीमी लेयर हैं जो आरक्षण के लाभ उठा ले जाते हैं।

आरक्षण विरोधियों का संगठन है समता आंदोलन समिति

समता आंदोलन समिति का पंजीकरण राजस्थान में एनजीओ के रूप में की गयी। बाद के दिनों में इसका विस्तार मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, गुजरात और पंजाब में हुआ। समिति का मुख्यालय द्वारका(दिल्ली) में है। इसके संस्थापकों में राजस्थान के पूर्व पुलिस महानिदेशक अमिताभ गुप्ता के अलावा सेवानिवृत्त न्यायाधीश पंचानंद जैन हैं। इस समिति का नारा है – “आरक्षण हटाओ, प्रेम बढ़ाओ, देश बचाओ”। यह समिति 2016 में केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान को बर्खास्त करने की मांग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भेज चुकी है। इसके अलावा पिछले वर्ष समिति ने पदोन्नति में आरक्षण की मांग करने वाले राजनेताओं व लोकसेवकों को उनके पद से बर्खास्त करने व उनके विरूद्ध फौजदारी मुकदमा चलाने को लेकर आंदोलन चलाया था।

याचिका में है कही गयी है आधी सच्चाई

याचिका का उपरोक्त कथन तो करीब-करीब सही हैं, लेकिन जो कारण बताया गया है, वह कथन की सही व्याख्या नहीं करता है। वजह यह कि इसके पीछे के वास्तविक मुख्य कारणों पर नज़र डालें, तो सबसे पहले जो वजह सामने आती है वह यह है कि विभिन्न सरकारों की मंशा व नीतियां, एससी व एसटी के आरक्षण के विरूद्ध रही हैं। दरअसल, पिछले कई दशकों से विभिन्न सरकारों द्वारा लगातार निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। आऊटसोर्सिंग के कारण सरकारी क्षेत्र में नौकरियां भी तेजी से घटी हैं। इसके चलते एससी व एसटी का आरक्षण भी निष्प्रभावी हुआ है। इसके बावजूद भी विभिन्न सरकारों द्वारा आज तक भी निजी क्षेत्र में एससी व एसटी के आरक्षण की व्यवस्था नहीं की गई है।  यह एक बेहद ही गंभीर व महत्वपूर्ण मुद्दा है। महत्वपूर्ण यह भी कि सरकारी नौकरियों में ठेका प्रथा अथवा संविदा प्रणाली को भी लागू कर दिया गया, जहां आरक्षण व्यवस्था की अवहेलना की गई।

दलितों और आदिवासियों के साथ हकमारी

वर्ष 2014 में, केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार बनने के बाद तो निजीकरण को और अधिक गति प्रदान की गई है। नरेंद्र मोदी ने तो पीएम बनने के बाद साफतौर पर कहा कि वे सारे सरकारी कब्जों को हटा कर, सरकार के दायरे को छोटा कर रहे हैं। पीएम मोदी डिरेग्यूलराइजेशन को अपना दर्शन बताते हैं और सबकुछ निजी हाथों में सौंपना चाहते हैं। एक अहम बात यह भी है कि लंबे समय तक तो एससी व एसटी के उम्मीदवारों को ‘नॉट एलिजिबल’ अथवा ‘योग्य नहीं’ बताकर एससी व एसटी के पदों को रिक्त रखा जाता रहा है। वर्तमान स्थिति तो यह है कि आजादी से लेकर अभी तक के एससी व एसटी के बैकलॉग को पूरी तरह से भरा ही नहीं जा सका है।

सवाल उठता है कि एससी व एसटी के आरक्षण पर ज्यादा मार कब से पड़ना शुरु हुई?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दी आरक्षण विरोधियों को शह

मंडल के लागू होने के साथ ही शुरू हो गई थी आरक्षण के खिलाफ साजिश

नब्बे के दशक में तात्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को भारी राजनैतिक दबाव के चलते आखिरकार ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) के आरक्षण के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करना पडा था। देशभर में ओबीसी के आरक्षण के विरोध में ख़ासतौर पर सवर्ण जाति के लोगों ने मंडल कमीशन का विरोध किया और ‘कमंडल’ आंदोलन चलाया। वी.पी.सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन कर रही भारतीय जनता पार्टी ने अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार को गिरा दिया।  इतना ही नहीं, भाजपा ने बहुजन राजनीति अथवा सामाजिक न्याय की राजनीति को काउंटर करने के लिए राम मंदिर निर्माण का आंदोलन शुरु किया। हिंदुत्व की आड़ में भाजपा का मकसद दलितों-पिछड़ों को आगे बढ़ने से रोकना था।

बाद में पी.वी.नरसिम्हा राव के नेतृत्व में बनी कांग्रेस की सरकार उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की नीति लाई और कांग्रेस ने इन नीतियों को देश के एससी, एसटी व ओबीसी के विरूद्ध बेहद ही क्रूर तरीके से लागू किया। सरकारी कंपनियों को घाटे में दिखाकर उनका विनिवेशीकरण व निजीकरण किया जाने लगा। इसके चलते सरकारी नौकरियों में लगातार कमी होती चली गई। लंबे संघर्षों के बाद हासिल हुआ आरक्षण का हक मारा जाने लगा। कांग्रेस अपने मकसद में कामयाब हो गई। इसे सीधे तौर पर दलितों-पिछड़ों अथवा सामाजिक न्याय की हार और ‘बहुजन आरक्षण’ विरोधी सवर्णों की जीत के तौर पर देखा जाने लगा।

