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टीपू सुल्तान को लेकर इतने असहज क्यों दिखते हैं चंद लोग?

अभी हाल ही में दिल्ली विधानसभा में देश के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों व महान पुरूषों की तस्वीर लगायी गयी। इसमें 1857 के गदर से पहले अंग्रेजों को शिकस्त देने वाले मैसूर के लोकप्रिय शासक टीपू सुल्तान की तस्वीर भी शामिल है। इसका विरोध आरएसएस ब्रिगेड द्वारा किया जा रहा है। यह विरोध नया नहीं है। इस विरोध के निहितार्थ क्या हैं, बता रहे हैं सुभाष गाताडे :

वर्ष 1799 में श्रीरंगपटटनम की भूमि पर अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे मैसूर के लोकप्रिय शासक टीपू सुल्तान (20 नवम्बर 1750 – 4 मई 1799)। वे पिछले दिनों नए सिरे से सूर्खियों में आए। प्रसंग था दिल्ली विधानसभा में राज्य की सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों एवं अन्य महान शख्सियतों की तस्वीरें लगाने का। ध्यान रहे इन तस्वीरों में सुभाष चन्द्र बोस, अशफाक उल्ला खां, भगत सिंह आदि की तस्वीरें शामिल हैं।[1]

दिल्ली विधानसभा में टीपू सुल्तान की तस्वीर का अवलोकन करते विधानसभा अध्यक्ष रामनिवास गोयल व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल

सवाल उन्हीं लोगों ने उठाया जो ‘‘मैसूर के इस शेर’’ को लेकर लगातार असहज होते दिखे हैं। दिल्ली में विपक्ष में बैैठे भाजपा के सदस्यों ने कहा कि वह एक ‘‘विवादास्पद व्यक्ति’’ की तस्वीर सदन में नहीं लगने देना चाहते। सूबा कर्नाटक में पिछले कुछ सालों से जबसे टीपू जयंती मनायी जा रही है, तभी से उनकी बेचैनी लगातार होती आयी है। याद रहे कि पिछले ही साल कैबिनेट मंत्री अनंत कुमार हेगडे द्वारा सुल्तान को लेकर दिए गए वक्तव्य की काफी आलोचना हुई थी।[2]

जब कर्नाटक सरकार ने यह निर्णय लिया था कि 26 जनवरी की दिल्ली की परेड में टीपू के सम्मान में झांकी निकालेंगे, तब भी इन ताकतों ने उसका विरोध किया था। यहां तक कि जब तत्कालीन संप्रग सरकार ने श्रीरंगपटटनम जहां टीपू शहीद हुए थे, वहां जब एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम से खोलने का प्रस्ताव रखा था, तब भी इन ताकतों ने उसका विरोध किया था।

प्रश्न उठता है कि भारत की संविधान की किताब में (पेज 144) में बहुत आदर के साथ फोटो के साथ उल्लेखित टीपू सुल्तान, जो उन गिने-चुने राजाओं में थे जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए युद्ध के मैदान में वीरगति प्राप्त की थी, को लेकर उन्हें किस तरह की परेशानी है? याद रहे कि श्रीरंगपटटनम की ऐतिहासिक लड़ाई में  मौत का वरण किए टीपू सुल्तान की शहादत 1857 के महासमर के लगभग पचास साल पहले हुई थी और बहुत कम लोग हक़ीकत से वाकिफ हैं कि ब्रिटिशों के खिलाफ संघर्ष में टीपू सुल्तान ने अपने दो बच्चों को भी खोया था।

26 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस परेड में कर्नाटक सरकार द्वारा निकाली गयी झांकी

याद रहे कि अपने वक्त़ से बहुत आगे चल रहे टीपू, जो विद्वान, फौजी एवं कवि भी थे, वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे, उन्हें नयी खोजों के प्रति बहुत रूचि रहती थी और उन्हें दुनिया के पहले युद्ध राॅकेट का अन्वेषक कहा जाता है। टीपू फ्रेंच इन्कलाब से भी प्रभावित थे और मैसूर का शासक होने के बावजूद अपने आप को नागरिक के तौर पर सम्बोधित करते थे एवं उन्होंने अपने राजमहल में ‘स्वतंत्रता’ के पौधे को भी लगाया था। इतिहास इस बात का गवाह है कि टीपू ने ब्रिटिशों के इरादों को बहुत पहले भांप लिया था और घरेलू शासकों तथा फ्रेंच, तुर्क और अफगाण शासकों से रिश्ते कायम करने की कोशिश की थी ताकि ब्रिटिशों के वर्चस्ववादी मंसूबों को शिकस्त दी जा सके एवं उन्होंने अपनी बेहतर योजना और उन्नत तकनीक के बलबूते दो बार ब्रिटिश सेना को शिकस्त दी थी।

