गुलामगिरी : जोती राव फुले द्वारा हिन्दू मिथकों का पुनर्पाठ
जोती गोविन्द राव फुले जिन्हें लोग आदर से महात्मा फुले के नाम से पुकारते हैं। उनकी स्वयं की पढ़ाई लिखाई या औपचारिक पढ़ाई- लिखाई ज्यादा नहीं थी, किन्तु उन्होंने स्वाध्याय से इतनी ऊँचाई हासिल कर ली कि वे 19वीं शताब्दी के महत्वपूर्ण विचारकों में एक बन गये। 19वीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण के तमाम विचारकों में जोती राव फुले सर्वाधिक वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न विचारक के तौर पर उभरे। उनका ‘सत्यशोधक’ समाज उनके द्वारा शुरू किया गया सत्य शोधन का आन्दोलन था। 1855 से लेकर मृत्युपर्यन्त उन्होंने काफी लेखन किया। इसमें 1873 में लिखी गई ‘गुलामगिरी’ नामक पुस्तक उनकी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना है जिसे उन्होंने अमेरिका के उन लोगो को समर्पित किया है जिन्होंने वहां के काले लोगों को गोरों की दासता से मुक्त कराने के लिए संघर्ष किया था। जोती राव फुले ने भारत के शुद्र-अतिशुद्रों की गुलामी की तुलना काले, हब्शी गुलामों से की। अमेरिका में उनकी गुलामी के विरूद्ध संघर्ष करने वालो को उन्होंने अपना समर्थन दिया था।
जोती राव फुले की एक विशेषता यह थी कि जनहित की बात को वे जनभाषा में ही बोलना-लिखना ज्यादा पसन्द करते थे। उनकी सभी रचनाओं की भाषा मराठी है। लेकिन जहां उन्हें लगा कि अपनी बात अंग्रेजी शासकों तक पहुंचानी है, तो वहां उन्होंने अंग्रेजी का भी प्रयोग किया है। जोती राव फुले ने निबन्ध, संवाद, पत्र, वैचारिक लेखन के अलावा काव्य रचना भी की है। अपने काव्य के द्वारा उन्होंने समाज की कुरीतियों पर, धर्मान्धता पर करारा प्रहार किया है। वे साफ शब्दों में कहते हैं कि ‘‘जो वेदों की प्रशंसा करते हैं, उनको बुद्धिहीन पशुओं में भेज देना चाहिए।’’[1]
उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब ‘गुलामगिरी’ है। यह किताब संवाद की शैली में लिखी गई है। इसमें मुख्य रूप से दो पात्र हैं। एक स्वयं जोती राव फुले और दूसरे घोंडीराव। यह किताब संवाद के माध्यम से हिंदू मिथकों, देवी-देवताओं, हिंदू संस्कृति को असलियत को उजागर करती है और यह बताती है कि कैसे आर्य-ब्राह्मणवादियों ने बहुसंख्यक बहुजनों को बांटा और उन्हें अपने अधीन बनाया।
‘गुलामगिरी’ की प्रस्तावना में ही उन्होंने हिन्दुओं के मिथकीय चरित्र ‘परशुराम’ के बारे में लिखा है कि ‘‘इस देश के मूलनिवासी क्षत्रिय लोगों के साथ ब्राह्मण पुरोहित वर्ग के मुखिया परशुराम जैसे व्यक्ति ने कितनी क्रूरता बरती,।’’[2] ‘गुलामगिरी’ की प्रस्तावना में उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों-अतिशूद्रों के भयंकर शोषण, अत्याचार, अमानवीय जीवन का विवरण देने के पश्चात् यह बताया है कि ब्राह्मणों की तुलना में 19वीं शताब्दी में शुद्रों-अतिशुद्रों की जनसंख्या दस गुना थी फिर भी ब्राह्मणों ने कैसे उनको गुलाम बना लिया। वे लिखते हैं कि शूद्र-अतिशूद्र समाज के लोगों की जनसंख्या जैसे-जैसे बढ़ने लगी वैसे-वैसे ब्राह्मणों में डर की भावना उत्पन्न होने लगी। इसलिए उन्होंने शुद्रादि-अतिशूद्रों में आपस में घृणा एवं नफरत पनपे और बढ़ती रहे इसकी योजना तैयार की।