क्रीमीलेयर इकलौता सवाल नहीं

एक अहम बात यह भी है कि संविधान निर्माण के समय एससी व एसटी की जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण दिया जाना तय हुआ था। वर्तमान में एससी व एसटी की जनसंख्या का प्रतिशत, पूर्व के आंकड़े से आगे बढ़ चुका है, लेकिन संवैधानिक प्रावधान होने के बावजूद भी एससी व एसटी की मौजूदा बढ़ी हुई जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण को नहीं बढ़ाया गया है। वर्तमान में सरकारी नौकरियों, शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में एससी व एसटी को आरक्षण का बहुत ही कम फायदा मिल रहा है। जो कुछ भी संभव हो रहा है, उसका काफी हद तक फायदा क्रीमीलेयर उठा रहा है। सवाल उठता है कि एससी व एसटी को मिलने वाले आरक्षण का फायदा उनके निचले स्तर तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा है? याचिका में एससी व एसटी के क्रीमीलेयर को ही इसका इकलौता दोषी बताया गया है, जो कि सरासर गलत है।

याचिका में की गयी है असंवैधानिक मांग

सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में एससी व एसटी के क्रीमीलेयर को आरक्षण से बाहर करने की मांग की गई है। यह मांग पूरी तरह से अनुचित व असंवैधानिक है। संविधान में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर दर्ज किया गया है न कि उनके आर्थिक आधार पर। वर्तमान में भी अनुसूचित जातियों के साथ छुआछूत व भेदभाव किया जाता है। अस्पृस्यता अथवा छुआछूत की शिकार जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल किया गया है। ऐसे में एससी व एसटी के भीतर तो क्रीमीलेयर बनाया जा सकता है, लेकिन क्रीमीलेयर को एससी व एसटी के आरक्षण से बाहर नहीं किया जा सकता है।

लोगों की तस्वीर

क्या है आरक्षण विरोधियों की मंशा?

दरअसल याचिकाकर्ता क्रीमीलेयर के नाम पर एससी व एसटी को तोड़ना व उनका बहिष्करण चाहते हैं। यदि याचिकाकर्ता वाकई में एससी व एसटी का भला चाहते होते तो, आरक्षण को और अधिक समावेशी बनाने की बात करते। याचिकाकर्ता क्रीमीलेयर को आरक्षण से बाहर करने के बजाय आरक्षण के भीतर ही रखते हुए, उसे द्वितीय प्राथमिकता देने की बात कर सकते थे। यहां इस बात का भी जिक्र करना जरूरी हो जाता है कि ओबीसी के क्रीमीलेयर को अनुचित तरीके से ओबीसी आरक्षण से बाहर कर दिया गया था। इसके चलते एक तो ओबीसी की सीटें खाली रहने की संभावना बहुत ज्यादा बढ़ गई. जबकि यदि ओबीसी के क्रीमीलेयर को द्वितीय प्राथमिकता के साथ आरक्षण के भीतर ही रखा जाता, तो ओबीसी की किसी भी सीट के खाली रह जाने की संभावना को न्यूनतम किया जा सकता था।

सामाजिक और राजनीतिक ताकत क्षीण करने की साजिश

क्रीमीलेयर के जरिए आरक्षण खत्म करने की साजिश रचने वालों का मूल षडयंत्र दलितों और पिछड़ों की राजनीतिक ताकत को खत्म करना है। ओबीसी आरक्षण से बाहर हो जाने के कारण क्रीमीलेयर के लोगों का, आरक्षण के मुद्दे से अलगाव पैदा हो गया। इस अलगाव के चलते क्रीमीलेयर, आरक्षण के मुद्दे पर होने वाली रैलियों अथवा सम्मेलनों से गायब रहा। इससे ओबीसी की एकता, ताकत व आरक्षण की लड़ाई कमजोर हुई। ओबीसी के क्रीमीलेयर को आरक्षण के भीतर शामिल करवाने के लिए संघर्ष किए जाने की जरूरत है।

एससी और एसटी के क्रीमीलेयर को मिले द्वितीय प्राथमिकता का हक

एससी व एसटी के क्रीमीलेयर को द्वितीय प्राथमिकता के साथ, आरक्षण के भीतर ही रखा जाना चाहिए। इससे एससी व एसटी का आरक्षण और ज्यादा समावेशी बनेगा। एससी व एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर को द्वितीय प्राथमिकता पर रखे जाने के कारण, एससी व एसटी का क्रीमीलेयर सामान्य वर्ग में प्रतिस्पर्धा करने के लिए भी प्रेरित हो सकेगा। इस प्रकार दलितों की एकता, ताकत व उनके आरक्षण की लड़ाई को मजबूती व एक नई दिशा मिलेगी।


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लेखक के बारे में

सत्येंद्र मुरली

लेखक सत्येंद्र मुरली लंबे समय से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और न्यूज चैनलों में सक्रिय रहे हैं।

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