कबीर देश के पहले क्रांतिकारी संत कवि थे, जिन्होंने हिन्दू धर्म और वर्ण व्यवस्था पर जबरदस्त तरह से प्रहार किया था। वह भी जब तब देश मे तुर्क,अफगान और ईरान से आये मुस्लिम बादशाहों की गोद मे बैठकर ब्राह्मण वर्ग के चतुर चालाक लोग अपने-अपने अस्तित्व को बचाने हेतु प्रयासरत थे। कहना न होगा कि कबीर को एक तरफ मुस्लिम शासकों, सामन्तों से खतरा था तो दूसरी ओर ब्राह्मणों, पुरोहितों तथा मठाधीशों के वार को भी झेलना पड़ता था। ऐसी विषम और विकट परिस्थितियों में कबीर चुनौती स्वीकार करते हैं और संत धारा को जन-जन से जोड़ते हैं।
आश्चर्य होता है कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत में कबीर के जन्म के 621 साल बाद उनके नाम पर राजनीति की जा रही है और फिर से मनुवादी विचारधारा को थोपने की कोशिश की जा रही है। हालांकि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से यह कोशिश वर्चस्ववादी ताकतों द्वारा पूर्व से ही की जाती रही है। तभी तो श्रमण परंपरा के कबीर को ब्राह्मण परंपरा से जोड़कर बताने के प्रयास जारी रहे हैं। हिन्दी साहित्य में भी ऐसे तिकड़म किये गये। मसलन हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यकारों ने कबीर को ब्राह्मणवादी घेरे में साबित करने की पुरजोर कोशिशें की। हालांकि डॉ. धर्मवीर जैसे बहुजन रचनाकार ने उनके कुप्रयासों को शिद्दत के साथ खंडन किया और अपने तर्क प्रस्तुत किया। उनके तर्कों को नामवर सिंह जैसी शख्सियत ने भी कबूल किया।
कबीर ने सपने में भी यह नही सोचा होगा कि मध्यकाल के बाद आधुनिक युग में राम राज्य में उनकी मजार को शतरंज की बिसात बनाकर अपनी चालें चलेंगे। एक दशक ऐसा भी आएगा जब वही पाखण्ड से भरा जीवन बसर करने वाले उन्हें अपने सिर पर बैठाएंगे। उनकी आरती उतारेंगे और उनकी मजार पर चादर चढ़ाएंगे। समय का विरोधाभास तो हम इसे कहेंगे ही साथ ही हिंदुत्व की राजनीति का घिनोना खेल भी। जिसकी शुरुआत बीते 28 जून 2018 को मगहर यानि स्वयं उनके ही नगर, सन्त कबीर नगर से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने शुरू की। सन्तों से लेकर बुद्धिजीवियों तक को इससे बढ़कर और चौंकाने वाली दुर्घटना क्या हो सकती है? कबीर ताउम्र ऐसे ढोंगियों को लताड़ते रहे और वही पाखंडियों की जमात उन्हें अपनी गिरफ्त में लेने को आतुर हो गई। योगी के साथ देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी व्यवहारिक रूप से अपनी सहमति भी दे दी। यही नहीं बल्कि इतिहास की गलत तरह से व्याख्या भी कर दी। उन्होंने कहा कि इसी मगहर की धरती पर बाबा गोरखनाथ, गुरू नानकदेव और कबीर तीनों एक साथ मिलकर अध्यात्मिक चर्चा करते थे। कितना हास्यास्पद है यह। प्रधानमंत्री यह भूल गये या फिर उन्होंने जानबुझकर इस सच को नहीं बताया कि तीनों महान संत पुरूषों का जीवन काल अलग-अलग है।
भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री के द्वारा कबीर पर दिए इस बयान से देश के ही नही विश्व के लेखकों,चिंतकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी दुखद आश्चर्य है। उनके भीतर सवाल दर सवाल उभरते हैं, ऐसा कैसे हो गया?
अब एक बार फिर से पूरे परिदृश्य पर निगाह डालते हैं। मगहर में कबीर की मजार और फ़क़ीर की टोपी,भगवाधारी मुख्यमंत्री, सच को झूठ से ढंकने की धार्मिक साजिश, विचार से मंत्र। मन्त्र से श्लोक। और फिर श्लोक से तथाकथित राम राज्य की वापसी का षडयंत्र।
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कबीर जी की 621वीं जयंती के अवसर पर भाजपा के इतिहास का और इससे बढ़कर झूठ क्या होगा कि जो कलबूर्गी, पनसारे, गौरी लंकेश तथा दमोलकर जैसे शख्सियतों के विचारों को नही स्वीकार कर सकते, और उनकी हत्या कर सकते है,वही आज बेशर्म बनकर कबीर को स्वीकार करने की बात करते हैं। भारत मे सदियों से धर्म के नाम पर यही नौटंकी होती रही है। आज के उन राजनीतिक नौटंकीबाजों के बारे में बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों को गम्भीरता से सोचना होगा। क्यों एक योगी मुख्यमंत्री बनता है, क्यों एक योगी के राज में हत्यारों और बलात्कारियों को प्रश्रय मिलता है, क्यो फिर से बहुजन समाज के लोगों को हाशिये पर लाकर पटक दिया जाता है, क्यों मन्दिरों, मठों और आश्रमों को सरकारी धन मुहैया कराया जाता है?
आज के दौर में जहां भाजपा के लोगों ने बहुत सारी विसंगतियां पैदा कर दी हैं और खासकर प्रधानमंत्री ने अपने पद की गरिमा का ख्याल नहीं रखते हुए इतिहास का मान मर्दन किया है, वह न केवल समाज में विद्वेष फैलाएगा बल्कि कबीर जो सभी मनुष्यों को एक समान मानते थे, उनके विचारों की ऐसी-तैसी भी करेगा।
सत्ता की राजनीति में धर्म का उपयोग एक प्रभावकारी हथियार के रूप में किया जाता रहा है। दुखद यह है कि अब कबीर के नाम पर वह सब होने लगा है, जिसे भुलाने में सालों लग जाएंगे। कबीर ने तो सामाजिक न्याय की बात की थी। कबीर ने तो पंडित और मुल्ला को फटकारा था। कबीर ने तो साम्प्रदायिक तत्वों के खिलाफ वह सब लिखा था, जिसे लिखने के लिए उन दिनों कोई सोच भी नही सकता था। सही रूप में देखा जाए तो कबीर ने जन जागरण किया था, क्रांति का सूत्रपात कर एक नए युग, नए समाज की कल्पना की थी। आज अगर उनके भगवाकरण के प्रयास को विफल नहीं किया गया तो इतिहास की यह सबसे बड़ी भूल होगी।
(कॉपी एडिटर : नवल)