h n

जयपाल सिंह मुंडा : हॉकी चैंपियन और बेजुबानों की जुबान भी

भारतीय सिविल सेवा को ठोकर मारने वाले सुभाष चन्द्र बोस अकेले व्यक्ति नहीं थे। जयपाल सिंह मुंडा ने भी ऐसा किया था जो बाद में संविधान सभा में आदिवासियों की आवाज बने। यहाँ उन्होंने भारतीय समाज की मुख्यधारा में फैले जातिवाद और पितृसत्ता के खिलाफ आवाज उठाई। उनके जीवन के कतिपय पक्षों पर प्रकाश डाल रहे हैं अतुल कृष्ण बिस्वास :

जयपाल सिंह मुंडा (3 जनवरी, 1903 – 20 मार्च, 1970) पर विशेष

आदिवासियों के हृदय पर राज करने वाले उनके आइकॉन को भारतीय इतिहास में वह महत्त्व नहीं दिया गया जिसके वे हकदार हैं। उनको न केवल अलग-थलग किया गया बल्कि हाशिए पर भी डाल दिया गया है। बाहरियों ने आदिवासियों का निर्मम शोषण किया और उनके साथ बेईमानी की। बर्बरता की हद तक यह सदियों तक निर्बाध चलता रहा। इसमें कोई शक नहीं है कि गैर-आदिवासियों की अनैतिक मंशा और कपट के कारण आदिवासी उनपर विश्वास नहीं करते।

संथालों ने 1855 में विद्रोह किया। हमारे समाज का एक हिस्सा इस विद्रोह को ऐसे पेश कर रहा है जैसे यह अंग्रेजी शासन के खिलाफ था। लेकिन सामान्य रूप से देखें, तो संथाल विद्रोह वास्तव में बाहरियों के खिलाफ था जिनको वे अपनी भाषा में दिकु बुलाते थे। दिकु मतलब – धोखेबाज, शोषक और जबरन वसूली करने वाला।

बिरसा मुंडा के नेतृत्व में दक्षिण रांची से “उलगुलान” (1895-1900) शुरू हुआ। उलगुलान का अर्थ है “महान विद्रोह”। जनजातीय भारत के कृषि इतिहास की यह विशिष्ट घटना थी। उलगुलान आदिवासी भूमि पर अतिक्रमण और बेदखली के खिलाफ था। वंचित आदिवासी समुदायों में बढ़ती निराशा और गुस्से का यह इजहार था। परंपरागत रूप से मुंडा समुदाय को “खुंटकट्टीदार” या जंगलों की मूल सफाई करने वालों के रूप में लगान की दर में तरजीही रियायत दी जाती थी। पर 19वीं सदी के दौरान “जागीरदारों” और “ठेकेदारों” ने खुंटकट्टी व्यवस्था को कमजोर करना शुरू कर दिया। ये जागीरदार और ठेकेदार बाहर से आए हुए लोग थे जो आदिवासी क्षेत्र में व्यापारियों और सूदखोरों के रूप में आए और धीरे-धीरे जंगल में इनके स्वर्ग को इन्होंने रौंद डाला।

बिरसा मुंडा का जन्म रांची जिले के खूंटी अनुमंडल में 15 नवंबर 1875 को हुआ। वे 25 साल से भी कम समय तक जीवित रहे और 9 जून 1900 को जेल में उनका देहांत हो गया। पर उनका संक्षिप्त जीवन आदिवासी समुदायों पर अपनी अमिट छाप छोड़ गया।

जयपाल सिंह मुंडा का जन्म बिरसा मुंडा की मृत्यु के तीन साल बाद हुआ। जयपाल भी रांची जिला के खूंटी अनुमंडल के हैं जो कि अब झारखंड का एक अलग जिला है। 3 जनवरी 1903 को टपकारा के एक मुंडा गाँव में जयपाल का जन्म हुआ। बिरसा के संघर्ष ने जयपाल के लिए इतिहास में एक स्थाई जगह सुरक्षित कर दी।  

