आजादी के बाद सभी को हर तरह की बेडि़यों से मुक्त होने की चाह थी। राजनैतिक आजादी की शुरुआत के साथ ही दलितों के भीतर भी स्वतंत्रता, समता और बंधुता का सपना जगा था। लेकिन 1952 के पहले आम चुनाव के बाद राजनैतिक क्षितिज जातिवाद और अवसरवाद के रंगों से रंगना शुरु हो गया था। कहना न होगा कि प्रजातंत्र के रथ पर ब्राह्मणवाद और सामंतवाद आरूढ़ हो गया था, जिसके कारण देश में दलितों/पिछड़ों/और महिलाओं पर अत्याचार करने का देश के नये शासकों को लाइसेंस मिल गया था। 1952 के बाद 1957, 1962, 1967 और इसके बाद हुए आम चुनावों में जो जीत कर आए, उनमें वर्चस्ववादियों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती गई। लगभग यही स्थिति विधानसभा के चुनावों में भी थी। न्याय-व्यवस्था और पुलिस प्रशासन पर राजनीतिज्ञों ने शिकंजा कस लिया और दलितों पर जुल्म/अत्याचार/बलात्कार की घटनाएं बढ़ने लगीं। इस दलित उत्पीड़न के खिलाफ आक्रोश और जुझारू प्रतिवाद की भावना ही दलित पैंथर के रूप में परिवर्तित हुई। उत्पीड़न के खिलाफ इस जुझारूता ने न केवल महाराष्ट्र बल्कि अन्य प्रदेशों में भी दलित युवकों को संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। इन जुझारू दलित युवकों के संघर्ष को चित्रित करते हुए ही जे.वी. पवार ने दलित पैंथर: एन एथारटेटिव हिस्ट्री नाम से यह पुस्तक लिखी। जिसे एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज भी कहा जा सकता है।
यह पुस्तक पढ़ते हुए विशेष रूप से 70 और 80 के दशक में बंबई प्रवास के दौरान समय-समय पर साथियों के साथ बीते दिनों की यादें चलचित्र की तरह उभर आती है। दलित साहित्य और आंदोलन से संबंधित जानकारियों का आदान-प्रदान हुआ करता था। उत्तर भारत में क्या चल रहा है? चर्च गेट पर जब मैं दया पवार से मिलता था तो वे मुझसे यही सवाल करते थे। एक-दो बार गोरेगांव स्थित उनके घर पर भी बातचीत हुई।
नामदेव ढसाल तब बंबई के महालक्ष्मी में रहते थे और राजा ढाले विक्रोली में। दोनों ही जुझारू कार्यकर्ता थे। आंदोलन ने एक को कवि बना दिया दूसरे को लेखक। जे.वी. पवार जी से भी उसी दौरान मुलाकात हुई। वे कार्यकर्ता के साथ कवि/लेखक और चिंतक रहे हैं। दलित पैंथर के इतिहास को बनाने में उनकी बहुत बड़ी भागीदारी रही है। वहीं अठावले से सिद्धार्थ विहार हॉस्टल, वडाला में मिलना होता था। उसी दौर में दादा साहेब रूपवते/ आर.आर. भोले/वसंत मून/ मीनाक्षी मून तथा अर्जुन डांगले, बाबूराव बागुल से भी बंबई प्रवास में मुलाकातें होती थी। बाद के दौर में प्रकाश अम्बेडकर और उनके भाई भीमराव से दादर स्थित प्रेस में कई बार मिलना हुआ। दादर में ही खैरमोड़े जी के साथ सविता अम्बेडकर जी से भी बंबई प्रवास में मिलना होता था। खेरमोडे जी ने बाबासाहेब के जीवन-संघर्ष पर लगभग बारह खण्डों में दस्तावेज लिखे हैं, जो मराठी और अंग्रेजी में हैं। वे दादर (पश्चिम) में राजगृह के पास ही रहते थे।
