शहीद जगदेव प्रसाद (2 फरवरी 1922 – 5 सितंबर 1974) और बी. पी. मंडल (25 अगस्त 1918 – 13 अप्रैल 1982) का राजनीतिक संघर्ष
जब बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि ‘गड़ेरिया, नाई, धोबी, बढ़ई, लोहार, कोईरी, कुर्मी, मल्लाह, तेली, चमार आदि संसद में आकर क्या तेल पेरेंगे, हल जोतेंगे, कपड़ा धोयेंगे, जूता बनायेंगे? इनकी संसद में क्या जरूरत है?’ इस हिकारतपूर्ण कथन के विरोध में तभी से देश के दलित-पिछड़ों में एक उभार आरम्भ हुआ और इसकी परिणति के रूप में किसी व्यक्ति का नाम सामने आता है, तो वे हैं शहीद जगदेव प्रसाद। शहीद जगदेव प्रसाद ने देश की धन-धरती, नौकरी, व्यापार से लेकर शासन-प्रशासन में जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी के लिए शंखनाद किया, तो बी.पी. मंडल ने पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष की हैसियत से सिफारिश करके उक्त स्थानों में कानूनी प्रक्रिया को मूर्त रूप प्रदान किया। जगदेव प्रसाद ने इसकी शुरूआत 60-65 के दशक में कर दी थी। जब पिछड़ों-दलितों के हक-हकूक की बात करना लोहे के चने चबाने जैसा था। यह एक युगांतकारी आन्दोलन था।
उक्त महापुरुषों के संघर्ष की चर्चा एक छोटी सी कहानी से करना चाहता हूँ। अब्राहम लिंकन बचपन में जानवर चरा रहे थे। उन्होंने देखा कि नीग्रो की बहू-बेटियों के साथ वहाँ का शासक, जमीन्दार, जार, कुलांक, पूंजीपति अपनी हवस की पूर्ति करता है और उससे जो बच्चे जन्म लेते हैं उसे सरेआम बाजारों में टमाटर की तरह बेच देता है। यह दृश्य लिंकन की छाती पर हथौड़े की भाँति वार करता है। जानवर चराने के क्रम में वह शपथ लेता है, प्रतिज्ञा करता है, कसमें खाता है कि ‘अगर मैं इस धरती पर जिन्दा रहा तो एक दिन अमेरिका की धरती से दास प्रथा (गुलामी) को नेस्तनाबूद कर ही दम लूँगा।’ अमेरिका की राजनीति करवट लेती है, व्यवस्था बदलती है और एक दिन वही जानवर चराने वाला लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर पहुँच जाता है। जैसे ही राष्ट्रपति पद का शपथ लेता है, वैसे ही वह 40 लाख नीग्रो लोगों को गुलामी से मुक्ति की घोषणा करता है । मतलब जो निरादर और दरिद्रता की चोट से चोटिल है, निरादर और दरिद्रता से मुक्ति की मुक्कमिल लड़ाई वही लड़ सकता है।
‘अनकर माल झलकौआ, छिन लिया तो हो गया कौआ’
जब सवर्णों ने बी.पी. मंडल के पिता को भोजन के पांत से उठा दिया
जगदेव प्रसाद का जन्म 2 फरवरी, 1922 को एक साधारण परिवार में होता है, जबकि बी.पी. मंडल का जन्म एक जमींदार घराने में 25 अगस्त, 1918 को होता है। जगदेव प्रसाद जहाँ अपनी पढ़ाई भूखे पेट करते हैं, वहीं बी.पी. मंडल सारी सुख-सुविधाओं से युक्त। मंडल जी के जीवन से संबंधित एक संस्मरण यहाँ पेश करना प्रासंगिक होगा। इलाके में जमींदारों की महती सभा थी, जिसमें भाग लेने मंडल जी के साथ इनके पिता रासबिहारी मंडल गये थे। सभा बाद भोजन की बारी आयी और सभी जमींदार भोजन के लिये पाँत में बैठ गये, रासबिहारी मंडल भी अपने पुत्र के साथ उसी पाँत में जब बैठते हैं, तो सवर्ण जमींदारों में इस स्थिति से भूकंप आ जाता है और पिछड़े जमींदार रासबिहारी मंडल को उस पंक्ति से यह कहकर उठा दिया जाता है कि आप सवर्ण जमींदारों की पंक्ति में बैठने के हकदार नहीं हैं। तब उन्हें पिछड़े (शूद्र) का अहसास होता है और बिना खाना खाये विद्रोह कर वहाँ से चल देते हैं। इस सामाजिक अपमान का गहरा असर उस नन्हे बालक बी.पी. मंडल पर पड़ता है, यही वजह है कि बड़े भू-स्वामी खानदान में पैदा लेने के बावजूद पिछड़ों के लिए उनके सामाजिक विषमता का अध्ययन किया और उनके विकास के लिए हिस्सेदारी की सिफारिशें की।