जयपाल सिंह मुंडा (3 जनवरी, 1903 – 20 मार्च, 1970

जयपाल के परिवार ने ईसाई धर्म कबूल कर लिया था। एसपीजी मिशन, चर्च ऑफ़ इंग्लैंड, ने उनमें छिपी प्रतिभा और नेतृत्व क्षमता की शुरू में ही पहचान कर ली थी। गाँव में प्रारंभिक शिक्षा के बाद जयपाल को रांची के सेंट पॉल स्कूल में भर्ती कराया गया जिसे मिशनरीज चला रहे थे। उनके मृदु स्वभाव ने उन सभी लोगों को प्रभावित किया जो उनके संपर्क में आए। अपने युवावस्था के शुरुआती दिनों में एक असाधारण क्षमता वाले हॉकी खिलाड़ी के रूप में वे चमके।

सेंट पॉल के प्राधानाचार्य उनके संरक्षक बन गए और उन्हें उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय, इंग्लैंड भेज दिया। यहाँ पर एक प्रतिभाशाली हॉकी खिलाड़ी के रूप में अपना सिक्का जमाने में जयपाल को ज्यादा वक़्त नहीं लगा और शीघ्र ही वे ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के हॉकी टीम में शामिल कर लिए गए। हॉकी के मैदान में एक रक्षक के रूप में उनके खेल की खूबी थी अपने प्रतिद्वंद्वियों को गेंद पर काबू नहीं करने देना। उनकी सूझबूझ विलक्षण थी। गेंद को वे ऐसे मारते थे कि वह वांछित दिशा में ही जाता था। ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय की हॉकी टीम के वह सर्वाधिक प्रतिभाशाली खिलाड़ी थे। विश्वविद्यालय की टीम के सदस्य के रूप में उनके योगदान की वजह से उनकी पहचान बनी। हॉकी में ऑक्सफ़ोर्ड ब्लू का ख़िताब पाने वाले वे पहले भारतीय छात्र बने।    

ऑक्सफ़ोर्ड में रहते हुए खेल, विशेषकर हॉकी के स्तंभकार के रूप में उनकी प्रतिभा उभरकर सामने आई। वे प्रमुख ब्रिटिश पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखने लगे। अपने आलेखों से वे पाठकों के पसंदीदा बन गए और उनको काफी सराहना मिली। 1928 में नीदरलैंड ने ओलंपिक खेलों की मेजबानी की। नीदरलैंड के शहर एम्स्टर्डम में यह खेल आयोजित हुआ और जयपाल को ओलंपिक में खेलने वाली भारतीय हॉकी टीम का कप्तान चुना गया। पर उनके सामने एक भयंकर दुविधा आ खड़ी हुई। उन्हें दो में से किसी एक को चुनना था – या तो भारत के लिए खेलने से मना कर दो या फिर इंडियन सिविल सर्विस से बाहर हो जाओ।

देशभक्ति निजी हितों से ऊपर

जयपाल ने अर्थशास्त्र (प्रतिष्ठा) की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की। इसके बाद वे इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) की परीक्षा में बैठे। उन दिनों ऐसे छात्रों के लिए इस परीक्षा का आयोजन ब्रिटिश सरकार भारत में करती थी जो नौकरशाही का हिस्सा बनने की ख्वाहिश रखते थे। उनसे पहले इस परीक्षा को पास करने वाले भारतीय धनी और अभिजातीय भूस्वामियों के वर्ग से आते थे। जयपाल एक विशिष्ट अपवाद थे। साक्षात्कार में सर्वाधिक अंक लेकर उन्होंने आईसीएस की परीक्षा पास की।

इंग्लैंड में आईसीएस प्रोबेशनर के रूप में प्रशिक्षण लेने के दौरान उन्हें एम्स्टर्डम में होने वाले ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने का न्योता मिला। उनसे कहा गया कि भारतीय दल का हिस्सा बनने के लिए वे तत्काल एम्स्टर्डम रवाना हो जाएं। लंदन स्थित इंडिया ऑफिस से संपर्क कर जयपाल ने एम्स्टर्डम जाने के लिए छुट्टी मांगी। पर उनका आवेदन अस्वीकार कर दिया गया।   

