(20 मार्च 2018 सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया है। इस निर्णय में इस बात का निर्देश दिया गया है कि एसी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम के तथाकथित दुरूपयोग को रोका जाय। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय बाम्बे उच्च न्यायालय के एक आदेश के खिलाफ अपील के संदर्भ में आया है। बाम्बे उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के कराड़ के एक फार्मेसी कॉलेज के अनुसूचित जाति के एक कर्मचारी के पक्ष में निर्णय दिया था। इस निर्णय में कॉलेज के प्राचार्य को एसी-एटी अत्याचार अधिनियम के तहत दोषी ठहराया गया था। प्राचार्य ने अनुसूचित जाति के इस कर्मचारी के वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) में अनुचित और अपमाजनक टिप्पणी की थी। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने भूतपूर्व सचिव को पी.एस. कृष्णन को इस बात के लिए उत्प्रेरित किया कि वे केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री को पत्र लिखे। नीचे पत्र और उसके साथ जुड़ा संलग्नक दिया जा रहा है)
आदरणीय,
श्री थावर चंद गहलोत
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री
भारत सरकार
1. महाराष्ट्र के तकनीकी शिक्षा के निर्देशक सुभाष काशीनाथ महाजन की अपील पर 20/03/2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के संदर्भ में एक निर्णय दिया है। इस अधिनियम में 2015 में संशोधन किया गया था। यह निर्णय हाल के उन निर्णयों में से एक है, जो एससी और एसटी समुदायों के लिए बेचैनी का कारण बना है। यह निर्णय इन समुदायों को अत्याचारों से अपनी सुरक्षा करने के मामले में ज्यादा कमजोर बना देगा। इस अपील के संदर्भ में दिए गए खास निर्देशों के अलावा अदालत द्वारा जो अन्य आकलन प्रस्तुत किया गये हैं, वे एससी और एसटी समुदायों के लिए परेशानी का सबब हैं। एससी और एसटी समुदायों के सामाजिक न्याय के प्रयासों में एक व्यक्ति के तौर पर मैं पिछले सात दशकों से जुड़ा रहा हूं और एक गैर राजनीतिक व्यक्ति के रूप में इस कानून के लिए पहलकदमी करने वाला मुख्य व्यक्ति रहा हूं। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के संदर्भ में मैं अपनी बेचैनी आपसे साझा करना चाहता हूं।
2. क्यों यह स्थिति सामने आई। अखबारों की रिपोर्ट पढ़ने के बाद यह समझ में आता है कि केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले भारत के अतिरिक्त महान्यायवादी(एएसजी) सर्वोच्च न्यायालय के सामने उस पृष्ठभूमि और इस विषय से संबंधित प्रासंगिक तथ्यों को समग्रता में सर्वोच्च न्यायालय के सामने रखने में असफल रहे।
3. रिपोर्टों के अनुसार उन्होंने कुछ अनावश्यक चीजों को स्वीकार किया और सरकार के पक्ष को गलत तरीके से प्रस्तुत किया, इसका उदाहरण मैं नीचे प्रस्तुत करुंगा।
4. यह जरूरी है कि सरकार तुरंत सर्वोच्च न्यायालय जाये और सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी खंडपीठ से यह आग्रह करे कि वह इस निर्णय पर पुनर्विचार करे, निर्देशों को निष्प्रभावी करे और इस निर्णय में जो विशिष्ट किस्म के आकलन प्रस्तुत किए गए हैं उन्हें रद्द करे। अपनी याचिका/अपील में सरकार सर्वोच्च न्यायालय के सामने समग्र तस्वीर प्रस्तुत करे, जैसै कि इस अधिनियम की सामाजिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, एससी और एसटी समुदायों की अत्याधिक कमजोर स्थिति और इस अधिनियम के प्रावधानों को कमजोर न बनाने की महत्ता। यहां दिए गए सुझावों को क्रियान्यवित करने में सरकार यदि देर करती है तो एससी और एसटी समुदायों द्वारा इसका गलत अर्थ निकाला जायेगा। इसके साथ कुछ बातें जुड़़ी हैं जैसा कि पोस्ट मैट्रिक स्कालरशिप एक बड़ी धनराशि बकाये के रूप में इकट्ठा हो गई है, जो जारी नहीं हुई और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुपयुक्त प्रस्ताव मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा 5 मार्च 2018 को स्वीकृति, जिसकी व्यापक तौर पर आलोचना हुई। इस संदर्भ में मैंने अक्टूबर 2017 में पत्र लिखा था। इसके अलावा आपने एक कड़ा पत्र मानव संसाधन मंत्रालय को लिखा। यूजीसी के प्रस्ताव की स्वीकृति को वापस लेने और इस संदर्भ में पुनर्विचार याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर करने की जरूरत है।
