सत्तर के दशक में मशहूर नाटककार गुरुशरण सिंह लिखित नुक्कड़ नाटक ‘हवाई गोले’ बहुत चर्चित हुआ था, जिसमें लोकतंत्र की विडम्बनाओं को उजागर किया गया था। नाटक में भूखमरी से हुई मौत को छिपाने के लिए सरकारी अफसरों का दावा कि ‘उसने सूखे पत्तों का साग खाया था’ भ्रष्ट अफसरशाही का अमानवीय चेहरा उजागर करता है। आज पूरे देश मे नाटककार की कल्पना गरीबों के लिए हक़ीकत बन गई है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार रोकने के नाम पर किए जा रहे तकनीकी बदलावों में खामियों के चलते, जरूरतमंद लोग अनाज से वंचित हो रहे हैं। कई बार तो स्थितियां इस कदर गंभीर हुई हैं कि अनाज नहीं मिला और लोग भूख से मर गए।
पिछले साल झारखण्ड में सिमडेगा जिले के कारीमाटी गांव की 11 वर्षीया संतोष कुमारी की मौत ने इस ओर देशभर का ध्यान आकृष्ट किया था। ‘माई भात दे, थोड़ा भात दे’ कहते-कहते उस बच्ची ने मां कोयली देवी की बांहों में दम तोड़ दिया था। यह पूरा परिवार कई दिनों से भूखा था। राशन कार्ड का आधार से लिंक न होने के चलते उनका नाम लिस्ट से हटा दिया गया था और इस परिवार को राशन नहीं मिल रहा था। उस समय एक ही महीने में झारखंड के ही दो अन्य क्षेत्रों से भी राशन कार्ड रद्द कर दिए जाने या अन्य कारणों से राशन न मिलने के चलते भूखमरी की दो अन्य खबरें आई थीं।
झरिया, धनबाद में रिक्शा चलानेवाले बैद्यनाथ रविदास का नाम बीपीएल/गरीबी रेखा के नीचे वाली सूची से काट दिया गया था। तभी से परिवार की हालत गंभीर हो गयी थी। वैद्यनाथ की जब मौत हुई तब परिजनों ने बताया कि आठ दिनों से घर में खाना नहीं बना था। इसी प्रकार, तीसरी मौत की ख़बर जिला देवघर के देवपुर गांव से आयी थी जब रूपलाल मरांडी नामक 62 साल का व्यक्ति भूख के चलते मर गया था। राशन दुकानदार ने उसे अनाज देने से मना किया था क्योंकि उस मेहनतकश के अंगूठे के निशान को मशीन ने नहीं पहचाना था।
ऐसी मौतों की ख़बरें देश के अलग-अलग हिस्सों से भी आती रही हैं। मिसाल के तौर पर, पिछले साल जुलाई में कर्नाटक के गोकर्ण जिले के तीन भाई – नारायण, वेंकटरम्मा और सुब्बू मारू मुखरी – जो अपनी मां के साथ बेनेहिटाला गांव में रहते थे, वे 2 जुलाई से 13 जुलाई के दौरान इसी तरह भूख से काल-कवलित हो गए थे। उन्हें भी कई माह से ऐसे ही कारणों से राशन नहीं मिला था।
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार स्पष्ट किया है कि राशन कार्ड अगर आधार लिंक न भी हो तो उसके कारण किसी गरीब को अनाज से वंचित न किया जाए। सरकारों की तरफ से भी दावे किए जाते रहे हैं कि बायोमेट्रिक आईडेंटिफिकेशन के अनिवार्य किए जाने के बावजूद किसी को अनाज से वंचित नहीं किया जा रहा है। लेकिन जमीनी हक़ीकत सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और सरकारी दावों से मेल नहीं खाती है।
मानवता को शर्मसार करने वाली भूख से होने वाली मौतों का यह सिलसिला रुका नहीं है। ‘माई भात दे, थोड़ा भात दे’ कहते-कहते मां की गोद में हुई संतोषी की मौत ने देशभर में जो सरगर्मी पैदा की थी, वह भी विलुप्त हो गई लगती है। ऐसी अकाल मौतों से थोड़े समय के लिए राज्य और केंद्र सरकारों की जो बदनामी हुई थी, ऐसा लगता है कि उससे बचने के लिए साधन-संपन्न सरकारों ने जरूरी ‘मीडिया प्रबंधन’ कर लिया है।
