इतिहास का सफर हो या राजनीति की यात्रा, जब भी कोई महिला किसी महापुरुष से उनकी जीवन साथी बनकर जुड़ती है तो उस ऐतिहासिक घटना की चर्चा न हो, ऐसा सम्भव नहीं होता। ऐसे अवसर पर कुछ लोग नई जानकारी तथा नए तथ्य जुटाने में लग जाते हैं। कुछ के लिए यह रहस्य की परतों को इधर-उधर करना होता है। पर मेरे लिए ऐसा कुछ भी न था। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर मेरे लिए एक सम्मानित शख़्सियत रहे हैं। और प्रेरक भी। उनसे जो जुड़ा उसका भी सम्मान करना मेरा दायित्व है और रहेगा। फिर डॉ. आंबेडकर से विवाह करने वाली शारदा कबीर भी कोई कम महत्वपूर्ण शख्सियत न थीं। 1937 में उन्होंने बम्बई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस किया था। आजादी से पूर्व एमबीबीएस करना बड़ी बात थी।
मेरठ से दिल्ली आने और बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के जीवन संघर्ष के बारे में अध्ययन करने पर सविता आंबेडकर के बारे में भी जानने का मुझे अवसर मिला। आरम्भ में उनके बारे में नकारात्मक बातें अधिक सुनने को मिलती थीं। दिल्ली में जहाँ-जहाँ मैं जाता था, वहाँ-वहाँ उन्हें गलत शब्दों के साथ सम्बोधित किया जाता था। उनकी बातें सुनकर मुझे बहुत ही बुरा लगता था। कोई उन्हें बाबा साहेब की मौत की जिम्मेदार बताता तो कोई उन्हें जिद्दी और ईर्ष्यालु कहता। और भी ऐसे शब्दों का प्रयोग वे करते, जिन्हें लिखते हुए भी मुझे अच्छा नहीं लगता है। मैं यह सोचने पर मजबूर हो जाता कि क्या वास्तव में ही सविता आंबेडकर ऐसी थीं। मेरा मन नहीं मानता। ऐसे लोगों में जो अपने आप को आंबेडकरवादी कहते नहीं थकते थे, उनमें देवनगर से मोहनलाल गौतम, कंवर सेन बौद्ध, सुंदर लाल (बाद में राजस्थान से सांसद भी बने), रवि जी, करोल बाग से किशोरी लाल गौतम (जो डॉ. आंबेडकर भवन पहाड़ गंज में सोसायटी के महामंत्री रहे), पहाड़गंज से राम सिंह (आरपीआई के पदाधिकारी) और बाबा साहेब के साथ उनके सहयोगी के रूप में कार्य किये सोहन लाल शास्त्री, शंकरानंद शास्त्री तथा नानक चंद रत्तू। सविता जी के आलोचकों की सूची में और बहुत से नाम जुड़ सकते हैं। लेकिन हमारा उद्देश्य यह नहीं है। हमारा मन्तव्य तो एक ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाली उस प्रगतिशील महिला के बारे में पाठकों को परिचित कराना है जो न केवल अपना धर्म बल्कि संस्कृति भी पीछे छोड़ आई थी। जिसके लिए उनके पति यानि डॉ. आंबेडकर जीवन साथी ही नहीं, बल्कि उससे भी अधिक, सब कुछ थे। विवाह के अगले पल से ही उनके जीवन में बदलाव आ गया था, जिसके लिए वे तैयार भी थीं।
आइए कबीर परिवार की पृष्ठभूमि देखें, और उनके बारे में जाने। शारदा का जन्म 27 जनवरी, 1912 को बम्बई में हुआ था। उनके पिता कृष्णराव विनायक राव कबीर सारस्वत ब्राह्मण थे। वे रत्नागिरी ज़िले की राजापुर तहसील स्थित डोर्स गाँव के निवासी थे। उनकी माँ का नाम था जानकीबाई। बाद में उनके पिता रत्नागिरी से बम्बई आ गए। यहाँ विशेष बात यह थी कि आंबेडकर के पूर्वज भी रत्नागिरी ज़िले की ही तहसील मंडनगढ़ स्थित अंबावडे गांव में रहते थे। फिर बम्बई के एक ही उपनगर में ये दोनों परिवार रहते थे। दादर पूर्व में हिन्दू कॉलोनी के राजगृह