(संपादकीय स्पष्टीकरण : फारवर्ड प्रेस ने महिषासुर दिवस पर आयोजित कार्यक्रमों व इससे संबंधित मुद्दों पर निरंतर सामग्री प्रकाशित की है, तथा इससे संबंधित पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं। महिषासुर बहुजन के पुरखा नायक हैं। पुरखा-नायकों के सम्मान की परंपरा में मूर्तिपूजा का स्थान नहीं रहा है। इसलिए हम मानते हैं कि इन नए आयोजनों को संकल्प सभा-गोष्ठियों के रूप में किया जाना चाहिए, जिसमें मूर्ति पूजा का पूर्ण निषेध शामिल हो, महिषासुर दिवस को मनाए जाने संबंधित सामग्री यहां देखें – महिषासुर शहादत दिवस : जिज्ञासाएं और समाधान।)
मूलनिवासियों द्वारा अपनी आजादी, आदिवासियों में सांस्कृतिक चेतना जगाने, ब्राह्मणवादियों की गुलामी से मुक्ति महसूस करने की पहल देशभर में व्यापक पैमाने पर हो रही है। देश के कोने-कोने में बड़े पैमाने पर हो रहे सांस्कृतिक आंदोलन मूलनिवासियों में अपने पूर्वजों, आदर्शों और जननायकों के प्रति गर्व महसूस कराने की पहलकदमी कर रहे हैं। अपनी पृथक सांस्कृतिक पहचान कायम करने वाला बंगाल भी इससे अछूता नहीं है।
इस बार जहां एक तरफ सवर्ण दुर्गा की पूजा अर्चना में लगे रहे, वहीं दलित-बहुजनों ने अपने पुरखे महिषासुर को याद किया। मुझे इस बार इसमें स्वयं शरीक होने का अवसर मिला भुवनेश्वर एयरपोर्ट पर कार्यरत मेरे एक मित्र सुसमन चौधुरी की वजह से। उन्होंने ही मुझे मालदा चलकर महिषासुर के सम्मान में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में भाग लेने का आमंत्रण दिया। हमारी टीम चल पड़ी। हम पांच जन थे। मेरी बेटी, मेरी पत्नी और सुसमन चौधुरी दोनों प्राणी।
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कहने की आवश्यकता नहीं है कि लंबे समय से बंगाल में आदिवासियों और पिछड़ों को सवर्णों द्वारा सांस्कृतिक, वैचारिक रूप से गुलाम बनाकर रखा हुआ था। पिछड़ों के आदर्शों, पुरखों को सांस्कृतिक आयोजनों के बहाने सरेआम बेइज्जत किया जाता रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है असुर सम्राट महिषासुर का दुर्गा पूजा के अवसर पर वध प्रदर्शित करना, जिसके खिलाफ अब व्यापक पैमाने पर मुखालफत होने लगी है।
मालदा जाने के क्रम में दुर्गा पूजा के कई पंडाल दिखे। बाजार ने इस आयोजन को भव्य बना दिया है। लेकिन बाजार से अधिक यह समाज का सवाल है। वह समाज जिसमें हम सभी रहते हैं। देश का संविधान भी विविधता का समर्थन करता है। यहां सबको अपनी-अपनी परंपरा के हिसाब से जीवन जीने का अधिकार है। लेकिन सवर्णों द्वारा पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा और उत्तर भारत के राज्यों में दशहरा जैसे आयोजनों के बहाने अनार्यों यानी असुरों के सांस्कृतिक प्रतीकों- महिषासुर और रावण का वध और दहन दर्शाकर, मूलनिवासियों पर गुलामी का बोझ लादने का काम परंपरा के तौर पर किया जा रहा है।
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जाहिर तौर पर सवर्णों द्वारा मूलनिवासियों को गुलाम बनाने का यह कारगर तरीका उनकी सांस्कृतिक और वैचारिक परंपराओं में घुसपैठ कर, उन्हें ध्वस्त करने के इरादों से ही सदियों से अपनाया जाता रहा है। इसीलिए दलित-बहुजन अपने अस्तित्व और स्वाभिमान को भूल ब्राह्मणवादी व्यवस्था के गुलाम बन गए थे। खुद की सांस्कृतिक विरासत को भूलकर सवर्णों की परंपरा अपनाकर वे अपने ही पुरखों के अपमान और पराजय के जश्न में शामिल हो रहे थे।
