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मनुवाद के विरुद्ध प्रत्यक्ष संघर्ष का आह्वान करतीं जोतीराव फुले की रचनाएं

वर्ष 1873 में प्रकाशित ‘गुलामगिरी’ जोतीराव फुले की एक महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा रचे गए मिथकों और पुराणों के विभिन्न प्रसंगों व पात्रों के माध्यम से रचे गए झूठ के तंत्र का विश्लेषण किया और यह दिखाया कि कैसे यह मिथक व पौराणिक साहित्य दलितों-पिछड़ों व महिलाओं को गुलाम बनाते हैं। बता रहे हैं चंद्रभूषण गुप्त ‘अंकुर’

जोतीराव गोविंदराव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890) पर विशेष

जोतीराव गोविंदराव फुले की विचारधारा, उनके दर्शन और कार्यों का आजादी के पहले और आजादी के बाद जितना अध्ययन और मूल्यांकन होना चाहिए था, उतना हो नहीं सका। ऐसा अनजाने में हुआ हो, ऐसी बात नहीं है। बल्कि, अब तो ऐसा लगता है कि यह सब जान-बूझकर किया गया है; ताकि पिछड़ों और दलितों को उनके कार्य व विचार दर्शन से यथासंभव नावाकिफ रखा जाए। वर्तमान में भी लगभग यही स्थिति है। जो लोग परंपरागत समाज व्यवस्था को बदलने अथवा उसमें आमूल-चूल परिवर्तन की बात करते हैं और एक नए समाज की स्थापना का स्वप्न देखते हैं, उनको हमेशा उपेक्षित किया गया है। बुद्ध, कबीर और रैदास के साथ इसी प्रवृत्ति के शिकार हुए जोतीराव फुले।

जब 1990 में जोतीराव फुले के परिनिर्वाण के 100 साल पूरे हुए, तब देश में काफी सम्मान के साथ इसे मनाया गया। उनका संपूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं था। उसी अवसर पर मराठी पाठकों को फुले का सम्पूर्ण साहित्य ‘सम्पूर्ण फुले’ शीर्षक से उपलब्ध कराया गया। अन्य भारतीय भाषाओं में यह साहित्य अनुदित नहीं हुआ है, जबकि फुले साहित्य की इस देश को बहुत जरूरत है।

जोतीराव फुले के जीवन दर्शन, विचारों और कार्यों पर कई भारतीय भाषाओं में सचेत लोग लिख रहे हैं। वामपंथी और गैर-वामपंथी दोनों तरह के लोग अपने-अपने ढंग से उन पर विचार कर रहे हैं। इसी प्रकार सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से पिछड़े दलित-उत्पीड़ित तबकों में भी फुले से प्रेरणा लेने और उनके कार्यों, उनकी विचारधारा आदि को समझने और जानने की जिज्ञासा इधर तीव्र रूप से उत्पन्न हुई है। इसकी वजह यह है कि कि फुले सहित ऐसे तमाम जनपक्षधर विचारकों ने, जिन्हें मुख्यधारा और अकादमिक जगत से दूर कर दिया गया था, उन पर पुनर्विचार व पुनर्मूल्यांकन का कार्य प्रारंभ हो गया है।

1873 में प्रकाशित ‘गुलामगिरी’ का कवर पृष्ठ

फुले आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन के क्रांतिकारी आंदोलन के मूल प्रवर्तक हैं। उनका साहित्य इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने किस प्रकार हिंदू समाज के शूद्राें-अतिशूद्रों (दलित व पिछड़े वर्ग के लोगों) की समस्याओं को उजागर करने की कोशिश की। किसानों से जुड़े मुद्दे जैसे गांव-देहातों में, गांव के मुखिया, जमींदार, साहूकार, ब्राह्मण अज्ञानता का लाभ उठाकर किस प्रकार उनका शोषण करते हैं? इस बात का जितनी गहराई से फुले ने विश्लेषण किया, उतना उनके समकालीन किसी भी समाज-सुधारक के लेखन में नहीं मिलता। उन्होंने औरतों की गुलामी को भी सवालाें के घेरे में लिया। पंडा-पुरोहित वर्ग को वे धार्मिक-शोषक वर्ग कहते हैं और बहुत शिद्दत से बताते हैं कि दलित, पिछड़े व महिलाएं हिंदू धर्म के धार्मिक गुलाम हैं और इसी धार्मिक गुलामी को वे ज्यादातर समस्याओं का कारण मानते हैं। इसलिए वे भारतीय समाज-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता महसूस करते हैं।

