कहै कबीर सुनहु रे संतो भ्रमि परे जिनि कोई।
जस कासी तस मगहर ऊसर हिरदैं राँम सति होई।।[1]
हिन्दी के विद्वानों ने कबीर साहेब की मृत्यु को लेकर भी विवाद पैदा किया है और इस बात को लेकर भी, कि वे अपनी मुक्ति का श्रेय काशी को देना नहीं चाहते थे, इसलिये मगहर जाकर मरे थे। ये विद्वान दरअसल कबीर को समझना ही नहीं चाहते, इसलिये वे भ्रमित ही कर सकते थे। उनका कहना है कि कबीर अन्तिम समय में काशी छोड़कर इसलिये मगहर चले गये थे, क्योंकि वे काशी में मरना नहीं चाहते थे। उनके मगहर जाने के पीछे जो कहानी गढ़ी गयी, वह बाबू श्याम सुन्दर दास के शब्दों में इस प्रकार है।
काशी मोक्षदापुरी कही जाती है। मुक्ति की कामना से लोग काशीवास करके यहां तन त्यागते हैं और मगहर में मरने का अनिवार्य परिणाम या फल नरकगमन माना जाता है। यह अंधविश्वास अब तक चला आया है। कहते हैं कि इसी के विरोध में कबीर मरने के लिये काशी छोड़कर मगहर चले गये थे। वे अपनी भक्ति के कारण ही अपने आपको मुक्ति का अधिकारी समझते थे। उन्होंने कहा भी है
‘जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहिं कहा निहोरा रे।’’[2]
सबसे पहली बात तो यह कि कबीर जैसा वैज्ञानिक चिन्तक अंधविश्वासी हो ही नहीं सकता था। उनके दर्शन में मुक्ति की अवधारणा ही नहीं है वे मरने के बाद के जीवन में परलोक, स्वर्ग-नरक, बैकुण्ठ में विश्वास ही नहीं करते थे। फिर, कबीर ऐसा तर्क देकर अपनी ही मान्यताओं का खण्डन क्यों करेंगे? इस पर विचार करना जरूरी है। इस सम्बन्ध में हमें ‘कबीर ग्रन्थावली’ में उनका यह पद मिलता है
लोका मति के भोरा रे।
जो कासी तन तजै कबीरा, तौ राँमहि कहा निहोरा रे।।
तब हम वैसे अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा।
ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, यूँ ढुरि मिलै जुलाहा।।
राँम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा।
गुर प्रसाद साध की संगति, जग जीते जाइ जुलाहा।।
कहै कबीर सुनहु रहे संतो, भ्रमि परे जिनि कोई।
जस कासी तस मगहर ऊसर हिरदैं राँम सति होई।।[3]
इसमें कबीर ने लोक मत की बात कही है। लोगों के मुंह से सुना होगा कि काशी में मरने पर स्वर्ग मिलता है। लेकिन कबीर यहां यह कह रहे हैं कि यदि कबीर काशी में मरेंगे, तो राम की कृपा कहां हुई? ऊपर की तीनों पंक्तियां लोक मत की हैं, कबीर आगे की पंक्तियों में कहते हैं, हम जैसे थे, वैसे ही हैं, हम इसी जन्म को मानते हैं। जैसे जल में जल मिलने के बाद नहीं निकलता, (जल जल में ही मिल जाता है) वैसे ही यह कबीर जुलाहा भी (तत्वों में) मिल जायेगा, (पुनः नहीं आयेगा) जो राम में ही मिल जायेंगे, उनके लिये कैसा आश्चर्य। गुरु की कृपा और साध की संगति से यह जुलाहा जग को जीतकर जा रहा है। इसलिये, संतों को भ्रमित होने की जरूरत नहीं है, जिनके हृदय में राम है, उनके लिये जैसे काशी है, वैसे ही मगहर है।
उपर्युक्त पद में कबीर ने काशी छोड़कर मगहर जाने की बात कही है। इसका उल्लेख गुरुग्रंथ साहिब में संकलित कबीरवाणी में भी मिलता है। ‘गुरुग्रंथ साहब’ में कबीर के जो पद संकलित हैं, उनमें अनेक पदों की शब्दावली बदली हुई है तथा अनेक पद नये हैं, जो ‘कबीर ग्रन्थावली’ में मौजूद नहीं हैं। ‘गुरुग्रंथ’ का संपादन कबीर की मृत्यु के दो सौ साल बाद, 1604 ई. में गुरु गोविन्द सिंह द्वारा किया गया था। इसलिये, उनमें फेरबदल भी हुआ है और अनेक ऐसे पद भी शामिल किये गये हैं, जो प्रक्षिप्त हैं। ऐसा ही एक प्रक्षिप्त पद यह है
