आरक्षण से जुड़े सात सवाल और उनके जवाब
अक्सर भारत में ‘अॅफरमेटिव’ एक्शन (सकारात्मक कार्रवाई) की आवश्यकता और प्रभावोत्पादकता के बारे में प्रश्न उठाए जाते हैं। सरकारी सहायता-प्राप्त शैक्षिक संस्थानों, सरकारी क्षेत्र की नौकरियों और विधायिका में सीटों के आरक्षण को लेकर आशंकाएं हैं। प्रस्तुत अंश उन प्रश्नों में से कुछ का जवाब देने का प्रयास है। यह आलेख ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, इंडिया द्वारा प्रकाशित, अश्विनी देशपांडे की किताब, ‘अॅफरमेटिव’एक्शन इन इंडिया’ (2013) पर आधारित है।
पहला प्रश्न : वे कौन-कौन से क्षेत्र हैं जिनमें आरक्षण दिए जाते हैं और क्यों?
भारत में तीन अलग-अलग क्षेत्रों में सीटें आरक्षित हैं: उच्च शिक्षा, सरकारी नौकरियां और विधायिका। भारत एक कल्याणकारी राज्य है जो समानता के लिए प्रतिबद्ध है। राज्य चाहता है कि समाज की मुख्यधारा से बाहर, हाशिए का जीवन व्यतीत करने वाले लोग उचित शिक्षा का लाभ उठाएं ताकि वे श्रम बाज़ार की होड़ में भाग लेने के लिए सक्षम हो सकें। चूंकि शैक्षिक संस्थानों में भेदभाव होता है, इसलिए नौकरियों में सीटें आरक्षित करना राज्य का दायित्व हो जाता है ताकि पूर्व में हुए भेदभाव के दुष्प्रभावों को मिटाया जा सके। श्रम बाज़ार में भी काफ़ी भेदभाव होता है, जो विचारकों और नीति-निर्माताओं को स्थानीय शासन और विधायिका के स्तर पर सीटों को आरक्षित करने के लिए बाध्य करता है। यह सत्ता के गलियारों में भेदभाव के मुद्दों को हल करने और विभिन्न भेदभावपूर्ण व्यवहारों को खत्म करने के लिए कानून और नीतियां बनाने के लिए किया जाता है। इस बात को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि आरक्षण का प्रयोजन प्रतिनिधित्व है। इसके पीछे यह मंशा है कि हाशिए पर जीनेवाले जनसमूहों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो और उनकी आवाज़ सुनी जाए। यह एक तीन-आयामी पद्धति है जो उचित शिक्षा और उत्कृष्ट नौकरियों तक पहुंच सुनिश्चित करने तथा नीति-निर्माण में बराबरी के स्तर पर अपना मत व्यक्त करने का अवसर प्रदान करती है।
दूसरा प्रश्न : वर्ग (गरीबी) के आधार पर आरक्षण क्यों नहीं हो सकता है? हमें जाति-निरपेक्ष होकर सभी गरीब लोगों की सहायता करने की ज़रूरत है।
राज्य किसी की मदद नहीं कर रहा है। लोग खुद की मदद करते हैं। हममें से प्रत्येक को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है, और गरिमा तभी हासिल होती है जब हर किसी को बड़े पैमाने पर समाज में समानता का दर्जा दिया जाए। वर्ग आधारित आरक्षण के पक्ष में इस तरह के तर्क दिए जाते हैं। यह सच है कि ओबीसी (अन्य पिछड़ी जातियों) के निमित्त आरक्षण आंशिक रूप से वर्ग आधारित है। लेकिन, वर्ग आधारित आरक्षण की दो महत्वपूर्ण सीमाएं हैं। सबसे पहले, भारत में जाति और वर्ग उल्लेखनीय रूप से एक-दूसरे को आच्छादित कर देते हैं। विभिन्न शोध इस बात की ओर इंगित करते हैं। उदाहरण के लिए, घनश्याम शाह की रचना (1985)। दूसरा, जाति के आधार पर भेदभाव को केवल जाति के आधार पर ही कम किया जा सकता है। अनुसूचित जातियों (एससी) के मामले में यह सुस्पष्ट है। विलियम डेरिटी तथा उनके सह-लेखक (2011) दर्शाते हैं कि यदि जाति/समूह की बजाय वर्ग आधारित सकारात्मक कार्रवाई की जाए तो उस तक लक्षित समूह की पहुंच कम कर दी जाएगी, भले ही पात्रता मानदंडों को चाहे कैसे भी परिभाषित किया जाए। भारत में हम कर्नाटक का उदाहरण ले सकते हैं, जहां ब्राह्मणों, लिंगायत और वोक्कलिगा जैसी प्रभावी जातियों ने उन पदों पर एकाधिकार जमा लिया है जो आय आधारित थे। ये पद अक्सर नकली आय प्रमाण पत्रों के आधार पर प्राप्त होते थे।
आरक्षण का लक्ष्य वंचितों काे प्रतिनिधित्व प्रदान करना है। विविध सामाजिक समूहों के लोगों को जीवन के सभी क्षेत्रों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्राप्त होना चाहिए। गरीबी-उन्मूलन या रोज़गार उत्पादक जैसी वर्ग आधारित सरकारी योजनाओं में अंतर्निहित सामाजिक पूर्वाग्रह भी प्रतिबिंबित हो सकते हैं, जबकि ये योजनाएं गरीबी मिटाने या आजीविका प्रदान करने के लिए डिज़ाइन की जाती हैं। मतलब कि अपमानित समूहों के योग्य सदस्यों को ऐसे कार्यक्रमों से असमानता के आधार पर वर्जित रखा जा सकता है। इससे बचने, या किसी भी तरह इसे कम करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई समाज में सर्वोत्कृष्ट पदों की संरचना को बदल देती है।
चौथा प्रश्न : क्या हम एक समावेशी विकास कार्यक्रम के सहारे सीटों के आरक्षण को बाइपास कर सकते हैं?