मगर मुझे खुशी हो रही थी कि अब मूलनिवासी सांस्कृतिक तौर पर जागरूक हो रहे हैं। मालदा जिले के संथाल आदिवासियों ने इस बात को अच्छी तरह से समझकर सवर्णों की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए अपनी खोयी हुई परंपरा, संस्कृति और विरासत की तरफ लौटना शुरू करने के साथ उसे बरकरार रखने का संकल्प ले लिया है। वे समझ गए हैं कि ब्राह्मणों द्वारा स्कूलों का निर्माण करके उनके भोले-भाले, नादान बच्चों को ब्राह्मणवाद का पाठ पढ़ाकर ब्राह्मणवाद को निरंतर जारी रखने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। इसीलिए मूलनिवासियों ने ठान लिया है कि इसका मुंहतोड़ जवाब देने और सवर्णों से गुलामी से मुक्ति के लिए ब्राह्मणवादियों की तर्ज पर ही स्कूलों का निर्माण करके, उनमें बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर, फुले, पेरियार, बिरसा मुंडा, रघुनाथ मुर्मू आदि आदिवासी महापुरुषों की विचारधारा पढ़ाकर अपने बच्चों को आजादी के रास्ते पर चलना सिखाना है।
18 अक्टूबर को मालदा शहर में सुसमन चौधुरी के आवास पर अनुसूचित वर्ग के 25 मूलनिवासियों के एक समुदाय ने असुर स्मरण सभा आयोजित की। इस सभा की शुरुआत में डेविड दास जी ने हुदूड़ दुर्ग के बारे में संक्षेप में जानकारी दी। उसके बाद बाबाई हांसदा, आशीष राय, प्रदीप हाजरा, निर्मल विश्वास, सनातन ऋषि, कानाई लाल मंडल और मैंने भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम में व्यापक पैमाने पर असुर दिवस मनाने की योजनाओं पर बातचीत की गई।
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इसी मालदा में ‘माझी परगणा गावंता’ नामक बहुजन संस्था द्वारा यहां पंडित रघुनाथ मुर्मू के नाम से करीब 20 स्कूलों का निर्माण कर पिछले सात साल से आदिवासियों, पिछड़ों की नई पीढ़ी को पढ़ा-लिखाकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था से मुक्ति दिलाने का रास्ता अख्तियार किया गया है। इससे भी बड़ी बात यह है कि यहां वर्ष 2012 से दलित-बहुजन धूमधाम से अपने आदर्श राजा महान असुर सम्राट हुदुड़ दुर्गा का शहादत दिवस धूमधाम और गर्व से मना रहे हैं।
इसे एक बड़ी सफलता इस मायने में भी माना जा सकता है कि महिषासुर दिवस मनाने का यह सिलसिला सार्वजनिक स्थलों से होते-होते पिछड़ों और आदिवासियों के घर-घर तक पहुंच चुका है। लोग ऐसे आयोजनों के माध्यम से गर्व के साथ सवर्णों के देवी-देवताओं के बजाय अपने पुरखों को पूज रहे हैं। पिछले साल सार्वजनिक तौर पर लगभग सात सौ लोगों ने महिषासुर शहादत दिवस मनाया था। जिनकी संख्या इस साल उम्मीद से कई गुना ज्यादा हो गई थी। यह सब देख यह विश्वास और पुख्ता हुआ कि सांस्कृतिक अस्मिता की जो बुनियाद मूलनिवासी आंदोलन के जरिए शुरु की गयी थी, वह न केवल मजबूत हो रही है बल्कि उसका राष्ट्र व्यापी विस्तार हो रहा है।
