केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर उठे विवाद की तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आयी हैं। जबकि हिन्दुत्ववादी समूह उसे धार्मिक मामलों में राज्य की दखलंदाजी के तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं, वाम धारा में इस बात पर एकराय है कि पारंपरिक हिन्दू प्रार्थना स्थल के ‘‘उदारीकरण’’ का यह स्वागतयोग्य कदम है।
यह दोहरी सोच, हालांकि इस मुददे की ऐतिहासिकता और इसके नाज़ुक फर्क को मिटा देती है। रजोधर्म के उम्र की स्त्रिायों के मंदिर प्रवेश पर लगी पाबन्दी को समाप्त करने के आला अदालत के निर्णय को खासकर केरल तथा आम तौर पर भारत में जारी सामाजिक उथल-पुथल के सन्दर्भ में समझा जाना चाहिए।
कर्नाटक के लिंगायत मुददे की तरह, सबरीमल्ला विवाद एक ऐसे सवाल को उभारता है जो भारत की पहचान आधारित दावेदारियों और राजनीति को समझने में बुनियादी किस्म का सवाल है : हिन्दू कौन है और हिन्दू धर्म क्या है ?
दरअसल, यह इसी वजह से है क्योंकि हम ‘हिन्दू’ की ऐसी विशिष्ट परिभाषा को स्वीकारते हैं जिसके तहत समकालीन भारतीय समाज को बुनियादी तौर पर हिन्दू बहुसंख्यक और मुसलमान, ईसाई और सिख जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों में फर्क देखते हैं।
जाति विरोधी बुद्धिजीवियों ने लम्बे समय से इस विचार को चुनौती दी है कि हिन्दू धर्म की कोई अखिल भारतीय पहचान है। इसे उन्होंने समायोजन और इतिहास की गलत प्रस्तुति की ऐसी प्रक्रिया के तौर पर देखा है, जिसे जनगणना के जरिए अंजाम दिया गया और जिसने इतिहासलेखन पर ब्राहमणों के नियंत्रण को मजबूत किया।
इस सन्दर्भ में देखें तो संघ परिवार और उसके सहयोगी दक्षिण एशिया की सभी संस्कृतियों को हिन्दू के तौर पर समायोजित करते देखे जा सकते हैं। विडम्बना ही है कि संघ के विरोधी वामपंथी और उदारवादी, दोनों जब या तो यह कहते हैं कि हिन्दू धर्म बहुलतावादी है या फिर यह कि हिन्दू धर्म कुल मिलाकर ख़राब है, उनके (संघ) ही एजेंडे को ही लाभ पहुंचाते हैं।
जब तक बहस के केंद्र में हिन्दू धर्म और उसकी स्थापनाएं होंगी तब तक वह इसी विश्व दृष्टि को मजबूत करेगा जो दुनिया के हजारों धर्मों व परंपराओं को अवैध घोषित करता है, जो कि वास्तव में भारत में है।
समायोजित और ब्राहमणीकृत
सबरीमाला केरल के पठानामथित्ता जिले की इडुक्की से लगी सीमाओं पर स्थित है, जो बेहद सुरम्य पहाड़ी इलाका है और जहां केरल में जनजातियों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वास करती है।
इस मंदिर के मुख्य देवता अयप्पा की पूजा पश्चिमी घाट तथा नीलगिरि के कई जनजातीय समूह करते आए हैं। ऐसे तमाम संदर्भ मौजूद है जो अयप्पा को इस इलाके के पवित्र उपवनों/वृक्ष-वाटिकाओं से जुड़ा बताते हैं। और सबरीमाला जिस इलाके में स्थित है, उसे देखते हुए यह आश्चर्यजनक भी नहीं लगता।
अयप्पा को शास्ता, धर्मशास्ता और अययनार नाम से भी जाना जाता है। यह ऐसे देवता है जिन्हें केरल, तमिलनाडु और श्रीलंका की कामगार जातियों और देशज तबकों में पूजा जाता है। यह ग्रामीण देवता ऐसे देवता-समूहों के हिस्सा हैं जो प्रकृति से जुड़े हैं और जो वैदिक मूल्य परम्परा से साफ तौर पर अलग दिखते हैं।