उनके झंझावाती जीवन का एक प्रसंग जो हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा प्रचारित की जा रही उनकी छवि के विपरीत स्पष्ट तौर पर दिखता है, उसकी चर्चा करना समीचीन होगा। वह 1791 का साल था जब मराठा सेनाओं ने श्रंगेरी शंकराचार्य मठ और मंदिर पर हमला किया, वहां के तमाम कीमती सामानों की लूटपाट की एवं कइयों को मार डाला। पदासीन शंकराचार्य ने टीपू सुल्तान से सहायता मांगी, टीपू ने तत्काल बेदनूर के असफ को निर्देश दिया कि वह मठ की मदद करे। शंकराचार्य और टीपू सुलतान के बीच हुआ तीस पन्नों का पत्राचार, जो कन्नड भाषा में उपलब्ध है, उसकी खोज मैसूर के पुरातत्व विभाग ने 1916 में की थी। मठ पर हुए हमले को लेकर टीपू लिखते हैं :

“ऐसे लोग जिन्होंने इस पवित्र स्थान का अपवित्रीकरण किया है उन्हें अपने कुकृत्यों की इस कलियुग में जल्द ही सज़ा मिलेगी, जैसे कि कहा गया है ‘लोग शैतानी कामों को हंसते हुए अंजाम देते हैं, मगर उसके अंजाम  को रोते हुए भुगतते हैं।’ (सदभ्भी क्रियते कर्मा रूदादभिर अनुभूयते)”

यह देखना समीचीन होगा कि आखिर हिन्दुत्व ब्रिगेड के लोग टीपू सुल्तान से क्यों नफरत करते हैं और उनके आरोपों का क्या आधार है?

मगर इस पर रौशनी डालने के पहले यह देखना उचित रहेगा कि किस तरह ब्रिटिशों की ‘बांटो’ और ‘राज करो’ की नीति के तहत  इतिहास के विेकृतिकरण का काम टीपू सुल्तान को लेकर लम्बे समय से चल रहा है। इस सन्दर्भ में हम राज्यसभा में दिए गए प्रोफेसर बी एन पांडे के भाषण को देख सकते हैं, जो उन्होंने 1977 में ‘साम्राज्यवाद की सेवा में इतिहास’ के शीर्षक के साथ प्रस्तुत किया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे बी एन पांडे, जो बाद में उड़ीसा के राज्यपाल भी बने, उन्होंने अपने अनुभव को साझा किया। अपने भाषण में 1928 की घटना का उन्होंने विशेष तौर पर जिक्र किया। उनके मुताबिक :

‘‘जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वह प्रोफेसर थे तब कुछ विद्यार्थी उनके पास आए और उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के प्रोफेसर हर प्रसाद शास्त्राी द्वारा लिखी किताब दिखाई, जिसमें बताया गया था कि टीपू ने तीन हजार ब्राहमणों को इस्लाम धर्म स्वीकारने के लिए मजबूर किया वर्ना उन्हें मारने की धमकी दी। किताब में लिखा गया था कि इन ब्राहमणों ने इस्लाम धर्म स्वीकारने के बजाय मौत को गले लगाना मंजूर किया। इसके बाद उन्होंने प्रोफेसर हरप्रसाद शास्त्राी से सम्पर्क कर यह जानना चाहा कि इसके पीछे क्या आधार है ? प्रोफेसर शास्त्राी ने मैसूर गैजेटियर का हवाला दिया। उसके बाद प्रोफेसर पांडे ने मैसूर विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर श्रीकान्तिया से सम्पर्क किया तथा उनसे यह जानना चाहा कि क्या वाकई मे उसके इसमें इस बात का उल्लेख है। प्रोफेसर श्रीकांन्तियां ने उन्हें बताया कि यह सरासर झूठ है, उन्होंने इस क्षेत्रा में काम किया है और मैसूर गैजेटियर में इस बात का कोई उल्लेख नहीं है बल्कि उसका उल्टा लिखा हुआ है कि टीपू सुल्तान 156 हिन्दू मंदिरों को सालाना अनुदान देते थे और श्रंगेरी के शंकराचार्य को भी नियमित सहायता करते थे।’’