5 . सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल करने की तैयारी के दौरान मैं सरकार को यह सुझाव देना चाहता हूं कि वह उसके पहले तुरंत एक वक्तव्य जारी करे। जिसमें वह इस बात को स्पष्ट करे कि वह एससी और एसटी समुदायों की बेचैनी को समझती है। इस वक्तव्य में सरकार अपनी यह मंशा स्पष्ट करे कि वह जल्दी ही इस निर्णय के संदर्भ में पुनर्विचार याचिका दाखिल करेगी। साथ ही सरकार अपने वक्तव्य में यह स्पष्ट करे कि वह अतिरिक्त महान्यायवादी की अनावश्यक स्वीकृतियों और सरकार को गलत तरीके से प्रस्तुत करने के उनके कृत्य से सहमत नहीं है और सरकार इस बात के लिए आश्वस्त करे कि एससी और एसटी का हित उसकी पहली प्राथमिकता में है। सरकार का यह कदम एससी और एसटी समुदायों की भावनाओं को सांत्वना प्रदान करेगा और उनके संदेह को दूर करेगा। इन समुदायों में यह आक्रोश है कि सरकार ने उनके पक्ष को ठीक से सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया। आज की हालात में इस निर्णय को लेकर इन समुदायों में बेचैनी और गहरा आक्रोश है।
6. आपके विचारार्थ मैंने परिशिष्ट के रूप में एक संलग्नक के जरिए कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे रखे हैं। इन मुद्दों को सर्वोच्च न्यायालय की बड़ी पीठ के सामने सरकार द्वारा दाखिल होने वाली याचिका/अपील में शामिल करने की जरूरत है। कुछ अन्य मुद्दे मैं आपके सामने रख रहा हूं जो इस मामले के लिए जरूरी हैं।
7. मैं यह भी सुझाव देता हूं कि अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 और संशोधित अधिनियम 2015 को नवीं अनुसूची में शामिल किया जा सकता है, जो इसे न्यायिक पुनर्विचार से कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान कर सकता है।
8. मैं आपके विचारार्थ यह भी निवेदन करता हूं कि भारत सरकार को सर्वोच्च न्यायालय में लंबित पड़े उन सभी मामलों में पक्षकार बनाना चाहिए, जिन मामलों में एससी और एसटी समुदायों पर अत्याचारों के संदर्भ में आरोपी उच्च न्यायालयों से मुक्त हो गए और वहां की सरकारों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल किया है। ऐसे मामलों में शामिल है, आंध्र प्रदेश का टीसुनदुरू और बिहार के छ: मामले। बिहार के इन छ: मामलों में लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोला के मामले भी शामिल हैं। इनकी चर्चा संलग्नक में की गई है।
9. जिस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का 20/03/2018 का निर्णय आया है, वह एससी समुदाय के कर्मचारियों के एसीआर के संबंध में प्रतिकूल टिप्पणी से संबंध रखता है। यह भद्दी टिप्पणी एक प्रोफेसर और कॉलेज के प्राचार्य ने श्री भाष्कर गायकवाड़ के प्रति किया था, जो कराड के फार्मेसी कॉलेज में स्टोर कीपर के रूप में नियुक्त हैं। मैं इस मामले में आपको अलग से लिखूंगा।
दिनांक 22/03/2018 के अखबारों के रिपोर्ट से यह पता चलता है कि सभी पार्टियों के सांसद और मंत्री सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय और आकलन से बेचैन हैं। एक अखबार की रिपोर्ट के अनुसार भाजपा के दलित सासंद आपसे मिले और वे चाहते हैं कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल करे। बहुत सारे लोग जो एससी और एसटी के लिए काम करते हैं, इसी तरह परेशान हैं। इस मामले में उनके भविष्य के प्रयासों में मदद पहुंचाने और जैसा मैंने इस पत्र में सुझाव दिया है, उस आधार पर सरकार जो कदम उठा सकती है, उनके सहयोग को सुनिश्चित बनाने के लिए, मैं यह पत्र उनको भी भेज रहा हूं।
पी.एस.कृष्णन (आईएस)
सेवानिवृत
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in
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