जगदेव प्रसाद और बी.पी. मंडल के पूर्व डाॅ. राममनोहर लोहिया ने समाजवादी आन्दोलन की शुरुआत की और 60 व 40 का नारा बुलंद किया।
संसोपा ने बाँधी गाँठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ।
राज-काज का साठ प्रतिशत, पिछड़ा वर्ग के हाथ में हो।
उंच जाति जब राज चलावे, देश की रक्षा कैसे हो।
उंची जाति की क्या पहचान, अच्छा खाये करे ना काम।
नीच जाति की क्या पहचान, करे काम पर सहे अपमान।
उक्त नारों से प्रभावित होकर जगदेव प्रसाद ने सोशलिस्ट पार्टी का झंडा अपने हाथ में थाम लिया। आरा (भोजपुर) की एक सभा में जगदेव प्रसाद ने डाॅ. लोहिया से कहा कि ‘लोहिया जी मेरी डायरी में आप लिख दें कि जिनकी बहू-बेटियां खेत-खलिहानों में काम नहीं करती, वह समाजवादी नहीं हो सकता।’
लोहिया की राजनीति से जगदेव बाबू का मोहभंग
डाॅ. लोहिया की समाजवादी दर्शन के अनुसार 60 प्रतिशत पिछड़ा और चालीस प्रतिशत ‘उछड़ा’ की गिनती में आता था। जिन्दगी के हर दौड़ में पिछड़ों का साठ प्रतिशत और उछड़ों का चालीस प्रतिशत हिस्सा था। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और तमाम पिछड़ी जातियां पिछड़े वर्ग में शामिल थीं, तो सवर्ण (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ) उछड़े वर्ग में शामिल थे। लेकिन यह एक दुःखद आश्चर्य था कि उंची जाति की महिलाएँ भी पिछड़े वर्ग में शामिल थीं और उन्हें साठ प्रतिशत हिस्से में शुमार किया गया था, जबकि उंची जाति के पुरुष मात्र चालीस प्रतिशत हिस्से के हकदार थे। यही था समाजवाद का मुख्य दर्शन। जितना समाजवाद का दार्शनिक क्षेत्र में घालमेल था उतना ही व्यवहारिक रूप में भी घालमेल। समाजवाद का यह दार्शनिक सत्य व्यवहारिक रूप में सत्य नहीं उतरा। डाॅ. लोहिया ने एक मजे की बात कही थी कि उंची जाति के लोगों को आर्थिक क्षेत्र में सम्पन्नता और सामाजिक क्षेत्र में सम्मान प्राप्त है। इसलिए वे खाद का काम करें। यानी वे चुनाव नहीं लड़ें और मंत्रिमंडल में भी शामिल न हों। लेकिन डाॅ. लोहिया का यह विचार धरा का धरा रह गया और समान्ती ताकतें साँप की तरह कुंडली मारकर पार्टी पर बैठ गई ।
1967 में विधानसभा और लोकसभा का चुनाव एक साथ हुआ। बिहार विधानसभा के टिकट पर चालीस प्रतिशत के कोटे में बसावन सिंह (भूमिहार) विधानसभा के सदस्य बन गये, तो उनकी पत्नी कमला सिन्हा साठ प्रतिशत के कोटे में विधान परिषद् की सदस्य चुन ली गईं। इसी तरह से लोकसभा के चुनाव में अर्जुन सिंह भदौरिया (राजपूत) चालीस प्रतिशत के कोटे में लोकसभा के सदस्य बने, तो उनकी पत्नी सरला भदौरिया साठ प्रतिशत के कोटे में राज्यसभा की सदस्या चुन ली गईं। पति-पत्नी सौ प्रतिशत पर काबिज हो गये। इसी तरह से पिछड़ों के हिस्से में हकमारी हुई। 