जिस चीज ने भारतीय समाज तथा भारतीय आदमी, विशेषकर हिंदुओं के बहुलांश हिस्से को भीतर से संवेदनहीन, न्यायपूर्ण चेतना से रहित और अमानवीय, बना दिया, वह है, जातियों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था। यह हमें रोज ब रोज अतार्किक, विवेकहीन, कायर, पाखण्डी-ढोंगी और आत्मसम्मानहीन बनाता है तथा व्यक्ति के आत्मगौरव और मानवीय गरिमा को क्षरित करता है। जाति- व्यवस्था ने एक ऐसा श्रेणी-क्रम रचा, जिसमें हर आदमी किसी दूसरे आदमी की तुलना में नीच है। इसने श्रम न करने वाले परजावियों को महान तथा मेहनत करने वालों को नीच तथा महानीच बना दिया। श्रम तथा श्रम करने वालों को इतना घृणास्पद बनाया कि उनकी छाया मात्र से परजीवी अपवित्र हो जाते रहे हैं। उत्पादन तथा सेवा करने करने वालों को शूद्र तथा अन्त्यज कह कर घृणा, उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार का पात्र बना दिया गया, यहां तक की, उनमें से बड़े हिस्से को अछूत घोषित कर कर दिया गया। मनुष्य जाति के इतिहस में मानव को अछूत घोषित कने की शायद यह एक मात्र व्यवस्था है, जिसे विश्व गुरू कहने वाले हिंदुओं ने कायम किया और 80-85 फीसदी आबादी जिसमें स्त्रियां, शूद्र तथा अन्त्यज शामिल हैं, को हर प्रकार के मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया।
हिंदुओं के ग्रन्थों, महाकाव्यों में ऋषियों, महर्षियों और महाकाव्यकारों ने जाति –व्यवस्था की भूरी- भूरी प्रशंसा की। हिदुओँ के दोनों महान ईश्वरी अवतारों राम और कृष्ण ने कहा कि वर्णों एंव जातियों की व्यवस्था की रचना हमने किया है। एक ने तो इसका उल्लंघन करने वाले शम्बूक का वध किया, उसके इस काम पर देवताओं ने पुष्प बरसाये, ब्राह्मणों और ऋषियों ने जय- जयकार किया। आधुनिक युग के सबसे बड़े महात्मा तथाकथित राष्ट्रपिता अन्त समय तक जाति व्यवस्था की जननी वर्ण व्यस्था की भूरी-भूरी प्रशंसा करते रहे। पहले तो वे जाति के भी पूर्ण समर्थक थे। घिनौनी जाति- व्यवस्था तथा उनके समर्थकों पर, आधुनिक युग में जिस किताब ने सबसे कड़ा तथा निर्णायक प्रहार किया और उसे अमानवीय, अतार्तिक, अनैतिक, अन्यायपूर्ण तथा देश, समाज तथा व्यक्ति के लिए विनाशकारी घोषित किया , वह है, ‘जाति का विनाश’। बाबा साहब भीम राव आंबेडकर की इस किताब ने जाति एंव वर्ण समर्थकों में खलबली पैदा कर दी। जाति विनाश के समर्थकों ने इसे हाथों-हाथ लिया। छपने के कुछ महीनों के अन्दर ही, इसके कई संस्करण निकले। यहां तक कि गांधी ने इस किताब के बारे में लिखा कि “कोई समाज- सुधारक इस व्याख्यान की अनदेखी नहीं कर सकता है। कट्टर लोग भी इसे पढ़कर लाभान्वित हो सकेंगे। यदि इसमें गंभीर विरोध की गुंजाइश है, तो इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। डॉ. आंबेडकर हिंदुत्व के लिए एक चुनौती हैं’’। आज भी डॉ. आंबेडकर ही हिंदुत्व के लिए सबसे बडी चुनौती है। जब तक जाति है, तब तक वे चुनौती बने रहेंगे। क्योंकि उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि “आपको यह नहीं भूलनी चाहिए कि यदि आपको इममें (जाति व्यवस्था) एक दरार बनानी है तो आपको तर्क न मानने वाले और नैतिकता को नकारने वाले वेदों व शास्त्रों को बारूद से उड़ा देना होगा। श्रुति और स्मृति के धर्म को खत्म करना होगा”।