जे.वी. पवार स्वयं दलित पैंथर के संस्थापकों में से रहे हैं। उन्होंने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते देश में बदलती परिस्थितियों के बीच से उभरती दलित शक्ति को ध्यान में रखते हुए ही इस पुस्तक को लिखने का मन बनाया। जो काबिले तारीफ है। उन्होंने स्वयं लिखा है कि बाबासाहेब ने गांवों को जातिवाद का कूड़ाघर बताया है। (पृ. 16) पुस्तक की भूमिका में उन्होंने राजनीति की तरफ बढ़ते दलितों के स्वार्थ और बाद में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेताओं के बीच सत्ता और सुविधाओं के लिए 60 और 70 के दशक में हुई बंदरबांट को भी रेखांकित किया है। विशेषरूप में आरपीआई को छोड़कर महाराष्ट्र के दलित नेताओं में कांग्रेस के प्रति मोह बढ़ने लगा था और कांग्रेस हाईकमान उस समय दलित नेताओं को खरीदने तथा तोड़ने में पूरी तरह से प्रयासरत था। विशेषरूप से इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस पार्टी दलित उत्पीड़कों का आश्रयस्थल बन गई थी और उन दिनों युवक क्रांतिदल/रिपब्लिकन क्रांति दल/युवक आधाड़ी/समाजवादी युवक सभा तथा मुस्लिम सत्य शोधक समिति आदि संगठनों का अस्तित्व था, जिनकी प्रतिक्रिया में दलित पैंथर का गठन किया गया था।
अप्रैल, 1975 में प्रकाशित सारिका के मराठी दलित साहित्य के विशेषांक में नेरुरकर के आलेख के आधार पर अगर हम कहें तो बंबई में दलित युवकों के क्रांतिकारी संगठन ‘दलित पैंथर्स’ का जो उभार हुआ और उसने वहां की राजनीति में जो उथल-पुथल मचाई, उसकी वजह से महाराष्ट्र की दलित युवा पीढ़ी ने सबका ध्यान अपनी तरफ, अपनी विचारधारा एवं साहित्यिक राजनीतिक आंदोलन की तरफ आकर्षित कर लिया। नवंबर 1973 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने दलित साहित्य पर विशेष परिशिष्ट प्रकाशित किया था। इस परिशिष्ट द्वारा भारत के अंग्रेजी जानने वाले विविध भाषाभाषी विचारकों-लेखकों की विभिन्न पीढि़यों का मराठी के दलित साहित्य का, दलित साहित्यकारों का, उनके साहित्यिक सामाजिक विद्रोह का छोटा-सा ही सही, परिचय दिया जा सका। इस परिशिष्ट की प्रतिक्रिया के रूप में पाठकों के जो पत्र टाइम्स के पास पहुंचे, उनसे दलित साहित्य की भारत भर में गूंजती आवाज का अंदाजा लगाया जा सकता है।
दलित पैंथर्स ने जो घोषणापत्र प्रकाशित किया है, उसमें भी दलित कौन? उपशीर्षक में दलित शब्द की परिभाषा की गई है। इसी घोषणा पत्र में दुनिया के दलितों में ‘हमारा रिश्ता’ शीर्षक में दलित पैंथर्स लिखते हैं, अमरीकी साम्राज्यवाद के षड्यंत्र में आज सारी दलित दुनिया, उत्पीडि़त देश एवं दलित जनता पिसती जा रही है, अमरीका के मुट्ठीभर प्रतिक्रियावादी गोरे लोग नीग्रो लोगों पर जुल्म ढा रहे हैं। इन्हीं अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए ब्लैक पैंथर आंदोलन का सूत्रपात हुआ और पैंथर आंदोलन ही से ब्लैक पॉवर (काले लोगों