में बाबा साहेब रहते थे तो दादर के पश्चिम में कबूतरखाने के निकट सर राय बहादुर सी. के. बोले मार्ग पर किसी साहू के घर मातृछाया में किराए पर कबीर परिवार रहता था। बाद में जब शारदा की पढ़ाई पूरी हुई तो गुजरात के एक बड़े अस्पताल में प्रथम श्रेणी मेडिकल आफिसर के पद पर उनकी नियुक्ति हुई। लेकिन कुछ ही माह बाद वे नौकरी छोड़कर वापस आ गईं। कारण था उनका स्वास्थ्य ठीक न रहना। उनके परिवार के साथ विशेष बात यह भी थी कि आठ भाई-बहनों में से छह ने अंतरजातीय विवाह किए थे। उन दिनों यह असाधारण बात थी। सारस्वत ब्राह्मण के लिए तो और भी असाधारण। कहना न होगा कि यह प्रगतिशीलता का सूचक था। सविता जी लिखती हैं कि हम भाई-बहनों के अंतरजातीय विवाह करने पर हमारे परिवार ने कोई विरोध नहीं किया। इसका कारण था कि पूरा परिवार सुशिक्षित और प्रगतिशील था।
डॉ. आंबेडकर से पहली मुलाकात
स्वयं सविता जी के शब्दों में, मेरा डॉ. आंबेडकर के जीवन में कैसे, कहाँ, कब और क्यों प्रवेश हुआ, इसके बारे में बहुत से लोगों के मन मे अत्यधिक कौतूहल रहा है। वैसे भी इस बारे में बहुतों ने उलट-पुलट बातें फैलाई हैं। बम्बई के विले पार्ले में डॉ. एस. एम. राव नामक एक मेसुरियन सदगृहस्थ रहते थे। वे विदेश से उच्च शिक्षा लेकर आये थे। डॉ. राव से आंबेडकर की घनिष्ठता थी। अक्सर आंबेडकर उनके यहाँ आ जाते थे। ऐसा केवल तब होता था जब आंबेडकर दिल्ली से बम्बई आते थे। डॉ. आंबेडकर और शारदा जी की पहली मुलाकात यहीं डॉ. राव के घर पर हुई थी।
यह 1947 के आसपास की घटना है। इसे ऐतिहासिक घटना ही मानना चाहिये। उस समय तक डॉ. शारदा को डॉ. आंबेडकर के बारे में अधिक मालूम न था, सिवाय इसके कि वे वायसराय कौंसिल के सदस्य हैं। शारदा कबीर भी डॉ. राव के घर आती-जाती थीं। राव से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे। एक दिन बाबा साहेब दिल्ली से आये थे उस समय डॉ शारदा भी मौजूद थीं। डॉ. राव ने औपचारिक रूप से उनकी पहचान यह कहते हुए कराई- मेरी बेटियों की यह सहेली बहुत ही होशियार है। एमबीबीएस होते हुए भी डॉ. मालवंकर जैसे विख्यात डॉक्टर के यहाँ जूनियर के तौर पर काम कर रही है….आदि। बाबा साहेब उस समय वायसराय की कार्यकारिणी में श्रम मंत्री थे। डॉ. शारदा डॉ. आंबेडकर के तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित हुईं। पहली मुलाकात में ही उन्हें महसूस हुआ कि डॉ. आंबेडकर कोई मामूली व्यक्ति न होकर एक असाधारण और महान हस्ती थे।
इस पहली मुलाकात में आंबेडकर ने बहुत अपनत्व से मेरे बारे में पूछताछ की। इसका कारण था कि वे महिलाओं की उन्नति के बारे में काम कर रहे थे। आंबेडकर ने मेरा अभिनंदन किया। इसी मुलाक़ात में बौद्ध धर्म के बारे में भी चर्चा हुई। दूसरी मुलाकात उनकी डॉ. मावलंकर के सलाह कक्ष में हुई। बाबा साहेब को उस समय रक्तदाब, रक्तशर्करा और जोड़ो में दर्द था। इस तरह मुलाकातों का दौर आगे बढ़ा। बाद में पत्र व्यवहार भी हुआ। दोनों के बीच दूरी कम हुई। निकटता बढ़ी। अब तक आंबेडकर से अच्छी खासी जान पहचान हो गई थी। साहित्य, समाज, धर्म आदि विषयों पर बातचीत होती थी। कभी-कभी बहस भी हो जाती थी। आंबेडकर ध्यान से मेरे तर्क सुनते थे। फिर अपनी बात कहते।