जोतीराव फुले 19वीं शताब्दी के अपने समकालीन भारतीय नवजागरण के सभी शलाका पुरुषों, जैसे- राजा राममोहन राय, जाम्भेकर, दारोबा पांडुरंग, दयानंद सरस्वती, रानाडे, भण्डारकर, आगरकर आदि सभी से काफी अलग और वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के सबसे करीब दिखते हैं। उन्होंने अपने कार्य व चिंतन की शुरुआत धर्म संस्थाओं की आलोचना से शुरू की और इनके विरुद्ध व्यापक जन-जागरण अभियान चलाया। उनका पूरा जीवन इसी काम में बीता।

जोतीराव फुले की रचना यात्रा

जोतीराव फुले की सबसे पहली रचना ‘तृतीय रत्न’ नामक नाटक है, जो सन् 1855 में लिखा गया। 1855 से लेकर 1890 में अपनी मृत्युपर्यंत वे लगातार लिखते रहे थे। ‘तृतीय रत्न’ नाटक जो उनकी पहली रचना थी, वह उन्होंने नाटक विधा का इस्तेमाल करते हुए लिखा। जिसमें उन्होंने यह दर्शाया था कि कैसे पुरोहित वर्ग अनिष्ट का भय दिखाकर किसानों, महिलाओं, मजदूरों और अन्य मेहनतकश वर्गों का शोषण करता है।

जोतीराव गोविंदराव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890)

उनकी दूसरी रचना जून 1869 में प्रकाशित हुई, जो महाराष्ट्र में प्रचलित साहित्य की एक विधा ‘पंवाड़ा’ में लिखी गई, जिसका शीर्षक था ‘पंवाड़ा; छत्रपति शिवाजी राजा भावले का’। यह काव्य रचना थी, जिसमें शिवाजी महाराजा की वीरगाथा लिखी गई। इस पंवाड़े को आठ भागों में विभक्त किया गया है। इसको लिखने के लिए फुले ने प्राचीन ‘यवणों और मेसर्स ग्राडफ मरी’ आदि अंग्रेज लोगों के द्वारा लिखित प्रमाण को आधार बनाया है। इस पंवाड़े को लिखने का उनका मुख्य उद्देश्य यह था कि कुनबी, माली, महार, मातंग आदि जिन जातियों को हाशिये पर धकेल दिया गया था, यह उनके काम आए और उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने का कार्य करे। फुले इसमें संस्कृत के बड़े-बड़े शब्दों के इस्तेमाल से बचते हैं। वे अपनी भाषा को कुनबियों के समझने व पसंद आने योग्य बनाए रखते हैं।

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

उसी वर्ष 1869 में ही उन्होंने एक और पंवाड़ा प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था- ‘पंवाड़ा : शिक्षा विभाग के ब्राह्मण अध्यापक का’। इस पंवाड़े में उन्होंने शिक्षा विभाग में कार्यरत ब्राह्मण अध्यापक की धूर्तताओं का वर्णन किया है। 1869 में ही उन्होंने ‘ब्राह्मणों की चालाकी’ शीर्षक से एक छोटी-सी पुस्तिका लिखी, जिसमें उन्होंने ब्राह्मण पुरोहित किस तरह से अंग्रेजी शासन के बावजूद गांवों में अभी भी खासा प्रभावशाली हैं और अपने ज्ञान का इस्तेमाल करके कैसे गांव की सीधी-सादी जनता का शोषण करते हैं, इसको व्यक्त किया। इसके पीछे उनका लक्ष्य था कि ग्रामीण जनता पुरोहितों से सचेत हो। अंग्रेज सरकार गांवों के अशिक्षित और कमजोर वर्गों की शिक्षा का प्रबंध करे, क्योंकि वे उनकी प्रजा है और शासन का काम प्रजा का हित देखना है।

