क्या इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि कोई सूबा दलितों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचारों को लेकर लगातार सूर्खियों में रहे, जहां बार-बार यह बात सामने आए कि दलित अत्याचारों के पुराने प्रसंगों में भी अभी भी न्याय नहीं मिल सका है, मामले अभी लटके हुए ही हैं, और पता चले कि राज्य का मानवाधिकार आयोग लम्बे समय से निष्क्रिय एवं निर्जीव पड़ा हुआ है, क्योंकि लम्बे समय से वहां जिम्मेदार पदों पर कोई नियुक्ति नहीं हुई है।
ताज़ा समाचार यह भी है कि विगत दो सप्ताह में ‘आॅनर किलिंग’ के नाम पर चार हत्याओं की ख़बर – जीन्द, सोनीपत, महेन्द्रगढ़ और झज्जर जिलों से आयी है, जिसमें अलग अलग घटनाओं में दो युवक एवं दो युवतियों की हत्या हो चुकी है।[1]
गौरतलब है कि विगत 19 महीनों से हरियाणा का राज्य मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष पद खाली पड़ा है और पैनल के बचे बाकी दो सदस्यों के पद भी पांच महीने से खाली पड़े है। ‘द वायर’ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक – जिसमें ‘जन अभियान मंच’ के कार्यकर्ताओं ने सूचना अधिकार कानून के तहत हासिल जानकारी साझा की गयी है[2], जिससे वहां लटके मामलों की संख्या बाईस सौ को पार कर गयी है। दूसरी तरफ, राज्य में मानवाधिकारों के प्रति बेरूखी का आलम यह है कि पिछले दिनों खुद सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश, राजस्थान समेत हरियाणा सरकारों को इस बात के लिए लताड़ा कि बार बार निर्देश दिए जाने के बावजूद वहां गोरक्षा के नाम पर आतंक एवं हत्याएं रूक नहीं रही हैं, जिसकी सबसे बड़ी मार दलितों एवं अल्पसंख्यकों पर पड़ती है।[3]
मालूम हो कि आयोग का गठन पूर्ववर्ती हुडडा सरकार के दरमियान किया गया था और हाल में उसे दी जा रही राशि में भी बढ़ोत्तरी की गयी है, मगर जिम्मेदार व्यक्तियों के अभाव में वह बिल्कुल प्रभावहीन हो चुका है। अब आप इसे इत्तेफाक कहें या मौजूदा सत्ताधारियों की प्राथमिकताओं का प्रतिबिम्बन कि जहां मानवाधिकार आयोग जिम्मेदार व्यक्तियों के लिए तरस रहा है, वहीं गोसेवा आयोग के लिए 16 सदस्यों की नियुक्ति की जा चुकी है। एक क्षेपक के तौर पर याद किया जा सकता है कि दुलीना, झज्जर में आज से लगभग 14 साल पहले गोहत्या के नाम पर हुई पांच दलितों की हत्या के बाद हिन्दुत्ववादी संगठन के एक वरिष्ठ नेता ने एक विवादास्पद बयान दिया था कि ‘पुराणों में मनुष्य से ज्यादा गायों को पवित्रा माना गया है।’ सरकार के आलोचक पूछ रहे हैं कि यह स्थिति क्या इसी चिन्तन काे प्रतिबिम्बित करती है?