1967 में भारत के नौ राज्यों में गैरकांग्रेसी (संविद) सरकारें बनी। बिहार में भी मिलीजुली सरकार बनी, जिसमें सोशलिस्ट, जनसंघ, भारतीय क्रांति दल(भाक्रांद) आदि शामिल थे। 69 सदस्य सोशलिस्ट के थे और 19 भाक्रांद के। परन्तु भाक्रांद के महामाया प्रसाद सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाया गया । मंत्रिमंडल में साठ प्रतिशत मंत्राी उंची जाति के और चालीस प्रतिशत मंत्राी पिछड़ी जाति के बने। यहाँ भी 60-40 के सिद्धांत की हत्या हुई। इस मुद्दे पर जब विवाद हुआ तो यह तय हुआ कि उछड़ों का एक मंत्री हटा दिया जाय और पिछड़ों का एक मंत्री बढ़ा दिया जाय। तब ‘लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर’(अनपढ़) रामानन्द तिवारी पुलिस मंत्री को हटाकर पिछड़ों का एक मंत्री बढ़ा दिया जाय। इस पर कर्पूरी ठाकुर जी ने स्वयं मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने की ध्मकी दे डाली। प्रथम ग्रासे मच्छिकापातः। बड़ी मुश्किल से सोशलिस्टों की सरकार बनी थी, उस पर भी ग्रहण आ गया।
संविद सरकार प्रगतिशील सरकार मानी जा रही थी, परन्तु इस सरकार में दलित, आदिवासी और मुसलमान के बीच से कोई भी मंत्री नहीं बनाया गया था। उक्त स्थिति के खिलाफ जगदेव प्रसाद का विद्रोही मन विद्रोह कर बैठा। इस मुद्दे पर जगदेव बाबू डाॅ. लोहिया से बात करने दिल्ली गये, परन्तु उनके सचिव उर्मिलानन्द झा ने मिलने से रोक दिया।
शोषित दल का गठन
जगदेव प्रसाद 1967 में संसोपा के टिकट पर कुर्था विधानसभा से 17,000 मतों से कांग्रेसी उम्मीदवार सुखदेव प्रसाद वर्मा को हराकर विधनसभा पहुंचे थे। समाजवादी पाटी के 60-40 की नीतियों की हत्या के खिलापफ 25 अगस्त, 1967 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हाॅल में देश के तमाम दलित, पिछड़े, समाजवादियों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन प्रखर समाजवादी शिवपूजन शास्त्राी की अध्यक्षता में जगदेव बाबू ने आयोजित की और उसी सभा में उन्होंने सामंती राजनीति के खिलाफ घोषणा की कि ‘उंची जाति वालों ने हमारे बाप-दादों से राजनीतिक हरवाही(खेत जोतवाना) करवायी है, मैं उनकी राजनीतिक हरवाही करने के लिए पैदा नहीं लिया हूँ। मैं तमाम नब्बे प्रतिशत दलित, आदिवासी, मुसलमान और पिछड़े लोगों को एक मंच पर खड़ा करूंगा और उनके बीच से नेतृत्व पैदा कर दिल्ली की गद्दी पर बैठाउंगा, जो धरती-दौलत, नौकरी-टोपरी, बिजनेस-व्यापार, कल-कारखना, शासन-प्रशासन में जनसंख्या के अनुपात में हिस्सेदारी की गारंटी का बंटवारा स्वयं करेंगे, जिसे दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं सकती।’ इस लड़ाई का शंखनाद करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि ‘आज मैं एक क्रांतिकारी पार्टी की नींव डाल रहा हूँ, जिसमें आने और जाने वालों की कमी नहीं होगी। हमारी लड़ाई सौ साल की होगी । इस लड़ाई में पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेंगे, दूसरी पीढ़ी के जेल जायेंगे और तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे । जीत अंततोगत्वा हमारी होकर रहेगी।’ इसे उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा कि भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों पर उंची जाति का नेतृत्व है। दलित-पिछड़ों के तथाकथित नेता उन सवर्ण प्रधान दलों में गुलामी का काम करते हैं, बनिहारी करते हैं। अंतर केवल इतना ही है कि गाँव का मजदूर एक सेर अनाज पर जमींदार की हरवाही करता है और दलित-पिछड़ों के नेता एक कार और एक बंगला पर पटना-दिल्ली में उंची जाति की हरवाही करते हैं। दल की नीति-निर्धारण में इनकी कोई भूमिका नहीं होती। ऐसे सवर्ण प्रधान दलों के नेता, दलितों-पिछड़ों के मतों से चुनाव जीतकर जब कानूनघरों ;विधानसभा, लोकसभा में जाते हैं तो कानून अपने वर्ग हित में बनाते हैं, इसीलिए दलितों-पिछड़ों का विकास यहाँ अवरूद्ध है ।
जगदेव प्रसाद ने कहा कि भारत का समाज दो भागों में बंटा है – शोषक और शोषित। शोषक उंची जाति के तमाम लोग हैं और शोषित दलित, आदिवासी, मुसलमान और तमाम पिछड़े वर्ग के लोग। 10 प्रतिशत शोषक है और नब्बे प्रतिशत शोषित। 10 प्रतिशत शोषक बनाम 90 प्रतिशत शोषित की लड़ाई इस देश में समाजवाद और कम्युनिज्म की असली लड़ाई है और यही असली वर्ग संघर्ष है। दुनिया में जितनी लड़ाईयां हुई हैं वह शोषक और शोषित के बीच हुई हैं। 10 प्रतिशत उंची जाति सम्पन्न और सम्मानित है तो 90 प्रतिशत शोषित विपन्न और अपमानित। भारत में वर्ण ही वर्ग बन गया है। इसलिए जबतक वर्ण टूटेगा नहीं, तबतक वर्ग नहीं बन सकता और बिना वर्ग बने, वर्ग संघर्ष नहीं हो सकता। यहां 10 वर्ष का ब्राह्मण उंच है और सौ वर्ष का दलित-पिछड़ा नीच है। यहां की पूजित हिन्दू पोथी फतवा देती है।
‘पूजिये विप्र शील गुण हीना, शूद्र न गुणगन ज्ञान प्रवीणा।’
इसी हुंकार के साथ ‘शोषित दल’ नामक राजनीतिक दल का गठन किया और 90 प्रतिशत लोगों को एकता के सूत्र में बांधने का संघर्ष छेड़ दिया और नारा दिया –
सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है।
धन-धरती और राज-पाट में, नब्बे भाग हमारा है।
दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।
दो बातें हैं मोटी-मोटी, हमें चाहिए इज्जत-रोटी।
साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों से दुनिया बर्बाद।
मिटे गरीबी और अमीरी, मिटे चाकरी और मजबूरी।
समता बिना समाज नहीं, बिन समाज जनराज नहीं।
उन्होंने साम्यवादी दलों को भी ललकारा और कहा कि इन दलों पर भी सवर्णों और सामंतों का कब्जा है। सर्वहारा की लड़ाई लड़ने वाला सर्वहारा का दुश्मन ही सर्वहारा की लड़ाई का नेतृत्व कर रहा है। इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि जिस तरह मांस की रखवाली कुत्ता नहीं कर सकता, उसी तरह गरीब की भलाई अमीर नहीं कर सकता। जबतक भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव नहीं होगा, तबतक राजनीतिक और आर्थिक बदलाव नहीं हो सकता।
जब जगदेव बाबू ने महामाया प्रसाद सिंह को दी सरकार गिराने की चुनौती
1967 में बिहार में अकाल पड़ गया और जगदेव बाबू ने मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा से गरीबों की जान बचाने के लिए मुफ्त में अनाज मुहैया कराने का प्रस्ताव रखा। इसपर उन्होंने इन्कार कर दिया तब जगदेव प्रसाद ने सिंह गर्जना की –
‘एक महीने के अन्दर में, तोड़ूं महामाया सरकार,
