बहन जी बनाम बुआ जी और बसपा सुप्रीमो : एक मूल्यांकन
बहुजन समाज पार्टी प्रमुख व उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने अपने हालिया बयान में कहा है कि सहारनपुर के दंगों के आरोपी की न तो वह बुआ हैं और न ही उनसे उनका कोई खून का रिश्ता है। उनका यह बयान युवा दलित नेता भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण के संबंध में आया है। मायावती का यह बयान उसी तरह का है जब कभी महात्मा गाँधी ने सरदार भगत सिंह के बारे में कहा था कि हिंसा के दोषी भगत सिंह से उनका कुछ भी लेना देना नहीं है। बहन मायावती का यह बयान करोड़ो दलितों को मर्माहत करने वाला है। इस देश के करोड़ों बहुजन जानते हैं कि सहारनपुर दंगों में फूलन देवी का हत्यारा शेर सिंह राणा के सहयोग से मनुवादी गुंडों ने मिलकर न केवल दलितों के घर जला डाले बल्कि तलवारों से उनकी बहू-बेटियों पर भी प्रहार कर लहूलुहान कर डाले। यह सब पुलिस के संरक्षण में हुआ था। खुद बहन मायावती उन पीड़ितों से मिलने गयी थीं। उन्होने उन्हें आर्थिक सहायता की भी घोषणा की थी। इन दंगों के विरोध में जब एक नौजवान प्रतिरोध करता है तो उसे साजिशन रासुका में बंद कर दिया जाता है तथा उस पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया जाता है। यह सब एक राजनीतिक रणनीति के तहत होता है और फिर 2019 के चुनाव के करीब होते ही उसे छोड़ दिया जाता है। इस देश के करोड़ों बहुजन जानते हैं कि नरेन्द्र दाभोलकर, एम्. एम्. कलबुर्गी से लेकर गौरी लंकेश की हत्याओं के पीछे किन लोगों के हाथ हैं। वे कौन लोग हैं जो गौ-हत्या के नाम पर निर्दोष लोगों पर भीड़ बनकर टूट पड़ते हैं तथा पीट-पीट कर उसे मार डालते हैं।
यह सच है कि चन्द्रशेखर बहुत मंजा हुआ नेता नहीं है। वह अल्हड़ स्वभाव का है। बहुजनों का इतिहास भी उसने शायद बहुत ज्यादा नहीं पढ़ा है। बहुत गंभीर-धीर प्रकृति का भी नहीं है। तभी तो ‘द ग्रेट चमार’ होने में उसे गौरव महसूस होता है। जो लोग इस नारे को जातिवाद की संज्ञा देते हैं मुझे उनकी बुद्धि पर तरस आती है। जिस माहौल में चन्द्रशेखर का बचपन बीता है, जहां तथाकथित उच्च जतियों को राजपूत होने में और दलितों (चमारों) का उत्पीड़न करने में गौरव महसूस होता है, वहां चन्द्रशेखर को ‘द ग्रेट चमार‘ होने में क्यों न गौरव हो ? यहाँ ‘द ग्रेट चमार’ बहुजनों अर्थात दलितों- पिछड़ों की अस्मिता की अभिव्यक्ति है। यह जाति मात्र की अभिव्यक्ति नहीं है। सामाजिक क्रांति का उद्घोष है। यह मनुवाद के खिलाफ एक विद्रोही चेतना है। यह उत्पीड़ित जातियों का ही एक मजबूत अंग है जो अपनी आवाज बुलंद कर रहा है। जिसका झंडा नीला है। जिसका नारा जय भीम है। इसकी खूबी यह है कि यह स्वाभाविक तौर से उपजा है। यह बहन मायावती का प्रायोजित भाषण नहीं है कि लिखता कोई और है तथा पढ़ता कोई और है।
दुःख तो तब होता है जब वास्तविक अपराधियों को छोड़कर (जो कि मंजे मंजाये शातिर लोग हैं), सामाजिक न्याय के लिए संघर्षशील एक दलित नौजवान को राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाता है और पूर्व मुख्यमंत्री सत्ताधारियों की भाषा बोलती हैं कि सहारनपुर दंगों के आरोपी से उनका कोई रिश्ता नहीं है। रिश्ता तो गांधी का भी भगत सिंह से नहीं था, लेकिन इतिहास सबका मूल्यांकन करता है। आज देश के नौजवानों के आदर्श भगत सिंह हैं, कोई गांधी नहीं। समझदारों का यह भी मानना है कि जब चंद्रशेखर को जेल हो रही थी तो उस समय अगर मायावती प्रतिरोध करती तो शायद चंद्रशेखर पर रासुका लगता ही नहीं जबकि उस समय भी मायावती ने यही बयान दिया था कि उनका चंद्रशेखर से कोई रिश्ता नहीं है।
मायावती बतायें कि कब किया आरक्षण और महंगाई को लेकर कोई आंदोलन?
