लिंगायत धर्म को हिंदू धर्म से पृथक स्वतंत्र धर्म के रूप में मान्यता देने का निर्णय कर्नाटक सरकार ने लिया है। मैं सरकार के इस निर्णय का स्वागत करता हूं। मैं मुख्यमंत्री श्री सिद्दरमैया को धन्यवाद देता हूं। इस मामले में उन्होंने उचित निर्णय लिया है। लिंगायत समुदाय के दो धड़े हैं-लिंगायत और वीरशैव। दोनों के बीच काफी अंतर है। लिंगायत वेदों में विश्वास नहीं करते हैं। वे आगम के अनुसार जीवन नहीं जीते हैं यानि वेदों और स्मृतियों के अनुसार जीवन नहीं जीते हैं। जाति व्यवस्था और छुआछूत के लिए लिंगायत धर्म में कोई स्थान नहीं है। इसके उलट वीरशैव वेदों में विश्वास करते हैं। वे चतुर्वर्ण व्यवस्था को मानते हैं और उन सभी परंपराओं व मान्यताओं का दृढ़ता से पालन करते हैं जो ब्राह्मण करते हैं। वास्तव में वे इस बात का दावा करते हैं कि वे ब्राह्मणों से भी श्रेष्ठ हैं। इसलिए वीरेशैव और लिंगायतों का रास्ता एक नहीं हो सकता, भले वर्षों से वे एक साथ रहते आये हों। विचारधारा और धर्म एवं आध्यात्मिकता के मामले में उनमें कोई मेल नहीं है। इसलिए सिद्दरमैया के नेतृत्व में कर्नाटक की सरकार ने जो किया है, उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए।
लिंगायत को अलग धर्म घोषित करने की मांग हमेशा से की जाती रही है और इसे करने का अवसर सिद्दरमैया को प्राप्त हुआ। लिंगायत धर्म के संस्थापक वासवन्ना ने जो कुछ किया, जो उसे आगे बढाने की जरूरत उनके सभी अनुयायी महसूस कर रहे थे और इस जिम्मेदारी को सिद्दरमैया ने उठाया। लिंगायत समुदाय की मांगों को पूरा करके उन्होंने उत्कृष्ट कार्य किया है।
एक स्वतंत्र धर्म के रूप में लिंगायत धर्म को को मान्यता मिलने में बहुत ज्यादा समय लगा, क्योंकि शुरूआती समय में लिंगायतों के नेता अपने को प्रभावी तरीके से संगठित नहीं कर पाये थे। हाल के महीनों में नई घटनाक्रम समाने आये और उन्होंने प्रभावी तरीके से अपने तर्कों को प्रस्तुत किया। सरकार के सामने यह दावा पेश किया कि लिंगायतवाद एक पृथक धर्म है। सरकार ने इस मांग को गंभीरता से लिया और एक समिति नियुक्त किया। नागमोहन के नेतृत्व वाली इस समिति ने इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार किया। इस समिति ने सभी धार्मिक ग्रंथों का अवलोकन किया और यह पाया कि लिंगायतवाद के ऐतिहासिक प्रमाण हैं, जबकि वीरशैव के कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं। वीरशैव ज्यादा से ज्यादा एक आस्था और विश्वास रहा है। यदि यह प्रश्न किया जाये कि वीरशैववाद का कौन संस्थापक है, तो इसका उत्तर नहीं मिलता है। लेकिन यदि आप यह प्रश्न करें कि किसने लिंगायतवाद की स्थापना किया, तो इसका जवाब मिलता है। वह जवाब यह है कि वासवन्ना ने। वासवन्ना ने 12वीं शताब्दी में देश के भीतर एक महान क्रांति को जन्म दिया। उन्होंने साहस के साथ यह कहा कि मै मोची मथारा का बेटा हूं। दुनिया में किसी ने भी इस तरह की भावना प्रकट नहीं की है। एक ऐसा ब्राह्मण जो सभी भेदभावों और असमानताओं के घेरों को तोड़ कर उसके पार चला गया। उसने सबको अपने जैसा माना। इसी कारण से मैं जातिवादी ब्राह्मण और प्रबुद्ध ब्राह्मण के बीच फर्क करता हूं। मैं प्राय: कहता हूं कि देश को प्रबुद्ध ब्राह्मणों की जरूरत है, लेकिन देश को जातिवादी ब्राह्मणों की जरूरत नहीं हैं। जातिवादी ब्राह्मण खतरनाक चीज है। ब्राह्मण परिवार में जन्मे वासवन्ना एक प्रबुद्ध व्यक्ति थे।