मैं पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के अनुसूचित जाति के तहत आने वाले नमोशुद्रा परिवार से हूं। लेकिन मेरा जन्म अविभाजित बिहार के धनबाद में हुआ था। 1986 से में नौकरी के सिलसिले से ओड़िशा में हूं। अब इस कारण मैं बांग्ला, हिंदी और उड़िया के अलावा अंग्रेजी भी लिखता-समझता हूं। मालदा में बांग्ला खूब काम आयी। वहां लोगों से प्रत्यक्ष संवाद हुआ जो अपने पुरखे महिषासुर को याद करने जुटे थे।
यह आयोजन 18 अक्टूबर 2018 को हुआ, जिसमें मैं खुद तो शामिल था ही, मेरा परिवार व मेरे साथी सुसमन चौधुरी का परिवार और कन्हाईलाल मंडल के अलावा रसिक चंद किस्कू थे।
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हम सबसे पहले धुलादिघि पोस्ट आॅफिस के तहत आने वाले श्रीरामपुर गांव पहुंचे। पंडित रघुनाथ मुर्मू स्कूल प्रांगण में संथाल समाज द्वारा महान असुर सम्राट हुदुड़ दुर्ग दिवस मनाया जा रहा था। यहां मैंने पहली बार किसी असुर जाति की मूर्ति यानी अपने पूर्वज की मूर्ति पर माल्यार्पण किया। ‘माझी परगणा गावंता’ के यहां के इकाई सचिव मेघराइ हांसदा ने बताया कि इस बार वे लोग तीसरी बार इसका आयोजन कर रहे हैं। इस मौके पर स्थानीय ग्रामीण जयंती माढी ने आयोजन में अपनी सुरीली आवाज में हुदूड़ दुर्ग यानी असुर सम्राट महिषासुर को समर्पित संथाली गीत सुनाया, जिसने सभी के दिलों को छू लिया।
दसाईं और बुआं एक आदिवासी नृत्य है जिसमें पुरुष स्त्रियों के पोशाक पहन कर नृत्य करते हैं। इसके पीछे माना जाता है कि जब दुर्गा ने छल से उनके राजा हुदुड़ दुर्गा का अपहरण करके वध कर दिया था तब आदिवासी पुरुष स्त्रियों का पोशाक पहन तीर-धनुष से लैस हो उनकी तलाश की थी।
‘माझी परगणा गावंता’ एक संगठन है जिसका गठन माननीय चरन बेसराजी के अथक प्रयास के बाद किया गया है। वे आजीवन ब्राह्मणवादियों द्वारा थोपे जा रहे संस्कृतियों के खिलाफ लड़ने का संकल्प लिया है। उनके प्रयासों के कारण ही इस इलाके के आदिवासियों में सांस्कृतिक चेतना का संचार हुआ और अब उसका स्वरूप हमारी आंखों के सामने था।
यहां धूमधाम से मनाए गए महिषासुर शहादत दिवस के बाद हमारा काफिला बलरामपुर, रलघुटु, अमरिडांगा होते हुए 19 अक्टूबर 2018 की शाम को चाकनगर गांव पहुंचा। चाकनगर गांव में सांस्कृतिक अनुष्ठानों के तहत हमारी मंडली ने कई आदिवासी नृत्य गीतों में सांस्कृतिक प्रतिरोध को भी देखा और अपने पुरखों के प्रति जज्बे को भी।
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यहां के नौजवानों ने ‘शूद्र द राइजिंग’ फिल्म के एक हिस्से का नाट्य रूपांतरण किया। इस प्रदर्शन ने बहुत प्रभावित किया। यह देखकर अच्छा लगा कि मूलनिवासी नौजवान अब हर मोर्चे पर ब्राह्मणवादियों का मुकाबला करने को तैयार हैं। चाकनगर गांव में एक खास बात यह देखने को मिली कि असुरों द्वारा आयोजित कार्यक्रम के ठीक बगल में दुर्गा पूजा का आयोजन भी हो रहा था, लेकिन महिषासुर समारोह की तरफ लोगों का अधिक रुझान था। इसी बीच रास्ते में हमें छोटे-बड़े दर्जनों हुदूड़ दुर्ग कार्यक्रम होते दिखाई दिए।
