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‘महिषासुर मिथक और परंपराएं’ : वर्तमान के सापेक्ष मिथकों का पुनर्पाठ

पुस्तक से गुजरते हुए, पाठक यह महसूस करेंगे कि आदिवासी परम्पराएं ही रूपान्तरित होकर अन्य पिछड़ी जातियों, दलित जातियों समेत अद्विज समुदाय के एक बड़े हिस्से तक फैली हैं। इनकी मौजूदगी इस बात का भी संकेत है कि इन समुदायों का उद्गम एक रहा है

फारवर्ड प्रेस बुक्स की नयी किताब ‘महिषासुर मिथक और परंपराएं’ प्रकाशित हो चुकी है। भारतीय संस्कृति के मिथकों को वर्तमान के सापेक्ष विश्लेषण करती यह किताब अमेजन और किंडल पर भी उपलब्ध है। इसके संबंध में इंडिया टुडे और राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित समीक्षाएं :  

किताब समीक्षा : मिथकों का नया पाठ

सरोज कुमार

‘महिषासुर मिथक व परंपराएं’ के संपादक प्रमोद रंजन हैं, प्रकाशन हाउस द मार्जिनलाइज्ड से यह किताब प्रकाशित हुई है।

यह बात कई लोगों को थोड़ी अजीब लग सकती है पर पिछले साल छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में दुर्गापूजा मना रहे आयोजकों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई कि उन्होंने आदिवासी समुदाय का ‘अपमान’ किया है। दरअसल कुछ आदिवासी संगठनों ने महिषासुर के वध के चित्रण को उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला बताया। यह वंचित समुदायों में बीते कुछ वर्षों में उभरे नए अस्मिताबोध को दर्शाता है।

महिषासुर मिथक और परंपराएं में संकलित एक तस्वीर

यह वर्चस्व जमा चुके पौराणिक मिथकों से इतर नई सांस्कृतिक लहर है। आलम यह कि 2011 में दिल्ली में पहली बार आयोजित हुआ महिषासुर दिवस कई शहरों-कस्बों में फैल गया। यह किताब इसी नए उभार की पड़ताल करती है और इससे जुड़ी रोचक जानकारियां उपलब्ध कराती है। किताब के संपादक प्रमोद रंजन लिखते हैं, ”यह आंदोलन हिंसा और छल के बूते खड़ी की गई असमानता पर आधारित संस्कृति के विरुद्ध है।”

किताब छह खंडों में बंटी है। पहले खंड में विभिन्न राज्यों में महिषासुर से जुड़े पुरातात्विक साक्ष्यों और स्मृतियों की तलाश में की गई यात्रा का वृतांत है। उत्तर प्रदेश के महोबा की यात्रा में प्रमोद रंजन पाते हैं कि महिषासुर के स्थल वहां भैंसासुर और मैकासुर जैसे नामों से जगह-जगह मौजूद हैं। नवल किशोर कुमार झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड में असुर समुदाय के लोगों और उनकी संस्कृति से रू-ब-रू होते हैं।

महोबा के चौकीसोरा में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित भैंसासुर का स्मारक (फोटो एफपी ऑन द रोड, 2017)

ढोल छतरा यानी असुरों का स्वयंवर और मृत्यु के बाद दफनाया जाना, ऐसी कई रोचक परंपराओं की जानकारियां हैं। दूसरे खंड में संजय जोठे, सिंथिया स्टीफन से लेकर गौरी लंकेश के लेख हैं। इसी खंड में महिषासुर को अपना पूर्वज मानने वाली सुषमा असुर पूछती हैं, ”मैं असुर की बेटी आपके प्रचलित धर्मग्रंथों में हजारों बार मारी या अपमानित की गई हूं, क्या हमारी मौत से होकर विकास का रास्ता जाता है?” किताब में जोतीराव फुले, संभाजी भगत, कंवल भारती, रमणिका गुप्त समेत संजीव चंदन की साहित्यिक रचनाएं भी हैं। कुल मिलाकर, किताब में अस्मिताओं की नई सामाजिक पड़ताल और खोजपरक तथ्य हैं।

(इंडिया टुडे के 24 जनवरी 2018 के अंक में प्रकाशित)

 


मिथकों का पुनर्पाठ प्रस्तुत करती एक किताब

प्रोफेसर चन्द्रभूषण गुप्त ‘अंकुर’

महिषासुर आन्दोलन 21वीं सदी में आदिवासी और दलित-बहुजनों का एक आंदोलन बन कर उभर रहा है। आदिवासियों, पिछड़ों और दलितों का एक व्यापक हिस्सा, इसके माध्यम से नए सिरे से अपनी सांस्कृतिक दावेदारी पेश कर रहा है। यह आन्दोलन क्या है, इसकी जड़ें कहाँ तक विस्तारित हैं, बहुजनों की सांस्कृतिक परम्परा में इसका क्या स्थान है, लोक जीवन में उनकी उपस्थिति किन-किन रूपों में है, इसके पुरातात्विक साक्ष्य क्या हैं? बहुजनों के गीतों, कविताओं एवं नाटकों में महिषासुर किस रूप में याद किए जा रहे हैं और अकादमिक-बौद्धिक वर्ग को इस सांस्कृतिक आन्दोलन ने किस रूप में प्रभावित किया है, उनकी प्रतिक्रियाएं क्या हैं? क्या महिषासुर अनार्यों के पूर्वज थे, जो बाद में एक मिथकीय चरित्र बन कर बहुजन संस्कृति, जीवन पद्धति और सभ्यता के प्रतीक पुरूष बन गए? इन सवालों को महिषासुर : मिथक और परंपराएं किताब अपने केंद्र में रखती है। इसके साथ ही विलुप्ति के कगार पर खड़े असुर समुदाय का विस्तृत नृवंशशास्त्रीय अध्ययन भी प्रस्तुत किया है।