गर ना तोडूं महामाया को, तो फिर जीने को धिक्कार।’
जगदेव बाबू ने तमाम दलित-पिछड़े विधायकों की एक बैठक बुलाकर महामाया सरकार को दलित-पिछड़ों का दुश्मन करार दिया, जिस पर सारे विधायक सहमत हुए और ठीक एक महीने के अन्दर महामाया सरकार गिर गयी। काँग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया। अब सवाल था कि मुख्यमंत्री कौन बने ? जब यह स्थिति स्पष्ट हुई कि जगदेव प्रसाद के नेतृत्व में नई सरकार बनने जा रही है तो दूसरे-दूसरे दलों के 36 विधयक रातोंरात ‘शोषित दल’ में शामिल हो गये। बी.पी. मंडल को मुख्यमंत्री बनाने पर सहमति हुई। परन्तु उन दिनों मंडल जी सांसद थे और काँग्रेस से त्यागपत्र देकर सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये थे। बी.पी. मंडल को मुख्यमंत्री का शपथ लेने में तीन दिन की तकनीकी अड़चन थी।
इस तीन दिन के लिए ऐसे नेता को मुख्यमंत्री बनना था, जो तीन दिन के बाद त्यागपत्र दे दे, ताकि बी.पी. मंडल शपथ ले सकें। इस सरकार गठन के मुख्य सूत्रधार जगदेव बाबू थे। जगदेव बाबू को मुख्यमंत्री बनाने की राय बन गई, पर रामलखन सिंह यादव को यह रास नहीं आया। तब सतीश प्रसाद सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया और तब जगदेव बाबू ने बी.पी. मंडल को सोशलिस्ट पार्टी से त्यागपत्र दिलवाकर ‘शोषित दल’ में शामिल कराकर विधान परिषद् का मेम्बर बनाया और तब 1 फरवरी, 1968 को बी.पी. मंडल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। जगदेव बाबू द्वितीय स्थान पर नदी घाटी, बिजली, सिंचाई मंत्री बनाये गये। सतीश प्रसाद सिंह ने 29 जनवरी, 1968 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। भारतीय इतिहास में पहली बार पिछड़े वर्ग के मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह और बी.पी. मंडल को बनाने का सारा श्रेय शोषित इन्कलाब के लेनिन जगदेव प्रसाद को जाता है। सदन में 319 विधायकों में 148 के मुकाबले 165 मतों से मंडल जी ने विश्वास प्राप्त किया। पांच विधायकों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया।
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मंत्री बनते ही चलाया पद हड़पो अभियान
शोषित दल की सरकार बनते ही जगदेव बाबू ने ‘पद हड़पो अभियान’ चलाकर दलित-पिछड़े अधिकारियों को पदोन्नति देकर उंची कुर्सी पर बैठाया। इसी क्रम में आर.एस. मंडल को मुख्य सचिव, आर. लाल को आईजी, और जेड.एस. हक खान को बिजली विभाग का चेयरमैन बनाकर सवर्णों को अपनी ताकत का एहसास कराया। 45 दिन की सरकार में गरीबों के लिए मुफ्त विलायती दूध, दलिया और रोटी की नदियाँ स्कूलों में बहने लगी। यह था जगदेव बाबू का गरीबों के प्रति ममत्व। पांच वर्षों तक लगातार उंची जाति के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी सपना हो गयी। दारोगा प्रसाद राय, भोला पासवान शास्त्राी, कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री की कुर्सी को सुशोभित किया। इसी दरम्यान जगदेव बाबू ने पाँच एकड़ वाले छोटे किसानों की मालगुजारी माफ की। उक्त सभी पिछड़े व गरीबों के पक्ष में किए गये काम से सवर्णों की छाती पर साँप लोटने लगा। विनोदानन्द झा ने 12 विधायकों का एक गुट बनाकर समर्थन वापस ले लिया जिससे 18 मार्च, 1968 को ‘शोषित दल’ की सरकार गिर गयी। बी.पी. मंडल पुनः कांग्रेस में चले गये। पुनः जगदेव बाबू ने ‘हिन्दुस्तानी शोषित दल’ का गठन करके अपना आन्दोलन जारी रखा।