जयपाल सिंह मुंडा उस भारतीय हाकी टीम के कप्तान  थे, जिसने 1928 में संपन्न हुए ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीता था। यह ओलंपिक हालैंड के एम्सटरडम में संपन्न हुआ था

उनकी दुविधा थी देश के लिए खेलें या फिर आईसीएस में बने रहें। पर उन्होंने देश के लिए खेलना पसंद किया। सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि उनसे पहले किसी ने आईसीएस के प्रस्ताव को ठुकराया नहीं था। इस प्रस्ताव को नकारने का मतलब था ब्रिटिश शासन के तहत सामाजिक प्रतिष्ठा, अप्रत्याशित गरिमा, सुरक्षित जीवन और असीमित अधिकार को ठुकराना। पर बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि सुभाष चन्द्र बोस ने इस बारे में जयपाल सिंह मुंडा के बलिदान को नजरअंदाज कर गलती की।

जयपाल ने अपने दिल की सुनी और स्थापित परम्परा का अनुयायी होना स्वीकार नहीं किया। परिणाम से पूर्णतया वाकिफ, वे एम्स्टर्डम के लिए रवाना हो गए। उन्हें पता था कि आईसीएस से वे निकाल दिए जाएंगे। किसी भी प्रोबेशनर के अनुशासन तोड़ने की इस हिमाकत को बख्शा नहीं जाता, इंडिया ऑफिस भला इसे कैसे बर्दाश्त करता। इंडिया ऑफिस ही उन दिनों लंदन में बैठकर रिमोट कंट्रोल से भारत सरकार को चलाता था। सचुमुच में, एक नए उभर रहे आईसीएस प्रोबेशनर से इस स्तर की  खुलेआम अवज्ञा अनसुनी बात थी।

एम्स्टर्डम जाने वाली भारतीय हॉकी टीम की घोषणा कर दी गई थी। इनमें शामिल लोग थे : जयपाल सिंह (कप्तान), रिचर्ड एलेन, ध्यान चन्द, मौरिस गेटली, विलियम गुड-कुलेन, लेस्ली हैमोंड, फिरोज खान, जॉर्ज मर्थिंस, रेक्स नॉरिस, ब्रूम पिनिगेर (उप कप्तान), माइकल रोक, फ्रेडेरिक सीमैन, अली शौकत और सैयद यूसुफ़। लीग स्तर पर इस टूर्नामेंट में दो ग्रुप थे – ए और बी। कुल 31 खिलाड़ियों ने 18 मैच में 69 गोल किये। भारत ग्रुप ‘ए’ में था और उसने 29 गोल किए। इनमें ध्यान चंद ने 14; फिरोज खान और जॉर्ज मार्टिंस में से दोनों ने 5-5; फ्रेडेरिक सीमैन ने तीन और अली शौकत और मौरिस गेटली ने एक-एक गोल किए। फाइनल में भारत ने हॉलैंड को 3-0 से हरा दिया। जर्मनी और बेल्जियम को क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान से संतोष करना पड़ा।

जयपाल हॉलैंड के खिलाफ फाइनल मैच नहीं खेले। टीम मेनेजर एबी रोस्सिएर और कप्तान के बीच गंभीर मतभेद पैदा हो गया था। जयपाल शिष्टाचार दिखाते हुए फाइनल से दूर रहे। उप कप्तान ब्रूम पिनिगर ने टीम की कमान संभाली और हॉलैंड को अच्छी शिकस्त दी। भारत को ओलंपिक में मिला यह पहला स्वर्ण पदक था।

शादी

ओलंपिक के बाद जयपाल 1928 में इंग्लैंड लौटे। भारत के तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड इरविन ने शानदार कप्तानी और टीम की जीत के लिए उनको निजी तौर पर बधाई दी। ऐसा लगा कि आईसीएस के मामले को लेकर जयपाल के प्रति इंडिया हाउस का रुख नरम हो गया है। शायद इरविन के कहने पर, जयपाल को आईसीएस के प्रोबेशन में दुबारा शामिल होने को कहा गया। प्रोबेशन की अवधि वैसे भी एक साल के लिए बढ़ा दी गई थी। पर अपने प्रोबेशन की अवधि को बढ़ाए जाने पर उन्होंने अपमानित महसूस किया। भेदभावपूर्ण मानकर उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। यह दूसरा मौक़ा था जब उन्होंने इंडिया ऑफिस के आदेश को नहीं माना। वे भारत लौट आए और एक बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी बर्मा शेल में नौकरी कर ली। जब वे इंग्लैंड में थे तभी इस कंपनी ने उन्हें वरिष्ठ कार्यपालक (सीनियर एग्जीक्यूटिव) के पद पर नियुक्ति का प्रस्ताव दिया था।