यह किताब आंबेडकर के व्याख्यान का प्रकाशित रूप है। इसे उन्होंने 1936 में जांत-पांत तोडक मंडल, लाहौर के वार्षिक सम्मेलन बतौर अध्यक्ष अपने संबोधन के लिए तैयार किया था। लेकिन आयोजकों ने सम्मेलन ही रद्द कर दिया, क्योंकि डॉ. आंबेडकर उनके हिसाब से व्याख्यान में संशोधन करने को तैयार नहीं थे, खास कर हिंदू धर्म छोड़ने की अपनी घोषणा में। इस किताब की जरूरत के बारे में स्वंय आंबेडकर ने लिखा है कि “ मैं अपने को संतुष्ट समझूंगा, अगर मैं हिंदुओं को एहसास करा सका कि वे भारत के बीमार लोग हैं’’। उनका मानना है कि हिंदुओं की सबसे बड़ी बीमारी जाति है। वे इस किताब में इस बीमारी के परिणामों, कारणों और इसे दूर करने के उपायों की गंभीर विवेचना करते है। वे कहते हैं कि “मेरा यह निश्चित मत है कि जब तक आप अपने समाज का ढांचा नहीं बदलते, तब तक आप अपने समाज को न आत्मरक्षा के लिए संगठित कर सकते हैं न प्रहार के लिए। जाति –प्रथा की आधारशिला पर कोई निर्माण नहीं कर सकते। न राष्ट्र – निर्माण ही कर सकते हैं न नैतिकता का ही निर्माण किया जा सकता है। जातियों के आधार पर निर्मित ढांचा खड़ा भी किया तो, वह चटक कर रह जाएगा और टूटे बिना नहीं रह सकेगा”। जिस सभ्यता और संस्कृति पर हिंदू गर्व करते हैं उसके बारे में वे लिखते हैं “ एक हिंदू का जीवन लगातार पराजय का जीवन है और जो जीवन उसे अक्षुण्ण लगता है, वह वैसा नहीं है। वास्तव में जीवन का बराबर क्षरण हो रहा है। अस्तित्व में रहने का यह तरीका ऐसा है जिससे किसी भी ठीक दिमाग वाले और सत्य से न डरने वाले हिंदू को शर्मिंदगी होगी”। शायद ही कोई इस बात से इंकार कर सके कि जातीय श्रेष्ठता का दंभ और जातीय नीचता की कुंठा दोनों एक साथ अधिकांश हिंदुओं में पाई जाती है, जो उन्हें आत्मगौरवहीन बना देती है, उनके आत्मसम्मान की भावना को नष्ट कर देती है, उनकी चेतना को कुंद कर देती है, संवेदना को मार देती है,स्वंय को तथा दूसरे को सिर्फ इंसान समझने की संवेदना को कुचल देती है। उसे आदमी नहीं जाति विशेष के प्रतिनिधि कठपुतली में तब्दील कर देती है। आंबेडकर लिखते हैं कि जाति हिंदुओं का प्राण तत्व है। लेकिन हिंदुओं के प्रभाव में अन्य धर्मों में यह रोग लग गया है। इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि “इसमें कोई संदेह नहीं कि जाति आधारभूत रूप से हिंदुओं का प्राण है लेकिन इसने सारा वातावरण गंदा कर दिया है और सिख, मुस्लिम और क्रिश्चियन सभी इससे पीडित हैं”। वे जातिवाद को ब्राह्मणवाद की उपज मानते हैं और कहते हैं कि इस ब्राह्मणवाद के जहर ने पूरे हिंदू समाज को बर्बाद कर दिया है और ब्राह्मणवाद को समाप्त किए बिना हिंदू धर्म को पुनर्जीवन नहीं मिल सकता है। ब्राह्मणवाद को समाप्त करने की