1947 आते-आते डॉ. आंबेडकर अपनी तबियत के बारे में चिंतित रहने लगे थे। उनकी तबियत का ध्यान रखने के लिए कोई व्यक्ति होना चाहिए। लोकवाङ्गमय गृह प्रकाशन, मुम्बई से प्रकाशित पुस्तक डॉ. बाबा साहेब के हवाले से पता चलता है कि 16 मार्च, 1948 को दादा साहब गायकवाड़ को लिखे पत्र में स्वयं आंबेडकर ने कहा है, सेवा-टहल के लिए किसी नर्स या घर सम्भालने वाली किसी औरत को रखने पर लोगों के मन मे शंकाएं पैदा होंगी। अतः शादी करना ज्यादा अच्छा मार्ग है। चि. यशवंत की मां की मृत्यु के बाद मैंने शादी न करने का निश्चय किया था। लेकिन आज के हालात में मुझे अपना निश्चय छोड़ना पड़ेगा। बाबा साहेब के लिए यह दुविधा का समय था।
15 अप्रैल 1948 को उनका विवाह हुआ। सोहन लाल शास्त्री अपनी पुस्तक ”बाबा साहेब डॉ. बी आर आंबेडकर के सम्पर्क में पच्चीस वर्ष” में लिखते हैं कि शारदा कबीर अपने भाई के साथ 11 बजे दिन में पहुँचने वाले हवाई जहाज से दिल्ली आ गई थीं। उस समय बाबा साहेब हार्डिंग एवेन्यू (अब तिलक ब्रिज) रहते थे। शादी के लिए रजिस्ट्रार के तौर पर रामेश्वर दयाल डिप्टी कमिश्नर दिल्ली बुलाए गए थे। यह विवाह सिविल मैरिज एक्ट के अधीन सिविल मैरिज के तौर पर सम्पन्न हुआ था। इस अवसर पर शामिल होने वालों में स्वयं मेरे अलावा राय साहब पूरण चंद, मिस्टर मेसी (निजी सचिव), नीलकण्ठ, रामकृष्ण चाँदीवाला, एस्टेट ऑफिसर मेश्राम, चित्रे और चित्रे का भतीजा, उनकी पत्नी, शारदा कबीर का भाई। साथ ही होम सेक्रेटरी बेनर्जी। इनके अलावा जो आये थे….. डॉ. आंबेडकर व डॉ. सविता आंबेडकर नव दम्पति को भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल चक्रवती राजगोपालाचारी ने 28 जुलाई, 1948 को स्नेह भोज के लिए आमंत्रित कर उनका अभिनन्दन किया था।
विवाह के बाद पति पत्नी के अच्छे सम्बन्ध बने। एक दूसरे के विचारों को तो वे पहले से ही जानते थे। आंबेडकर उन्हें सविता के नाम से पुकारते थे। उस मुकाम से लेकर वे पत्नी और एक सहयोगी होने के नाते साये की तरह बाबा साहेब के साथ रहीं। बहुत से साथियों को असल में सबसे अधिक परेशानी यही थी। 26, अलीपुर रोड, जहाँ बाद में बाबा साहेब रहे, वहां लोग बड़ी संख्या में डॉ. आंबेडकर से मिलने आते थे। यह जरूरी और संभव भी नहीं था कि सभी से बाबा साहेब मिल लें। इसलिए हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति नाराज रहता था और इसके लिए वह सविता जी को ही दोष देता था। उनसे भी अधिक उनकी जाति को। एक दूसरे से दूसरा तीसरे से, इस तरह बात जहाँ से शुरू होती थी अंत भी वहीं होता था। यानी एक ब्राह्मणी ने बाबा साहेब को अपने चंगुल में रखा हुआ है। सोहनलाल शास्त्री से लेकर शंकरानंद शास्त्री की तथा अन्य की भी लगभग यही समस्या थी। जबकि सविता जी पर एक पत्नी के अलावा डॉक्टर की भी दोहरी जिम्मेदारी थी।
भारत सरकार की ओर से डॉ. आंबेडकर के सम्मान में उनके परिनिर्वाणोपरांत भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ”भारत रत्न” घोषित किया गया था। 14 अप्रैल,1990 के दिन यह सम्मान डॉ. आंबेडकर की पत्नी की हैसियत से तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन जी के कर कमलों द्वारा सविता जी को प्रदान किया गया। उससे पहले बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के जन्म शताब्दी वर्ष में तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा जब संसद के केंद्रीय कक्ष में बाबा साहेब का तैलचित्र लगाने की घोषणा हुई और 12 अप्रैल, 1990 के दिन उनके तैलचित्र का अनावरण हुआ तब भी वे उपस्थित थीं।