नौकरी के दौरान वे कलकत्ता में रह रहे थे जहाँ उनकी मुलाक़ात उनकी भावी पत्नी से हुई। यह महिला तारा विन्फ्रेड मजूमदार व्योमेश चन्द्र बनर्जी की पोती थी। बनर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से थे और इसके प्रथम अध्यक्ष (1885) भी रहे। हालांकि, दोनों की शादी ज्यादा दिन तक नहीं टिकी।

अध्यापन के सिलसिले में जयपाल को अलग-अलग स्थानों पर जाना पड़ता था। कभी रायपुर (वर्तमान छत्तीसगढ़ की राजधानी), तो कभी मध्य प्रांत के शहर बरार और फिर कभी अफ्रीकी देश घाना के गोल्ड कोस्ट, और फिर अंततः राजपूताना। रायपुर में वे राजकुमार कॉलेज के प्राचार्य नियुक्त हुए। अपनी उत्कृष्ट शैक्षणिक योग्यता; खेल सहित अन्य क्षेत्रों में उपलब्धियों; सामर्थ्य; और नेतृत्व की क्षमता के बावजूद उनको यहाँ पर जाति आधारित घृणा और भेदभाव का निशाना बनाया गया।

राजकुमार कॉलेज विशेषकर भारतीय रियासतों और सामंती परिवारों के युवाओं के लिए था। ये लोग यूरोपीय छात्रों की सोहबत में यहाँ रहते थे। इन युवाओं के माँ-बाप को एक आदिवासी के अधीन अपने बच्चों को शिक्षा दिए जाने की बात पची नहीं। यूरोपियनों को भी यह नागवार गुजरा। इसलिए जयपाल वहाँ से एक बार फिर अध्यापन कार्य के लिए गोल्ड कोस्ट, अफ्रीका चले गए। धीरे-धीरे उनका जीवन अपना रास्ता बदलता रहा।

जब वे भारत लौटे तो उनको बीकानेर राजघराने ने उपनिवेशन मंत्री और राजस्व आयुक्त नियुक्त किया। इस पद पर कार्य करने के दौरान उनकी काफी प्रशंसा हुई। उनको पदोन्नति देकर बीकानेर स्टेट का विदेश सचिव बना दिया गया।

अपने लोगों के बीच वापसी

इस समय तक आते-आते उनको अंदर से यह लगने लगा कि उन्हें अपने लोगों के लिए कुछ करना चाहिए। उनके ये अपने लोग थे बिहार में छोटानागपुर के उपेक्षित और शोषित आदिवासी। वे बिहार वापस आए और डॉ. राजेंद्र प्रसाद से पटना के सदाकत आश्रम में मिले। प्रसाद उन दिनों बिहार के प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष थे। उनको लगा कि उनकी उपेक्षा की गई है। पर दृढ़प्रतिज्ञ लोगों के लिए जब एक दरवाजा बंद होता है, तो उसके खुद के आत्मविश्वास और ताकत के कारण दूसरा दरवाजा साथ ही साथ खुल जाता है। जयपाल के साथ भी ऐसा ही हुआ।

बिहार और उड़ीसा के गवर्नर सर मौरिस हॉलेट ने उनसे बिहार और उड़ीसा विधायी परिषद (लेजिस्लेटिव काउंसिल) का सदस्य बनने का आग्रह किया और एक नया दरवाजा उनके लिए खुला। पर उन्होंने इस प्रस्ताव को बहुत ही शालीनता से ठुकरा दिया। इसके बाद गवर्नर और मुख्य सचिव रोबर्ट रसेल दोनों ने उनको आदिवासियों के हित के लिए काम करने को कहा। ये आदिवासी पहले से ही काफी उत्तेजित अवस्था में थे। जयपाल सिंह रांची गए जहाँ आदिवासियों ने उनका गर्मजोशी से शानदार स्वागत किया।

