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नाटक तृतीय रत्न : आंख खोलने वालों के प्रति फुले की श्रद्धांजलि

यह कहा जा सकता है कि फुले का ‘तृतीय नेत्र’ नाटक न केवल भारत की उस जनता की शिक्षा के लिए जयघोष है जो लंबे समय तक देश के कुलीन वर्ग की अनदेखी और शोषण का शिकार रहे, बल्कि यह ईसाई मिशनरियों से संबद्ध उन  निस्स्वार्थ नायकों के परिश्रम के प्रति एक श्रद्धांजलि भी है, जिन्होंने उन्हें भारतीय समाज को देखने की अनूठी दृष्टि दी।

फुले-आंबेडकर महीना

[अप्रैल का महीना बहुजन दृष्टिकोण से बहुत खास है। इस महीने दो बहुजन नायकों जोती राव फुले (11 अप्रैल) और आंबेडकर (14 अप्रैल) की जयंती है। फारवर्ड प्रेस पिछले दो वर्षों से अप्रैल महीने को ‘फुले-आंबेडकर महीना’ के रूप में मनाता रहा है। इस वर्ष भी हमने ‘फुले-आंबेडकर महीना’ मनाने का निर्णय लिया। इस महीने में हमने इन दोनों नायकों के व्यक्तित्व, कृतित्व और विचारों पर विभिन्न लेखों के साथ विशेष तौर मिथकों के प्रति इन नायकों के नजरिये पर केंद्रित करने का निर्णय लिया है। इस क्रम में प्रस्तुत है आशीष अलेक्जैंडर का आलेख जिसमें वे फुले के नाटक ‘तृतीय रत्न’ के बारे में बता रहे हैं, जिसे द्विजों ने मंचित नहीं होने दिया था – संपादक]

वर्ष 1855 में पुणे के 28 वर्षीय युवक जोती राव फुले ने एक मराठी नाटक तृतीय रत्न की रचना की। यह रचना उस समय की अँग्रेज़ सरकार द्वारा संचालित एक पुरस्कार समिति को भेजी गई। समिति इसलिए बनाई गई थी कि समसामयिक ब्राह्मण विद्वानों को उनकी उपलब्धियों अर्थात् संस्कृत में उनकी प्रवीणता के लिए पुरस्कृत किया जाय। पुणे के प्रबुद्ध नागरिकों ने सरकार से दरख़ास्त की कि बॉम्बे प्रेसीडेंसी के लेखकों में मौलिक मराठी लेखन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसे पुरस्कार दक्षिणा पुरस्कार कहा जाता था।

महात्मा जोती राव फुले (चित्र : एफपी ऑन द रोड, 2017)

दक्षिणा पुरस्कार महान शिवाजी ने स्वयं स्थापित किया था। यह विद्वान ब्राह्मणों को दिया जाता था, जिन्हें संस्कृत में लिखे धर्मग्रंथों का अच्छा ज्ञान होता था। बाद में महाराष्ट्र के पेशवा शासकों ने इसे राज्य सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए इस्तेमाल किया। पेशवा बाजी राव द्वितीय ( राज्य 1795 1818) ने एक लाख रुपये अपने साथी चितपावन ब्राह्मणों को दिए।

अँग्रेज़ों ने 1818 में पेशवाओं को हरा दिया। और जैसा कि व्यवहारिक शासक करते हैं, उन्होंने पेशवाओं से चली आ रही अधिकांश सांस्कृतिक और सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं को जारी रखा। इसमें दक्षिणा पुरस्कार देना भी शामिल था। पारंपरिक तौर पर दक्षिणा का अर्थ होता है ब्राह्मण पुरोहित को दिया जाने वाला दान। अंग्रेज़ों को मालूम था कि भारत में अपने राज्य को बचाए और बनाए रखने के लिए यहाँ के कुलीन वर्ग को कुछ छूट देना ज़रूरी है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने हिंदू धर्म के मंदिरों, धार्मिक कार्यों, कर्म-कांडों और रीति-रिवाज़ों को जिस प्रकार का समर्थन दिया उससे कुछ इतिहासकार यह कहने को मजबूर हो गए कि अंग्रेज़ों का भारतीय साम्राज्य आधिकारिक तौर पर तो नहीं परंतु मूल रूप से हिंदू राज ही था (देखें फ़्रिकनबर्ग)।

फुले दंपत्ति द्वारा पुना के फुलेवाड़ा में संचालित स्कूल का दृश्य (चित्र : एफपी ऑन द रोड, 2017)