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अपनी इस चाल, विचारधारा को कामयाबी देने के लिए जाति भेद की फौलादी जहरीली दीवारें खड़ी करके, ब्राह्मणों ने इसके समर्थन में अपने जाति-स्वार्थ सिद्ध के लिए कई ग्रन्थ लिख डाले। उन्होंने इस ग्रन्थों के माध्यम से अपनी बातों को अज्ञानी लोगों के दिलो-दिमाग पर पत्थर की लकीर की तरह लिख दिया। उनमें से कुछ लोगों, जो ब्राह्मणों के साथ दृढ़ता से लड़े, उनका उन्होंने एक वर्ग ही अलग कर दिया। उनसे बदला चुकाने के लिए, उन्हें ‘अछूत’ घोषित कर दिया। ‘छूत-अछूत’ की जहरीली बातें ब्राह्मण-पण्डा, पुरोहितों ने उन लोगों के दिलो-दिमाग में भर दी। अस्पृश्यता का परिणाम यह हुआ कि उनका आपसी मेल-मिलाप बंद हो गया और वे लोग अनाज के एक-एक दाने के लिए मोहताज हो गये। इसलिए इन लोगों को जीने के लिए मरे हुए जानवरों के मांस मजबूर होकर खाना पड़ा।[3]
उपरोक्त विवरण से महात्मा फुले ने यह बताया कि कैसे ब्राह्मणों ने अपने विरूद्ध कठिन संघर्ष करने वालो को दंडित कर उन्हें ‘अछूत’ बना दिया तथा भारत के मूल निवासियों के उसी वर्ग को, जो विभिन्न तरह की सेवाएं समाज को मुहैया करता था, जैसे माली, कुनबी, सुनार, दर्जी, लोहार, बढ़ई, तेली, कुर्मी आदि को जातियों का दर्जा दे दिया। इन्हीं के कुछ लोगों को ‘अछूत’ बना दिया और इनमें ऊँच-नीच का भेद उत्पन्न कर दिया। इस विभाजन से ब्राह्मणों को लाभ हुआ, क्योंकि अब मूल निवासी ही आपस में जाति श्रेष्ठता के नाम पर लड़ने लगे। ब्राह्मण पुरोहित वर्ग इनके उत्पादन पर मौज मस्ती करता रहा। महात्मा फुले इसी वजह से भारत में अंग्रेज सरकार के आगमन को शुद्रों अतिशुद्रों के लिए कल्याणकारी मानते थे। उन्होंने लिखा है कि ‘‘इस देश में अंग्रेज सरकार आने की वजह से शुद्रादि-अतिशुद्रों की जिन्दगी में एक नयी रोशनी आयी है। वे लोग ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त हुए, यह कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है। फिर भी हमको यह कहने में बड़ा दर्द होता है कि अभी हमारी इस दयालु सरकार के शुद्रादि-अतिशुद्रों को शिक्षित बनाने की दिशा में गैर-जिम्मेदारी पूर्ण रवैया अख्तियार करने की वजह से ये लोग अनपढ़ के अनपढ़ ही रहे। कुछ लोग शिक्षित, पढ़े-लिखे बन जाने पर भी ब्राह्मणों के नकली-पाखंडी (धर्म) ग्रन्थों के, शास्त्र-पुराणों के अंधभक्त बन कर मन से, दिलो-दिमाग से गुलाम ही रहे।’’[4]
‘गुलामगिरी’ के प्रत्येक परिच्छेद में किसी न किसी मिथक पर चर्चा की गयी है उदाहरण के लिए ‘गुलामगिरी’ के प्रथम परिच्छेद में ब्रह्मा की व्युत्पत्ति, सरस्वती और ईराणी या आर्य लोगो के सम्बन्ध में जोती राव और धोंडीराव के संवाद के माध्यम से कई पौराणिक कथाओं और चरित्रों का तार्किक विवेचन किया गया है। मसलन धोंड़ीराव कहते हैं- ‘‘पश्चिमी देशों के अंग्रेज, फ्रेंच आदि दयालु, सभ्य राज्यकर्ताओं ने इकट्ठा होकर गुलामी प्रथा पर कानूनन रोक लगा दी है। इसका मतलब यह है कि उन्होंने ब्रह्मा के (धर्म) नीति नियमों को ठुकरा दिया है। क्योंकि मनु संहिता में लिखा गया है कि ब्रह्मा (विराट पुरूष) ने अपनी मुँह से ब्राह्मण वर्ण को पैदा किया है और उसने इन ब्राह्मणों की सेवा (गुलामी) करने के लिए अपने पाँव से शुद्रों को पैदा किया है।’’[5]जवाब में जोती राव कहते हैं- इस दुनिया में अंग्रेज आदि कई प्रकार के लोग रहते हैं उनको ब्रह्मा ने अपनी कौन-कौन सी इन्द्रियों से पैदा किया है और इस सम्बन्ध में मनु संहिता में क्या-क्या लिखा गया? प्रत्युत्तर में धोंड़ीराव कहते हैं कि “अंग्रेज आदि लोगों के अधम, दुराचारी होने की वजह से उन लोगों के बारे में मनु संहिता में कुछ भी लिखा नहीं गया”। जोती राव-धोंड़ीराव का यह संवाद आगे बढ़ता है और धोंड़ीराव यह मान जाते हैं कि मनु ने अपनी संहिता में जिस व्युत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है वह एकदम तथ्यहीन, निराधार है क्योंकि वह सिद्धान्त सभी मानव जाति समाज पर लागू नहीं होता।