‘नदी नर्मदा जब-जल गरजे, औ गंगा की गरजे धार ।
जगदेव गरजे जब भारत में, भय से काँपे ला भूमिहार ।
डोले सिंहासन तब इन्दिरा के, भइया दिल्ली के दरबार ।
बेटा जाग गइल शोषित का, अब लेगा अपना अध्किार ।
बिन अधिकार लिये न छोड़ी, चाहे बहे खून की धार ।’
रामस्वरूप वर्मा के साथ मिलकर बनाया शोषित समाज दल
जगदेव बाबू ने पार्टी का विस्तार किया और 7 अगस्त, 1972 को पटना के विधायक क्लब में विश्व के महान मानववादी विचारक, अर्जक संघ के संस्थापक और उत्तर प्रदेश के पूर्व वित्त मंत्राी महामानव रामस्वरूप वर्मा और शोषित क्रान्ति के महान अग्रदूत शहीद जगदेव प्रसाद के संयुक्त नेतृत्व में कई दलों को मिलाकर ‘शोषित समाज दल’ नामक राजनीतिक दल का गठन हुआ, जिसमें समाज दल, शोषित दल, रिपब्लिकन पार्टी, सेवा दल, समता दल आदि का विलय हुआ, जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष रामस्वरूप वर्मा और महामंत्राी जगदेव प्रसाद बनाये गये । 5 सितम्बर से 11 सितम्बर, 1974 तक बिहार के सभी प्रखंडों पर इन्दिरा शाही के खिलाफ सात सूत्री मांगों को लेकर जेल भरो अभियान (सत्याग्रह) छेड़ा गया, जिसकी मुख्य माँगें थी
- 6 से 14 वर्ष के लड़के-लड़कियों के लिए अनिवार्य, एक समान, राष्ट्रीयकृत, मुफ्त और मानववादी शिक्षा लागू की जाय
- सभी नागरिकों को फोटो वाला पहचान पत्र जारी करके मतदान अनिवार्य किया जाय।
- देश के सभी पुस्तकालयों में डाॅ. आंबेडकर साहित्य अनिवार्य रूप से अविलंब लागू किया जाय।
- तमाम दलित भूमिहीनों को इंसानी बस्ती में बसाकर व रोजगार की गारंटी देकर निरादर व दरिद्रता का नाश किया जाय।
- जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण लागू किया जाय।
- सात वर्षों के अन्दर सभी असिंचित भूमि की सिंचाई की गारंटी की जाय और खेती व कारखाने से उत्पादित वस्तुओं की कीमत में समानुपात कायम किया जाय।
- मजदूरी अधिनियम तथा बटाईदारी बिल लागू किया जाय।
बिहार के सभी नेताओं को अपने-अपने प्रखंडों पर जिम्मेवारी सौंपी गई, जिसमें इस लेख के लेखक को को दाउदनगर में नेतृत्व दिया गया। जगदेव बाबू ने कुर्था प्रखंड की जिम्मेवारी स्वयं ली। सवर्णों ने इसी बीच हत्या की साजिश रचकर शासन-प्रशासन को प्रभावित करके उंची जाति के पुलिस पदाधिकारियों को कुर्था में स्थापित करवाया। 5 सितम्बर, 1974 को काँग्रेसी हुकूमत की गोली से जगदेव बाबू की निर्मम हत्या कर दी गयी। उनके साथ दलित छात्र लक्ष्मण चौधरी भी शहीद हो गये।
जगदेव बाबू के बताये रास्ते पर चल रहा शोषित समाज दल
उच्च वर्णीय और उच्च वर्गीय नेतृत्व को नकार कर निम्न वर्णीय और निम्न वर्गीय नेतृत्व का सृजन करने के लिए शोषित समाज दल आज भी संघर्षरत है। इस संघर्ष को मंजिल तक पहुँचाने में गोपाल मेहता, प्रह्लाद मेहता, लक्ष्मण मेहता (औरंगाबाद), डाॅ. मस्तराम देहाती (बरेली), भगवान दीन (बस्ती), द्वारिका प्रसाद (झारखंड) आदि ने अपनी कुर्बानी दी है। भारत के सभी दलों के दलित-पिछड़े नेता सवर्णों के नेतृत्व में दलितों-पिछड़ों के विकास की लड़ाई लड़ना चाहते हैं जो विज्ञान और दर्शन के विपरीत है। दलितों-पिछड़ों की सही लड़ाई शोषित समाज दल निश्चित नीति, सिद्धांत और कार्यक्रमों के द्वारा मजबूती से लड़ रहा है और बाबा साहेब डाॅ. आंबेडकर, जोती राव फुले, रामास्वामी नायकर, रामस्वरूप वर्मा, ललई सिंह यादव, शहीद जगदेव प्रसाद आदि के सपनों को साकार करने के लिए प्रतिबद्ध है।
