फुले, पेरियार और आंबेडकर एक ऐसी त्रयी हैं, जिन्होंने उन विचारों की नींव डाली, जिन्हें अपनाकर ही आधुनिक भारत का निर्माण किया जा सकता है। हिंदी समाज में एक हद तक फुले और आंबेडकर के विचारों का प्रचार-प्रसार हुआ है, इन लोगों के साहित्य का एक बड़ा हिस्सा हिंदी भाषा में अनूदित भी हो चुका है, लेकिन ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ के व्यक्तित्व, कृतित्व और विचारों का उतना व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं हुआ है। अभी तक उनके लेखन के बड़े हिस्से से हिंदी समाज अपरिचित है। इसके बावजूद भी यह सच है कि उनके व्यक्तित्व के प्रति लोगों के में जबरदस्त आकर्षण है, लेकिन यह भी उतना ही सच है– हिंदु धर्म, हिंदू समाज, हिंदू संस्कृति, हिंदू धर्मग्रंथों, मिथकों, पुराणों,वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के बारे में क्या सोचते थे? वे किस तरह के समाज की कल्पना करते थे? जाति व्यवस्था के खात्मे की उनकी रणनीति क्या थी? ईश्वर, धर्म, धार्मिक पुरोहितों से वे क्यों इतनी घृणा करते थे? भारतीय इतिहास को वे किस रूप में व्याख्यायित करते थे? व्यक्ति, व्यक्ति के बीच के संबंधों और स्त्री-पुरूष के बीच संबंधों पर उनके क्या विचार थे?– इस सबसे हिंदी समाज का बड़ा हिस्सा अपरिचित है, या सुनी-सुनाई बातें करता है।
स्वाभाविक है कि ऐसी परिस्थितियों में एक ऐसी किताबों की जरूरत महसूस की जा रही है, जो रामासामी नायकर ‘पेरियार’ के मूल विचारों से हिंदी समाज को परिचित कराए। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण किताब, ‘पेरियार के प्रतिनिधि विचार’ के रूप में सामने आई है। पुस्तक का संपादन प्रमोद रंजन ने किया है। बहुजन वैचारिकी से जुड़े ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशन’ ने इसका प्रकाशन किया है। इस किताब में पेरियार के प्रतिनिधि लेखों को भी संकलित किया गया है। संकलन करते समय यह ध्यान में रखा गया है कि विविध विषयों पर उनके मूल विचार सामने आ जाएं।
किताब के प्रारंभ में पेरियार की एक संक्षिप्त प्रमाणिक जीवनी भी प्रस्तुत की गई है। रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’ (1879 – 1973) को हमलोग एक प्रसिद्ध नेता, चिन्तक और समाजसेवी के रूप में जानते हैं। तमिलनाडु में जन्मे पेरियार ने स्वतंत्रता आन्दोलन से लेकर स्वतंत्र भारत की राजनीति में प्रतिरोधी स्वर के रूप में जबरदस्त भूमिका निभायी थी। पेरियार ने राजनीति को ध्यान में रखकर सामाजिक विषयों पर लेख लिखे और भाषण भी दिये। यह सब मूलतः उनकी मातृभाषा तमिल में प्रकाशित है। ‘सच्ची रामायण’ का प्रकाशन हिन्दी में पहले हो चुका है, मगर उनका शेष लेखन अभी तक हिन्दी में अनूदित होकर प्रकाशित नहीं हो पाया था।
चार खण्डों में आंतरिक रूप से विभाजित और सुगंठित यह पुस्तक पेरियार के मिजाज़, संघर्ष और उपलब्धि को प्रस्तुत करने में सक्षम है। ‘द्रविड़ कजगम’ के तमिल वेबसाइट से लेकर पेरियार के जीवन-परिचय को व्यवस्थित तरीके से यहाँ रखा गया है। जीवन-परिचय की प्रस्तुति में तथ्य तथा दृष्टि का बखूबी ध्यान रखा गया है। महिमामंडन की शैली को छोड़कर, विश्वसनीयता बनाए रखनेवाली भाषा में, विस्तार से 16 पृष्ठों में, बिन्दुवार महत्वपूर्ण चरणों की प्रस्तुति की गई है।
पाँच आलेख पेरियार के बारे में हैं। ब्रजरंजन मणि, ललिता धारा, टी. थमराईकन्नन, सत्य सागर और सुरेश पंडित के इन आलेखों में रामासामी पेरियार का मूल्यांकन किया गया है। पेरियार के सामाजिक आन्दोलन, स्त्री-दृष्टि, प्रासंगिकता और रामकथा के सन्दर्भों पर विचार करते ये आलेख पाठकों के सामने कुछ नजरिया पेश करते हैं कि इस तरह से आप पेरियार को देख सकते हैं।