की सत्ता) का निर्माण हुआ। संघर्ष की चिनगारी सुलगी। इन्हीं सुलगती चिनगारियों से इसी भड़कते आंदोलन से हमारा रिश्ता है। वियतनाम, कंबोडिया, अफ्रीका के आदर्श हमारे सामने हैं। दलित का मतलब है अनुसूचित जाति, बौद्ध कामगार, भूमिहीन मजदूर, कृषि मजदूर, गरीब किसान, खानाबदोस जातियां, आदिवासी और नारी समाज। इस प्रकार दलित साहित्य की विचारप्रणाली मात्र संकुचित जातिवादी मनोवृत्ति में अपनी परंपरागत, सांप्रदायिक, किताबी विचार प्रणाली न होकर वर्तमान युग की मांगों से उत्पन्न मानव के प्रति आस्था रखने वाली विश्वजनीन विचार प्रणाली है। आइए इसी पुस्तक के बहाने हम दलित पैंथर के आंदोलनकारी गर्भ से उभरे साहित्य के बारे में संक्षिप्त चर्चा करें। जो जरूरी भी है।
1960-65 की पीढ़ी डॉ. आंबेडकर के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर अपने परिवेश को नए नजरिये से देखने लगी, तब उसे पारम्परिक साहित्य अपना नहीं लगा। उसमें 85% समाज की अनुभूतियों का चित्रण नहीं था। वह साहित्य इन्हें एकांगी, कृत्रिम तथा जीवननानुभवों से रिक्त लगा। इसी कारण सन् 1960 में ‘दलित साहित्य’ का आंदोलन महाराष्ट्र में शुरु हो जाता है। यहां यह स्मरण रखें कि 1960 के पूर्व से ही इस साहित्य की अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि बन रही थी। महात्मा जोतिबा फुले (1827-1890), राजर्षि शाहू महाराज (1872-1922) तथा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर (14.4.1891-6.12.1956) के व्यक्तित्व तथा कृतित्व ने इस साहित्य को दृढ़ वैचारिकता प्रदान की है। सन् 1965 के बाद बुद्ध की करूणा, मार्क्स की क्रांतिदृष्टि तथा नीग्रो साहित्य ने भी समय-समय पर इसकी वैचारिकता को मजबूत किया। यहां हम यह कतई न भूलें कि महाराष्ट्र के सामाजिक आंदोलन की सृजनात्मक अभिव्यक्ति ही ‘दलित साहित्य’ है। संभवतः इस देश का यह पहला और एकमात्र साहित्यिक आंदोलन है जिसके सृजन के मूल में सामाजिक प्रयोजन था, इसी से ही साहित्यिक आंदोलन शुरु हुआ। विषमता के विरोध की लड़ाई को अधिक तीव्र बनाने के लिए साहित्य को हथियार के रूप में स्वीकारा गया। इसी कारण दलित साहित्य का प्रत्येक लेखक कलम का मजदूर ही नहीं, परिवर्तन और प्रबोधन का एक कार्यकर्ता भी हो सकता है— इसका एहसास इस आंदोलन ने करा दिया है।
क्रांति और विद्रोह की प्रस्तुति
जातिवाद और विषमता को खत्म कर समता की स्थापना करने के लिए दलित रंगमंच ने विद्रोह के तेवर भी अपनाएं हैं। मराठी रंगभूमि ने सामाजिक समता हेतु संघर्ष और क्रांति का उद्घाटन बेहिचक किया है। समाज के संपूर्ण परिवर्तन की कामना से प्रभाकर दुपारे अपनी रचना ‘जयक्रांति’ में लिखते हैं-
“बोल भारतवासी हमला बोल!
जातिवाद पर हमला बोल!
बोल भारतवासी हमला बोल!
विषमता पर हमला बोल!
बोल भारतवासी हमला बोल!
दैववाद पर हमला बोल!
नपुंसक संस्कृति पर हमला बोल!
मानवता के दुश्मन पर हमला बोल!