संवाद के क्रम में धोंड़ीराव जोती राव से कहता है- ‘‘आपने कई बार सरेआम सभाओं में व्याख्यानों में कहा है कि ब्राह्मणों के आदि वंशज जो ऋषि थे, वे श्राद्ध के बहाने गो की हत्या करके गाय के मांस से कई प्रकार के पदार्थ बनवा करके खाते थे। मनु महाराज ने आदि ब्राह्मणीय की व्युत्पत्ति के बारे में कुछ नहीं लिखा है।
इस संवाद में जोती राव ने मनु संहिता की अवैज्ञानिकता और ब्राह्मणों के षडयंत्रों को बेनकाब किया है। सरस्वती के मिथकीय चरित्रों को भी विश्लेषित किया है और पहले परिच्छेद के अन्त में उन्होंने आर्यों के विषय में लिखा है कि आर्य ईरान से भारत आये थे इसलिए उन्हें पहले ईराणी कहा जाता था। बाद में ये आर्य कहलाने लगे। ये आर्य बड़ी-बड़ी टोलियां बनाकर भारत आये और यहां के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके बड़ा आतंक फैलाया। उनका मानना है कि ब्रह्मा कभी आर्यों का मुख्य अधिकारी हुआ होगा जिसने अपने काल में हमारे आदि पूर्वजों को पराजित करके उन्हें अपना गुलाम बनाया होगा। बाद में उसने अपने लोगों और इन गुलामों में हमेशा-हमेशा के लिए भेद-भाव बना रहे, इसके लिए कई प्रकार के नीति-नियम बनाये। इसलिए ब्रह्मा के मृत्यु के पश्चात् आर्य लोगों का मूल नाम लुप्त हो गया और उनका नया नाम ‘ब्राह्मण’ पड़ गया। फिर मनु महाराज जैसे अधिकारी हुए जिन्होंने ब्रह्मा के बारे में नयी-नयी कल्पनायें फैलायी और फिर अपनी इन कल्पनाओं, विचारों का रूप देकर गुलाम लोगों के दिलो-दिमाग में ठूंस-ठूंस कर भर दिया कि गुलामों की दुर्दशा का कारण ईश्वर की इच्छा है। मनु ने ही मनु संहिता के अतिरिक्त पुराण कथा गढ़ी।
दूसरे परिच्छेद में मत्स्य और शंखासूर के पौराणिक कथाओं का विवेचन करके यह बताया गया है कि आर्य ईरान से समुद्र पार करके पश्चिमी भारत में पहुंचे। चूंकि वे समुद्र मार्ग से आये थे इसलिए उनके मुखिया को मत्स्य कहा गया होगा। मत्स्य ने समुद्र के किनारे जहां उतरा उसके स्थान के क्षेत्रपति शंखासूर को मार डाला और उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। मत्स्य के मरने के बाद स्थानीय लोगों ने उसके उत्तराधिकारी पर जबरदस्त हमला बोला और वह पराजित होकर युद्ध के मैदान से भागकर घने जंगलों में छिप गया, किन्तु इसी समय ईरान से आर्य लोगों का एक-दूसरा बड़ा कबीला कछुआ के आकार के नावों से आ पहुंचा। इसलिए स्थानीय लोगों ने इस कबीले के मुखिया का उपनाम कच्छ रख दिया।
तीसरे परिच्छेद में कच्छ, भूदेव, भूपति, क्षत्रिय, द्विज और कश्यप राजा के संदर्भ में प्रचलित पौराणिक कथाओं का विश्लेषण किया गया है। इसमें बताया गया है कि कच्छ नामक मुखिया ने मत्स्य कबीले के लोगो को मुक्त कराया और क्षेत्र के मूल निवासियों को भगाकर वह उस क्षेत्र का भूदेव यानि भूपति बन गया। कश्यप राजा मूल निवासियों का क्षेत्रपति था जिसका राज्य बन्दरगाह के क्षेत्र में पड़ने वाली पहाड़ी के दूसरी तरफ था। इस कश्यप नामक राजा ने कच्छ और मत्स्य कबीले के अधिकार से इस क्षेत्र को मुक्त करने के लिये युद्ध किया, किन्तु उसे सफलता नहीं मिली।