पेरियार के लेखों और भाषणों का संग्रह टी. मार्क्स ने ‘ऑन कास्ट एंड रीलिजन’ के नाम से किया है। इस पुस्तक का अनुवाद ‘पेरियार : धर्म और जाति’ के नाम से यहाँ संकलित किया गया है। इस खंड में 20 आलेख या भाषण हैं, जिनके विषय ईश्वर, हिन्दू धर्म और जाति-व्यवस्था से सम्बंधित है। चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने ‘पेरियार ई.वी.रामास्वामी नायकर’ नामक पुस्तक का प्रकाशन 1970 में कराया था। इस पुस्तक से छह आलेख या भाषण लिये गये हैं जिनका सम्बन्ध दर्शनशास्त्र और समाज-सुधार से है। इस पुस्तक की सर्वाधिक विस्फोटक सामग्री है ‘सच्ची रामायण’। इसका प्रकाशन पहली बार 1968 में हुआ था और इसके अनुवादक थे रामाधार। प्रकाशन से लेकर अब तक यह पुस्तक विवाद और प्रतिबन्ध के बीच साँस लेती और दम तोड़ती रही है। प्रमोद रंजन ने भूमिका में इस इतिहास को ब्यौरे के साथ रखा है।
ब्राह्मणवाद का विरोध पेरियार का मुख्य स्वर रहा है। उनके लेखन-चिंतन के इस सूत्र को सर्वत्र रेखांकित किया जा सकता है। जाति, धर्म और रामकथा के अलावा उनके राजनीतिक-सामाजिक सरोकारों को भी इसी के गिर्द विकसित होते हुये देखा जा सकता है। ब्राह्मणवाद ने इधर एक नया रूप धारण किया है जिसके सहारे भ्रम फैलाकर उसने चुनावी राजनीति में भरपूर सफलता पायी है। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति इस बीच धराशायी कर दी गयी है। मुसलमान और पाकिस्तान के विरूद्ध माहौल बनाकर दलितों-पिछड़ों के बीच हिंदुत्व की भावना पैदा कर ध्रुवीकरण में सफलता पा ली गयी है। हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि राजनीतिक पद पर सर्वस्वीकार्यता के साथ विराजमान हो रहे हैं। अगड़ी जातियों की सत्ता में ज़ोरदार वापसी हो रही है। इन परिवर्तनों की व्याख्या कई तरह से की जा सकती है। यदि जाति-आधारित व्याख्या की जाये तो इस खुशी का असली कारण यही मालूम पड़ता है कि चुनावी राजनीति में अगड़ी जातियों की जबरदस्त वापसी हो रही है। दलित-पिछड़े और कुछ हद तक आदिवासी भी। मुसलमान-पाकिस्तान-विरोध को इतनी प्रमुखता दे रहे हैं कि वे इस पेंच को नज़रअंदाज़ कर दे रहे हैं कि हिंदुत्व को बढ़ावा देने का मतलब है अगड़ी जातियों को वर्चस्व मजबूत करने का और मौका देना। मगर नफ़रत ने ऐसी जड़ जमाई है कि उत्तर प्रदेश की शिक्षण संस्थाओं में 28 अप्रैल 2017 को परशुराम जयंती मनाने का आदेश जारी होता है और चारों तरफ मौन स्वीकृति की मुस्कुराहट फ़ैल जाती है। फुले-पेरियार-आम्बेडकर के देश में धर्मनिरपेक्षता इतनी अपंग हो जाएगी, इसका अनुमान नहीं था। आत्ममंथन की जरूरत है कि धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करनेवालों ने ही हिन्दू ध्रुवीकरण के अवसर मुहैया कराये हैं।
सोशल मीडिया में दलितों-पिछड़ों की पसंद-नापसंद को अनेक प्रकार से विश्लेषित करने पर यह कहा जा सकता है कि वे ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ सोचने के बजाय 70 मुसलमानों से नफ़रत को ज्यादा जरूरी मान रहे हैं। तथाकथित राष्ट्रवादी राजनीति ने तमाम पार्टियों के मुद्दों को छीन लिया है और अपने मूल मुद्दों पर चुनाव के पहले मौन साध लेने की रणनीति अपना ली है। गरीबी, रोजगार, विकास, दलित, पिछड़े, स्त्री (मुसलमान स्त्री भी) आदि मुद्दों को राष्ट्रवादी राजनीति ने लगभग हथिया लिया है और अपने मूल