हमें इस पूरी प्रक्रिया के दुष्चक्र को समझने की ज़रूरत है। ज़रूरी सामग्री उपलब्ध न होने के कारण वंचित समूहों के लोगों के लिए सर्वोत्कृष्ट पदों तक पहुंचना ज़्यादा कठिन हो जाता है और ऊंची कमाई वाले पदों पर इन समूहों का प्रतिनिधित्व जितना कम होगा, उनका औसत जीवन स्तर उतना ही नीचे होगा। इसे दोनों सिरों पर तोड़ने की ज़रूरत है: प्रभावकारी अॅफरमेटिव एक्शन ऊपरी छोर पर इसे तोड़ सकता है जिससे कुछ लोग सर्वोत्कृष्ट नौकरियों तक ज़्यादा आसानी से पहुंच पाएंगे, जबकि गरीबी उन्मूलन या आजीविका समर्थन और/या स्वास्थ्य और पोषण आधारित योजनाएं वंचित समुदायों के बीच ग़रीबों का जीवन स्तर ऊंचा करके इसे निचले सिरे से तोड़ सकती हैं।
पांचवां प्रश्न : लेकिन आदिवासी अलग-अलग इलाकों में खुशी से रहते हैं। उन्हें प्रतिनिधित्व या अॅफरमेटिव एक्शन की क्या आवश्यकता है?
उनकी स्थिति सुनने में जितनी संतोषजनक लगती है, उतनी है नहीं। 1871 में एक आपराधिक जनजाति अधिनियम पारित किया गया था जिसने स्थानीय सरकार को किसी भी जनजाति को ‘आपराधिक जनजाति’ घोषित करने में सक्षम बना दिया। कई जनजातियों को इस रूप में नामित किया गया था और आज तक, यह अधिसूचना रद्द होने के बाद भी, यह सामाजिक कलंक बरकरार है। अधिकांश अनुसूचित जनजातियां (एसटी) विकास के नाम पर अपनी ही भूमि से बेदखली से पीड़ित हैं। उन्हें उचित मुआवज़ा नहीं दिया जाता है और उनका पुनर्वास निम्न स्तरीय योजनाओं के तहत होता है।
छठा प्रश्न : हमें ओबीसी के लिए आरक्षण की आवश्यकता क्यों है? वे अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की तरह नहीं हैं।
ब्रिटिश काल से ओबीसी समुदाय को अस्पृश्यों, आदिवासियों और कुछ गैर हिंदू समुदायों के साथ जोड़ दिया गया था और उन्हें ‘पिछड़े या पददलित वर्ग’ के रूप में जाना जाता था। ओबीसी लगभग उन सभी समुदायों का एक समूह है, जो अपने प्रति बेहतर व्यवहार की मांग करते हैं क्योंकि उनकी जातियों को सामाजिक-आर्थिक पदानुक्रम में निम्न श्रेणी में रखा गया था, हालांकि वे अस्पृश्यों के समतुल्य निम्न कोटि में नहीं आते थे। 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बी.पी. मंडल आयोग ने ‘पिछड़े वर्गों’ की स्थिति का जायज़ा लिया और अॅफरमेटिव एक्शन की ज़रूरत महसूस की। यद्यपि ओबीसी समुदाय का एक सक्षम भाग अस्पृश्यों की तुलना में आर्थिक रूप से काफ़ी समृद्ध और सांस्कृतिक तौर पर ऊंची जाति के हिन्दुओं के काफ़ी समान है, फिर भी, इस समुदाय का एक बड़ा हिस्सा ऊंची जाति के हिन्दुओं की तुलना में काफ़ी कमज़ोर है।
सातवां प्रश्न : क्या आरक्षण का दायरा बढ़ता रहेगा? इसे क्यों रोका नहीं जा सकता?
आरक्षण भेदभाव के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए है। यह सामाजिक और आर्थिक असमानता को मिटाने का उपाय है, कारण नहीं। यह एससी और एसटी से शुरू हुआ और अब ओबीसी और महिलाओं तक पहुंच गया है। यौन और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए विभिन्न प्रकार की सकारात्मक कार्रवाइयों की भी मांग की जा रही है। अफ़सोस की बात है कि इतनी सकारात्मक कार्रवाईयों के बाद भी सामाजिक भेदभाव तेज़ी से फ़ैल रहा है। वास्तव में कई आरक्षित सीटें, मुख्य रूप से नौकरियों और उच्च शिक्षा में खाली पड़ी हैं।
कुछ मामलों में गैर-आरक्षित उम्मीदवारों को भी चोर दरवाज़े से आरक्षित सीटें दे दी जाती हैं! इस प्रकार अॅफरमेटिव एक्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अप्रभावी सिद्ध होता है क्योंकि सत्तारूढ़ वर्ग इसे पूरी ईमानदारी के साथ लागू नहीं करते हैं। अॅफरमेटिव एक्शन को तब तक जारी रहना चाहिए जब तक समाज में भेदभाव रहेगा, ताकि हम न केवल समानता और स्वतंत्रता के आधार पर, बल्कि भाईचारे के साथ भी अपना जीवन जी सकें।
(अनुवाद : डॉ. देविना अक्षयवर, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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