मेरी उनसे पहली मुलाकात
यह 90 के दशक के मध्य की बात है, जब मैं डॉ. आंबेडकर प्रतिष्ठान, 25 अशोक रोड, नई दिल्ली में बतौर सम्पादक कार्य करता था। उस समय गंगा राम, कल्याण मंत्रालय में ज्वाइन्ट सेक्रेटरी थे। मैंने उसी मंत्रालय में कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर कार्य शुरू किया था। पहली बार में सविता जी से यहीं मिला। एक पतली-दुबली, गौर वर्ण, सलीके से साड़ी पहने वे आई थीं। साथ में गंगाराम जी भी थे। हमारे इस ऑफिस में डायरेक्टर मनोहर प्रसाद थे। उन्हीं के कमरे में वे बैठी थीं। एक-दो साथियों के साथ मैं भी उनसे मिलने के लिए गया। डायरेक्टर साहब ने हमारा परिचय कराया था। साथ ही यह भी बतलाया कि नैमिशराय जी लेखक भी हैं और दूसरे, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर जन्म समारोह समिति के सदस्य भी हैं। सुनकर उनके मुँह से निकला था, ओह… गुड। असल में समिति का सदस्य होना महत्व की बात थी। पार्लियामेंट एनेक्सी में मिटिंग होती थी। समिति के चेयरमैन प्रधानमंत्री थे, अन्य सदस्यों में कुछ मंत्री, गवर्नर, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता आदि थे।
उसके बाद वे कई बार ऑफिस आईं। गंगाराम जी ने मेरी उनके लिए ड्यूटी ही लगा दी। जब-जब वे बम्बई से दिल्ली आतीं, तब तब मेरी ड्यूटी शुरू हो जाती थी। उनके रहने का प्रबंध कभी वेस्टर्न कॉर्ट में तो कभी अशोका यात्री निवास में होता था। वैसे वे कम ही बात करती थीं। कभी-कभी सवाल भी पूछती थीं। डॉ. आंबेडकर प्रतिष्ठान में क्या-क्या कार्य होता है? जो ग्रन्थ प्रकाशित हुए थे, उन्हें देखती थीं। उनके बात करने का लहजा मराठी ही होता था। आवश्यक होता तो वे सुधार भी कर लेतीं। फिर कहती, नैमिशराय मैंने ठीक बोला। कभी कुछ याद आ जाता तो पूछ बैठतीं, मैंने क्या बोला। बोला शब्द ज्यादा इस्तेमाल करती थीं। एक बार उनकी टांग में फ्रेक्चर हो गया।लगभग एक सप्ताह वे दिल्ली रहीं। कई बार ऑफिस आईं। तब उनके लिए व्हील चेयर की व्यवस्था की गई थी। ऐसी स्थिति में वे वहीं पढ़ती-लिखती थी।
तब तक मेरी आत्मकथा आ गई थी, अपने-अपने पिंजरे, हिंदी की पहली दलित आत्मकथा। बातचीत के दौर में कभी-कभी उनके मुंह से गाली भी निकल पड़ती थी। साला शब्द ज्यादा निकलता था। 1996 में अरुण शौरी ने बाबा साहेब के खिलाफ विष वमन करना शुरू कर दिया था। सविता जी उसे गालियां देते हुए कहती थीं, कैसा पत्रकार है साला? बाबा साहेब को बुरा-भला कहता है। बाबा साहेब को कोई कुछ कहे, उन्हें बर्दाश्त नहीं होता था। वे तुरन्त प्रतिक्रिया व्यक्त करती थीं।