ज्यों जल छोडि़ बाहर भयो मीना।
पूरब जनम हौं तप का हीना।।
अब कहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई थोरी।।
सकल जनम शिवपुरी गवाया।
मरती बार मगहर उठि आया।।
बहुत बरस तप कीया कासी।
मरन भया मगहर को बासी।।
कासी मगहर सम बीचारी।
ओछी भगति कैसे उतरसि पारी।।
कहु गुरु गजि सिव सबको जामै।
मुवा कबीर रमत श्रीरामै।।[4]
यह पद किसी रामानन्दी वैष्णव का गढ़ा हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि ‘श्री राम’ रामानन्द सम्प्रदाय का मन्त्र है।[5] इसमें कबीर की पूरी वैचारिकी की हत्या करते हुए कबीर को काशी छोड़ने पर पश्चाताप करते हुए दिखाया गया है। जैसे जल को छोड़ने के बाद मछली की स्थिति होती है, वही कबीर की काशी को छोड़कर हो रही है। हम पूर्वजन्म में तपहीन थे। अब पता नहीं राम मेरी क्या गति करेंगे? मेरी मति कम हो गयी थी जो मैंने बनारस का त्याग किया। सारा जीवन शिवपुरी (काशी) में गंवाया, अब मरने के समय मगहर क्यों आ गया। बहुत साल काशी में तप किया, फिर मगहर वासी क्यों हो गया? काशी और मगहर तो बराबर हैं, पर ओछी भक्ति से कैसे पार उतरा जायेगा? अब तो ‘श्री राम’ के सहारे ही कबीर मरेंगे।
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जो कबीर पूर्वजन्म, पुनर्जन्म और परलोक में विश्वास नहीं करते, जो जप, तप, पूजा, अर्चना नहीं करते, उनकी कैसी दुर्गति की गयी है, उपर्युक्त पद में! जो कबीर यह कहते हों ‘मन, तू पार उतर कहां जैहों, आगे पंथी पंथ न कोई कूच मुकाम न पैहों’[6], वे कबीर क्या यह चिन्ता कर सकते थे कि काशी छोड़कर कैसे पार उतरेंगे? एक ओर ब्राह्मण विद्वान चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं –
भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाये रामानंद।
परगट करी कबीर ने सात द्वीप नव खंद।।[7]
दूसरी ओर वे ओछी भक्ति करने वाले हो गये। एक गाल से उनकी तारीफ की जा रही है और दूसरे गाल से गाली दी जा रही है। जो कबीर भक्ति का खण्डन करते हों, वे भक्ति क्यों करेंगे?
उपर्युक्त जाली पद का पक्ष लेते हुए द्विज विद्वान पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं –
‘‘कबीर धर्म-परिवर्तन नहीं कर रहे थे, वे कविता में अपना आपा खोलकर रख रहे थे। आत्मविश्वास भी उनके आत्म का अंश है और आत्मभर्त्सना भी। स्वर्ग की गारन्टी हो न हो, काशी के जुलाहे कवि के लिये काशी उसकी अपनी नगरी जरूर थी। कबीर राम के भक्त थे, स्वर्ग पाने के लिये, मुक्ति पाने के लिये ही काशी से प्रेम करने में उनके राम का भी अपमान था, और उनकी काशी का भी। लेकिन कबीर प्रेम के कवि भी थे। काशी से उन्हें प्रेम था, इसलिये नहीं कि काशी उन्हें मोक्ष दिला देगी, बल्कि इसलिये कि काशी ने उन्हें जीवन दिया था। ऐसे जीवन को छोड़ना पड़े और यह छोड़ना भक्ति का प्रमाण भी माना जाय, परिणति भी; काशी के कारण मोक्ष नहीं मिलता यह बयान देने के लिये यह भुलाना पड़ जाय कि ‘सकल जनम कासी बिताया’, तो जिन्दगी के दूसरे छोर पर खड़ा, काशी का प्रेमी कवि ऐसी भक्ति को ओछी न कहें तो करें क्या,’’[8]
पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ‘किन्तु-परन्तु’ के साथ अपने विवेक का इस्तेमाल कबीर की ओछी भक्ति को पुष्ट करने के लिये ही किया। वह इस लीपापोती में इस बात जोर दे रहे हैं कि कबीर ने ‘काशी के कारण मोक्ष नहीं मिलता’ यह बयान देकर पश्चाताप किया था। उनके मस्तिष्क में यह सवाल नहीं आया कि कोई और कारण भी कबीर के काशी छोड़ने का क्यों नहीं हो सकता था?