खून करो, क्रांति करो।
विषमतावादी विचारों का …
खून करो, क्रांति करो।
(प्रभाकर दुपारे — जयक्रांति, पृ. 119)
ई. मो. नारनवरे लिखित ‘विद्रोहाचे पाणी पेटले आहे’ का दलित युवक शिरीष जातिवाचक शब्दों के प्रयोग से अपमानित करने वाले सवर्ण युवक मधु को केवल तमाचा ही नहीं लगाता बल्कि पुलिस का सामना भी करता है। आंबेडकर की जय बोलते हुए प्रस्तुत नाटक का सूत्रधार अपने साथियों के साथ घोषणाएं देता है, जो उनके विद्रोही रूप का परिचय है, जैसे –
“भट ब्राह्मण पर प्रहार…जय भीम प्रहार
“क्षत्रिय वैश्य पर प्रहार…जय भीम प्रहार
“पाटील, पंडों पर प्रहार…जय भीम प्रहार
“मनुस्मृति पर प्रहार…जय भीम प्रहार
“जातिवाद पर प्रहार…जय भीम प्रहार
“अत्याचार पर प्रहार…जय भीम प्रहार
“अज्ञान-अंधकार पर प्रहार….जय भीम प्रहार
(विद्रोहाचे पाणी पेटले आहे, पृ. 142-143)
प्रारम्भिक दलित उभार पर नक्सल रंग प्रभावी था। दलित स्वयं को आधुनिक तथा सर्वहारा के रूप में देखते थे तथा अपने शत्रु हिंदू धर्म को सामन्ती पिछड़ेपन के रूप में चिन्हित करते थे। इसका यह एक आवश्यक पक्ष था। उस समय को याद करते हुए बंबई की झोपड़-पट्टियों का एक दलित कार्यकर्ता कहता है — “घोषणापत्र में क्या लिखा है, हमें बिल्कुल नहीं पता था। हम केवल इतना जानते थे यदि कोई तुम्हारी बहन पर कोई हाथ डालता है — तो उसे काट डालो।” लगभग नाशवादी एवं हिंसक मिजाज और भीषण क्रोध के कारण यह आंदोलन 20वीं शती के प्रारंभिक आंदोलनों से बिल्कुल अलग था। फलतः इसमें दलित पैंथर्स को विशेष रूप से तथा पूरे नये दलित आंदोलन को सामान्य रूप से, विश्वव्यापी नये वामपंथी उभार के एक पक्ष के रूप में प्रस्तुत किया। वास्तव में यही वह समय था जब दलित शब्द को अंग्रेजों द्वारा निर्धारित नाम डिप्रेस्ड क्लासिज (depressed classes) के 1930 तथा 1940 के दशकों के मराठी/हिंदी अनुवाद के रूप में व्यापक प्रचलन मिला। यह शब्द गांधी के हरिजन तथा वर्णहीन सरकारी शब्द अनुसूचित जाति का उग्र अर्थ वाले विकल्प के रूप में अपनाया गया।
आर्थिक तथा सांस्कृतिक सुधारवाद उस समय के वाम रूझान वाले कई नये आंदोलनों में शामिल था। दरअसल नौजवान दलित कवियों के लिए आर्थिक तथा सांस्कृतिक शोषण शुरु से ही आपस में गुंथे हुए थे। घोषणापत्र में हिंदू धर्म की सामन्तवाद के रूप में निन्दा करने के पश्चात, जाति के मुद्दे पर बहुत कुछ कहा गया। कविता में जाति, बुद्ध, ब्राह्मण, शंबूक और एकलव्य के बारे में वैसे ही कहा गया है, जैसे गरीबी और संसदीय प्रजातंत्र की निरर्थकता पर चर्चा की जाती थी। इसका विस्तार पूरे भारतीय इतिहास और पुराणों तक है साथ ही यह कविता एक नये इतिहास की खोज करते हुए भविष्य के लिए दावा करती है। कवियों के लिए ईश्वर तथा आधुनिक विश्वविद्यालय को कोसना उतना ही महत्वपूर्ण रहा, जितना कि पूंजीवाद का बखिया उधेड़ना –
एक दिन मैंने उस मादर चो…भगवान को गालियां दीं
वह बेहया-सा हंसा
मेरे जन्मजात कलमखोर ब्राह्मण-पड़ोसी को आघात लगा
उसने मुझे अपने अरंडी के तेल जैसे चेहरे से देखा
मैंने एक गर्म-सी गाली फिर उछाली
विश्वविद्यालय की इमारतें कांपीं
और कमर तक धंस गईं
अचानक ही सभी विद्वान करने लगे शोध
गुस्से का स्रोत कहां और क्या- ?