आज भी जारी है नब्बे फीसदी वालों का शोषण
बाबा साहेब डाॅ. अांबेडकर ने संविधान की धारा 15, 15(4), 16, 16(4), 340 आदि में दलितों-पिछड़ों के चतुर्मुखी विकास के लिए अधिकार दिया, जिसके तहत पंडित काका कालेलकर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन 1953 में हुआ, परन्तु इसे ठंढे बस्ते में डाल दिया गया, जबकि 1955 में ही पंडित कालेलकर ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी। 1977 में जब आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी, इसके पूर्व कालेलकर की रिपोर्ट लागू करने का वादा चुनाव में किया गया था। सरकार बनने पर जब इसपर चर्चा हुई तो प्रधनमंत्री मोरारजी देसाई ने इसे 40 वर्ष पुराना बताकर लागू करने से इन्कार कर दिया। 1955 में गुलजारी लाल नंदा और मोरारजी देसाई ने इसे रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक बताया था। बड़ी जद्दोजहद के बाद 1 जनवरी, 1979 को पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया गया, जिसके अध्यक्ष बी.पी. मंडल बनाये गये। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर का दौरा करके दलितों-पिछड़ों की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक स्थिति का जायजा लिया और अपनी रिपोर्ट दिसम्बर, 1980 में पेश कर दी, जिसमें 52 प्रतिशत आबादी वाले पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की, जिसे बी.पी. सिंह की सरकार ने अगस्त, 1990 में लागू करने की घोषणा कर दी। घोषणा होते ही देश के सवर्णों ने धरती को माथे पर उठाकर हिंसक आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया, जिसमें अरबों-खरबों की संपत्ति की हानि हुई। इसके बावजूद 16 नवम्बर, 1992 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की घोषणा की स्वीकृति प्रदान कर दी।
आज यह विचारणीय प्रश्न है कि 52 प्रतिशत आबादी को 27 प्रतिशत आरक्षण ही क्यों ? किसी को भूख लगी है और उसे चाय पिलाकर छोड़ दिया जाय तो उसका स्वास्थ्य कितना मजबूत होगा ? इसके पूर्व पंडित कालेलकर की रिपोर्ट में शिक्षा, मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि में 70 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश थी। शोषित समाज दल ने हिसाब लगाया था कि दलित-पिछड़े अभ्यर्थी प्रतियोगिता में 20 प्रतिशत कम-से-कम स्थान प्राप्त करेंगे। इस तरह 90 प्रतिशत आबादी को नब्बे प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हो जायेगा। तत्कालीन सवर्ण प्रधान सरकार ने इसीलिए इसे लागू नहीं किया था। बी.पी. मंडल की रिपोर्ट के हिसाब से 22.5 दलित और 27 पिछड़ों के आरक्षण मिलाकर कुल 49.5 होता है, जो न्याय नहीं कहा जा सकता है। इसके बाद भी वी.