अनिवार्य शर्त है कि हिंदू धर्म के उन कचरों को साफ किया जाए, जो जाति व्यवस्था का समर्थन करते हैं। वे इस किताब में दो टूक शब्दों में कहते है कि “ हिंदू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदर्शों और प्रतिबन्धों की भीड़ है। हिंदू धर्म वेदों व स्मृतियों , यज्ञ – कर्म , सामाजिक शिष्टाचार, राजनीतिक व्यवहार तथा शुद्धता के नियमों जैसे अनेक विषयों का खिचड़ी-संग्रह मात्र है और वास्तविक धर्म, जिसमें आध्यात्मिकता के सिद्धान्तों का विवेचन हो,जो वास्तव में सर्वजनीन और विश्व में सभी समुदायों के हर काम में उपयोगी हो, हिंदुओं में पाया ही नहीं जाता और यदि कुछ थोड़े से सिद्धांत पाए भी जाते हैं तो हिंदुओं के जीवन में उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं पायी जाती”। प्रेमचन्द की तरह ही आंबेडकर भी सबसे घृणास्पद वर्ग के रूप में हिंदुओं के पुरोहित वर्ग को देखते हैं, जो ब्राह्मणों से बना है। वे अत्यन्त हिकारत के साथ उसके बारे में कहते हैं कि “ यह ऐसा परजीवी कीड़ा है, जिसे विधाता ने जनता का मानसिक और चारित्रिक शोषण करने के लिए पैदा किया है”।
जाति-प्रथा को अतार्किक, अन्यायपूर्ण, अनैतिक और व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा मनुष्यता के खिलाफ ठहराने के बाद आंबेडकर इसे समाप्त करने के ऐतिहासिक तथा विभिन्न समकालीन सुझावों तथा प्रयासों की विवेचना करते हैं और इसे समाप्त करने का अपने तरफ से उपाय सुझाते हैं। वे एक तरफ वामपंथियों द्वारा प्रस्तुत तरीकों की गंभीर सीमाएं उजागर करते हैं, तो जाति का विरोध करने वाले तथा वर्ण व्यवस्था को जायज ठहराने वालों के अन्तर्विरोंधों तथा विरोधाभासी प्रयासों की पोल खोलते हैं। वे गांधी द्वारा वर्ण व्यवस्था के समर्थन को जाति को बनाए रखने का ही उपाय मानते हैं। गांधी के पत्र का उत्तर देते हुए, आंबेडकर वर्ण व्यवस्था के समर्थन में दिए गए, उनके तर्कों की, अतार्किकता और विवेकहीनता से तीखी असहमति दर्ज कराते हैं। वे गांधी के स्वयं के जीवन का उदाहरण देकर बताते हैं कि जिस व्यक्ति ने कभी स्वयं वर्ण-व्यवस्था के अनुसार जीवन नहीं जीया, वह पूरे समाज के लिए वर्ण-व्यवस्था का आदर्श पेश करता है। आंबेडकर तीखे स्वर में कहते हैं कि “मुझे कोई दोष नहीं देना चाहिए, अगर मैं महात्मा से यह पूछूं कि उन्होंने अपने सिद्धान्त को प्रमाणिक करने के लिए अपनी ही व्यवस्था में कितना प्रयत्न किया है ? जन्म से महात्मा बनिया हैं। उनके पुरखे वाणिज्य त्यागकर रजवाड़ा के दीवान बन गए, जो ब्राह्मणों का पेशा है। महात्मा जी को अपने महात्मा बनने से पहले जीवन में जब पेशा अपनाने का समय आया, तो उन्होंने तराजू की जगह कानून को अपनाया। फिर कानून का पेशा त्यागरकर वह आधे तो राजनीतिज्ञ हो गए और आधे सन्त।…….अगर वे स्वयं आदर्शों को सिद्ध करने में सफल नहीं होते हैं तो उनका वह सिद्धान्त निश्चय ही असम्भव है और व्यवहारिक ज्ञान के बिल्कुल विपरीत है”। इस किताब पर गांधी द्वारा उठाए गए अन्य सवालों का भी वे ठोस उत्तर देते हैं।