निश्चित तौर पर ऐसे लगभग सभी अययनार और शास्ता पवित्र स्थानों पर महिलाएं पूजा करती हैं। वाकई में, चेंगान्नूर नामक नगर में, जो सबरीमाला जैसे ‘हिन्दू प्रार्थनास्थल’ से महज अस्सी किलोमीटर दूरी पर है, वह ‘भागवती’ नामक स्थानीय देवी के सम्मान में रजोधर्म/मासिकधर्म का उत्सव मनाते हैं।
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हालांकि ऐसे कुछ प्रमाण भी उपलब्ध हैं जिनके मुताबिक सबरीमाला की जड़ें बौद्ध धर्म से भी मिलती हैं, मगर यह बात लगभग तय है कि उसका निर्माण स्थानीय माला अराया समुदाय से जुड़ा है, जहां अयप्पा उनका माला देवांगल अर्थात पहाड़ी देवता है।
दिलचस्प बात है कि यह समुदाय सबरीमाला के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर पुनर्विचार याचिका डालने की कोशिश में है। हालांकि वह इस मंदिर में उन रस्मों को निभाने का भी अधिकार चाह रहा है जैसा कि वह पहले करता था, जब तक त्रावणकोर देवस्वाम बोर्ड ने उस पर पाबन्दी लगा दी थी। मालूम हो कि बोर्ड वर्ष 1950 से सबरीमाला मंदिर का प्रबंधन देख रहा है।
दरअसल, जब राज्य ने 1950 में इस मंदिर का नियंत्राण हाथ में लिया तब उसके ब्राहमणीकरण का जो सिलसिला 1902 में शुरू हुआ था, वह पूरा हुआ। इसी के साथ नम्बूदरी ब्राहमणों और देवस्वाम बोर्ड ने स्थानीय रखवाली करनेवालों के अनुष्ठान निभाने पर पाबन्दी लगा दी।
महिलाओं के प्रवेश पर लगी पाबन्दी को उलट देने का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय एक तरह से उसे उसकी मूल, वैदिक पूर्व मूल्य प्रणाली को बहाल करने के तौर पर देखा जा सकता है, न कि भारतीय राज्य के अनुमोदन के तौर पर। अक्सर यही देखा गया है कि वह देशज धर्मों के समायोजन और उस पर ब्राहमणी वर्चस्व को बढ़ावा देने में शामिल होता रहा है।
जैसा कि माला अराया कार्यकर्ता पी. के. संजीव कहते हैं, “सबरीमल्ला का असली संघर्ष ‘आदिवासी देवता के ब्राहमणीकरण’ को समाप्त करने का है। इस तरह, मुख्य पुरोहित के फरमान को चुनौती देने और मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर जोर देना, राज्य के उदारवाद की जीत नहीं है बल्कि अययंकाली, नारायण गुरू और पेरियार ने गैरब्राहमणीकरण की जिस राजनीति को बढ़ावा दिया, उसकी जीत है।
‘नए भारत’ के मंदिर
सबरीमाला एक तरह से एक व्यापक परिघटना का प्रतिनिधित्व करता है : एक प्रार्थनास्थल, जिसका निर्माण एवं जिसकी रक्षा सदियों से देशज लोगों ने की, उस पर किस तरह रफ्ता-रफ्ता कब्जा किया जाता है और किस तरह वैदिक कोश के हिस्से के तौर पर उसकी नए सिरे से कल्पना की जाती है। यह भी देखा जा सकता है कि अक्सर इस काम के लिए भारतीय राज्य सत्ता की मदद ली जाती है और देश भर में फैले लोगों को प्रोत्साहित किया जाता है कि वे वहां पहुंचें ताकि उसके इर्द-गिर्द निर्मित मिथक को औचित्य प्रदान किया जा सके।
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यही बात तिरूपति के मंदिर के बारे में भी सही है। यह माना जाता है कि उसको अपने अन्दर समायोजित करने के पहले वह आंध्र प्रदेश के चेंचू जनजाति का पूजा स्थल था। इसी तरह की कहानियां कोडागू के तालाकावेरी मंदिर, पूर्वी गोदावरी जिले के तालुपुलम्मा मंदिर के बारे में और चिकमगलूर के बाबा बुड़नगिरी प्रार्थनास्थल के बारे में कही जा सकती हैं।