बंबई के गवर्नर, लॉर्ड माऊंटस्टुअर्ट एलफ़िनस्टन ने केवल ब्राह्मणों को दक्षिणा पुरस्कार देने की प्रथा जारी रखी। उन्होंने 1821 पुणे में एक संस्कृत कॉलेज की स्थापना की और दक्षिणा पुरस्कार का चालीस फ़ीसदी भाग वहां खर्च करने लगे। लेकिन, कालांतर में उन्होंने अपनी नीति में दो बदलाव किए। पहला उन्होंने गैर-ब्राह्मणों के लिए इस संभव किया कि वे भी इस पुरस्कार के लिए आवेदन कर सकें। दूसरा, उन्होंने संस्कृत के अलावा मराठी रचनाओं को भी सरकारी समर्थन देने का फ़ैसला किया। उस समय मराठी आधुनिक और सम्मानीय साहित्यिक भाषा के रूप में उभर रही थी। मराठी भाषा के उत्थान में विलियम केरी जैसे ईसाई-मिशनरी काफ़ी समय से अग्रणी काम कर रहे थे। उन्होंने 1805 में पहली मराठी व्याकरण और 1810 में पहले मराठी शब्दकोश की रचना की। बाद में, अमेरिकी और स्कॉटिश ईसाई-मिशनरियों ने मराठी में कई स्कूली किताबें निकालीं जिनके द्वारा मराठी पाठकों और लेखकों की एक पूरी पीढ़ी तैयार हुई।

एलफ़िनस्टन अकेले नहीं थे जो गैर-ब्राह्मणों को पुरस्कार देने में दिलचस्पी दिखा रहे थे। सुधारवादी ब्राह्मण जैसे कि लोकहितवादी गोपालराव देशमुख ने भी कई हस्ताक्षर एकत्र किए जिससे सरकार पर दबाव डाला जा सके कि दक्षिणा फंड का कुछ हिस्सा मराठी रचनाकारों को भी मिले। इन सुधारकों को लेकिन कट्टरपंथी तबके की धमकियों का सामना करना पड़ा। इस मामले में, स्वयं जोती राव ने सुधारकों को सुरक्षा प्रदान की।

जोती राव फुले और सावित्री बाई फुले (चित्र : एफपी ऑन द रोड, 2017)

वापस नाटक की बात करें तो हम जानते हैं कि इसका कभी मंचन ही नहीं हुआ। दक्षिणा पुरस्कार समिति ने इस नाटक को खारिज कर दिया। क्यों? अपने सबसे चर्चित किताब गुलामगिरी (1873) में फुले याद करते हुए लिखते हैं: “…वह नाटक सन 1855 में ‘दक्षणा प्राइज’ कमिटी को भेजा था; लेकिन वहां भी इसी प्रकार के जिद्दी ब्राह्मण सदस्यों के दुराग्रह की वजह से यूरोपियन सदस्यों की एक भी न चल सकीतब उस कमिटी ने मेरे इस नाटक को नापसंद किया।

नाटक एक ग्रामीण दंपत्ति की कहानी बयान करता है। एक किसान और उसकी गर्भवती पत्नी एक स्थानीय ब्राह्मण पुरोहित के धार्मिक छलावे का शिकार हो जाते हैं। पुरोहित, उसकी पत्नी और उसके नाते-रिश्तेदारों का छल-कपट बहुत ही तफ़सील से पेश किया गया है। नाटक में विदूषक की टिप्पणियाँ भी धारदार हैं। कहा जा सकता है कि विदूषक का पात्र नाटक के रचियता, जोती राव फुले, पर ही आधारित है। नाटक का निष्कर्ष यही है कि अनपढ़ और पिछड़े ग्रामीणों के लिए शोषण से बाहर निकलने का एक ही मार्ग है — शिक्षा। नाटक के समाप्त होने तक किसान और उसकी पत्नी यह फ़ैसला करते हैं कि वे फुले दंपत्ति के रात्रि स्कूल में नाम लिखवाएँगे और अपने आने वाली संतान के लिए एक नए भविष्य का निर्माण करेंगे।

पुना के फुलेवाड़ा में प्रदर्शित एक चित्र जिसमें फुले दंपत्ति द्वारा लड़कियों के लिए स्कूल संचालित करते दिखाया गया है (चित्र : एफपी ऑन द रोड, 2017)