पी. सिंह और नरसिम्हा राव में एक गोपनीय मशविरा के बाद क्रीमीलेयर लगाकर दलितों-पिछड़ों के विकास को अवरूद्ध करने की नापाक साजिश हुई। दलित, पिछड़ों के तथाकथित नेता इस साजिश से अंजान होकर वी.पी. सिंह की जय-जयकार कर रहे हैं, जो घोर चिन्ता का सवाल है। शहीद जगदेव प्रसाद ने स्पष्ट कहा था कि नब्बे प्रतिशत शोषितों की आबादी है और सभी महकमों में नब्बे प्रतिशत हिस्सा चाहिए, यही सही सामाजिक न्याय है और अगर इससे कम मिलता है तो यह घोर अन्याय है।
यह चिंतनीय सवाल है कि दलितों की प्रोन्नति में आरक्षण को लेकर पिछड़े वर्गों में काफी आक्रोश है। सचमुच में यह सवर्णों की साजिश है, जिसे पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवी नजरअंदाज कर रहे हैं और इसका असली फायदा सवर्ण उठा रहे हैं। यही वजह है कि जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की लड़ाई बाधित हो रही है। शहीद जगदेव प्रसाद ने तमाम दलित-पिछड़े, अल्पसंख्यकों को मूल्यों की राजनीति के आधार पर एक मंच पर एकजुट करके जनसंख्या के अनुपात में सभी वर्गों की हिस्सेदारी की गांरटी करना चाहते थे। इसी मुद्दे पर उनकी निर्मम हत्या की गई।
जगदेव प्रसाद का अटल सत्य
आजकल जगदेव बाबू की जयंती और शहादत दिवस का धूम मच गया है। उनके गले में तो माला पहनाया जा रहा है और विचारों पर ताला लगाया जा रहा है। उनक गले में माला पहनाने वाले लोग उनके विचारों से या तो वाकिफ नहीं हैं, या जातीय भावना से प्रेरित होकर उनका नाम लेकर विचारों के साथ घात कर रहे हैं, जो घोर निंदनीय है। जो भाजपा, काँग्रेस, राजद, लोजपा, सपा बसपा आदि के लोग हैं वे जगदेव बाबू का नाम तो लेते हैं, परन्तु अपने-अपने दल के आकाओं के नियंत्रण में रहकर ही काम करते हैं। ऐसा करके जगदेव बाबू के विचारों को वे भ्रमित कर रहे हैं। शोषित समाज दल कठिन कुर्बानी देकर संघर्ष कर रहा है और जगदेव बाबू के सिद्धांतों, नीतियों का यही सही वाहक है। जगदेव बाबू के विचारों से अगर कोई सहमत है, तो उन्हें शोषित समाज दल को मजबूती प्रदान करना चाहिए। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। जो जगदेव बाबू के विचारों के वाहक हैं, उनसे विनम्र निवेदन है कि उनकी नीतियों, सिद्धांतों, कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुँचावें। अपनी आने वाली पीढ़ी को इतना शिक्षित और प्रशिक्षित कर दें कि आनेवाला वह शोषकों की छाती पर लाती देकर अपना हिस्सा प्राप्त कर ले। इसे दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं सकती। जगदेव बाबू की लड़ाई तभी सफल होगी, जब उनके अनुयायी दस प्रतिशत सवर्णों, सामन्तों, पूँजीपतियों, साम्प्रदायियों से अपना संबंध विच्छेद कर लें, तभी जगदेव बाबू के गले में माला डालने के असली हकदार हो सकते हैं, वरना आनेवाली पीढ़ी उन्हेें निश्चित रूप में थूकेगी। संघमुक्त भारत बनाने की लड़ाई संघ की मलाई खाकर ही लोग लड़ना चाहते हैं, जो भारी धोखा है। इनसे सावधान रहने की जरूरत है।
शहीद जगदेव प्रसाद का अटल सत्य आज भी प्रासंगिक है –
‘जब तक जियब नाहीं चली, केहू के जमींदारी।
हम ना करब राजनीति में, शोषक के बनिहारी।।’
(कॉपी संपादन : नवल)
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