भारत को विश्वगुरु मानने वाला भारतीय समाज का एक पक्ष भारत में प्रचलित कुछ तथाकथित विशेषता से सम्बंधित मुहावरे गाता नहीं थकता है। ‘विविधता में एकता, ‘कोस-कोस पर बदले वाणी, चार कोस पर बदले पानी’ आदि कुछ ऐसे ही मुहावरे हैं। हालांकि हिंदुस्तान का यही वह समाज है जो ए.के. रामानुजम द्वारा लिखे गए एतिहासिक शोध पत्र ‘थ्री हंड्रेड रामायण’ को दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाए जाने पर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग परिसर में घुसकर तोड़-फोड़ करता है। यह हिंदुस्तानी समाज का वही हिस्सा है जो ‘एक राष्ट्र, एक भाषा और एक टैक्स’ जैसे किवदंतियों में ना सिर्फ़ विश्वास करता है बल्कि खान-पान में विविधता के लिए दक्षिण भारत के राज्यों को हीन भावना से देखता है। ये वही लोग हैं जो केरल में आयी बाढ़ के लिए केरल में रहने वाले लोगों के खान-पान को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उन्हें न सिर्फ़ किसी प्रकार की मदद करने से इंकार करते हैं बल्कि अन्य लोगों से केरल को मदद नहीं करने की अपील करते है। ‘एक राष्ट्र-एक धर्म’ की हामी भरने वाला यह हिंदुस्तानी समाज ‘एक राष्ट्र-एक जाति’ की सम्भावना मात्र से ही अपना नाक-भौं सिकुड़ा लेता हैं। क्या जब हिंदुस्तान में कोस-कोस पर वाणी बदल सकती है और चार कोस पर पानी बदल सकती है तो सौ-दो सौ कोस पे त्योहार मनाने का तरीक़ा क्यूँ नहीं बदल सकता है?
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