संविधान सभा में अपने लोगों का प्रतिनिधित्व  

वर्ष 1946 में वे बिहार के एक आम निर्वाचन क्षेत्र से संविधान सभा के लिए चुने गए। 296-सदस्यों वाली संविधान सभा को संविधान निर्माण का कार्य सौंपा गया था। जयपाल ने पहली बार 19 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में अपना भाषण दिया। एक “जंगली” – जंगल में रहने वाले के रूप में अपना परिचय देते हुए उन्होंने अज्ञात लोगों के बारे में बात की। “ये अज्ञात लोग स्वतंत्रता के गैर मान्यता प्राप्त लड़ाके थे। ये भारत के मूल निवासी हैं जिन्हें पिछड़ी जनजाति, आदिम जनजाति, आपराधिक जनजाति और न जाने किस-किस नाम से जाना जाता है। सर, मैं एक जंगली कहलाने में गौरव का अनुभव करता हूँ – इस देश के अपने हिस्से में इसी नाम से हम जाने जाते हैं।”

छोटानागपुर के निवासियों की ओर से अपने भाषण में उन्होंने उस प्रस्ताव का समर्थन किया जिसमें “3 करोड़ से अधिक आदिबासियों” (तालियों की गड़गड़ाहट के बीच) की आकांक्षाओं और संवेदनाओं का उल्लेख किया गया है। उन्होंने कहा कि इस प्रस्ताव ने एक ऐसे मनोभाव को अभिव्यक्ति दी है जो इस देश के हर व्यक्ति के सीने में धड़कता है…” उन्होंने कहा, “एक जंगली, एक आदिबासी के रूप में, मेरा व्यावहारिक ज्ञान मुझे कहता है, मेरे लोगों का व्यावहारिक ज्ञान मुझे कहता है कि हम में से प्रत्येक को स्वतंत्रता के उस रास्ते पर जाना चाहिए और एक साथ संघर्ष करना चाहिए।”

अभी-अभी स्वतंत्र हुआ यह देश उस समय भावना और आदर्शवाद से भरा हुआ था। हालांकि सात दशक बाद, आज हम घोर निराशा में डूबे हैं। देश घोर विपत्ति में फंस गया है। अधिकाँश लोग लालची, जोड़तोड़ करने वाले और सिद्धांतहीन नेताओं के एक वर्ग का सामूहिक शिकार हो गए हैं। ये नेता खुद अपनी जेब भरने के लिए देश को बेधड़क लूट रहे हैं, बेलगाम भ्रष्टाचार और जबरदस्त शोषण में आकंठ डूबे हैं।

 आदिवासी और बाहरी आक्रमणकारी

जयपाल सिंह ने अपने “आदिम लोगों” की शिकायतों को स्वर देने में कोई कोताही नहीं बरती। उनका कहना था कि “उनके लोगों के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है … उनका निरादार हो रहा है और पिछले 6000 सालों से उनकी उपेक्षा की जा रही है”।

कब और कैसे यह सब शुरू हुआ? आदिवासी लोगों के अपमान और उनकी उपेक्षा के लिए जिम्मेदार ये लोग कौन हैं?

जयपाल सिंह मुंडा का व्यक्तित्व बहुआयामी था

जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में कहा : “सिंधु घाटी की सभ्यता की हम पैदाइश हैं। यह सभ्यता हमें स्पष्ट रूप से यह बताती है कि नवागंतुकों ने हमारे लोगों को सिंधु सभ्यता से जंगल में खदेड़ दिया। यहाँ बैठे आप जैसे अधिकाँश लोग ऐसे ही नवागंतुक घुसपैठिये हैं।”