मैं डॉ. आंबेडकर प्रतिष्ठान में साढ़े छह वर्ष रहा। इस बीच कई बार बम्बई जाना हुआ। सविता जी ने मझे अपना नंबर दिया हुआ था। एक बार बम्बई गया तो मेरे फोन करने पर उन्होंने कबूतरखाने का पता बताया। और कहा, आप यहां आ जाएं। मैं वहां जाकर मिला। उन्होंने मेरा परिचय परिवार के सदस्यों से भी कराया। मेरे लिए चाय बनवाई। कुछ बातें हुई, जिनसे अपनत्व का अहसास हुआ। इतनी बड़ी हस्ती की पत्नी दादर के कबूतरखाने के दो या तीन कमरे के पुराने घर में रहती थीं। मैंने उनका साक्षात्कार भी लिया था, जो बाद में मेरी पुस्तक मोहनदास नैमिशराय आमने-सामने में छपा था। मुख्य पृष्ठ पर उनका चित्र भी प्रकाशित हुआ था। इसके बाद एक-दो बार उनसे मिलना हुआ।
उनकी आत्मकथा डॉ. अम्बेडकरच्या सहवासत मराठी में नागपुर से प्रकाशित हुई थी, जिसका इंदौर में रह रहे डॉ. अनिल गजभिये ने हिंदी में अनुवाद किया था। उनका कहना है कि बाबा साहेब के परिनिर्वाण के काफी वर्षों के बाद यह लिखी गई। अपनी आत्मकथा ‘डॉ. आंबेडकर के सम्पर्क में’ वे लिखती हैं- डॉ. आंबेडकर के परीनिर्वाण के बाद मुझे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सरकारी अस्पताल में मेडिकल ऑफिसर की नौकरी देने तथा राज्यसभा में लेने की बात कही थी, लेकिन मैंने स्वेच्छा से मना कर दिया। कारण था कि बाबा साहेब ने मुझे किसी तरह की नौकरी से अलग रहने के लिए कहा था। मैने नेहरू के आमंत्रण को तो छोड़ दिया पर बाबा साहेब की बात को नहीं तोड़ा। राज्यसभा की सदस्यता को स्वीकार करना कांग्रेस की मर्जी से चलने के लिए अपने आप को तैयार करना था, जो मैं नहीं चाहती थी। और यह सब स्वीकार करना बाबा साहेब के विचारों के विरुद्ध जाना था।
वे आगे लिखती है, मुझे साहेब ने स्वीकार किया। मैं आंबेडकर मयी हो गई। मैंने उनका हमेशा साथ दिया आंबेडकर होकर। यह मैं गर्व से लिख रही हूँ। साहेब के परिनिर्वाण के बाद बीते 36 सालों से मैं विधवा का जीवन जी रही हूँ, वह भी आंबेडकर के नाम के साथ। मैं आंबेडकर के नाम के साथ जी रही हूँ और मरूँगी भी आंबेडकर के नाम के साथ। यह स्वीकारोक्ति आंबेडकरवाद के साथ जीने और मरने की उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है। साथ ही भारतीय महिला के आदर्श को भी हमारे सामने रखती है। जितना डॉ. आंबेडकर के साथ विवाह के बाद और बाबा साहेब के परिनिर्वाण तक उन्होंने आलोचना, प्रत्यालोचना से घिरे होते हुए जीवन जिया, उतना ही बाबा साहेब के चले जाने के बाद और स्वयं अपनी अंतिम सांस तक उन्हें जीवन जीना पड़ा। सम्भवतः यह उनकी नियति थी या फिर डॉ. आंबेडकर के उत्तराधिकारियों की उनके प्रति निर्ममता। बात कुछ भी हो, उन्होंने आंबेडकर को दिए वचन को पूरी ईमानदारी से निभाया। यही नहीं, उन्होंने सामाजिक कार्यो की अपनी गतिविधियों को भी बनाए रखा। बहुत कम लोगों को मालूम है कि दलित पैंथर जैसे जुझारू संघटन से भी वे जुड़ीं और संघटन के प्रचार-प्रसार में योगदान दिया। यही नहीं, बल्कि आगरा, दिल्ली, कानपुर, लखनऊ और हरियाणा में जाकर पुराने दलित पैंथर्स से मुलाकात भी की।
वे कुछ और महत्वपूर्ण कार्य करतीं, शायद यह सम्भव न था। लगातार भागने-दौड़ने के कारण वे बीमार रहने लगी थीं। 19 अप्रैल, 2003 को उन्हें सांस लेने में दिक्कत महसूस हुई तो इलाज के लिए जे.जे. हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। 29 मई, 2003 को उन्होंने अंतिम सांस ली।
(कॉपी एडिटर : नवल/अनिल)
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