वैसे अगर पूरे देश पर निगाह डालें तो यही पता चलता है कि आयोगों को निष्प्रभावी बनाए रखना या उनका गठन तक न करना एक किस्म की राष्टीय परिघटना बना है। याद कर सकते है कि लगभग दो साल पहले किस तरह सुप्रीम कोर्ट की द्विसदस्यीय पीठ को – न्यायमूर्ति ठाकुर और न्यायमूर्ति भानुमति – दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, मिजोरम, अरूणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा और नागालैण्ड की सरकारों को आदेश देना पड़ा था कि वह जल्द से जल्द अपने यहां राज्य मानवाधिकार आयोगों का गठन करे।
अदालत को बताना पड़ा कि यह एक राज्य सरकार का वैधानिक कर्तव्य होता है कि वह राज्य स्तर पर मानवाधिकार आयोग का गठन करे ताकि मानवाधिकार हनन से पीड़ितों के लिए लगे कि न्याय तक पहुंच कोई भ्रम नहीं है। धारा 21 के अन्तर्गत इन राज्य सरकारों को इस सम्बन्ध में मिले अधिकारों की बात करते हुए उसने इस बात को रेखांकित किया कि यह उनका कर्तव्य है कि वह ऐसे आयोग का गठन करें। उसका यह भी कहना था कि ‘राष्टीय मानवाधिकार आयोग द्वारा बार बार एवं मजबूती के साथ इस बात की सिफारिश किए जाने के बावजूद, कई राज्यों ने उसे अंजाम नहीं दिया है।’ अदालत का यह निर्देश दरअसल कोलकाता के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश डी के बसु द्वारा डाली गयी जन हित याचिका के सन्दर्भ में आया था जिसमे मानवाधिकार के उल्लंघन को रोकने के लिए निर्देश जारी करने की बात कही गयी है।
मालूम हो कि राष्टीय स्तर पर सात मानवाधिकार संस्थाएं – जिन्हें आयोग के नाम से जाना जाता है – उपस्थित हैं, जिनका ढांचा, जिनकी शक्तियां अलग अलग किस्म की हैं और जिनका मकसद मानवाधिकार, महिला अधिकार, बच्चों के अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकार, अनुसूचित तबके के लोगों के अधिकार आदि की रक्षा एवं उन्हें बढ़ावा देना है। प्रोटेक्शन आफ हयूमन राइटस एक्ट, 1993 और सीपीसीआर एक्ट, 2005 के अन्तर्गत ऐसे आयोगों को राज्य स्तर पर भी स्थापित करने की बात की गयी है, जिस सम्बन्ध में राज्य सरकारों को अधिकार प्रदान किए गए हैं।
अब अगर हम स्टेटस आफ नेशनल इन्स्टिटयूशन्स, 1993/पैरिस प्रिन्सिपल्स/ पर गौर करें जिन्हें अंतरराष्टीय स्तर पर न्यूनतम पैमानों के तौर पर स्वीकार्यता मिली है, जिसके तहत राष्टीय मानवाधिकार आयोगों का गठन किया जाता है, तो औपचारिक तौर पर यही बात उसमें दर्ज है कि उन्हें कार्य के स्तर पर एवं वित्तीय मामलों मं स्वतंत्रा होना चाहिए। ‘स्वतंत्रता’ को यहां नींव डालने से लेकर, कार्य को अंजाम देने तक या संचालित करने जैसे समग्र अर्थ में लिया जाता है।
ढाई साल पहले राजस्थान उच्च अदालत ने राजस्थान सरकार को नोटिस जारी करना पड़ा था /इंडियन एक्स्प्रेस, 18 जुलाई 2015/ जब पता चला कि एक साल से अधिक समय से राजस्थान में ऐसे वैधानिक आयोगों के अध्यक्षों को नियुक्त नहीं किया गया है। न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति जे. के. रांका की दो सदस्यीय पीठ ने राष्टीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों को सन्दर्भित करते हुए कहा कि जहां राजस्थान अनुसूचित जातियों पर अत्याचारों के मामलों में देश में दूसरे नम्बर पर है और स्त्रिायों पर अत्याचार की घटनाओं के मामले में मध्य प्रदेश के बाद स्थित है, इसके बावजूद आखिर इन आयोगों को स्थायी अध्यक्ष क्यों नहीं दिए गए हैं।
अक्सर ऐसे आयोगों के गठन के बारे में सरकारें वित्तीय कमी का रोना रोती हैं। हम अन्दाज़ा ही लगा सकते हैं कि यह बात सही नहीं होती। दरअसल भले ही ऐसे आयोगों के पास अधिक ताकत नहीं होती, मगर इसके बावजूद कई बार इनकी टिप्पणियों या प्रतीकात्मक कार्रवाइयों से ही सरकारों को बगलें झांकने के लिए मजबूर होना पड़ता है और प्रतीकात्मक कार्रवाई करनी पड़ती है।
[1] http://thewirehindi.com/36018/haryana-honor-killing-india-society
[2] https://thewire.in/228573/no-one-hear-human-rights-complaints-haryana-cm-keeps-top-posts-vacant
[3] https://www.newsclick.in/supreme-court-issues-notices-rajasthan-haryana-continuing-violence-cow-vigilantes
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