अगले दिन यानी 20 अक्टूबर 2018 को ‘माझी परगणा गावंता’ की केंद्रीय समिति द्वारा वृहत्तर सभा मालदा जिले के हबीबपुर केंद्र पुकुर हाईस्कूल के मैदान में आयोजित की गई थी। हम जब इस सभास्थल पर पहुंचे, तो यहां के आयोजन व्यवस्था देखकर लगा रहा था कि किसी बड़े राष्ट्रीय स्तर के नेता या मंत्री की सभा होने वाली है। रास्ते भर तैनात तीर-धनुषधारी सेनाएं बड़े सुचारू रूप से वाहनों की आवाजाही पर नियंत्रण कर रही थीं। सभास्थल पर पहुंचने के लिए महिला-पुरुषों के लिए अलग-अलग मार्गों से हमारी मंडली के लाेग अंदर दाखिल हो रहे थे। मुख्य मंच के अलावा और भी कई पंडाल बनाए गए थे। किसी में पंजीकरण, किसी में किताबें, तो किसी में वनौषधियां उपलब्ध थीं। मंच पर नृत्य-गीत का सिलसिला जारी था, जो अहसास करा रहा था कि वाकई हम अपनी खोई हुई सांस्कृतिक पहचान कायम कर रहे हैं।
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यहां पर सबसे अनोखी बात यह दिखी कि मंच पर भाषणबाजी की कोई गुंजाइश नहीं थी, वहां पर केवल संगठन के अध्यक्ष चरन बेसरा जी बैठे थे। उनसे मिलना भी बड़ा कठिन काम था। मैं सोच में पड़ गया था कि उनसे कैसे मिला जाए, लेकिन इंतजार के सिवाय कोई रास्ता न था।
इस आयोजन में मौजूद 8-10 हजार लोगों की भीड़ से पूरा मैदान खचाखच भरा था। इसमें संथाली जनसमुदाय के अलावा बड़े पैमाने पर महतो, राजवंशी और नमोशूद्र लोग भी शामिल थे। एक जगह पर बैठ हमारी मंडली मूलनिवासियों द्वारा प्रस्तुत किये गये सांस्कृतिक कार्यक्रमों का साक्षी बनी। इसके बाद जाकर चरन बेसरा जी का अध्यक्षीय भाषण हुआ। उन्होंने बहुत सारी यथोचित बातें कहीं अपने समाज के लोगों से। उन्होंने कहा कि ‘हमें अगर दुश्मन यानी ब्राह्मणवादी व्यवस्था का मुकाबला करना हैं, तो पहले खुद की संस्कृति की तरफ लौटना पड़ेगा। जिस आंदोलन की शुरुआत हमारे संगठन ने स्कूल निर्माण करके उनमें अपने मूलनिवासी बच्चों को अपने आदर्शों की शिक्षा देकर कर दी है।’
चरण बेसरा जी ने एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही कि ‘हमने असुर को अपना आइकॉन इसलिए बनाया, क्योंकि सवर्ण कभी भी इस नाम को हड़पने की कोशिश नहीं करेंगे। क्योंकि, वे असुरों को हमेशा खलनायक के तौर पर पेश करते रहे हैं। उन्होंने भगवान बुद्ध को भी कहां छोड़ा है। अपने अवतारों की सूची में डालकर बुद्ध को हमसे हड़प लिया है। उन्होंने आह्वान करते हुए कहा कि ब्राह्मणों को सत्ता से बेदखल कर दो, तो वे खुद ही देश छोड़कर भाग जाएंगे।
इस पूरे भव्य आयोजन में ‘माझी परगणा गावंता’ पत्रिका के संपादक अनिल हांसदा के साथ सह संपादक मंटू मुर्मू, मृणाल कांति टुडु, देवतोष हेम्ब्रम तथा मोहन मुर्मू के सराहनीय योगदान रहा।
कार्यक्रम के अंत में मेरी चरन बेसरा जी से मुलाकात हुई। मैंने तहेदिल से उनका शुक्रिया अदा किया और आश्वस्त किया कि मैं ओडिशा, जहां का मैं रहने वाला हूं वहां, के संथाली-मूलनिवासी लोगों के बीच आपके द्वारा शुरू किए गए इस आंदोलन को प्रसारित करने का काम करूंगा। केंद्रीय समिति के प्रोग्राम के दौरान हमारे साथ ओसलो विश्वविद्यालय, नार्वे में महिषासुर पर शोध कर रहीं मौमिता जी ने भी सारे कार्यक्रम का ब्यौरा संग्रहित किया।
(प्रस्तुति : प्रेमा नेगी, कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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