कबीर ने पहले पद ‘लोक मत के भोरा रे’ में एक मार्के की बात यह कही है कि वे गुरु की कृपा और साधुओं की संगति से इस जग को जीत कर जा रहे हैं। इस पंक्ति पर किसी विद्वान का ध्यान नहीं गया कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा? यदि स्वेच्छा से काशी छोड़ रहे थे, तो ऐसा क्यों कहते? फिर, बात कुछ और अन्दाज में कही गयी है। इसलिये दूसरे पद में, पुरुषोत्तम अग्रवाल कबीर को काशी छोड़ने पर अपनी मुक्ति के लिये चिन्तित होते हुए नहीं देखते, वरन् उस पद को प्रक्षिप्त मानकर उसका खण्डन करते।
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दरअसल किंवदन्ती में भी सत्य का अंश निहित होता है, बशर्ते उसे पकड़ने के लिये समकालीन इतिहास की जानकारी हो। लोक-विश्वास या अंधविश्वास के कारण कोई शहर से पलायन नहीं करता है। पलायन के पीछे अकसर सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां ही कारण नहीं होतीं, वरन् राजनीतिक भी होती हैं। कबीर जैसा प्रखर भौतिकवादी और यथार्थवादी चिन्तक किसी अंधविश्वास (क्योंकि उसे झुठलाना भी मानना ही है) के कारण काशी कतई नहीं छोड़ सकते थे। लेकिन, यह सच है कि उन्हें काशी से पलायन करना पड़ा था। पर वे मगहर ही क्यों गये? मगहर में मरकर नर्क मिलता है और काशी में मरने पर स्वर्ग मिलता है इस पागलपन पर जो पागल विश्वास करना चाहता है, वह करता रहे, पर हमें उसके सामाजिक और राजनैतिक कारणों पर विचार करना है, जो इतिहास से भी प्रमाणित होना चाहिए।
इसके लिये हम एक और किंवदन्ती को लेते हैं। यह किंवदन्ती सुलतान सिकन्दर लोदी द्वारा कबीर को उत्पीडि़त किये जाने के सम्बन्ध में है। इस किंवदन्ती पर एक प्रक्षिप्त पद भी कबीर के नाम से गढ़ा गया है, जो इस प्रकार है
अहो मेरे गोव्यंद तुम्हारा जोर, काजी बकिवा हस्ती तोर।।
बाँधि भुजा भले करि डार्यौ, हस्ती कोपि सूँड मैं मारयौ।।
भाग्यो हस्ती चीसा मारी, वा मूरति की मैं बलिहारी।।
महाबत तो कूँ मारी साँटी, इसही मराऊँ धालौं काटी।।
हस्ती न तोरै धरे धियान, वाकै हिरदै बसै भगवान।।
कहा अपराध संत हौं कीन्हाँ, बाँधि पोट कुंजर कू दीन्हा।।
कुंजर पोट बहु वंदन करै, अजहुँ न सूझैं काजी अँधरै।।
तीन बेर पतियारा लीन्हा, मन कठोर अजहुँ न पतीनाँ।।
कहै कबीर हमारे गोब्यंद, चैथे पद भै जन को गयंद।।
इस पद की भाषा ही बताती है कि यह कबीर का कहा हुआ नहीं है। कबीर अपनी तारीफ में चमत्कार नहीं गढ़ सकते थे। यह पद न ‘कबीर ग्रन्थावली’ में मौजूद है और न ‘ग्रन्थ साहब’ में। बाबू श्याम सुन्दर दास ने इस पद को ‘कबीर ग्रन्थावली’ की ‘प्रस्तावना’ में उद्धरित किया है।[9] पर उन्होंने इसका स्रोत नहीं बताया है। वे लिखते हैं, ‘‘यह पद प्राचीन प्रतियों में नहीं मिलता। यदि यह कबीर जी का ही कहा हुआ है तो इस पद से यह प्रकट होता है कि – उनको मारने के तीनों प्रयत्न हाथी के द्वारा किये गये थे, क्योंकि इसमें उनके नदी में फेंके जाने या आग में जलाये जाने का कोई उल्लेख नहीं है।’’[10] यह उल्लेख किंवदन्ती में मिलता है।