श्रीरंगपटटनम, कर्नाटक में वह स्थल जहां वर्ष 4 मई 1799 को अंग्रेजों से लड़ते हुए टीपू सुल्तान ने वीरगति को प्राप्त किया

विडम्बना ही है कि टीपू को विवादास्पद ‘प्रमाणित’ करने के लिए उन्हें औपनिवेशिक शासन के हिमायती इतिहासकारों द्वारा गढ़ी बातों से सहायता लेने से भी गुरेज नहीं है।

दरअसल जिसने भी टीपू सुल्तान द्वारा हिन्दुओं और ईसाइयों पर किए गए कथित अत्याचारों पर लिखा है, वहां हम बता सकतेे हैं कि उन्होंने उसके लिए ब्रिटिश लेखकों (किर्कपैटिक और विल्क्स) की किताबों से मदद ली है।

दरअसल लार्ड कार्नवालिस और रिचर्ड वेलस्ली के प्रशासन के साथ नजदीकी रूप से जुड़े इन लेखकों ने टीपू सुल्तान के खिलाफ चली युद्ध की मुहिमों में भी हिस्सा लिया था और टीपू को खूंखार बादशाह दिखाना और ब्रिटिशों को ‘मुक्तिदाता’ के तौर पर पेश करने में उनका हित था।

अपनी रचना ‘द हिस्ट्री ऑफ टीपू सुलतान(1971, पेज 368) में मोहिबुल हसन टीपू के इस ‘दानवीकरण’ पर अधिक रौशनी डालते हैं। वह लिखते हैं :

“आखिर टीपू को किन कारणों से बदनाम किया गया इसे जानना मुश्किल नहीं है। अंग्रेज उनके प्रति पूर्वाग्रहों से भरे थे क्योंकि वह उन्हें अपना सबसे ताकतवर और निर्भीक दुश्मन के तौर पर देखते थे व अन्य भारतीय शासकों के विपरीत उन्होंने अंग्रेज कम्पनी की शरण में आने से इन्कार किया। उनके खिलाफ जिन अत्याचारों को जोड़ा जाता है वह कहानियां उनलोगों ने गढ़ी थी जो उनसे नाराज थे या उनके हाथों मिली शिकस्त से क्षुब्ध थे, या युद्ध के उन कैदियों ने बयां की थी जिन्हें लगता था कि उन्हें जो सज़ा मिली वह अनुचित थी। कम्पनी सरकार ने उनके खिलाफ जो आक्रमणकारी युद्ध छेड़ा था, उसे उचित ठहरानेवालों ने भी टीपू का गलत चित्राण पेश किया। इसके अलावा उनकी उपलब्धियों को जानबूझ कर कम करके आंका गया और उनके चरित्रा को सचेतन तौर पर एक खलनायक के तौर पर पेश किया गया ताकि मैसूर के लोग उन्हें भूल जाएं और नए निज़ाम का सुदृढीकरण हो सके।”

दरअसल इतिहास का यह एकांगी चित्रण महज टीपू को लेकर ही सही नहीं है। अगर गहराई में जाएं तो हम पाते हैं कि औपनिवेशिक इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को जिस तरह समझा और पेश किया व जिस तरह साम्प्रदायिक तत्वों ने अपनी सुविधा से उसका प्रयोग किया, उसमें आन्तरिक तौर पर गहरा सामंजस्य है। अपनी चर्चित किताब ‘द हिस्टरी ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ में जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को तीन काल खण्डों में बांटा था, हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश। यह समस्याग्रस्त चित्रण न केवल बौद्ध व जैन तथा अन्य परम्पराओं, समूहों के योगदान को गायब कर देता है बल्कि वह बीते कालखण्ड के प्रति बहुत समरूप दृष्टिकोण पेश करता है, गोया तत्कालीन समाज में अन्य कोई दरारें न हों। अपने एक साक्षात्कार में प्रोफेसर डी. एन. झा इस प्रसंग पर रौशनी डाली थी :[3]