नवगठित संविधान सभा के “इज्जतदार लोगों” की संभवतः यह सर्वाधिक कटु आलोचना थी। ये सब के सब सुशिक्षित लोग थे जो देश के विभिन्न भागों से चुनकर संविधान सभा में पहुंचे थे। अगर इतिहासकारों ने इस बयान को भारतीय इतिहास लेखन में दर्ज नहीं किया है, तो यह उनकी विफलता को ही दर्शाता है। यह इस बात को रेखांकित करता है कि उनमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं थी। यह इतिहास लेखन में उनके दबदबे, उनकी गहरी दुर्भावना और पक्षपात को दर्शाता है।

जयपाल संविधान सभा के अपने सहकर्मियों से यह कह रहे थे कि कैसे उनके आक्रमण ने सिंधु घाटी जैसी गौरवशाली सभ्यता को नष्ट कर दिया। उन्होंने कहा कि सिंधु घाटी सभ्यता के निवासियों को दूर, दुर्गम जंगलों और पहाड़ों की ओर खदेड़ दिया गया। संविधान सभा के भद्र जनों की उपस्थिति में उनको यह बताना कि वे इस निष्ठुरता के लिए जिम्मेदार हैं, उनकी सार्वजनिक भर्त्सना जैसी थी। अपने लोगों की दुर्दशा ने उनको यह कहने के लिए बाध्य किया कि “हमारे लोगों का संपूर्ण इतिहास गैर आदिवासी भारतीयों द्वारा हमारे लगातार शोषण और हमारी बेदखली से भरा रहा है। यह इतिहास विद्रोह और अराजकता की कहानी भी कहता है।”

संविधान सभा के लिए 292 सदस्यों का चुनाव प्रांतीय विधायिकाओं द्वारा हुआ; इनके अलावा 93 ऐसे सदस्य थे जो भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि थे और चार सदस्य चीफ कमिश्नर के प्रांतों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। ये सब के सब चुपचाप जयपाल को सुनते रहे जो उनको भारत के वैकल्पिक इतिहास से रूबरू करा रहे थे। श्रोताओं में शामिल थे जवाहललाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सी राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू, जेबी कृपलानी और डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नेता। पटियाला, बीकानेर और ग्वालियर के महाराजा और भोपाल के नवाब ने भी उनके भाषण को पूरे ध्यान से सुना।

अपने भाषण में जयपाल सिंह मुंडा ने कैबिनेट मिशन द्वारा आदिवासियों के प्रति दिखाई गयी बेरुखी और उपेक्षा भाव की तीखी आलोचना की। “क्या कैबिनेट मिशन ने हमारे प्रति बेरुखी नहीं दिखाई है (और क्या) तीन करोड़ से अधिक लोगों को पूरी तरह नजरअंदाज नहीं किया (गया है)?” उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा कि इस 3 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करने के लिए “संविधान सभा में मात्र छह आदिबासी सदस्य” हैं।

जयपाल ने कहा कि आदिवासी समुदाय समतावादी समाज के जीवंत उदाहरण हैं। उन्होंने कहा, “हमारे समाज में जाति का अस्तित्व नहीं है। हम सब बराबर हैं।” उन्होंने सदन को बताया कि उनका निरंतर शोषण सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक संस्कृति के वर्चस्व का नमूना है। उन्होंने राष्ट्रीय विधायिका में “ज्यादा संख्या में आदिवासियों” को शामिल करने की मांग की ताकि उनके हितों का प्रतिनिधित्व हो सके। आदिवासी समुदायों की जेंडर समानता में दृढ़ता से विश्वास करने वाले जयपाल ने कहा, “महाशय, मेरा अभिप्राय सिर्फ (आदिबासी) पुरुषों से ही नहीं बल्कि महिलाओं से भी है। संविधान सभा में जरूरत से ज्यादा पुरुष हैं। हम चाहते हैं ज्यादा महिलाएं यहाँ हों…” स्वतंत्र भारत को स्वरूप देने और उसके निर्माण में महिलाओं की भागीदारी पर जोर देने वाले जयपाल सिंह निश्चित रूप से ऐसे पहले लोगों में से थे।              