मुद्दों (संविधान-विरोध, आरक्षण-विरोध, राममंदिर आदि) को सत्तासीन होने के बाद लागू करने के लिए छोड़ रखा है। भारत की जिस आबादी ने आज तक ब्राह्मणवाद का विरोध किया था, वह आज राजनीतिक रूप से बदली-बदली-सी नज़र आ रही है। बहुत सोचने पर भी इस बदलाव का कोई ठोस आधार नज़र नहीं आता। तीसरे मोर्चे की विगत तीन दशकों की राजनीति ने दलितों-पिछड़ों को आगे बढ़ने के सर्वाधिक अवसर दिये। इसी दौर में अगड़ी जातियों का प्रत्यक्ष राजनीतिक वर्चस्व कमज़ोर हुआ। कई प्रदेशों में यह तय हो गया कि मुख्यमंत्री चाहे किसी भी जाति का बने, अगड़ी जाति का व्यक्ति तो नहीं ही बनेगा। राष्ट्रवादी राजनीति ने इस क्रम को तोड़ दिया है और अब वह सावधान है कि दलितों-पिछड़ों का भ्रम बना रहे।
फिर भी, राजनीतिक सत्ता के अस्थायीत्व से हमलोग अच्छी तरह परिचित हैं. बदले माहौल में भुला दिये गये लेखकों और ग्रंथों की ज़रूरत पड़ती है। पेरियार दक्षिण भारत की जमीन के जिन अनुभवों को लेकर लेखन-चिंतन-राजनीति कर रहे थे उनका विस्तार पूरे भारत के हिन्दू समाज में है। बहुजन समाज के लोग हिन्दू धर्म की व्यवस्था को आत्मालोचन की दृष्टि से यदि देखना चाहते हैं तो पेरियार की यह किताब सहायता प्रदान करेगी। यदि वे केवल मुसलमान-पाकिस्तान-विरोध को अपनी वैचारिक पूँजी मानते हैं तो पेरियार को पढ़कर उन्हें मानसिक कष्ट होगा। सुझाव देना अनुचित नहीं होगा कि सच को जानने के कुछ ही रास्ते होते हैं, जैसे- मूल ग्रंथों का अध्ययन, वास्तविक सामाजिक आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी, अपने सामाजिक तबके को ठीक से जानना आदि। कहना अनुचित नहीं होगा कि इन तीनों पक्षों का अभाव तेज़ी से बढ़ रहा है।
प्रमोद रंजन की इस पुस्तक का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष है ‘सच्ची रामायण’। पेरियार ने विभिन्न रामकथाओं को आधार बनाकर बिन्दुवार असंगतताओं को उभारा है। अपनी व्यावहारिक राजनीतिक-सामाजिक समझ के आधार पर उस कथा के विभिन्न पक्षों पर कुछ सवाल खड़ा करके उन्होंने संशय पैदा किया है। उन्होंने बहुजन समाज को चेताया है कि देखो यह कथा कैसे तुम्हारे खिलाफ है। आर्य-द्रविड़ के भेद-विभेद भी उस कथा में दिखाए गये हैं। उग्र हिन्दूवाद आज भी हुड़दंग कर सकता है कि मुसलमानों के ग्रंथों पर आप सवाल क्यों नहीं उठाते? ‘नव जागृत’ बहुजन हिन्दू का रक्त खौल उठता है कि आप किस प्रकार के धर्मनिरपेक्ष हैं कि हिन्दुओं पर तो सवाल करते हैं मगर मुसलमानों पर चुप रह जाते हैं!! मुझे नहीं मालूम कि ‘हिन्दू धर्म की पहेलियाँ’ (आम्बेडकर) के टक्कर की कोई किताब राष्ट्रवादी चिंतकों के द्वारा ‘इस्लाम’ बारे में लिखी गयी हों। आप तो ‘इस्लामी कट्टरता’ का पर्दाफाश करने की प्रतिज्ञा किये बैठे हैं, तो क्यों नहीं कुरान-हदीस पढ़कर एक ग्रन्थ लिखते हैं? जिसका जवाब देना होगा देगा! जहाँ तक मुझे मालूम है ‘हिन्दू धर्म की पहेलियाँ’ का वाजिब जवाब आज तक प्रकाशित नहीं हुआ है। इस अकाल बेला में ‘पेरियार के प्रतिनिधि विचार’ हिंदी समाज के वैचारिक माहौल में एक खलबली पैदा करने में मददगार होगी।
(लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘अंबेडकर इन इंडिया’ (संपादक-दयानाथ निगम) के फरवरी 2018 के अंक में प्रकाशित)
किताब : पेरियार के प्रतिनिधि विचार
संपादक : प्रमोद रंजन
प्रथम संस्करण : 2016
मूल्य : 200 रूपए (पेपर बैक), 450 रुपए (हार्डबाऊंड)
प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)
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