यह भी पढ़ें – नाटक तृतीय रत्न : आंख खोलने वालों के प्रति फुले की श्रद्धांजलि

वर्ष 1873 में प्रकाशित उनकी कृति ‘गुलामगिरी’ एक महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा रचे गए मिथकों और पुराणों के विभिन्न प्रसंगों व पात्रों के माध्यम से रचे गए झूठ के तंत्र का विश्लेषण किया और यह दिखाया कि कैसे यह मिथक व पौराणिक साहित्य दलितों-पिछड़ों व महिलाओं को गुलाम बनाते हैं। यह रचना दो लोगों के बीच संवाद के रूप में लिखी गई है, जिसके एक पात्र धोंडीराव सवाल करते हैं और जोतीराव जवाब देते हैं।

जोतीराव फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज नामक संगठन बनाया था। 1877 में इस संगठन की प्रथम, द्वितीय व तृतीय वार्षिक सत्र की रिपोर्ट उन्होंने प्रस्तुत की। 1877 में ही उन्होंने सत्यशोधक समाज द्वारा निबंध व भाषण प्रतियोगिता का विस्तृत विवरण प्रकाशित किया गया। इस वर्ष उन्होंने अकाल के संबंध में ब्रिटिश सरकार को एक प्रतिवेदन दिया, जो जल्द ही प्रकाशित हुआ। तत्पश्चात उन्होंने लेखन से ज्यादा ध्यान समाज सुधार के कार्यों में लगाया।

जबकि 1882 में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के द्वारा नियुक्त किए गए हंटर आयोग के समक्ष शिक्षा की दशा को लेकर प्रतिवेदन प्रस्तुत किया व प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने सरकार से शिक्षा व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन हेतु विस्तृत सुझाव दिया। 1883 में ‘किसान का कोड़ा’ नाम से उनकी अगली कृति प्रकाशित हुई। इसमें उन्हाेंने दर्शाया है कि कैसे अशिक्षा के कारण बहुजन समाज की इतनी दुर्गति हुई। जाेतीराव यह मानते हैं कि शिवाजी महाराज जो कि पिछड़ी जाति के थे। उनको भी अशिक्षा के कारण ही अपने बाहुबल एवं पराक्रम से अर्जित साम्राज्य के बावजूद ब्राह्मणों की चालाकी में फंसकर अथाह धन से वंचित होना पड़ा और उनके उत्तराधिकारी कैसे नाम मात्र के राजा रह गए? इसमें वे यह भी दिखाते हैं कि गोरे अफसर भी लोकहित का ध्यान न रखकर केवल मौज-मस्ती में लीन हैं। ऐसे में पुरोहित वर्ग के शोषण से जनता को कौन मुक्त कराएगा?

1885 ई. में ही उन्होंने ‘सत्सार’ शीर्षक से दो रचनाएं लिखीं, जिनमें उन्होंने अंग्रेजों के आने से शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षा क्षेत्र में मिले अवसरों के लिए उनकी प्रशंसा की है और शिक्षा प्राप्ति के कारण शूद्रों-अतिशूद्रों में आई चेतना का प्रतिफल दिखाया गया है। ‘सत्सार क्रमांक एक’ में सत्यशोधक समाज का एक शूद्र सदस्य और ब्राह्मण के बीच बातचीत का उल्लेख है। इसमें शूद्र ब्राह्मण से तर्क करता है और यह बताता है कि शूद्रों-अतिशूद्रों के जन्म के बारे में सभी ब्राह्मण ग्रंथों में ज्यादातर झूठ और बकवास लिखा है।