लेकिन इस नाटक के बारे में एक  बात जो कौतुहल पैदा करती है वह है इसमें एक ईसाई पादरी की मौजूदगी। नाटक के उत्तरार्द्ध में फुले इस बेनाम पादरी को नाटक का लगभग केंद्रीय पात्र बना कर पेश करते हैं। यही पादरी इस निम्नजातीय दंपत्ति के तृतीय रत्न (तीसरी आँख या ज्ञान चक्षु) को खोलने की पहल करता है। तृतीय रत्न बिंब है उस आलोचनात्मक और तार्किक सोच का जो सामाजिक वर्चस्वधारी वर्ग के भय से मुक्त है। यह रत्न मात्र साक्षरता नहीं है, पढ़ने-लिखने की क्षमता मात्र नहीं है। यह जीवन को और उस जीवन द्वारा दिए गए अवसरों को समझने की क्षमता है जो किसी प्रकार के दबाव या छलावे से स्वतंत्र है। यह रत्न, यह तीसरी आँख, दरअसल बुद्धि का एक फूल की भाँति खिलना है, जो युगों से मिथकीय कथाओं और अंधविश्वासों में जकड़ी हुई थी। यह गरिमामय मनुष्य के सम्मानित अस्तित्व के लिए आवश्यक जीवनरेखा है।

फुले चाहते तो यह नाटक बिना पादरी के पात्र के भी लिख सकते थे। उनके नाटक का कथानक सरल और शायद इस कारण और प्रभावी होता। यदि आप शिक्षित नहीं हैं तो आप आसानी से शोषण के शिकार हो सकते हैं इसलिए शिक्षित हो जाएं और शोषण से बचिए। लेकिन एक पादरी को व्यक्तिगत और सामाजिक जागृति का उत्प्रेरक बनाने के द्वारा फुले एक ऐतिहासिक सच्चाई को रेखांकित कर रहे थे। वह एक सामाजिक सत्य को दस्तावेज़ी जामा पहना रहे थे। फुले ख़ुद एक स्कॉटिश मिशनरी स्कूल में पढ़े थे। बहुत मुमकिन है कि जब वे मर्रे मिशेल जैसे प्रेरणादायक, मेहनती और समर्पित शिक्षकों के संपर्क में आए तो उनके स्वयं की आलोचनात्मक विलक्षणता का विकास हुआ तथा भारत की जाति व्यवस्था पर सवाल उठाने के उनके साहस को मज़बूती मिली (देखें रोज़ालिंड ओहैनलोन)।

पुना के फुलेवाड़ा में जोती राव फुले और सावित्री बाई फुले की आवक्ष प्रतिमा(चित्र : एफपी ऑन द रोड, 2017)

फुले को साफ़ दिखाई दे रहा था कि अंग्रेज़ी राज्य शेटजी-भाटजी के सहयोग पर टिका हुआ है। और वे इस वर्ग को नाराज़ कर अपनी सरकार को जोखिम में नहीं डाल सकते। अंग्रेज़ शासक निम्न जातियों के हितों के लिए काम करती नज़र नहीं आ सकतीं। फुले ने यह भी देखा कि एकमात्र सामाजिक ताकत जो महाराष्ट्र में हाशिये पर के शूद्र-अतिशूद्र के उत्थान के लिए ईमानदारी से काम कर रही है वह है ईसाई मिशनरी।

जोती राव फुले को अछूत लड़कियों के लिए स्कूल खोलने वाले पहले भारतीय का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने 1848 में पुणे में यह स्कूल खोला। इस स्कूल को खोलने की प्रेरणा उन्हें अहमदनगर के एक स्कूल को देखने से मिली। एक साल पहले वे अपने मित्र गोवंदे के साथ अहमदनगर में महिला ईसाई मिशनरी मिसेज़ फैरर का ऐसा ही एक स्कूल देख कर आए थे। फुले की जीवनी के लेखक धनंजय कीर बताते हैं कि फुले और उनके दोस्त दोनों इस बात से बहुत प्रभावित हुए कि एक विदेशी तो उनके देश में सुधार लाने के लिए कितनी प्रतिबद्ध है जबकि उनके अपने ही देश के लोग इस को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।

यह कहा जा सकता है कि फुले का नाटक न केवल भारत की उस जनता की शिक्षा के लिए जयघोष है जो लंबे समय तक देश के कुलीन वर्ग की अनदेखी और शोषण का शिकार रहे, बल्कि यह ईसाई मिशनरियों से संबद्ध उन  निस्स्वार्थ नायकों के परिश्रम के प्रति एक श्रद्धांजलि भी है, जिन्होंने उन्हें भारतीय समाज को देखने की अनूठी दृष्टि दी।


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लेखक के बारे में

आशीष अलेक्ज़ैंडर

आशीष अलेक्ज़ैंडर सैम हिगिनबॉटम यूनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चर, टेक्नॉलोजी एंड सांइसेज़ में अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हैं

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