बिरसा मुंडा (15 नवंबर 1875 – 9 जून 1900) पर विशेष
बिरसा मुंडा के बारे में मेरा पहला ज्ञान तब हुआ, जब मैं चौथी या पांचवीं कक्षा में था। जहां तक मुझे याद है, चौथी या पांचवीं कक्षा में एक कहानी थी ‘बिरसा ने बाघ मारा’। बिरसा के बारे में ‘बिरसा ने बाघ मारा’ वाली छवि तब तक बरकरार रही, जब तक मैं किशोरावस्था के मध्य में मार्क्सवादी समझ के करीब नहीं गया। बिरसा मुंडा पर कुछ ईमानदार लेखकों की किताबें पढ़ने के बाद मेरे असमंजस पर विराम लगा। फिर भी आजादी की लड़ाई में राष्ट्रीय स्तर पर बिरसा जिस तरह से गौण रहे, उससे इतिहासकारों की ईमानदारी पर कई सवाल हमेशा उठते हैं।
रांची के उलिहातु में हुआ था बिरसा मुंडा का जन्म
महान उपन्यासकार महाश्वेता देवी जैसे कुछ साहित्यकारों-पत्रकारों ने बिरसा मुंडा जैसे समाज के अंतिम कतार के नायक पर काम किया है। इसी का परिणाम है कि झारखंड के उलिहातु से निकलकर देश के दूसरे राज्यों में भी आदिवासियों के बीच बिरसा मुंडा क्रांतिवीर के तौर पर पूजे ही जाते हैं, साथ ही लेखकों व साहित्यकारों के लेखन के केंद्र में बतौर क्रांति नायक भी स्थापित हो चुके हैं।
झारखंड की राजधानी रांची से 70 किलोमीटर दूर खूंटी जिले में पहाड़ों, जंगलों से घिरे उलिहातू गांव के जनजातीय मुंडा दंपति सुगना मुंडा और करमी के घर 15 नवंबर 1875 को जन्मे बिरसा मुंडा के विद्रोह और उनके त्याग पर महाश्वेता देवी अपने उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में लिखती हैं— “अगर उसे उसकी धरती पर दो वक़्त दो थाली घाटो, बरस में चार मोटे कपड़े, जाड़े में पुआल-भरे थैले का आराम, महाजन के चंगुल से छुटकारा, रौशनी करने के लिए महुआ का तेल, घाटो खाने के लिए काला नमक, जंगल की जड़ें, शहद और हिरण और खरगोश-चिड़ियों आदि का मांस, ये सब मिल जाते तो बिरसा मुंडा शायद भगवान न बनता।”
पत्रकार अजहर हाशमी लिखते हैं कि भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का आगाज किया। काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया।
हजारीबाग से विधायक रह चुकीं और आदिवासी एवं स्त्री मुद्दों पर काम करने वाली चर्चित साहित्यकार रमणिका गुप्ता अपनी किताब ‘आदिवासी अस्मिता का संकट’ में लिखती हैं, “आदिवासी इलाकों के जंगलों और जमीनों पर, राजा-नवाब या अंग्रेजों का नहीं, जनता का कब्जा था। राजा-नवाब थे तो जरूर, वे उन्हें लूटते भी थे; पर वे उनकी संस्कृति और व्यवस्था में दखल नहीं देते थे। अंग्रेज भी शुरू में वहां जा नहीं पाए थे। रेलों के विस्तार के लिए जब उन्होंने पुराने मानभूम और दामिन-ई-कोह (वर्तमान में संथाल परगना) के इलाकों के जंगल काटने शुरू कर दिए और बड़े पैमाने पर आदिवासी विस्थापित होने लगे, तब आदिवासी चौंके और मंत्रणा शुरू हुई।”
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वे आगे लिखती हैं, “अंग्रेजों ने जमींदारी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों के वे गांव, जहां वे सामूहिक खेती किया करते थे; ज़मींदारों, दलालों में बांटकर राजस्व की नई व्यवस्था लागू कर दी। इसके विरुद्ध बड़े पैमाने पर लोग आंदोलित हुए और उस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह शुरू कर दिया।”
तीन माेर्चे पर बिरसा का संघर्ष
बिरसा मुंडा को उनके पिता सुगना मुंडा ने पढ़ाई के लिए मिशनरी स्कूल में भर्ती किया था। कहा जाता है कि बिरसा ने कुछ ही दिनों में यह कहकर कि ‘साहेब साहेब एक टोपी है’ स्कूल छोड़ दिया।
बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आदिवासी समाज अंधविश्वासों और आस्था की कुरीतियों के शिकंजे में कैद है। उन्होंने यह भी महसूस किया कि सामाजिक कुरीतियों के कारण ही आदिवासी समाज अज्ञानता का शिकार है। उस समय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना शुरू किया— सामाजिक स्तर, आर्थिक स्तर एवं राजनीतिक स्तर। जिसके तहत उन्होंने आदिवासी-समाज को अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से बाहर निकालने पर काम किया। वहीं आर्थिक स्तर पर हो रहे शोषण के खिलाफ भी चेतना पैदा की, जिसके फलस्वरूप सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध संगठित होने लगे तथा बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली।
आदिवासियों ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबरदस्त आंदोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रुक गया। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी। आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए। बिरसा अब धरती आबा यानी धरती पिता हो गए थे।
अंग्रेजों ने दिया था धीमा जहर
धरती आबा बिरसा मुंडा की मौत पर महाश्वेता देवी ने अपने उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में लिखा है— ”सवेरे 8ः00 बजे बिरसा मुंडा खून की उलटी कर, अचेत हो गया। बिरसा मुंडा- सुगना मुंडा का बेटा; उम्र 25 वर्ष- विचाराधीन बंदी। तीसरी फरवरी को बिरसा पकड़ा गया था, किन्तु उस मास के अंतिम सप्ताह तक बिरसा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था….क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत-सी धाराओं में मुंडा को पकड़ा गया था, लेकिन बिरसा जानता था कि उसे सजा नहीं होगी। डॉक्टर को बुलाया गया, उसने मुंडा की नाड़ी देखी; जो बंद हो चुकी थी। बिरसा मुंडा नहीं मरा था। आदिवासी मुंडाओं का ‘भगवान’ मर चुका था।”
ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें खतरा समझकर गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। वहां उन्हें धीमा जहर दिया गया, जिसके कारण वे 9 जून 1900 को शहीद हो गए।
(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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