गांधी से टकराने के साथ ही वे भारतीय वामपंथियों से मुखातिब होते हैं जो आर्थिक ताकत को ही एकमात्र निर्णायक ताकत मानते हैं और यान्त्रिक और जड़ तरीके से यह सोचते हैं कि आर्थिक सम्बन्धों के बदल जाने से सबकुछ बदल जाएगा, जाति भी खत्म हो जाएगी। वे यह स्वीकार करते हैं कि आर्थिक ताकत एक बहुत बड़ी ताकत होती है, लेकिन उसे ही सबकुछ मान लेने की धारणा को खारिज करते हुए कहते हैं कि “मानव समाज का कोई भी अध्येता इससे सहमत नहीं हो सकता कि आर्थिक ताकत एकमात्र ताकत है, व्यक्ति का सामाजिक स्तर भी अक्सर ताकत का आधार होता है…धर्म , सामाजिक स्तर तथा सम्पत्ति यह सभी ताकत और सत्ता के साधन हैं, जिन्हें दूसरे की स्वतंत्रता नियंत्रित करने के लिए व्यक्ति अपने पास रखता है। इनमें कोई एक समय तो दूसरा, दूसरे समय प्रभावकारी होता है”। वामपंथियों को जो बात अब थोड़ा-थोड़ी समझ में आ रही, उसके बारे में 1936 में ही आंबेडकर ने घोषणा कर दी थी कि “लोग संपत्ति की बरावरी के लिए किसी भी क्रान्ति में तब तक शरीक नहीं होंगे, जब तक उन्हें यह यकीन नहीं होगा कि क्रान्ति के बाद उनके साथ बराबरी का व्यवहार होगा और जाति तथा वंश के आधार पर उनका कोई उत्पीड़न नहीं होगा”। वे वामपंथियों को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि “जाति एक ऐसा राक्षस है, जो उनका रास्ता काटेगा जरूर। जब तक आप इस राक्षस को नहीं मारते , तब तक आप न तो कोई राजनीतिक सुधार कर सकते हैं और न कोई आर्थिक सुधार कर सकते हैँ”। आज भी जाति रूपी राक्षस भारत में किसी भी क्रान्तिकारी या गुणात्मक बदलाव के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। मनु और याज्ञवल्क्य के चक्रव्यूह में पूरा देश फंसा हुआ है।
आंबेडकर का मानना है कि जाति रूपी राक्षस को मारने की अनिवार्य और अन्तिम शर्त है व्यापक पैमाने पर अन्तर्जातीय विवाह, लेकिन उन्हें इस बात का गहरा एहसास है कि यह तब तक सम्भव नहीं है, जब तक जाति पर किसी भी रूप में हिंदुओं की आस्था कायम है। वे लिखते हैं कि “अन्तर्जातीय विवाह ही इसका वास्तिक उपचार है’। अपना अन्तिम मन्तव्य जाहिर करते हुए वे कहते हैं कि शास्त्रों व वेदों की प्रमाणिकता और मान्यता समाप्त करना होगी’’। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि “मेरी राय में, यदि हिन्दू समाज, वर्ग- रहित, जाति-रहित समाज हो जाए, तो इसमें अपनी रक्षा के लिए पर्याप्त बल आ जाएगा”।
78 वर्ष पूर्व लिखी गई, यह किताब भारतीय समाज की मुक्ति की एक ऐसी सशक्त प्रस्तावना प्रस्तुत करती है। यह बताती है कि जाति के जहर ने कैसे भारतीय समाज को इतना घिनौना बना दिया है और इसका विनाश क्यों जरूरी है? यह जानने के लिए डॉ. आंबेडकर की किताब ‘जाति का विनाश’ अत्यन्त जरूरी है और जाति व्यवस्था के समूल नाश के कार्यभार की दृष्टि यह तब तक उपयोगी बने रहने वाली है जब तक यह कार्यभार अंतिम तौर पर संपन्न नहीं हो जाता।
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