उनका आधुनिकतावाद जितना आर्थिक शोषण के विरुद्ध था, उतना ही जाति-प्रथा के विरुद्ध हो गया –
आज मैं बीसवीं सदी के बिलकुल
अंतिम छोर पर खड़ा हूं
मेरे चारों ओर आग ही आग है…
एक हाथ में सूरज और दूसरे में लिए चांद
मै जानता हूं अपने संकल्प
एकलव्य की टूटी हुई अंगुली से रिसते लहू का मूल्य
दलित पैंथर जैसे जुझारू संगठन की शुरुआत में जिन साथियों ने आगामी दलित इतिहास को लिखने के लिए अपने खून को स्याही के रूप में प्रयोग किया, उनके हस्ताक्षर सहित नाम पुस्तक के पृष्ठ पर दिये गये हैं। जिनमें राजा ढाले/जे.वि. पवार/ दयानंद महस्के/उमाकांत रणधीर/ रामदास आठवले/अरूण कांबले/के. वी. गमरे (लंडन) गंगाधर गाड़े/ नामदेव ढसाल/अविनाश महातेकर प्रमुख हैं। 250 पृष्ठीय पुस्तक के लेखक ने लगभग 42 विषय या घटनाओं या फिर दुर्घटनाओं को ध्यान में रख कर लिखा है। जिससे पाठकों को दलित समाज की राजनैतिक/सामाजिक/धार्मिक/साहित्यिक स्थितियों के बारे में जानकारी हो जाए, विशेष रूप से महाराष्ट्र के बाहर के साथियों को। (पृष्ठ 27) से दलित पैंथर के गठन पर चर्चा की गई है। पहले ही पृष्ठ (27) पर 1965 में दलित उत्पीड़न को लेकर गठित एलायपेरूमल कमेटी का हवाला दिया गया है। कमेटी ने 30 जनवरी 1970 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इसमें इंदिरा गांधी सरकार को पूरी तरह से असफल करार दिया गया था। दलित युवा चाहते थे कि सरकार 1177 हत्या के साथ अन्य 11000 मामलों पर एक्शन लें। दलित महिलाओं को नंगा घुमाया गया था।
हमारी योजना थी कि 12 दलित लेखक सरकार को वार्निंग से भरा पत्र हस्ताक्षर कर दें। लेकिन बाबूराव बागुल ने इंकार कर दिया। दया पवार सरकारी कर्मचारी थे। प्रह्लाद अविश्वसनीय रहा, आखिर राजा ढाले/नामदेव ढसाल/अर्जुन डांगले/भीमराव शिखाले/उमाकांत रणधीर/ गंगाधर पानतावणे/वामन निम्बालकर/मोरेश्वर बहाने के साथ मैने मेमोरेंडम तैयार कर हस्ताक्षर किये। फिर सार्वजनिक किया। 1972 में परबनी जिला के ब्राह्मण गांव में दलित महिला काे नंगा कर परेड निकाली गई। तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक थे। जिन्हें 28 मई को मेमोरेण्डम दिया गया। पवार के मतानुसार बहुत से साथी कहते हैं कि उन्होंने दलित पैंथर का गठन किया, पर वास्तविकता यह है कि मैंने नामदेव के साथ मिलकर दलित पैंथर का 1972 में गठन कियाा। (पृ. 32) इसके बाद शुरु हुआ प्रदर्शन/हड़ताल तथा बंबई बंद का सिलसिला/पुलिस मुठभेड़/गोलियां चलना/साथियों का शहीद होना आदि आदि। पृ. 37 पर लेखक ने 12 जून 1972 को महाराष्ट्र विधानसभा की गेलरी से आग के गोले फेंकने का विवरण दिया है। यह कार्य आरपीआई सदस्य भास्कर गवले तथा नारायण मोरे ने किया था। 9 जुलाई 1972 को दादर के छबीलदास हाईस्कूल में बड़ी रैली का आयोजन हुआ। (पृ. 40)
राजा ढाले का लेख ‘काला स्वतंत्रता दिन’ जो 15 अगस्त 1972 को साधना के विशेष अंक में प्रकाशित हुआ था, ने दलित समाज के भीतर अत्यधिक जागरूकता और उत्तेजना पैदा की तथा पूरे महाराष्ट्र में दलित पैंथर को सार्वजनिक कर दिया। इसी के साथ 1972 से 1974 के बीच नासिक, देवलाली, लाटूर, नांदेड़, बीड़, पुणे, बेलगांव, सांगली, सतारा, सोलापुर, जलगांव, चालीसगांव, भुसावल, बुलढाणा, औरंगाबाद, धुले, पुलगांव, वर्धा, अकोला, नागपुर, काटोल, कामटी, चन्द्रपुर, यवतमाल, बल्लारपुर, अहमदाबाद, छिंदवाड़ा, भोपाल तथा हिंगनघाट आदि में इसकी शाखाएं खुल गईं। वर्ली दंगों के बाद लंदन में भी दलित पैंथर गमरे के नेतृत्व में एक नई शाखा खोलने की घोषणा की गई। नामदेव ढसाल के अनुसार, उन दिनों संपूर्ण बंबई में इसकी 100 शाखाएं थीं।
