बीते 18 नवंबर 2018 से भारत के सवर्ण ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे पर भड़ास निकाल रहे हैं। कई उन्हें दुश्मन देश का एजेंट कह रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो भारत में ब्राह्मणों के श्रेष्ठ होने का प्रमाण दे रहे हैं। इस बीच ट्विटर सवर्णों के भारी विरोध को देखते हुए बैकफुट पर चला गया है। इसके लीगल हेड विजया गड्डे ने अपनी कंपनी की ओर से माफी मांगी है। अपने बयान में उन्होंने कहा है कि जिस तस्वीर को लेकर बातें कही जा रही हैं, उस तस्वीर में दिखाए गए पोस्टर से कंपनी का कोई लेना-देना नहीं है। वह पोस्टर जैक डाेरसे को गिफ्ट किया गया था।
दरअसल, जैक डोरसे ने बीते 18 नवंबर को भारत प्रवास के दौरान कुछ महिला पत्रकाराें और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ बैठक की थी। बैठक के जरिये वे ट्विटर के प्रयोग के अनुभवों के बारे में जानना चाहते थे। इसी बैठक में एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता ने उन्हें एक पोस्टर दिया था, जिसमें ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पर प्रहार करें’ लिखा था। ट्विटर पर इसी तस्वीर को लेकर सवर्णों के कमेंट्स की बाढ़ आ गई है।

खैर, न तो जैक डोरसे पहले गैर भारतीय हैं, जिन्होंने भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध किया है और न ही सवर्ण पहली बार अागबबूला हो रहे हैं। इस कड़ी में कैथरीन मेयो की किताब मदर इंडिया उल्लेखनीय है। 1927 में प्रकाशित इस किताब ने पूरे विश्व में ब्राह्मणवादी पाखंड की पोल खोल दी थी। इस किताब में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को खुली चुनौती दी गई थी। उस वक्त भी इस किताब का पुरजोर विरोध किया गया था। यहां तक कि लंदन, न्यूयाॅर्क, फ्रांसिस्को और कलकत्ता में इसके खिलाफ प्रदर्शन हुए थे। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के पक्ष में तमाम सवर्ण राष्ट्रवादी भी उतर आए थे।
इस संदर्भ में आंबेडकर का वह सवाल प्रासंगिक हो जाता है, जो उन्होंने हिंदू धर्म के बारे में उठाया था- ‘तो क्या हिंदू धर्म में कोई ऐसा सिद्धांत नहीं है, जिसके समक्ष आपस के तमाम भेदों के बावजूद नतमस्तक होना सभी हिंदू अपना कर्तव्य मानते हो? मुझे लगता है एक ऐसा सिद्धांत है और वह है जाति का सिद्धांत’। लेकिन, जाति की शुद्धता की गांरटी तभी दी जा सकती थी, जब विभिन्न जातियों की स्त्रियों का विवाह उन्हीं जातियों के भीतर हो। अर्थात स्त्री की यौनिकता पर पूर्ण नियंत्रण कायम किया जाए। इसके लिए यह जरूरी था कि हिंदू अपनी-अपनी जाति की स्त्रियों के जीवन पर पूर्ण नियंत्रण कायम करें और इस नियंत्रण को पवित्र कर्तव्य माना जाए। इसी बात का उल्लेख आंबेडकर ने भी 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय में अपने शोध-पत्र में किया था कि जाति की व्यवस्था तभी कायम रखी जा सकती है, जब सजातीय विवाह हों और सजातीय विवाह के लिए जरूरी है कि स्त्री की यौनिकता पर न केवल उसके पति का, बल्कि पूरी जाति का नियंत्रण हो। इसी को ब्राह्मणवादी पितृसत्ता कहते हैं, जिसका विरोध आज जैक डोरसे कर रहे हैं।

इस बात को मैडलिन बायदू इस प्रकार प्रस्तुत करते है – ‘हिंदू धर्म में देवत्व के रूपों और प्रतिबोध में अत्यधिक विभिन्नता के बावजूद जो चीज उसको तात्विक एकता प्रदान करती है, वह है सामाजिक और धार्मिक संबंधों की एकरूप पद्धति’। अर्थात जाति/वर्ण हिंदूओं का प्राण तत्व है, इसके लिए आवश्यक था कि स्वयं ईश्वर, ऋषि , महाकाव्यकार, धर्मग्रंथकार और स्मृतिकार स्त्रियों के जीवन, विशेषकर उनकी यौनिकता पर, पुरुषों के पूर्ण नियंत्रण का समर्थन और अनुमोदन करें तथा किसी भी स्थिति में इसका उल्लंघन न होने दें। उल्लंघन करने वाले के लिए लौकिक और पारलौकिक स्तर पर कठोर दंड का प्रावधान किया जाए। अर्थात स्त्री के जीवन पर पुरुष का सर्वव्यापी वर्चस्व तथा स्त्री की यौनिकता पर जाति-विशेष का पूर्ण नियंत्रण कायम रखना। इसी बात को लेकर लोहिया ने हिंदुओं के सोचने के तरीके पर कड़ा प्रहार करके हुए कहा था कि ‘ हिंदुओं का दिमाग जाति और योनि के कटघरे में कैद है’।