जब रमेश चंद्र मजुमदार ने भारतीय इतिहास पर कई खण्डों में विभाजित ग्रंथ प्रकाशित किया तब उन्होंने ‘हिन्दू कालखण्ड’ पर अधिक ध्यान दिया और इस तरह पुनरूत्थानवाद और साम्प्रदायिकता को हवा दी। इन औपनिवेशिक इतिहासकारों ने जो साम्प्रदायिक इतिहास गढ़ा उसी ने इस नज़रिये को मजबूती प्रदान की कि मुसलमान ‘विदेशी’ हैं और हिन्दू ‘देशज’ हैं।

टीपू सुल्तान के विरोध में प्रदर्शन करते आरएसएस के कार्यकर्ता

आजादी के बाद का इतिहास लेखन, जिसने औपनिवेशिक कालखण्ड के लेखन से बहुत कुछ लिया, उसने ‘महान भारतीय अतीत’ की बात की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके विचारक इसी ‘महान भारत’ के मिथक को प्रचारित करने में लगे हैं। प्रोफेसर डी. एन. झा आगे बताते हैं :

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुस्लिम विरोधी समझदारी एच. एम. इलियट और जान डाॅसन जैसे औपनिवेशिक इतिहासकारों की देन है जिन्होंने ‘द हिस्टरी ऑफ इंडिया एज टोल्ड बाई इटस ऑन हिस्टारियन्स’ जैसी किताब को संकलित किया। उन्होंने मुसलमानों की भर्त्सना करते हुए यह कहा कि उन्होंने मंदिरों का विनाश किया और हिन्दुओं को दंडित किया। इलियट के सूत्रीकरण का वास्तविक मकसद था 19 वीं सदी के लोगों में साम्प्रदायिकता का विषारोपण करना।

अब यह बात इतिहास हो चुकी है कि उपनिवेशवादियों ने किस तरह अपने साम्राज्यिक हितों को बढ़ावा देने के लिए हमारे इतिहास का विकृतिकरण किया, हमारे विद्रोहों को कम करके आंका, हमारे नायकों को खलनायक के तौर पर प्रस्तुत किया, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को लूटेरे व आतंकी कहा।

हिन्दुत्ववादी जमातें, जिन्होंने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से दूरी बनाए रखी और जो दरअसल ब्रिटिशों के खिलाफ खड़ी हो रही जनता की व्यापक एकता को तोड़ने में मुब्तिला थे, उनकी तरफ से टीपू को लेकर जो आपत्तियां उठायी जा रही हैं, इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है।

दरअसल टीपू सुल्तान को बदनाम करके, जिनकी पूरे भारत के जनमानस में व्यापक प्रतिष्ठा है, उन्हें यही लगता है कि वह उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में अपनी शर्मनाक भूमिका पर चर्चा से वे बच जाएंगे। मगर क्या उन तमाम दस्तावेजी सबूतों को भूला जा सकता है जो इस सच्चाई को उजागर करते हैं कि हेडगेवार – संघ के संस्थापक सदस्य और गोलवलकर, जो उसके मुख्य विचारक रहे, जिन्होंने संगठन को वास्तविक आकार दिया, उन्होंने समय-समय पर संघ के सदस्यों को ब्रिटिश विरोधी संघर्ष में शामिल होने से रोका।