ढेर सारा पैसा इसमें निवेश करके (मिसाल के तौर पर विवादास्पद पूंजीपति विजय माल्या द्वारा किए गए दान से सबरीमला के छत पर अन्दर से सोने की परत चढ़ी हुई है) और देवताओं के दर्शन का व्यवसायीकरण करके, इन मंदिरों को धन्नासेठों, बिल्डरों, बिजनेस सम्राटों और बालीवुड के सितारों के अखिल भारतीय समूह ने हड़प लिया है। इस तरह इस उपमहाद्वीप के देशज, श्रमण, गैर-वैदिक और बौद्ध अतीत को उंची जातियों द्वारा धीरे-धीरे मिटाया जा रहा है और अपने अन्दर समाहित किया जा रहा है।
भारत का एक एकल और अपरिवर्तनीय विचार जो हिन्दू धर्म की एक गढ़ी हुई अवधारणा से जुड़ा है, उसे मजबूती दिलाने में भारतीय राज्य सत्ता भले सक्रिय न हो, मगर सहमत अवश्य दिखता है। हमें अपने आप से यह पूछना होगा कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश या भूटान जैसे मुल्कों में सबरीमाला जैसे प्रार्थना स्थल क्यों नहीं हैं, जिन्हें जरूरी तीर्थाटन के स्थानों के तौर पर दक्षिणपंथी हिन्दुत्व द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है ? यह सिर्फ इसी वजह से है क्योंकि हिन्दू धर्म हमेशा ही समाहित करने के एक भू-राजनैतिक प्रोजेक्ट के तौर पर काम करता रहा है।
इस तरह गंगा के मैदानी इलाके के बाहर, वह इतिहास के पुनर्लेखन की अपनी ताकत का प्रयोग उसी मुल्क की भौगोलिक सीमाओं के अन्दर कर सकता है जो आज भी ‘हिन्दू’ नामक श्रेणी को मजबूती दिलाता है।
सबरीमाला और तिरूपति जैसे स्थानों पर उसके दावे कमजोर पड़ जाएंगे अगर हम इन प्रार्थना स्थलों के उदार, सारग्रााही और असंकीर्ण इतिहास को बढ़ावा दें और बता सकें कि अयप्पा का दोस्त व्यावर नामक एक मुसलमान था जिसके नाम पर इरूमेली नगर में बनी मस्जिद का दर्शन इस तीर्थयात्रा के मूल रास्ते का अनिवार्य हिस्सा था, जबकि भगवान वेंकटेश्वर की मशहूर सहचारिणी बीबी नानचरम्मा भी मुसलमान ही थीं।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
दरअसल हमारे समाज में सर्वोच्च न्यायालय और केरल के ‘प्रगतिशील’ शासकों को – जिन्होंने मंदिर प्रवेश की घोषणाएं कीं – ऐसी ताकतों के तौर पर देखा जाता है जो उदंड, अंधश्रद्धामूलक जनता में जनतंत्र की जड़ों को मजबूत कर सकते हैं। कथित उदारवादी लोग झट से ऐसा सोचने लगते हैं।
इसके बरअक्स हक़ीकत यही है कि ये वही ताकतें हैं जो इन प्रथाओं को तब तक जारी रहने देती हैं जब तक जमीनी स्तर के आन्दोलन उन्हें हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर नहीं करते। डॉ. आंबेडकर ने एक बार कहा था कि भारत का इतिहास ब्राह्मणवाद और बौद्ध मत के बीच चले संघर्ष का इतिहास है। इस तरह आज वक्त़ की मांग है कि इतिहास और संस्कृति का गैरब्राहमणीकरण किया जाए तथा लम्बे समय से बहिष्कृत रहा बहुजन समाज नीचे से उसका पुनर्निर्माण करे।
(यह लेख सबसे पहले अंग्रेजी में क्लीपर28 डॉट कॉम द्वारा प्रकाशित हुआ है)
(अनुवाद : सुभाष गाताडे, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क/सिद्धार्थ)
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