परिच्छेद चार में वराह और हिरण्यगर्भ के संदर्भ में संवाद है इसमें जोती राव की मान्यता है कि कच्छ के मरने के बाद आर्यों का नेता ‘वराह’ बना। चूंकि इसका स्वभाव, आचार-व्यवहार, रहन-सहन बहुत ही गन्दा था और वह जहां भी जाता था, वहीं जंगली सुअर की तरह झपट्टा मार कर अपना कार्य सिद्ध करता था। इसी वजह से महाप्रतापी हिरण्यगर्भ और हिरण्यकशिपु नामक दो क्षत्रियों ने उसका नाम सुअर अर्थात् वराह रखा। इससे वह बहुत क्रोधित हुआ और उसने इनके राज्यों पर बार-बार हमले किये और अन्त में एक युद्ध में वराह ने हिरण्यगर्भ को मार डाला। कुछ समय उपरान्त वराह भी मर गया।
पांचवें परिच्छेद में नरसिंह, हिरण्यकशिपु, प्रहलाद, विप्र, विरोचन इत्यादि के सम्बन्ध में प्रचलित पौराणिक कथाओं का विश्लेषण जोती राव फुले ने किया है। उनका मानना है कि वराह के मरने के पश्चात् द्विज लोगों का मुखिया नरसिंह बना। नरसिंह स्वभाव से लालची, धोखेबाज, विश्वासघात करने वाला, विनाशकारी, क्रूर और भ्रष्ट था।[6] वह शरीर से बहुत मजबूत और बलवान थे। नरसिंह ने यहां के मूल निवासी क्षत्रिय राजा हिरण्यकशिपु के राज्य को हड़पने का मन बनाया। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने एक ब्राह्मण शिक्षक के माध्यम से हिरण्यकशिपु के बेटे प्रहलाद के अबोध मन पर अपने धर्म और सिद्धान्त को थोपना प्रारम्भ किया और उसे अपने पिता के विरूद्ध भड़काया। उसने बालक को पिता की हत्या करने के लिए उकसाया, किन्तु लड़के की हिम्मत नहीं हुई तब नरसिंह ने लड़के की मदद से हिरण्यकशिपु के महल में जो स्तम्भों पर बना था, में प्रवेश किया। वह स्तम्भ के पीछे हिरण्यकशिपु के शयनकक्ष में छुप गया। अपनी पहचान छिपाने के लिए उसने सिंह का वेश धारण किया था। दिन भर के शासन भार से थके हिरण्यकशिपु ज्योंही पलंग पर लेटे वैसे ही नरसिंह ने खम्भे के पीछे से निकल कर नकली बाघनख से उनपर हमला कर उसकी हत्या कर दी। किन्तु हत्या के उपरान्त उसे डर था कि उसके अनुयायी द्विजों पर हमले होंगे इसलिए वह सभी द्विजों को हिरण्यकशिपु के राज्य से लेकर भाग गया। क्षत्रियों को नरसिंह के इस अमानवीय कार्य का पता चला तो उन्होंने आर्य लोगों को द्विज कहना छोड़ दिया और वे नरसिंह के लिए विप्रिय शब्द का प्रयोग करने लगे। इसी विप्रिय शब्द से बाद में ब्राह्मणों को विप्र कहना प्रारम्भ हुआ होगा। ब्राह्मणों ने जान-बुझकर नरसिंह की कहानी को अलौकिक बताया ताकि लोग उसके अमानवीय कार्य को ईश्वरी इच्छा मानकर देखें। पिता की हत्या के बाद प्रहलाद की आंखें खुल गयी। उसने विप्रों पर भरेासा करना छोड़ दिया। प्रहलाद के पुत्र विरोचन और विरोचन के पुत्र बलि थे। बलि बहुत बड़े योद्धा थे। उन्होंने अपने राज्य को बढ़ाने की कोशिश की और उनका राज्य बढ़ता गया। इस समय विप्रो का मुखिया ‘वामन’ था। उसे बलि का राज्य विस्तार अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए उसने एक बड़ी फौज तैयार की और बलि पर आक्रमण करने पहुंचा। (क्रमश : जारी)
संदर्भ
[1] जोतिबा फुले, रचनावली खण्ड एक सम्पादक, एल0जी0 मेश्राम विमल कीर्ति के आमुख से।
[2] गुलामगिरी, पूर्वोद्धत पृष्ठ 141
[3] गुलामगिरी, पूर्वोद्धत पृष्ठ 146
[4] गुलामगिरी, पूर्वोद्धत पृष्ठ 147
[5] गुलामगिरी, पूर्वोद्धत पृष्ठ 149
[6] गुलामगिरी, पूर्वोद्धत पृष्ठ 161
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