पिछले दिनों आईआईटी दिल्ली तथा रांची विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने इस बारे में व्यापक अध्ययन कर पूरी वस्तुस्थिति को बयान करने वाली डॉक्यूमेंट्री बनाई तो यह बात फिर से समग्रता के साथ देशभर के सामने आयी है। इसके मुताबिक 3.29 करोड़ की आबादी वाले झारखंड में गरीबी और अभाव का आलम यह है कि 2.63 करोड़ लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर हैं। अलग-अलग प्रभावितों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से की गई बातचीत में यह बात सामने आई कि बिना तैयारी तथा समूची परिस्थिति का आकलन किए बगैर नियमों में फेरबदल से सबसे अधिक वंचितों को ही नुकसान होता है।
इस डॉक्यूमेंट्री में कई प्रभावितों के साक्षात्कार हैं। प्यासो देवी तथा उनके पति को छह माह से राशन नहीं मिला है, क्योंकि मशीन उन दोनों के अंगूठे को पहचानने से इंकार करती है। इसी प्रकार, 79 साल के खूंटी जिले के जयनाथ राम का अंगूठा भी मशीन नहीं मिलता। राशन दुकानदार उन्हें भगा देता है, इसलिए उन्होंने वहां जाना ही छोड़ दिया है और किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। एकल महिला फातिमा खातून के छह बच्चे हैं। किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके गुजारा करती हैं। राशन की दुकान पर जो पीओएस (पॉइन्ट ऑफ सेल) मशीन रखी गयी है, उसमें सिर्फ उनकी बड़ी बेटी का अंगूठा ही ‘पहचाना’ जाता है। बड़ी बेटी शादी करके दूसरे गांव चली गयी है। हर बार उसे बुलाकर राशन का जुगाड़ करना पड़ता है। कई बार मशीन में गड़बड़ी या अन्य दिक्कतों के चलते यह भी नहीं हो पाता है। साक्षात्कार लिए जाते वक्त उसे दो माह से राशन नहीं मिला था।
यही हाल, राजस्थान में जिला राजसमंद के भीम ब्लाॅक अंतर्गत ग्राम कुकरखेड़ा के गोविन्द सिंह (उम्र 85 साल) और उनकी पत्नी तुलसी देवी (उम्र 75 साल) का है। इनका साक्षात्कार भूख के अधिकार की बहाली के लिए संघर्षरत एक संगठन द्वारा सोशल मीडिया पर साझा किया गया था। सन्तानहीन इस दंपति की दास्तान भी वही थी- अंगूठे का निशान न मिलने से कई बार उन्हें बिना राशन के ही घर लौटना पड़ता है।
इस सन्दर्भ में जानेमाने अर्थशास्त्राी ज्यां द्रेज और उनके सहयोगियों द्वारा झारखंड में 32 गांवों के एक हजार परिवारों का किया गया अध्ययन कम विचलित करनेवाला नहीं है। इस अध्ययन के मुताबिक आधार लिंक न होने, या लिंक होने के बावजूद अंगूठे की पहचान नहीं होने के चलते अनाज से वंचित लोगों की संख्या 20 फीसदी होने का अनुमान है। निश्चित तौर पर ये सब ऐसे लोग हैं जिन्हें सस्ते अनाज की सबसे ज्यादा जरूरत है और जिसके मिलने, न मिलने पर जिनका जीवन-मरण निर्भर करता है।
प्रश्न उठता है कि इस पूरी योजना में गड़बड़ी कहां चिह्नित की जा सकती है? सार्वजनिक वितरण प्रणाली की इस पूरी कवायद के पीछे सरकार का तर्क है कि इसके तहत जो अनाज सरकार देती है, उसके बड़े हिस्से को कोटेदार ही खुले बाज़ार में बेचते और मुनाफा कमाते थे। यह सारा प्रयास अत्याधुनिक टेक्नोलोजी के माध्यम से इस चोरी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने व सही लाभार्थियों तक अनाज पहुंचाने के लिए है। मगर सरकार और इस कार्य में लगी पूरी मशीनरी की केवल कार्य-प्रणाली ही नहीं, नियत भी उनके तर्कों पर फिट नहीं बैठती।
