अंतरराष्ट्रीय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में प्रवेश के लिए होनेवाली लिखित परीक्षा के नए पैटर्न के जरिए बहुजनों को बाहर करने की साजिश की जा रही है। नए पैटर्न के मुताबिक लिखित परीक्षा में पचास फीसदी अंक हासिल करने वाले छात्र ही मौखिक परीक्षा में शामिल हो सकेंगे। यहां पर अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग को मिलने वाले आरक्षण पद्धति की पूरी तरह से अवहेलना की जा रही है।
अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक जेएनयू में काम करने वाले छात्र संगठन बाप्सा (बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन) ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है। छात्र संगठन का कहना है कि आरक्षण के तय कोटे के मुताबिक अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित किया गया है। लेकिन, वर्ष 2017-18 के अकादमिक सत्र में एमफिल-पीएचडी में अनुसूचित जाति के केवल 1.3 प्रतिशत छात्रों को ही प्रवेश दिया गया। इसी प्रकार, अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 15 फीसदी आरक्षण की तुलना में केवल 0.6 फीसदी बच्चों का ही प्रवेश लिया गया। जबकि, अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए निर्धारित 27 फीसदी आरक्षण कोटे की तुलना में इस वर्ग से केवल 8.2 फीसदी बच्चों को ही प्रवेश दिया गया। यही नहीं विकलांगजनों के लिए निर्धारित आरक्षण कोटे का भी उल्लंघन किया गया है। इस श्रेणी में निर्धारित तीन फीसदी आरक्षण की तुलना में केवल 0.3 छात्रों को ही प्रवेश दिया गया।
विश्वविद्यालय में कार्यरत एक शिक्षक का आरोप है कि इस तरीके से आरक्षण की व्यवस्था को ही समाप्त किया जा रहा है। बहुजन तबके के जो छात्र अपनी मेहनत के बलबूते यहां तक पहुंचे हैं उन्हें लिखित परीक्षा में पचास फीसदी अंकों की अनिवार्यता के जरिए बाहर किया जा रहा है। उनका कहना है कि लिखित परीक्षा में 50 फीसदी अंकों की अनिवार्यता में आरक्षित तबकों को कोई भी छूट नहीं दिए जाने के चलते ऐसा हुआ है।
जेएनयू में यूजीसी द्वारा वर्ष 2016 में जारी उस अधिसूचना को लागू कर दिया गया है जिसमें कहा गया है कि प्रवेश प्रक्रिया के दूसरे चरण में पहुंचने के लिए छात्र को लिखित परीक्षा में 50 फीसदी अंक लाना आवश्यक है। इसके बाद दूसरा चरण यानी मौखिक परीक्षा होगी जिसका वेटेज सौ फीसदी है। छात्रों और शिक्षकों का आरोप है कि वर्ष 2018-19 के अकादमिक सत्र में भी यही स्थिति रहने वाली है क्योंकि अभी भी लिखित परीक्षा में 50 फीसदी अंकों की अनिवार्यता बनी हुई है।
जेएनयू के सेंटर फार वेस्ट एशियन स्टडीज में कार्यरत एक अन्य शिक्षक कहते हैं कि यह संविधान के प्रावधानों का सिरे से उल्लंघन है। वे कह रहे हैं कि हर किसी के लिए लिखित परीक्षा में 50 फीसदी अंक लाना अनिवार्य है। उन्हें कम से कम इतनी छूट तो देनी ही चाहिए कि अन्य पिछड़ा वर्ग के अभ्यर्थियों को 45 फीसदी अंक व अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के छात्रों को 40 फीसदी अंक के साथ अगले चरण के लिए पात्र माना जाए। इससे मौखिक परीक्षा में इस वर्ग के ज्यादा छात्र पहुंच पाएंगे।
वहीं, जेएनयू के सेंटर फॉर फ्रेंच एंड फ्रानकोफोन स्टडीज विभाग में कार्यरत एक अन्य शिक्षक बताते हैं कि जब हमने प्रशासन से पूछा कि आरक्षित श्रेणी की सीटें क्यों नहीं भरी जा रही हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि इन सीटों के लिए कोई योग्य अभ्यर्थी नहीं मिला। यह बात सिरे से झूठ है। वे खुद ही ऐसे छात्रों को लिखित परीक्षा के जरिए बाहर कर दे रहे हैं।
सरकार से हस्तक्षेप करने की मांग :
जेएनयू में प्रवेश के लिए होने वाली लिखित परीक्षा में अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्रों को कोई राहत नहीं दिए जाने के मामले में रिटायर्ड आईएएस अधिकारी व भारत सरकार के मिनिस्ट्री ऑफ वेल्फेयर में सचिव और नेशनल मानिटरिंग कमेटी फॉर एजूकेशन ऑफ एससी, एसटी और पर्सन विद डिसेबिलिटी के सदस्य रहे पीएस कृष्णन ने भारत सरकार को पत्र लिखा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग के सचिव आर सुब्रमण्यम को लिख पत्र में उन्होंने मीडिया में आई खबरों का उल्लेख करते हुए कहा कि वर्ष 2018-19 के अकादमिक सत्र में एमफिल-डीएचडी के प्रवेश के लिए यूजीसी को तत्काल निर्देश जारी किए जाने चाहिए। ताकि अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग को लिखित परीक्षा में छूट दी जा सके और प्रवेश में लागू आरक्षण कोटे को भरा जा सके। उन्होंने कहा कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के लिए भारत सरकार का मानव संसाधन विकास मंत्रालय सीधे जिम्मेदार है। इसलिए यहां प्रवेश में वंचित समाज की तीन श्रेणियों और विकलांगजनों के लिए निर्धारित आरक्षण व्यवस्था को लागू नहीं किया जाना सीधे तौर पर उसकी असफलता होगी।
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