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कबीर के प्रक्षिप्त पदों और कहानियों के रचनाकार हिन्दू शिष्य थे। यह काम कबीर की मृत्यु के बाद हुआ। प्रो. ओमप्रकाश गुप्ता के अनुसार, ‘‘सत्रहवीं सदी के पूर्वाद्ध तक (अथवा 1650 तक) कबीर के हिन्दू अनुयायियों ने विधिवत् कबीरपंथ का निर्माण कर लिया था, जिसका अपना दीक्षा-संविधान था, अपना पंथीय धर्म-विधान तथा अपनी विशिष्ट आचार संहिता थी। पंथ ने कबीर और सिकन्दर लोदी संबंधी कथाओं तथा अन्य चमत्कार पूर्ण कथाओं के प्रचार और प्रसार के लिये एक पूर्ण नियोजित अभियान का रूप प्रदान किया। प्रचार और प्रसार के इस अभियान के पीछे पंथ का मूल उद्देश्य कबीर को ईश्वरतुल्य सिद्ध करके जन-साधारण का ध्यान पंथ की ओर आकर्षित करना था।’’[11] चमत्कार और किंवदन्तियों की रचना इसी समय हुई थी।
ऐतिहासिक परीक्षण से पता चलता है कि कबीर सिकन्दर लोदी के समकालीन नहीं थे। इसलिये सिकन्दर लोदी के द्वारा कबीर के उत्पीड़न की कथा गलत साबित होती है। कबीर के हिन्दू शिष्य उनकी मृत्यु संवत् को सत्तर वर्ष आगे तक ले जाकर 1575 इसीलिये बताते हैं, ताकि सिकन्दर लोदी को उनका समकालीन साबित किया जा सके। इससे उन्हें रामानन्द का शिष्य बनाने में भी आसानी हो जाती है। लेकिन, ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि कबीर की मृत्यु संवत 1505 अर्थात् सन् 1448 ई. में हुई थी। प्रो. ओमप्रकाश गुप्ता लिखते हैं कि ‘‘कबीर की निधन-तिथि संवत् 1505 को प्रमाणित करने वाले विशुद्ध ऐतिहासिक (पुरात्तवीय) प्रमाण उपलब्ध हैं।’’[12] उनके अनुसार, ‘‘पुरात्तव विभाग के ऐतिहासिक स्मारकों के सर्वेक्षक ए. फ्रयूर्र ने मगहर स्थित कबीर के रौजे का विवरण निम्न शब्दों में दिया है ‘‘कस्बे के पूर्वी दिशा में अमी नदी के दाहिने किनारे पर प्रसिद्ध धर्म-सुधारक कबीरदास अथवा कबीर शाह का रौजा (समाधि) स्थित है, जिसे सन् 1450 ई. में बिजली खां ने बनवाया था तथा 1567 में नवाब फिदाई खां ने उसका पुनरुद्धार कराया था।’’[13]
अतः स्पष्ट है कि कबीर की मृत्यु बिजली खां द्वारा बनायी गयी समाधि से पहले ही हो सकती है, बाद में नहीं। इस दृष्टि से कबीर की मृत्यु का वर्ष सम्वत् 1505 सही प्रतीत होता है। कबीर पंथियों में कबीर की मृत्यु को लेकर कई पद प्रचलित हैं, जिनमें इन दो को ज्यादा उद्धरित किया जाता है-
सम्वत पंद्रह सौ औ पाॅंच मौ मगहर कियो गौन।
अगहन सुदी एकादशी, मिल्यौ पौन में पौन।।
सम्वत पन्द्रह सौ पचहत्तरा किया मगहर को गौन।
माघ सुदी एकादशी, रलौ पौन में पौन।।
इनमें पहला पद ही उपर्युक्त ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमाणित होता है। अब यहां विचार करने के लिये दो प्रश्न शेष रह जाते हैं। पहला, कबीर ने मगहर को गमन क्यों किया? और, दूसरा, बिजली खां कौन थे?