आधार के नम्बर को राशन कार्ड के साथ लिंक करने तथा हर बार उस शख्स की बायोमेट्रिक तरीके से शिनाख्त/पहचान करने की समूची योजना बनाते वक्त़ इस बात पर किसी ने भी गौर नहीं किया कि हमारा देश जहां बिजली इतनी अनियमित ढंग से आती-जाती है, जहां इंटरनेट कनेक्शन की उपलब्धता दूर-दूर तक नहीं है या उसके सिगनल बेहद कमजोर आते हैं, जहां अंगूठे के निशानों के मिटने की परिघटना बुजुर्गों और मोटा काम करनेवालों में आम है; वहां कैसे उनकी योजना पर सौ प्रतिशत अमल होगा। राजधानी के एअरकंडिशंड दफ्तरों में बैठकर योजना का खाका बनानेवालों ने पता नहीं कैसे सोचा होगा कि इसके जरिए कोटेदार पर अंकुश लग सकेगा।
योजनाकार अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि उन्होंने पहचान के नाम पर की जानेवाली गड़बड़ियां रोक दी हैं, मगर उनका ध्यान उस बड़े घोटाले की तरफ अभी भी नहीं गया जिसे हम मात्रात्मक गबन कह सकते हैं। जैसे, कोटेदार किसी भोले-भाले या अज्ञानी ग्राहक को यह समझा सकता है कि उसके अंगूठे का निशान नहीं मिल रहा है और फिर उसके हिस्से का अनाज वह खुले बाज़ार में बेच दे।
ज्यां द्रेज के मुताबिक अब सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार का नया तरीका विकसित हुआ है जिसे ‘कटौती’ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि कोटेदार आपको जितने अनाज के आप हकदार हैं, उससे कम अनाज देकर बचा हुआ अनाज खुले बाज़ार में बेच देता है। उनके अध्ययन के मुताबिक यह कटौती लगभग 7 फीसदी है। यहां सवाल है कि अगर बायोमेट्रिक शिनाख्त से जनता की परेशानियां बढ़ती ही गयी हैं तो इसका विकल्प क्या हो सकता है।
इस संदर्भ में सुश्री रीतिका खेरा, जो आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर हैं तथा अनाज अधिकारों की मुहिम के साथ लंबे समय से जुड़ी रही हैं, वह तमिलनाडु के अनुभव साझा करती हैं। वहां लोगों को क्यूआर कोडेड स्मार्ट कार्ड दिए गए हैं। इसका फायदा यह है कि स्मार्ट कार्ड रीडर्स, जो पीओएस मशीन की तरह ही होते हैं, वह सभी लेनदेन का डिजिटलीकरण करते हैं। इससे पारदर्शिता सुनिश्चित होती है। इसके लिए इंटरनेट कनेक्टिविटी की जरूरत भी नहीं होती। यह आफलाइन मोड में भी चलती है। इसी तरह अन्य उपलब्ध विकल्पों पर विचार किया जा सकता है।
ताज़ा समाचारों के अनुसार दिल्ली सरकार लोगों के घरों तक राशन पहुंचाने की योजना बना रही है। सुनने में आकर्षक लगनेवाले इस कदम में कई झोल दिखते हैं। दिल्ली रोजी-रोटी अधिकार अभियान के मुताबिक इस योजना में भी बायोमेट्रिक पहचान की योजना से तौबा नहीं किया गया है। इस प्रस्ताव में पारदर्शिता की भारी कमी दिखती है। यह स्पष्ट नहीं है कि इसकी देखरेख कौन करेगा, जवाबदेही कौन लेगा और इसके इंफ्रास्ट्रक्चर तथा मानव संसाधन प्रबंधन की समस्याओं से किस तरह निपटा जाएगा। यह भी स्पष्ट नहीं है कि सरकार खुद इस काम को करेगी या निजी कम्पनियों को आउटसोर्स करेगी।
दिल्ली का अपना अनुभव बताता है कि यहां मौजूद 2,500 राशन की दुकानों की ही ठीक से देखरेख नहीं हो पाती, फिर घर-घर अनाज वितरण करनेवाले व्यक्तियों पर वह किस तरह अंकुश रखेगी, जिनकी तादाद 25,000 तक हो सकती है। जानकार बताते हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में लाए जा रहे इन रैडिकल बदलावों के चलते पिछले साल चार लाख लोगों को दिल्ली में अपना राशन नहीं मिल पाया था।