अपने ओजपूर्ण भाषण में जयपाल सिंह ने संविधान सभा में कहा, “आप आदिवासियों को लोकतंत्र का पाठ नहीं पढ़ा सकते; आपको उनसे लोकतांत्रिक तरीके सीखने हैं। वे इस धरती के सर्वाधिक लोकतांत्रिक लोग हैं।” आदिवासी समुदायों में जिस तरह की लोकतांत्रिक परंपराएं मौजूद हैं और जिस तरह वे उन पर अमल करते हैं, यह देश उन पर गर्व कर सकता है। इनमें असमानता नहीं है। इनमें समुदाय का एक हिस्सा बिना किसी कारण और तर्क के दूसरे हिस्से से भेदभाव नहीं करता, उनके जीवन को दुष्कर नहीं बनाता। “महाशय, हमारे लोगों को पर्याप्त सुरक्षा नही चाहिए…उन्हें मंत्रियों से सुरक्षा चाहिए। आज यही स्थिति है। हम किसी विशेष सुरक्षा की मांग नहीं करते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे साथ भी अन्य सभी भारतीयों की तरह ही बर्ताव हो”।  

उन्होंने अनुच्छेद 13(1)(b) के तहत स्वतंत्रता और अधिकारों के मुद्दे की चर्चा की जिसमें “शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होने और बिना किसी हथियार के प्रदर्शन” की बात शामिल थी। उन्होंने कहा, “आर्म्स एक्ट के इस प्रावधान को बहुत ही शरारतपूर्ण तरीके से आदिबासियों पर लागू किया गया है। कुछ राजनीतिक दलों ने तो यह कह कर हद ही कर दी है कि आदिबासी लोग आज भी तीर-कमान, लाठी और कुल्हाड़ी लेकर चलते हैं और इसका मतलब यह है कि वे लोग हमारे लिए मुश्किल पैदा करने वाले हैं। पर आदिबासी लोग तो ऐसा पीढी दर पीढी करते आए हैं और जो आज कर रहे हैं उसे पहले भी करते रहे हैं।” उन्होंने ओरांव जनजाति का उदाहरण दिया। “इस असेंबली में सिर्फ एक ही ओरांव सदस्य हैं। जबकि ओरांव जनजाति भारत में चौथी सबसे ज्यादा जनसंख्या वाली जनजाति है।” जयपाल सिंह ने ओरांव की सांस्कृतिक परंपराओं पर प्रकाश डाला। “वे ‘जात्रा’ और ‘मेला’ का आयोजन करते हैं। ये उनके वार्षिक सांस्कृतिक समारोह हैं। उनके कई ऐसे समारोह हैं जिनमें ओरांव गाँव का मुखिया झंडा लेकर चलता है और शेष लोग लाठी लेकर उनके पीछे चलते हैं और ‘अखाड़े’ या गाँव तक जाते हैं। यह लोगों का त्यौहार है; पीढ़ियों से ये लोग किसी को नुकसान पहुंचाए बिना ऐसा करते आए हैं। और अब हमें दो वर्ष पहले यह बताया गया कि हम हथियार लेकर नहीं चल सकते। यहाँ बिहार के कई सदस्य बैठे हैं जो अपने घर तब तक नहीं पहुँच सकते जब तक कि हथियारबंद लोग उनके साथ न हों। हमारे क्षेत्र में, हम लोग जंगल में रहते हैं। हम सब लोग, यहाँ तक कि महिलाएं भी हथियार लेकर चलती हैं। पर वास्तव में ये उस रूप में हथियार नहीं होते। अब हमें जब भी सभा करनी होगी, हमारे लोग अपनी परंपरागत वस्तुओं के साथ वहाँ आएँगे। मुझे बताया जाए कि क्या अब इसका अर्थ यह लगाया जाएगा कि हम अशांतिपूर्ण ढंग से जमा हुए हैं और किसी गैरकानूनी कार्य के लिए हथियार लेकर चल रहे हैं। महाशय, यही कुछ बातें हैं जिनको मैं स्पष्ट करना चाहता था।