सन् 1448 में बनारस की धार्मिक और राजनैतिक परिस्थितियां कबीर के खिलाफ हो गयी थीं। उस समय बहलोल लोदी का शासन था, जिसमें हिन्दू और इस्लामिक कट्टरवाद बहुत बढ़ गया था। हिन्दुओं की धर्म-व्यवस्था ब्राह्मणों के हाथों में थी और सुलतान उसमें हस्तक्षेप नहीं करता था। इस्लामी धर्मव्यवस्था का रक्षक काजी था, जिसकी सत्ता निरंकुश थी। कबीर को दोनों ही अपना शत्रु मानते थे, क्योंकि वे ब्राह्मण को भी चुनौती दे रहे थे और काजी को भी। किन्तु कबीर को मानने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी, जिनमें हिन्दू और मुसलमानों दोनों थे। निम्न वर्गों के तो वे मसीहा ही थे। ऐसे कबीर ब्राह्मण का भी खेल खराब कर रहे थे और काजी का भी। बस, दोनों ने मिलकर कबीर को रास्ते से हटाने की योजना बनायी। प्रो. ओमप्रकाश गुप्ता का यहां कहना सही है कि ब्राह्मण स्वयं कबीर को दण्डित करने की स्थिति में नहीं थे, पर ‘‘मुस्लिम शासन के अन्तर्गत काजी को न्यायिक व प्रशासनिक अधिकार प्राप्त थे।’’[14]
किन्तु, कबीर के दो शिष्य बहुत प्रभावशाली थे एक बिजली खां, जो बहलोल लोदी के अमीर, पहाड़ खां के दत्तक पुत्र थे और दूसरे राजा वीर सिंह। प्रो. ओमप्रकाश गुप्ता का मत है कि राजा वीर सिंह की वजह से कबीर काशी के ब्राह्मणों से बचे हुए थे और बिजली खां की वजह से वे सुलतान के दण्ड और काजी के फतवे से सुरक्षित थे।[15] ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। पर, कबीर ने किसी से अपनी सुरक्षा की याचना की होगी, ऐसा कबीर के स्वभाव से नहीं लगता। यह सच है कि राजा वीर सिंह और बिजली खां कबीर के शिष्य थे, पर यह भी सच है कि उनके रहते हुए ही कबीर को बनारस छोड़ना पड़ा था।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
कबीर को बनारस क्यों छोड़ना पड़ा? यह जरूर एक बड़ा मामला रहा होगा, जिसमें कबीर के विशाल शिष्य-समुदाय के साथ-साथ बिजली खां और राजा वीर सिंह भी असहाय स्थिति में रहे होंगे। ऐसी स्थिति तब होती है, जब उन्हें सत्ता ने निर्वासित किया हो, अर्थात् उन्हें शासक वर्ग ने बनारस छोड़कर जाने को कहा हो या दबाव बनाया हो। कबीर ने जिस पद में लोकमत के खण्डन में बनारस छोड़ने का जिक्र किया है, उसमें इस पंक्ति पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है ‘गुरु प्रसाद साध की संगति, जग जीते जाइ जुलाहा।’ इसमें एक हलका सा दुख है बनारस छोड़ने का, लेकिन यह गर्व भी है कि वह जगत को जीतकर जा रहे हैं, अर्थात् वे हारकर नहीं जा रहे हैं। यह पंक्ति बनारस से कबीर के निर्वासन का संकेत करती है। अगर वे हारते, ब्राह्मण और काजी के सामने समर्पण कर देते, तो उनका निर्वासन क्यों होता? बनारस से उनका निर्वासन इसीलिये हुआ था, क्योंकि वे ब्राह्मण और काजी से पराजित नहीं हुए थे।