पढ़ें फुले के शब्दों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कहानी

1885 में ही उन्होंने ‘इशारा’ शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने आर्यों को ईरान से आया बताया है और कैसे इन्होंने भारत में अपनी सत्ता को कायम किया, इस पर प्रकाश डाला है। इस लेख में उन्होंने आर्यों के आगमन का इतिहास और उनके बाद विदेशी आक्रमणकारियाें, मसलन- मुसलमान और ईसाई लोगों के बीच तुलना करके यह दिखाया है कि भारत की बहुसंख्यक जनता का सर्वाधिक शोषण ब्राह्मणों ने किया है और लोगों की अज्ञानता का लाभ उठाकर उन्हें गुलामी की स्थिति में ला खड़ा किया है।

वहीं 1886 ई. में फुले ने एक पत्र प्रकाशित करके मराठा, माली, कुनबी, धीमर, धनगर (पिछड़ी जातियों के लोगों को) यह सूचित किया कि उन्हें अपने मांगलिक कार्यों के लिए ब्राह्मण पुरोहित को बुलाने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि, मांगलिक अवसर पर आए पुरोहित यजमानों का शोषण करते हैं और डराते हैं। इसलिए, उन्होंने पिछड़ी जातियों से आह्वान किया कि वे बगैर ब्राह्मण-पुरोहितों के अपने मांगलिक कार्य करें। उदाहरण के तौर पर उन्होंने बंबई में रहने वाले काशीबा, कुसाजी पाटील डुमरे द्वारा स्वयं अपनी दो बेटियों का विवाह बिना किसी पुरोहित के सम्पन्न कराया है। इस पर कुछ पुरोहितों ने बालाजी पर मुकदमा दायर किया कि स्वयं अपने हाथों से अपनी बेटियों का विवाह रचाकर उन्होंने पुरोहितों का साढ़े छः आने का नुकसान किया है। इस मुकदमे में जज जो स्वयं भी जाति से ब्राह्मण थे। उन्होंने फैसला दिया कि बालाजी को हर बेटी की शादी के हर्जाने के तौर पर चार आने यानी दो शादियों के लिए आठ आने का मुआवजा पुरोहितों को देना चाहिए और फुले ने लोगों से अपील की कि क्योंकि कोर्ट ने शादी-विवाह कराने के लिए पुरोहितों को चार आने की राशि तय की है, तो ऐसे में जो लोग पुरोहितों की सेवा ले रहे हैं, तो उन्हें शादी की सम्पूर्ण विधि सम्पन्न होने के बाद केवल चार आने देने चाहिए। कोई भी अतिरिक्त शुल्क या राशि नहीं देनी चाहिए।

फुले यह जानते थे कि वैदिक धर्म के फंदे से बहुजनों को निकालना तब तक संभव नहीं है, जब तक विभिन्न सरकारों के लिए उपयुक्त मंगल गाथाएं और वैकल्पिक पूजा विधि विकसित न कर ली जाए। इसलिए 1857 में उन्होंने सत्यशोधक समाज के अनुयायियों के लिए उपयुक्त मंगल गाथाओं तथा पूजा विधि का निर्माण किया और इसे प्रकाशित किया। अपने जीवन के अंतिम दिनाें में उन्होंने ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ पुस्तक लिखी, जो उनके मृत्यु के उपरांत प्रकाशित हुई। इसके अतिरिक्त भी फुले द्वारा विभिन्न लोगों से किया गया पत्र व्यवहार व वसीयतनामा सभी पाठकों के लिए रोचक हो सकते हैं।

(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

चन्द्रभूषण गुप्त

चन्द्रभूषण गुप्त ‘अंकुर’ दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर हैं। ‘भारतीय नवजागरण के अग्रदूत : जोतिबा फुले’ और ‘सिनेमा और इतिहास’ उनकी प्रमुख किताबें हैं। अंकुर जी नियमित तौर पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं। ये द्विभाषी जर्नल ‘गोरखपुर सोशल साइंटिस्ट’ के संपादक भी हैं

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