विषमता के विरोध की लड़ाई को अधिक तीव्र बनाने के लिए साहित्य को भी हथियार के रूप में स्वीकारा गया। इसी कारण दलित साहित्य का प्रत्येक लेखक कलम का मजदूर ही नहीं, परिवर्तन और प्रबोधन का एक कार्यकर्ता भी हो सकता है — इसका एहसास इस आंदोलन ने करा दिया।
विशेषरूप से महाराष्ट्र और अन्य राज्यों के युवा दलितों में दलित पैंथर के माध्यम से तेजी के साथ जो उभार आया और दलितों ने हिंदू संस्कृति तथा परंपराओं को झकझोरा। उन सब का वर्णन और विवरण जे.वी. पवार ने आगे के पृष्ठों में किया है। जिसे पढ़ते हुए निश्चित ही पाठकों तथा शोधार्थियों को अलग तरह का अहसास होता है। इस पुस्तक से बहुत-सारे तथ्य उजागर होते हैं, जो सुखद भी हैं और दुखद भी। अकोला जिला के ढाकली गांव में गवई बंधुओं की निर्ममता से आंखे निकाल दी गई। वह समय ऐसा था जब दलितों को घात लगाकर सवर्णों के द्वारा मारा जा रहा था। उनके घर/बस्तियां जलाई जा रही थीं। आए दिन दलित महिलाओं से बलात्कार की घटनाएं हो रही थीं। बावजूद राजनीति के बाजार में सिर्फ मर्सिया पढ़े जा रहे थे। दलितों के नाम पर अलग-अलग घोषणाएं हो रही थीं। एक तरफ सन्नाटा था तो दूसरी ओर शोर, कहीं विलाप। दलित युवा धुआं-धुआं हो रहे थे। राजनीतिज्ञ जोड़-घटाव में लगे थे। मंदिर/मठों में कीर्तन हो रहे थे। कहना न होगा कि सवर्णों की दुनिया अलग थी। उनके जीवन की वरीयता अलग थी। दलितों पर अत्याचार बढ़ रहे थे लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था। सांस्कृतिक और सामाजिक आधार पर यह सब सवाल दलित पैंथर्स ने उठाये थे। बाबासाहेब से प्रेरणा लेकर वे संघर्षरत थे।
इसमें कोई शक या संदेह नहीं कि दलित साहित्य और आंदोलन के लिए प्रतिबद्ध जे.वी. पवार ने ‘दलित पैंथर्स एन आथोरिटेटिव हिस्ट्री’ पुस्तक बहुत ही शिद्दत के साथ लिखी है। लेखक को यह महत्वपूर्ण दस्तावेज तैयार करते हुए कितने मानसिक कष्ट से रूबरू होना पड़ा होगा, खून से लथपथ कितने युवा दलितों के जीवंत शरीर उनकी आंखों के सामने आए होंगे, रोती-बिलखती कितनी दलित महिलाओं को देखा होगा, यह सब पुस्तक पढ़ते हुए बखूबी महसूस होता है।
निश्चित ही आजादी के बाद 70 का दशक इस मायने में याद किया जाएगा कि जब केंद्र और राज्यों में राजनीतिज्ञों के बीच सत्ता के लिए उठा-पठक चल रही थी तब देशभर में युवा दलित अपने अधिकारों तथा अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहे थे। बावजूद इसके कि इसी पुस्तक में दलित पैंथर और आरपीआई के कार्यकर्ता तथा नेताओं के बीच मनमुटाव और घात- प्रतिघात के उदाहरण भी लेखक ने ईमानदारी से दिए हैं, जिनसे कुछ अलग पहलू उभरते हैं।
किताब : दलित पैंथर्स : एन एथारटेटिव हिस्ट्री
लेखक : जे. वे.पवार
मूल्य : 250 रूपए (पेपर बैक), 500 (हार्डबाऊंड)
पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली
प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911
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