इसलिये इसमें सन्देह नहीं कि निर्वासन की इस पूरी पृष्ठभूमि में काजी की भूमिका थी। कबीर के जिस पद को हमने पीछे उद्धरित किया है, उसमें ‘अहो मेरे गोब्यंद तुम्हारा जोर, काजी बकिवा हस्ती तौर’ और ‘अजहुँ न सूझे काजी अँधरै’ में काजी का ही नाम आता है। ओमप्रकाश गुप्ता लिखते हैं, ‘‘यदि इस क्षेपक में वास्तव में कबीर के उत्पीड़न की गूंज निहित है, तो यह काजी गंगा किनारे वाला काशी-बनारस का काजी है, क्योंकि काजी को न्यायिक अधिकार प्राप्त थे।’’[16]
लेकिन इस सबके बावजूद यह मानना ज्यादा उचित होगा कि कबीर ने ‘हिजरत’ की होगी। ब्राह्मण और काजी कबीर का उत्पीड़न तो नहीं कर सके होंगे, पर उनके अत्याचार कबीर के कमजोर शिष्यों और साधुओं पर बढ़ने लगे होंगे। यह स्थिति ठीक वैसी ही रही होगी, जैसी मक्का में इस्लाम के विरोधियों ने पैगम्बर हजरत मुहम्मद के खिलाफ पैदा कर दी थी। हालात इतने खराब कर दिये गये थे कि मुहम्मद का मक्का में रहना मुश्किल हो गया था और जिस रात दुश्मनों ने उन पर हमला करने का निश्चय किया, उसी रात मुहम्मद अबू बक्र को साथ लेकर मदीना चले गये थे। इस्लामी इतिहास में इसे ‘हिजरत’ कहा जाता है। कबीर ने भी सम्भवतः हिजरत की थी। उनके दुश्मनों ने उनके लिये भी ऐसे ही हालात पैदा कर दिये थे, जिनमें उनके लिये बनारस में रहना सम्भव नहीं रह गया होगा और उन्हें भी ‘मगहर’ जाना पड़ा होगा।
कबीर मगहर ही क्यों गये? इसका कारण यह था कि मगहर उनका जन्म स्थान था। वे वहां पैदा हुए थे, शिक्षा-दीक्षा के लिये बनारस आये थे, जो उस समय शिक्षा का केन्द्र था। बाद में वे ‘रामानन्द चेताय’ खातिर बनारस में ही बस गये थे। उनकी ज्ञान की आंधी ने ब्राह्मणवाद की सारी टांटियां-तम्बू उखाड़ दिये थे। उनके ‘ज्ञानोदय’ ने दो सौ साल तक भारतीय समाज को आंदोलित किया था। यह ज्ञानोदय इतना जबरदस्त था कि ब्राह्मणवाद को उससे मुक्त होने में दो सौ साल लग गये थे। वे पृथ्वी पर जिस कार्य के लिये आये थे, उसे उन्होंने पूरा कर दिया था। वे जग को जीतकर जा रहे थे।
कबीर मगहर कब गये थे, इसकी कोई निश्चित तिथि इतिहास से पता नहीं चलती। कबीर-पंथियों में प्रचलित पदों से सिर्फ उनके मगहर जाने का पता चलता है, उनके निधन का नहीं। सम्भवतः उनका निधन मगहर में कुछ समय रहने के बाद हुआ हो। यदि वे सन् 1448 में मगहर गये होंगे, तो यह जरूरी नहीं है कि उनकी मृत्यु भी उसी वर्ष हुई हो। यह भी हो सकता है कि उनकी मृत्यु उसके कुछ समय बाद हुई हो या उसी वर्ष हुई हो, जिस वर्ष बिजली खां ने उनका स्मारक बनवाया हो।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
संदर्भ :
[1] (क.ग्र., पृष्ठ 167)
[2] (वही, पृष्ठ 23)
[3] (वही, पृष्ठ 167)
[4] (वही, पृष्ठ 224)
[5] (क.स., पृष्ठ 152)
[6] (क.स., पृष्ठ 763)
[7] (वही, पृष्ठ 404)
[8] (अकथ, पृष्ठ 197)
[9] (कबीर ग्रंथावली पृष्ठ 22),
[10] (वही, पृष्ठ 22-23)
[11] (क.स.इ., पृष्ठ 56)
[12] (वही, पृष्ठ 46)
[13] (वही, पृष्ठ 47)
[14] (वही, पृष्ठ 54)
[15] (वही, पृष्ठ 55-56)
[16] (वही, पृष्ठ 54)
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