राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1818 में तेलुगू भाषी नियोगी ब्राह्मण परिवार में हुआ, सर्वपल्ली की उपाधि उन्हें उनके पूर्वजों से मिली। उनके पूर्वज आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले से 15 मील दूर सर्वपल्ली गांव में रहते थे। सर्वपल्ली राधाकृष्णन को दर्शन के क्षेत्र में प्रसिद्धि 1923 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ से मिली। इसी किताब पर साहित्यिक चोरी का इल्जाम भी लगा। उस वक्त राधाकृष्णन कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। शोध-छात्र जदुनाथ सिन्हा ने उनके ऊपर साहित्यिक चोरी का आरोप लगाया। मामला यह था कि जदुनाथ सिन्हा ने पीएचडी डिग्री के लिए ‘भारतीय दर्शन’ नामक अपने शोध को 1921 में तीन परीक्षकों क्रमशः डाॅ. राधाकृष्णन, डॉ. ब्रजेंद्रनाथ सील व डाॅ. बी. एन. सील के समक्ष प्रस्तुत किया। वे अपनी पीएचडी डिग्री की प्रतीक्षा करने लगे। जदुनाथ सिन्हा ने बारी-बारी से तीनों परीक्षकों से संपर्क कर डिग्री रिवार्ड किए जाने पर विलंब होने की वजह जाननी चाही।
डॉ. ब्रजेंद्रनाथ सील व डाॅ. बी. एन. सील ने कहा कि धैर्य रखो राधाकृष्णन उसके परीक्षण में व्यस्त हैं। तुम्हारा शोध वृहद् है। दो भागों में तकरीबन 2000 पृष्ठों का होने की वजह से समय लग रहा है। इसी बीच डॉ. राधाकृष्णन ने आनन-फानन में लंदन से इस पीएचडी को पुस्तक के रूप में अपने नाम से प्रकाशित करा लिया और पुस्तक छपते ही जदुनाथ सिन्हा को पीएचडी की डिग्री भी उपलब्ध करा दी। पुस्तक जैसे ही बाजार में आई, जदुनाथ सिन्हा को सांप सूंघ गया और वह अपने को ठगा महसूस करने लगे। राधाकृष्णन की किताब उनकी पीएचडी की हूबहू कॉपी थी।
जदुनाथ सिन्हा भी हार मानने वालों में नहीं थे। न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाकर राधाकृष्णन कृष्ण पर 20000 रूपए का दावा ठोक दिया। इसके बदले में राधाकृष्णन ने भी जदुनाथ पर एक लाख का मानहानि का दावा कर दिया। डाॅ. ब्रजेन्द्रनाथ सील राधाकृष्णन की ताकत और प्रभाव से परिचित थे। वे उनके खिलाफ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाए। परंतु जैसे ही जदुनाथ सिन्हा ने डाॅ. बी. एन. सील के यहां 1921 में प्रस्तुत की गई अपने शोध की प्राप्ति रसीद न्यायालय में प्रस्तुत किया, सच्चाई सामने आ जायेगी यह सोच कर राधाकृष्णन घबड़ा गए। विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दोनों लोगों के बीच मध्यस्थता किया और न्यायालय से बाहर समझौता कराया। राधाकृष्णन ने जदुनाथ सिन्हा को 10000 रूपए देकर समझौता किया ।
राधाकृष्णन ने 1921 में जब मैसूर से आकर कलकत्ता विश्वविद्यालय में कार्यभार संभाला तभी से उनके ज्ञान व प्रतिभा पर उंगलियां उठने लगी थी। उनकी प्रतिगामी सोच छात्रों को पसंद नहीं आती थी। अंग्रेजी और बांग्ला भाषाओं पर इनकी ढीली पकड़ के चलते उन्हें छात्र – छात्राओं के बीच शर्मिंदा होना पड़ता था। जिस व्यक्ति की सबसे प्रसिद्ध किताब पर ही साहित्यिक चोरी का आरोप लगा हो और यह आरोप साबित भी हुआ हो, उस व्यक्ति के नाम पर शिक्षक दिवस मनाने का औचित्य क्या है? जहां तक उनकी दार्शनिकता का प्रश्न है, डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब जाति के विनाश में राधाकृष्णन के दार्शनिक तर्कों के औचित्य पर गंभीर प्रश्न उठाया है।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)
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