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इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि ईश्वर के साक्षात अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम जाति/वर्ण और योनि की पवित्रता का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं कर सकते। जिन अपराधों के लिए वे स्वयं अपने हाथों से दंड देते हैं, उसमें एक है वर्णाश्रम धर्म का उल्लंघन करने वाले शंबूक का अपने हाथों से वध और सीता की योन-शुचिता की जांच के लिए अग्नि परीक्षा। मर्यादा पुरुषोत्तम के अनुयायी आज भी उनके आचरण का अनुगमन कर रहे हैं और जाति और योनि की शुचिता की रक्षा के लिए जान लेने और देने के लिए उतारू हैं। जैक डोरेस के विरोध में सवर्णों का उतर आना इसका ज्वलंत और ताजा सबूत है।
जाति और पितृसत्ता के बीच क्या संबंध है? इस बात को आधुनिक युग में जिस व्यक्तित्व ने सबसे पहले समझा, वे थे फूले दंपत्ति– जोतीराव राव फुले और सावित्री बाई फुले। जाति/वर्ण के साथ स्त्री की स्थिति को जोड़कर देखने का जहां बड़े इतिहासकारों ने नहीं के बराबर प्रयास किया, वहीं जाति-व्यवस्था की दलित चिंतकों और सुधारकों ने जो समझ विकसित की और जमीनी स्तर पर जो कार्य किया, उसमें स्त्री की पराधीनता और जाति के बीच का गठबंधन स्पष्ट होकर सामने आया। जोतीराव फुले ने शूद्रों, अति-शूद्रों और स्त्रियों को ब्राह्मणों द्वारा खड़ी की गई व्यवस्था में शोषित, उत्पीड़ित की तरह देखा। फुले ने जाति और स्त्री प्रश्न को एक ही सिक्के के दो पहलू के रूप में देखा और दोनों को अपने संघर्ष का निशाना बनाया। हिंदू समाज व्यवस्था को उसकी समग्रता में समझने और बदलने की कोशिशों और जाति के भौतिक संसाधनों, ज्ञान और जेंडर संबंधों के जटिल ताने-बाने के तहत समझ विकसित करने के फुले के प्रयासों के कारण गेल ओमवेट ने उन्हें जाति का पहला ऐतिहासिक भौतिकवादी सिद्धांतकार कहा है। फुले के बाद पेरियार ऐसे दूसरे दलित चिंतक हुए, जिन्होंने स्त्री प्रश्न और जाति के परस्पर जुड़े होने की हकीकत को पहचाना। पुरुष वर्चस्ववादी मूल्यों की धारणाओं की उन्होंने कटु आलोचना की और स्पष्ट तौर पर कहा कि ‘ जिस ब्राह्मणवाद ने श्रम करने वालों की बड़ी संख्या को शूद्रता की स्थिति में डाल रखा है, उसी तरह उसने विवाह के जरिये स्त्रियों को दासता की डोर में बांध रखा है’। इससे भी आगे बढ़कर पेरियार ने एकल विवाह और स्त्रियों की यौनिकता पर पुरुषों के नियंत्रण को निजी संपत्ति को साथ जोड़कर देखा’।
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इस प्रकार हम देखें, तो जैक डोरसे की तस्वीर पर हल्ला मचाने वाले सवर्ण आज भी उसी नजरिये से दलित-बहुजनों और स्त्रियों को देखते हैं, जिस नजरिये से वे पहले देखते थे। यह इस सच्चाई को भी संपुष्ट करता है कि यह स्थापित होने के बावजूद कि ब्राह्मणवादी विचारधारा वर्ण-जाति व्यवस्था और स्त्रियों पर पुरुषों के वर्चस्व को स्थापित करने वाली विचारधारा है और आज भी भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जातिवाद का जहर व्याप्त है। तुर्रा यह कि यदि कोई इस पर सवाल उठाए, तो वह सवर्णों का दुश्मन बन जाता है।
(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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