एक बात और आप को यह तथ्य जानकर आश्चर्य हो सकता है कि वासवन्ना छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बुद्ध के दर्शन से गहरे स्तर पर प्रभावित थे। बुद्ध और वासवन्ना में मात्र इतना ही अंतर है कि वासवन्ना व्यक्तिगत ईश्वर को स्वीकार करते थे। वे लिंग के रूप में लिंगायत प्रतीक शरीर पर धारण करते थे, जबकि बुद्ध ने अपने अनुयायियों को कोई प्रतीक प्रदान नहीं किया, क्योंकि उनका विश्वास था कि प्रतीक समाज को विभाजित करता है। उनका मानना था कि सभी मनुष्य एक हैं। वासवन्ना द्वारा प्रतीक अपनाये जाने का कारण यह था कि कुछ लोगों को मंदिर में जाने की अनुमति नहीं थी। वे इस दृष्टिकोण को खारिज करना चाहते थे। लिंग को धारण करने के पीछे यह मान्यता थी कि जो लोग भी इसे धारण करते हैं वे सभी लोग एक हैं, चाहे वे ‘अछूत’ हों या ब्राह्मण।
वैदिक धर्म इस बात का दावा करता है कि ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं। लिंगायत धर्म उनके इस दावे को अस्वीकार करता है। यह धर्म इस बात पर आधारित है कि सभी लोग एक समान हैं। मनुस्मृति के इस कथन से कि सभी गैर ब्राह्मण ब्राह्मणों के दास हैं, लिंगायत अपने को पीडित महसूस करते हैं। उनका मानना है कि यह एक अपमानजनक कथन है। इस कारण से आत्मसम्मान को महत्ता देने वाले लिंगायत यह चाहते हैं कि उनका अपना धर्म हिंदू धर्म से अलग हो। इस तरह उन्होंने सरकार को समिति की रिपोर्ट (नागमोहन समीति) स्वीकार करने के लिए तैयार करने में सफलता प्राप्त किया। न केवल सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया, बल्कि उसे क्रियान्वित करने का निर्णय भी ले लिया। कर्नाटक सरकार यह रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेजने के लिए सहमत हो गई, जो इस मामले में अंतिम निर्णय लेगी। यह एक ऐतिहासिक कदम है।
आरएसएस और भाजपा दोनों का कहना है कि सिद्दरमैया समाज को विभाजित करने की कोशिश कर रहे हैं। मेरा कहना है कि वे समाज को बहुत पहले से ही विभाजित कर चुके हैं। तभी से जबसे वैदिक धर्म अस्तित्व में आया, इसने जाति के नाम पर समाज को विभाजित कर दिया। इन्होंने हजारों जातियां बना दीं, उनका इस बारे में क्या कहना है? उनके वैदिक धर्म ने तो पहले से ही समाज को विभाजित कर रखा है। जो पहले से ही विभाजित हैं, वे आत्मसम्मानपूर्वक जीवन जीना चाहते थे, इसलिए वे लोग वासवन्ना के अनुयायी बने। जिस तरह का विभाजन हिंदुओं में है, उस तरह का विभाजन इस्लाम, क्रिश्चियन या अन्य किसी धर्म में नहीं है। वे एक ईश्वर में विश्वास करते हैं और उसके सभी अनुयायियों को एक मानते हैं। क्या ऐसी समता की भावना ‘हिंदू’’ समाज में दिखाई देती है? ब्राह्मण अछूत के नजदीक नहीं आना चाहता है। उसे छुना नहीं चाहता है। इसलिए उन्हें यह बात कहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है कि सरकर ‘हिंदू’ समाज को विभाजित करना चाहती है। ‘हिंदू’ समाज पिछले 3000 वर्षों से विभाजित है। यह जातियों का समाज है। हिंदूवाद जातियों का एक ढेर है।
यहां मैं एक बात और जोड़ना चाहता हूं, वह यह कि ‘हिंदू’ शब्द चारों वेदों में मौजूद नहीं है। न तो 18 पुराणों और उपपुराणों में मौजूद है, न ही रामायण और महाभारत में इसका कोई जिक्र है। संस्कृत के सभी ग्रंथ 1000 ईसवी से पहले संकलित किए गए हैं। सभी प्राचीन ग्रंथों में ‘वैदिक धर्म’, ‘ब्राह्मणवादी धर्म’ और ‘वर्णाश्रम धर्म’ का जिक्र आता है। अंग्रेजों के आने के बाद ही ‘हिंदू’ शब्द लोकप्रिय हुआ है। आज भी हिदुवाद ब्राह्मणवाद ही है।
(यह आलेख के.एस. भगवान से बात-चीत के आधार अनिल वर्गीज ने लिपिबद्ध किया है)
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