विधानसभा के सामने पेरियार रामासामी नायकर की प्रतिमा पर रोक लगाया था मायावती ने
बसपा के हित में नहीं है स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे अनेक नेताओं का दूसरे दलों में चले जाना
बहन मायावती ने यह भी कहा कि अगर किसी को संघर्ष करना है तो बसपा के बैनर तले आकर लड़ें। सवाल तो यही महत्वपूर्ण है कि कब बसपा ने संघर्ष किया? मीडिया कि भाषा में कहूँ तो ‘बसपा सुप्रीमो’ संघर्ष नहीं करती केवल प्रेस नोट पढ़ती हैं। वे सदा जेड प्लस सुरक्षा घेरे में ही रहती हैं। वे सड़क पर उतर कर क्या संघर्ष करेंगी? उनके कार्यकर्ता स्थानीय स्तर भी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं है। कोई बताये तो जरा बसपा ने कब मंहगाई के खिलाफ आन्दोलन किया या कभी आरक्षण के लिए आन्दोलन किया या फिर 2 अप्रैल के भारत बंद में बसपा का कोई रोल रहा। जाहिर है कि अगर आपको आन्दोलन करना है तो अलग संगठन बनाना पड़ता है। भीम आर्मी हो, चाहे दलितों के अनेक संगठन बहन मायावती के दिवालियेपन का परिणाम है। वैसे भी सामाजिक आन्दोलन राजनैतिक पार्टियों के बैनर तले नहीं चलाये जाते हैं। सामाजिक आन्दोलन में सामाजिक संगठनो की अपनी भूमिका होती है। उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। आज बसपा की जो साख है उसमें सामाजिक संगठनों का भी योगदान है। वरना ‘राजनैतिक यार किसके, टिकट पाये खिसके’। दलबदलुओं का चरित्र सभी को पता है। समझदार राजनैतिक पार्टियाँ छोटे-छोटे सामाजिक संगठनों का पोषण करती हैं और उनका विकास भी करती है क्योंकि यही उसके ताकत होते हैं। इनकी घोर उपेक्षा आत्मघाती होता है। भाजपा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। हजारों हिन्दू संगठन भाजपा से जुड़े हैं। परन्तु बहन मायावती ने बहुत ही शर्मनाक बयान यह कह कर दिया है, “इन वर्गों में (बहुजन समाज में) वर्षों से आये दिन ऐसे बहुत से हजारों संगठन बनते चले आ रहे हैं, जिसकी आड़ में वो किसी न किसी रूप में अपना रोटी-रोजी का धंधा चलाते रहते हैं”। मन करता है कि कह दूं कि जैसे आप पैसा लेकर टिकट बांटने का काम करती रही हैं, वैसे ही सामाजिक संगठनों के प्रति आपका नजरिया है। कितना संकीर्णतावादी नजरिया है बहन मायावती का सामाजिक संगठनों के प्रति।
कई बार भाजपा के सहयोग से सरकार बनाने वाली बसपा को जब पूर्ण बहुमत से पांच साल सरकार बनाने का अवसर मिला तो बहन जी ने कौन से क्रान्तिकारी कार्य कर दिये थे, इसका भी मूल्यांकन होना चाहिए। निश्चित तौर पर बहन जी ने कई लोक कल्याणकारी कार्य किये। कई जिलों के नाम बहुजन नायकों के नाम पर रखे। कई कालेज एवं विश्वविद्यालयों को खोले एवं उनके नाम बहुजन नायकों के नाम पर रखे। कई पार्क बनवाये और उनमें बहुजन नायकों की मूर्तियाँ भी रखवाये। परन्तु इनके वैचारिक फिसलन को अनेक मामलों एवं सन्दर्भों में देखा जा सकता है। अपनी गलत नीतियों, कुंठाओं, आत्मकेंद्रित सोच व व्यक्तिवादी मूल्यों के कारण उन्होंने बहुजन समाज को काफी नुकसान पहुंचाया एवं निराश भी किया है।
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‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ का नारा देने वाली बहन जी ने पेरियार रामासामी नायकर की मूर्ति विधान सभा भवन के सामने नहीं लगने दिया क्योंकि ब्राह्मणों के मुताबिक उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं की बहुत आलोचना किया था और ईश्वर को नहीं मानते थे। उनकी पुस्तक सच्ची रामायण को बहन जी के समय में जलाया गया था, जिसका विरोध दलित साहित्य संस्कृति मंच जैसे साहित्यिक संगठन ने किया था तथा इस कृत्य को माननीय उच्च न्यायालय की अवमानना बताया था क्योंकि सच्ची रामायण के पक्ष में माननीय उच्च न्यायालय की डिग्री है। सामाजिक न्याय के पुरोधा ‘पेरियार रामासामी नायकर’ बाबा साहेब डा. आंबेडकर के समकालीन तथा सहयोगी थे। उन्हें दक्षिण एशिया का सुकरात भी कहा जाता है।
अपने पांच साल के शासन में बहन जी ने बहुजनों के लिए न तो कोई नियमित अख़बार निकाला और न ही किसी अच्छी पत्रिका की शुरुआत की। उलटे एक बहुजन पत्रिका को अपने आदेश से इसलिए बंद करवा दिया क्योंकि उस पत्रिका ने तथाकथित हिन्दू देवी-देवताओं की आलोचना कर दी थी। यह किसको खुश करने के लिए किया गया था ?