असुर बहुल गांव जोभीपाट में नृत्य से पूर्व महिलाएं और ढोल-मांदर बजाते पुरूष

भारतीय उपमहाद्वीप में असुर, किरात, नाग, यक्ष, द्रविड़ और आर्य आदि अनेक प्रजातियाँ निवास करती रही हैं। कालान्तर में आर्यों ने पूरे उपमहाद्वीप पर आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व कायम कर लिया। इस कारण आज देश में द्विज और अद्विज या यों कहें कि अभिजन और बहुजन— दो सामाजिक श्रेणियाँ बन गई हैं। द्विज वर्चस्व की स्थापना में पौराणिक मिथकों की अहम भूमिका रही है। ये मिथक कैसे गढ़े गए, रचे गए और इसका उद्देश्य क्या था? यह पूरी प्रक्रिया कैसे घटित हुई, किताब इसका भी जायजा लेती है।

मिथकों के आधार पर भारतीय समाज और इतिहास के भीतरी सूत्रों को तलाश करने प्रक्रिया कोई नई नहीं है। ज्योतिबा फुले, आम्बेडकर, पेरियार समेत अधिकांश बहुजन चिन्तकों ने इस आधार पर असुर-संस्कृति की न सिर्फ विस्तृत गवेषणा की है बल्कि ध्यान से देखा जाए तो उनकी वैचारिकी का प्रस्थान बिन्दु यही रहा है और उनके वांग्मय में यह अच्छा खासा स्थान घेरता है।

पुस्तक से गुजरते हुए, पाठक यह महसूस करेंगे कि आदिवासी परम्पराएं ही रूपान्तरित होकर अन्य पिछड़ी जातियों, दलित जातियों समेत अद्विज समुदाय के एक बड़े हिस्से तक फैली हैं। इनकी मौजूदगी इस बात का भी संकेत है कि इन समुदायों का उद्गम एक रहा है। अब लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इनके राजनीतिक हित भी घनिष्ट रूप से जुड़ गए हैं।

मध्यप्रदेश के बालाघाट के लांजी तहसील में नेताम वंश के गोंड राजाओं के प्राचीन किले की दीवार पर उकेरी प्रतिमाएं, इनमें गोंडों के प्रमुख सात गोत्र एवं उन्हें उत्पन्न करने वाले जंगो (महिला) और लिंगो (पुरूष) दर्शाए गए हैं

प्रमोद रंजन द्वारा संपादित यह पुस्तक, परिशिष्ट समेत छः खंडों में विभाजित है। पहला खंड : यात्रा वृतान्त में भारत के कई राज्यों में विस्तारित महिषासुर से जुड़े पुरातात्विक स्थानों और पूजा स्थानों की खोज पर केन्द्रित है। यह खण्ड महिषासुर से संबंधित पुरातात्विक साक्ष्यों और लोक परंपरा में उनकी उपस्थिति की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। दूसरा खण्ड मिथक एवं परम्पराएं हैं जिसमें गोंडी पुनेम दर्शन और महिषासुर’, ‘हमारा महिषासुर दिवस’, ‘दुर्गा सप्तशती का असुरपाठ’, ‘महिषासुर: एक पुनर्खोज’, ‘कर्नाटक की बौद्ध परम्परा और महिष’, ‘आदिवासी देवी चामुंडा और महिषासुर’, ‘बिहार में असुर परम्पराएं’, ‘छक कर शराब पीते थे देवी-देवता’, ‘डॉ। आंबेडकर और असुरशीर्षक लेख हैं।

खंड-3, आन्दोलन की वैचारिकी पर केन्द्रित है, मसलन महिषासुर आन्दोलन की सैद्धान्तिकी- एक संरचनात्मक विश्लेषण’, ‘संस्कृति का अब्राह्मणीकरण— बरास्ता महिषासुर आन्दोलन’, ‘भारतमाता और उसकी बगावती बेटियाँ’, ‘पसमांदा मुसलमान और महिषासुर शहादत दिवसशीर्षक रचनाएं आन्दोलन और उसकी वैचारिकी से जुड़े तमाम प्रश्नों पर केन्द्रित हैं।

खंड-4, ‘असुर: संस्कृति व समकाल में असुरों का जीवनोत्सव’, ‘शापित असुर: शोषण का राजनैतिक अर्थशास्त्रऔर कौन है वेदों के असुर?’ शीर्षक रचनाएं हैं। खंड-5 साहित्य पर केन्द्रित है, इसमें जोतिराव फुले की प्रार्थना, संभाजी भगत का गीत, छज्जूलाल सिलाणा की रागिणी, कंवल भारती की कविताएं, रमणिका गुप्ता की कविताएं, विनोद कुमार की कविता और संजीव चंदन का नाटक: असुरप्रिया शामिल है।

खंड-6 परिशिष्ट में, महिषासुर दिवस से सम्बन्धित तथ्य पुस्तक के लेखकों का परिचय है।  समाज-विज्ञान एवं सांस्कृतिक विमर्श के अध्येताओं, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, साहित्य प्रेमियों और रंगमंच कर्मियों के लिए यह एक आवश्यक पुस्तक है।

(18 फरवरी 2018 को दैनिक समाचार पत्र राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित)

 

किताब :  महिषासुर : मिथक और परंपराएं

संपादक : प्रमोद रंजन

मूल्य : 350 रूपए (पेपर बैक), 850 रुपए (हार्डबाऊंड)

पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली

प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)

ऑनलाइन यहां से खरीदें : https://www.amazon.in/dp/B077XZ863F


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बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

‘महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार 

 

लेखक के बारे में

एफपी डेस्‍क

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