बेंगलुरू में टीपू सुल्तान का किला

क्या इस बात को कोई भूल सकता है कि विनायक दामोदर सावरकर, जो संघ परिवार के प्रातःस्मरणीयों में शुमार हैं, उन्होंने उस वक्त़ ब्रितानी सेना में हिन्दुओं की भर्ती की मुहिम चलायी, जब भारत छोड़ो आन्दोलन के दिनों में ब्रिटिश सत्ता के सामने जबरदस्त चुनौती पेश हुई थी। उनका नारा था ‘सेना का हिन्दुकरण करो, हिन्दुओं का सैनिकीकरण करो।’ यह वही वक्त़ था जब सुभाषचन्द्र बोस की अगुआई में बनी आज़ाद हिन्द फौज ब्रिटिश सेनाओं से लोहा ले रही थी। इतना ही नहीं यह वही समय था जब हिन्दु महासभा और अन्य हिन्दूवादी संगठन बंगाल और उत्तर पश्चिम के प्रांतों में मुस्लिम लीग जैसे संगठनों के साथ साझा सरकार चला रहे थे। संघ-भाजपा के एक और रत्न जनाब श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जिन्होंने संघ के सहयोग से बाद में भारतीय जनसंघ की स्थापना की, उन्होंने उन दिनों हिन्दू महासभा के सदस्य होने के नाते मुस्लिम लीग के हुसेन शहीद सुहरावर्दी की अगुआई में बने मंत्रिमंडल में मंत्रीपद सम्भाला था। स्पष्ट है कि जब उपनिवेशवादी ताकतों से लड़ने का मौका था, तब केसरिया पलटन के लोग उससे दूर रहे और जब जनता के जबरदस्त संघर्षों के चलते ब्रिटिश शासन की वैधता पर प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे थे, कांग्रेस तथा बाकी सभी पार्टियों ने देश के विभिन्न सूबों में जारी उनकी सरकारों को इस्तीफे का आदेश दिया था, तब उसकी पालकी सजाने में मुस्लिम लीग तथा हिन्दूवादी संगठन व्यस्त थे।

टीपू सुल्तान की कुर्बानियों और उसकी दूरंदेशी पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने का यह सिलसिला एक तरह से हिन्दुत्व ब्रिगेड के सामने एक अन्य तरह के द्वंद को पेश करता है। उदाहरण के तौर पर हिन्दुत्व की ताकतों में परमप्रिय माने जानेवाले एक अन्य राजा के बारे में यह विदित है कि उसकी सेनाओं ने सूरत – जो उन दिनों व्यापारिक शहर था – कम से कम दो बार लूटा था, तो फिर क्या वे उसे लूटेरे की श्रेणी में डालने को तैयार हैं ? टीपू को धर्मांध कहनेवाले लोग पेशवाओं की अगुआई में मराठों द्वारा श्रृंगेरी के शंकराचार्य के मठ एवं मंदिर पर किए हमले को लेकर उन्हें किस ढंग से सम्बोधित करने को तैयार हैं ? टीपू सुल्तान को विवादित बनाने में मुब्तिला यह ताकतें आखिर उन पेशवाओं के बारे में क्या सोचती हैं, जो एक किस्म का मनुवादी शासन का संचालन कर रहे थे जहां दलितों को अपनेे गले में माटी का घड़ा डाल कर चलना पड़ता था ताकि उनकी थूक भी कहीं रास्ते में गिर कर ब्राह्म्णों को ‘अछूत’ न बना दे।

संदर्भ 

[1] (https://www.ndtv.com/delhi-news/after-karnataka-row-over-tipu-sultan-now-lands-in-delhi-1805157?pfrom=home-topstories)

[2] https://economictimes.indiatimes.com/news/politics-and-nation/tipu-sultan-descendants-mull-legal-action-against-hegde/articleshow/61186075.cms

[3] (www.countercurrents.org)

 


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लेखक के बारे में

सुभाष गताडे

सुभाष गताडे वामपंथी कार्यकर्ता, विमर्शकार और अनुवादक हैं। जाति और आंबेडकर उनके विमर्श के महत्वपूर्ण विषयों में शामिल हैं। उन्होंने काशी हिंन्दू विश्वविद्यालय से एम.टेक. की डिग्री  प्राप्त की। ये हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और मराठी में लिखते हैं। ‘बीसवीं शताब्दी में डॉ. आंबेडकर का सवाल’, ‘पहाड़ से उंचा आदमी: दशरथ मांझी’,  दीनदयाल उपाध्या : भाजपा के गांधी (हिंंदी), गाड्स चिल्ड्रेन : हिंदुत्वा टेरर इन इंडिया, दी सैफर्न कंडीशन : पालिटिक्स ऑफ रिप्रेशन एण्ड एक्सक्लूजन इन नियोलिबरल इंडिया ( अंग्रेजी ), अम्बेडकर विरूद्ध राष्टीय स्वयंसेवक संघ (मराठी) में प्रकाशित इनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं। ये निमयित तौर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं। 1990 से 1999 तक इन्होंने ‘लोकदस्ता’ पत्रिका संपादन किया है

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