अपने पांच साल के शासन में बहन जी ने ब्राह्मणों के मांग पर पुलिस को निर्देश दिया था कि ‘एससी एसटी एक्ट का दुरूपयोग न हो’ इस प्रकार उन्होंने ही सर्वप्रथम इस एक्ट को निष्क्रिय कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने तो बाद में निष्क्रिय किया। इसका रास्ता बहन जी ने ही सर्वप्रथम दिखाया था।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
अपने पांच साल के शासन में बहन जी ने हिंदी साहित्य संस्थान को बंद करा दिया था तथा किसी लेखक या साहित्यकार या कलाकार को इस लायक नहीं समझा था कि उन्हें पुरस्कृत या सम्मानित किया जा सके। बहुजन लेखकों से तो उनका छत्तीस का आंकड़ा रहा है। असल में बहन मायावती को बुद्धिजीवी नहीं, भक्त चाहिए जो आंख मूंद कर उन्हें वोट दें, भले ही बहन मायावती जी खुद भाजपा के मोदी का प्रचार-प्रसार करने गुजरात चली जायें।
अपने पांच साल के शासन में बहन जी ब्राह्मणवादी चाटुकारों से घिरी रही तथा ब्राह्मणवाद के पसरने का जमीन देती रही। इससे मुसलमान इनसे दूर होते गये और सपा की सरकार बनी, जिसने दलितों का पदोन्नति आरक्षण समाप्त कर हजारों दलितों का पदोन्नति छीन लिया। बहन जी ने ‘हीरा जनम गवायो’। खुद तो सत्ता खोयी ही, बहुजनों को भी डुबो दिया।
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यही नहीं बहन मायावती जी ने बसपा के जमीनी कार्यकर्ताओं (जैसे रामप्रीत जख्मी इत्यादि) के अतिरिक्त अन्य नेताओं जैसे स्वामीप्रसाद मौर्य, नसीमुद्दीन आदि जो कि लम्बे समय से बसपा से जुड़े थे, को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। कई निष्कासित नेता भाजपा की गोद में चले गये क्योंकि कभी ये भाजपा के सहयोग से ही सत्ता सुख भोगे थे। अगर ये बुरे और स्वार्थी लोग थे तो यही लोग आपके साथ वर्षों तक कैसे कार्य किये ? इस बिखराव के लिए सिर्फ और सिर्फ बहन मायावती जी ही जिम्मेवार है। जहां सपा ने दलितों का आरक्षण ख़त्म किया विशेषकर पदोन्नति आरक्षण वहीं बहन मायावती जी ने लोगों को जोड़कर रखने में फिसड्डी साबित हुई। माननीय कांशीराम और उनकी बसपा ने जो गाढ़ी कमाई की उसे बहन मायावती जी इतना जल्दी डुबो देंगी, यह किसी को उम्मीद नहीं थी।
भाजपा फूट डालो और राज्य करो की नीति पर तीव्रता से चल रही है। दलितों और पिछड़ों पर अत्याचार एवं उत्पीड़न की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। अतः इन विषम परिस्थितियों में ‘हवा के विपरीत होने पर भी अपने नाव की पाल कैसे सही दिशा में लगायें’, की रणनीति बहन मायावती जी को विकसित करनी होगी। आत्ममुग्ध और आत्मकेंद्रित तथा आभूषण प्रिय परम्परागत स्त्रियोचित गुणों के स्थान पर प्रगतिशील स्त्रियों के गुणों को अपनाकर उन्हें आइन्स्टीन के ‘समय सापेक्षता’ (अर्थात थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी एवं स्पेशल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी) के सिद्धान्तों को सीखना होगा। अन्यथा वे स्वयं ही बहुजन राजनीति से बाहर हो जाएँगी।
समय कम है और चुनौतियाँ बड़ी, अतः उन्हें अपनी सोच को विस्तारित करते हुए जनमानस से जुड़ना होगा। प्रेम और मैत्री की नई भाषा ईजाद करनी होगी। गौतम बुद्ध की करुणा, प्रज्ञा और संघ की शक्ति में विश्वास करना होगा। छोटे-छोटे हजारों सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों से सहयोग लेना होगा। समान विचारधारा के संगठनों/ पार्टियों से जुड़ना होगा।
समय निष्ठुर होता है लेकिन उनके लिए नहीं जो समय पर नजर रखते हैं और समय के साथ चलते हैं। बहन मायावती जी को अपनी चुनौतियों को पहचानना होगा और अपनी शक्तियों को रेखांकित करना होगा। जनता से अपनी व्यापक नीतियों के बारे में चर्चा कर सभी वर्गों से समर्थन हासिल करनी होगी। तभी वे 2019 के चुनाव को जीत कर बहुजन समाज के हित में कुछ नये अध्याय जोड़ पाएंगी।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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