“मैं एक और दृष्टांत दूंगा। छोटानागपुर में यह रिवाज है कि हर सात साल पर वहाँ ‘एरा सेन्द्रा’ (जनशिकार) का आयोजन होता है। हर सात साल पर महिलाएं पुरुष का वेष धारण करती हैं और जंगलों में शिकार करती हैं। गौर कीजिये, पुरुष वेष में ये महिलाएं होती हैं। ये वो अवसर होता है जब महिलाएं, जैसा कि स्वाभाविक है, पुरुष की तरह अपनी वीरता का प्रदर्शन करती हैं। वे पुरुषों की तरह तीर-कमान, लाठियों, भालों और इस तरह के अन्य हथियारों से लैश होती हैं। महाशय, अब संविधान के इस नए अनुच्छेद के अनुसार सरकार यह मान सकती है कि हर सात साल पर महिलाएं कुछ खतरनाक उद्देश्यों के लिए जमा होती रही हैं। मैं सदन से आग्रह करता हूँ कि वह ऐसा कुछ भी न करे जो इन सीधे-सादे लोगों को परेशानी में डाल दे। ये लोग हमारे देश के सर्वाधिक शांतिप्रिय नागरिकों में हैं। हमें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे उनमें गलतफहमी पैदा हो और मुश्किलें और बढ़ जाएं।”

जयपाल सिंह ने कहा : “मैं आदिवासियों के इलाकों में आदिवासियों के बीच काफी घूमा हूँ और पिछले 9 वर्षों में मैंने 1,14,000 मील की यात्रा की है। इससे मुझे यह पता लगा है कि आदिवासियों को किस बात की जरूरत है और इस सदन से उनके लिए क्या उम्मीद की जा सकती है। उन्होंने आग्रह किया कि आदिवासियों के हितों और उनकी खासियत को संरक्षित किए जाने और उनके देखभाल की जरूरत है।” 

जयपाल, जैसा कि हमने देखा है, एक ही साथ बहुत कुछ थे। वह एक निपुण लेखक, हॉकी के जादूगर, विलक्षण वक्ता, दूरदर्शी, असामान्य देशभक्त और आदिवासियों के मुद्दों और उनके अधिकारों के अथक हिमायती थे। जयपाल खेल जगत के विगत और वर्तमान विभूतियों में अपनी ईमानदारी, देशभक्ति और साहस की दृष्टि से विशिष्ट हैं। उनके ये गुण उन्हें एक दिन आदिवासियों के “मरांग गोमके” (महान नेता) बनने का प्रथ प्रशस्त करेगा।

 


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

एके विस्वास

एके विस्वास पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और बी. आर. आम्बेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर बिहार के कुलपति रह चुके हैं

संबंधित आलेख

डॉ. आंबेडकर : भारतीय उपमहाद्वीप के क्रांतिकारी कायांतरण के प्रस्तावक-प्रणेता
आंबेडकर के लिए बुद्ध धम्म भारतीय उपमहाद्वीप में सामाजिक लोकतंत्र कायम करने का एक सबसे बड़ा साधन था। वे बुद्ध धम्म को असमानतावादी, पितृसत्तावादी...
डॉ. आंबेडकर की विदेश यात्राओं से संबंधित अनदेखे दस्तावेज, जिनमें से कुछ आधारहीन दावों की पोल खोलते हैं
डॉ. आंबेडकर की ऐसी प्रभावी और प्रमाणिक जीवनी अब भी लिखी जानी बाकी है, जो केवल ठोस और सत्यापन-योग्य तथ्यों – न कि सुनी-सुनाई...
व्यक्ति-स्वातंत्र्य के भारतीय संवाहक डॉ. आंबेडकर
ईश्वर के प्रति इतनी श्रद्धा उड़ेलने के बाद भी यहां परिवर्तन नहीं होता, बल्कि सनातनता पर ज्यादा बल देने की परंपरा पुष्ट होती जाती...
सरल शब्दों में समझें आधुनिक भारत के निर्माण में डॉ. आंबेडकर का योगदान
डॉ. आंबेडकर ने भारत का संविधान लिखकर देश के विकास, अखंडता और एकता को बनाए रखने में विशेष योगदान दिया और सभी नागरिकों को...
संविधान-निर्माण में डॉ. आंबेडकर की भूमिका
भारतीय संविधान के आलोचक, ख़ास तौर से आरएसएस के बुद्धिजीवी डॉ. आंबेडकर को संविधान का लेखक नहीं मानते। इसके दो कारण हो सकते हैं।...