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पदोन्नति में आरक्षण, एससी-एसटी एक्ट और सवर्ण आरक्षण पर यह राय रखते हैं एनडीए के दलित मंत्री

महाराष्ट्र में दलित आंदोलन की राजनीति से निकले रामदास आठवले अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। एससी-एसटी एक्ट को लेकर भड़के सवर्णों की परवाह न करते हुए उन्होंने एक बार फिर पदोन्नति में आरक्षण को लेकर बड़ा बयान दिया है।

प्रमोशन में आरक्षण के लिए अदालत का इंतजार नहीं करेगी सरकार, बनाएगी कानून : रामदास आठवले

केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास आठवले का कहना है कि पदोन्नति में आरक्षण के लिए नरेंद्र मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार नहीं करेगी। वह इसके लिए नया कानून बनायेगी। आठवले का यह कहना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट 12 वर्षों पहले एम. नागराज मामले में दिये अपने फैसले की समीक्षा कर रही है। साथ ही हाल ही में संपन्न हुए मानसून सत्र में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलते हुए एससी एसटी एक्ट संशोधन विधेयक पारित कराया। दलित शब्द पर प्रतिबंध के खिलाफ भी आठवले लगातार बोल रहे हैं।

उनसे दलित शब्द पर प्रतिबंध, आरक्षण, एससी, एसटी एक्ट आदि के मुद्दे पर फारवर्ड प्रेस के लिए संजीव चंदन की बातचीत की। प्रस्तुत है प्रमुख अंश :  

प्रमोशन में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ सुनवाई कर रही है। आप इसे किस रूप में देखते हैं?

अदालत एम. नागराज मामले में अपने ही फैसले की समीक्षा कर रही है। यह अदालत का काम है। हमारी सरकार अदालत के फैसले का इंतजार नहीं करेगी। जैसे एससी एसटी एक्ट को लेकर संशोधन विधेयक पारित कराया गया, वैसे ही सरकार द्वारा अगले सत्र में विधेयक पेश किया जायेगा ताकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण मिल सके।

  • दलितों को प्रमोशन में आरक्षण के लिए  विधेयक लाएगी सरकार

  • दलित शब्द कोर्ट के द्वारा लगाया प्रतिबंध उचित नहीं

  • दलित साहित्य और दलित-विमर्श को खारिज करना गलत

  • एससी-एसटी एक्ट नहीं बदलेगा,  संसद की सर्वोच्चता का आदर करें विरोधी

तो क्या आप सच में अदालत जा रहे हैं दलित शब्द पर प्रतिबंध के लिए अपनी ही सरकार के एक मंत्रालय के निर्णय के खिलाफ?

दलित शब्द पर प्रतिबंध उचित नहीं है। हरिजन शब्द को लेकर लंबा विरोध रहा था और इसलिए उस शब्द को प्रतिबंधित किया गया। लेकिन दलित शब्द को लेकर ऐसा कोई विरोध नहीं रहा है। दलित पैंथर ने जब इस नाम को अपनाया तो इसे परिभाषित भी किया गया-अनुसूचित जाति जनजाति, अल्पसंख्यक, महिला सहित समाज का हर वंचित वर्ग इसके दायरे में शामिल हुआ था, वे सब, जो झुग्गी-झोपड़ी में रहने को विवश हैं, गरीब हैं, बेरोजगार हैं, पिछड़े हैं सब इसमें शामिल हैं।

लेकिन आपके अपने ही मंत्रालय ने इस शब्द के इस्तेमाल को रोकने के लिए अन्य मंत्रालयों और राज्यों को निर्देश भेजे हैं।

वह निर्देश कार्यालयों में इस्तेमाल को लेकर जारी हुआ था। हालांकि सारे मसले की जड़ में बॉम्बे हाई कोर्ट के नागपुर बेंच का जून में आया एक आदेश है। कुछ लोगों ने नागपुर में याचिका दाखिल कर इस शब्द के इस्तेमाल पर प्रतिबंध की मांग की थी। महाराष्ट्र के कुछ लोगों को लगता है कि जब 1956 में हम बौद्ध हो गये तो दलित कैसे हैं। इसी विचार से प्रेरित होकर याचिका दाखिल की गयी थी। महाराष्ट्र सरकार ने चूंकि याचिकाकर्ताओं के पक्ष में अपना मंतव्य दिया तो न्यायालय ने भी ऐसा आदेश जारी कर दिया। इसके खिलाफ ही हम सुप्रीम कोर्ट जाने का विचार कर रहे हैं। आज जगह-जगह दलित-विमर्श के पढ़ाई हो रही है। विश्वविद्यालयों में विभाग हैं, दलित साहित्य है-इन सबको एक बार में खारिज कर देना ठीक नहीं है।

  • गरीब सवर्णों को मिले 25 प्रतिशत आरक्षण

  • सवर्ण आरक्षण में शामिल हों जाट, पटेल, मराठा, ब्राह्मण आदि जातियों के गरीब

  • आर्थिक नहीं, सामाजिक (जाति) के आधार पर ही हो आरक्षण

तो क्या सरकार के लोग भी हर मसले पर न्यायालय की राह ही पकड़ेंगे?

जब सारे निर्देशों की जड़ में न्यायालय है तो समाधान भी तो वहीं होगा, उससे ऊपर की अदालत में।

अभी तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आप-सबने संसद से बदल दिया, एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट के फैसले को। लेकिन संसद से बने कानून के खिलाफ भी अब कुछ लोग दुबारा सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए हैं।

जो लोग अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार अधिनियम के कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गये हैं उन्हें समझना चाहिए कि यह संभव नहीं है। संसद सर्वोच्च है। उसका आदर करना चाहिए। जो लोग इसकी खिलाफत कर रहे हैं उन्हें समाज में जागृति लानी चाहिए कि वे दूसरों पर अत्याचार न करें। अत्याचार नहीं होगा तो स्वतः क़ानून की जरूरत भी नहीं होगी।

यह भी पढ़ें : क्रिकेट ही नहीं, खेल के हर विधा में मिले आरक्षण : आठवले

आप आरक्षण को लेकर भी सामाजिक न्याय की आम अवधारणा के खिलाफ जाकर सवर्णों के लिए आरक्षण की बात कर रहे हैं इन दिनों।

नहीं, ऐसा नहीं है। यह सामाजिक न्याय के खिलाफ नहीं है। मैं कहता हूँ कि ‘एससी-एसटी, ओबीसी को पहले से मिल रहे आरक्षण को बिना छेड़े हुए आरक्षित कोटे को 25 प्रतिशत और बढ़ा देना चाहिए। यह सामाजिक न्याय के खिलाफ नहीं है। बढे हुए 25 प्रतिशत में जाट, पटेल, मराठा से लेकर ब्राह्मण जातियों के गरीबों को आरक्षण दे देना चाहिए, बचे 25 प्रतिशत  में खुली स्पर्धा हो। इससे पहले से मिल रहे आरक्षण को लेकर लोगों की धारणा बदल जायेगी और समाज में आये दिन होने वाले तनाव में कुछ कमी आयेगी।

लेकिन इससे आरक्षण का आर्थिक आधार हो जायेगा?

नहीं, आरक्षण का आधार जाति ही होगी। आज भी ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर प्रावधान है। यानी समाज में हर समूह में गरीब हैं, वंचित हैं उन्हें राज्य से मदद मिलनी ही चाहिए।

(कॉपी-संपादन : एफपी डेस्क/रंजन)


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लेखक के बारे में

संजीव चन्दन

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। संपर्क : themarginalised@gmail.com

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