क्या सरकार के ऐसे कदम अनाज से वंचना की समस्या को दूर करने में कामयाब होंगे? इसका जवाब भविष्य के गर्भ में हैं, मगर इसके संकेत स्पष्ट है कि गाड़ी किस दिशा में आगे बढ़ेगी। हालात जिस तरह बद से बदतर हो रहे हैं तो निश्चित ही कुछ नया करने की, नयी जमीन तोड़ने की जरूरत है।
पिछले साल ग्लोबल हंगर इंडेक्स अर्थात वैश्विक भूख सूचकांक के आंकड़े जारी हुए, जिसमें इस सच्चाई की तरफ नए सिरे से इशारा किया गया है कि दुनिया में भूख की समस्या कितनी विकराल है और किस तरह हर साल पचास लाख बच्चे कुपोषण से काल-कवलित हो रहे हैं तथा किस तरह गरीब मुल्कों के दस में से चार बच्चे कमजोर शरीर और कमजोर दिमाग के साथ बड़े होते हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने 21 वीं सदी में आर्थिक महाशक्ति बनने का इरादा रखनेवाले भारत को आईना दिखाने का भी काम किया है। विश्व भूख सूचकांक में 118 देशों की रैंकिंग में भारत 97 वें स्थान पर है। पड़ोसी देशों श्रीलंका, बांगलादेश, नेपाल और चीन की स्थितियां भारत से अच्छी हैं। हाँ, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, कुछ अफ्रीकी मुल्क तथा उत्तरी कोरिया की स्थिति भारत से भी खराब है।
फिलवक्त भारत की इस स्थिति में कोई रैडिकल बदलाव मुमकिन भी नहीं दिखता, क्योंकि मौसम की अनाकलनीय स्थितियों के चलते भारत का कृषि विकास और अनाज उत्पादन ढलान पर है। भारत की अब कृषि अर्थव्यवस्था नहीं रही, मगर ग्रामीण भारत का अच्छा-खासा हिस्सा मुख्यतः कृषि पर निर्भर है और गरीबी रेखा के नीेचे रह रहा है।
अंत में, प्रश्न उठता है कि भूख की विकराल होती समस्या के बावजूद उसे लेकर यहां हंगामा खड़ा होता क्यों नहीं दिखता? दरअसल यह हकीकत है कि चाहे भूख हो या कुपोषण, दोनों भारतीय राजनीति के लिए गैरमहत्वपूर्ण विषय हैं। इसे हम सत्ता के अलमबरदारों की तकरीरों में ही नहीं, बल्कि संसद में चल रही बहसों या उठ रहे प्रश्नों में भी देख सकते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक संसद में उठाए गए सवालों में से महज 3 फीसदी बच्चों से जुड़े थे और जिनमें से 5 फीसदी प्रारंभिक देखभाल और विकास पर केन्द्रित थे जबकि भारत एक ऐसा मुल्क है जहां बच्चों की मृत्यु-दर दुनिया में सबसे अधिक है। कमोबेश यही स्थिति मीडिया की भी है।
आखिर भूख जैसी सेक्युलर समस्या को लेकर मीडिया या प्रबुद्ध जनों के विराट मौन का क्या कारण है? इसे कैसे समझा जा सकता है? निश्चित ही इसके कई कारण तलाशे जा सकते हैं, मगर इसका सबसे प्रमुख कारण ऊंची जातियों द्वारा राष्ट्रीय आख्यान पर किया गया कब्जा दिखता है। वेब पत्रिका ‘स्क्रॉल’ पर लिखे अपने आलेख में शोएब दानियाल बताते हैं कि भारत के कमजोर और मरणासन्न बच्चों की विशाल संख्या आदिवासी, दलितों और शूद्र जातियों से ताल्लुक रखती है। इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित 2011 के एक अध्ययन के मुताबिक, हिन्दू ऊंची जातियों के तुलना में कम वजन के दलित बच्चे 53 फीसदी अधिक मिलते हैं तो आदिवासी बच्चे 69 फीसदी अधिक हैं। फिर इसमें क्या आश्चर्य कि भारत में भूख की समस्या पर इतनी कम चर्चा होती है।
कॉपी एडिटिंग : अनिल
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