वर्ष 2011 का 8 दिसंबर। यह दिन मेरी जिंदगी का एक बेहद खास दिन था। उस दिन मेरी मुलाकात विश्व विख्यात कवि नामदेव लक्ष्मण ढसाल से हुई थी। वैसे तो 1999 से ही प्रायः हर साल मेरा मुंबई और नागपुर का दौरा होता रहा है। इन दौरों में अक्सर किसी न किसी से ढसाल साहब का जिक्र जरूर सुनता था। उनका नाम सुनते-सुनते उनसे मिलने की इच्छा भी धीरे-धीरे जागृत होने लगी। तब 6 दिसंबर यानी डॉ. आंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस के मौके पर मुंबई के शिवाजी पार्क में किताबों की प्रदर्शनी लगाने के दौरान कई बार उनसे मिलवाने के लिए वहां के मित्रों से अनुरोध किया करता था। हर बार पता चलता चला कि या तो वह बीमार हैं या पूना गए हुए हैं। ऐसा ही एक अवसर 6 दिसंबर, 2011 को फिर आया। उस दिन शिवाजी पार्क में मेरे स्टाॅल पर काफी भीड़ थी। उस दिन स्टाॅल पर जुटी भीड़ में से फिर किसी ने ढसाल साहब का जिक्र छेड़ दिया। मैंने बिना किसी खास व्यक्ति की ओर मुखातिब हुए यूं ही कह दिया कि काफी दिनों से उनसे मिलने की तमन्ना है, पर मिलने का अवसर अब तक नहीं मिला।
अचानक मेरी किताबों को उलटने-पलटने में व्यस्त एक व्यक्ति ने मेरी आंखों में आंखें डालकर सवाल किया- आप उनसे मिलना चाहते हैं?’ जी हां, क्या कोई उपाय है आपके पास, उनसे मिलवाने का? -मेरा जवाब था। हां, वह आजकल मुंबई में ही हैं, मैं मिलवा दूंगा। यह जवाब था उन सज्जन का, जो शिवाजी पार्क में स्टाॅल लगाने पर हर बार मेरे स्टॉल पर आते और घंटों किताबों को न सिर्फ उलटने-पलटने में व्यस्त रहते, बल्कि जाते-जाते हजार-पांच सौ की किताबें भी जरूर ले जाते। हर बार वहां जाने पर मुझे उनका इंतजार भी रहता था, किन्तु कभी विस्तार से उनका परिचय जानने का प्रयास नहीं किया। उस दिन प्रयास किया, तो पता चला वे दलित पैंथर के पदाधिकारी और ढसाल साहब के अत्यंत विश्वासपात्र सुरेश केदारे हैं। उन्होंने मिलने का दिन पूछा तो मैंने बता दिया- 8 दिसंबर। केदारे जी ने उनका लैंड लाइन नंबर और पता लिखकर देते हुए देते हुए कहा- ‘‘मैं उन्हें बता दूंगा, आप चले जाइएगा।”
नामदेव ढसाल से पहली मुलाकात
और मैं 8 दिसंबर को फोन करके पहुंच गया लोखंडवाला कॉम्प्लेक्स के निकट अंधेरी वेस्ट वाले उनके अपार्टमेंट फ्लोराइड में। दूसरे तल पर अवस्थित उनके फ़्लैट का कॉलबेल बजाते ही मुस्कराते हुए एक भद्र महिला ने दरवाजा खोला। बाद में जाना कि वह खुद उनकी अर्द्धांगिनी मल्लिका नामदेव ढसाल थीं। ऐसा लगा वे मेरे आने की प्रतीक्षा कर रही थीं। अंदर कदम रखते ही मैंने खुद को उनके ड्राइंग रूम में पाया। मुझे बैठने का अनुरोध कर वह अंदर कमरे में चली गईं और मैं कुछ हद तक धड़कते दिल से ढसाल साहब की प्रतीक्षा करने लगा। उनका ड्राइंग रूम आकार में बहुत विशाल तो नहीं था, किन्तु सुरुचिपूर्ण तरीके से सजा हुआ था। उसमें हर सभ्य दलित परिवार की भांति बाबा साहब की तस्वीर तो थी ही, साथ ही एक और व्यक्ति की विभिन्न मुद्राओं में एकाधिक तस्वीरें भी टंगी थीं; ज्यादातर तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाइट थीं। मैंने अनुमान लगा लिया कि वही होंगे ढसाल साहब। इन तस्वीरों के आधार पर उनके व्यक्तित्व की कल्पना करने लगा। ज्यादा नहीं, बमुश्किल तीन-चार मिनट प्रतीक्षा के बाद ही भव्य व्यक्तित्व के स्वामी ढसाल साहब को चेहरे पर भव्य मुस्कान लिए बड़ी मुश्किलों से, लगभग लंगड़ाते हुए अपनी ओर आते देखा। उन्हें देखकर मैं खड़ा हो गया। वह आए और मुझसे हाथ मिलाने के बाद बैठने का संकेत करते हुए धम्म से व्हील चेयर पर बैठ गए।
मैं लगभग 40 मिनट तक उनके साथ रहा। उनके लिए कई किताबें लेकर गया था। वे किताबें पलटते हुए वर्तमान हालात पर विचार-विमर्श करते रहे। हमारी चर्चा मुख्यतः केजरीवाल और अन्ना हजारे द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन पर केंद्रित रही। उनके पास से हटने का तो मन नहीं कर रहा था, किन्तु उनके स्वास्थ्य को देखते हुए और ज्यादा ठहरना उचित नहीं लगा। मैंने उनसे जाने की इजाजत मांगी। जब चलने लगा, तब उन्होंने मना करने के बावजूद मेरी जेब में कुछ रुपए ठूंस दिए। बाहर आकर गिना तो पाया 2,500 रुपए थे। उनके और हमारे बीच परवर्तीकाल में चिरकाल के लिए सेतु बने भाई सुरेश केदारे ने कहा था- ‘‘दादा दिल से राजा हैं।’’ उनके घर के हालात देखकर मुझे ऐसा लगा था कि वह आर्थिक प्राचुर्य नहीं, अभावों में ही जी रहे हैं। बावजूद इसके उन्होंने उतने रुपए मेरी जेब डाल दिए। ऐसा कोई राजा-दिल का व्यक्ति ही कर सकता था। बाद में तो उनसे हमारे संबंध बहुत प्रगाढ़ हुए और कई मुलाकातें हुईं। हर मुलाकात में उनकी शाही दिली का सबूत मिलता रहा।
जब नामदेव ढसाल ने मुंबई आने काे भेजा हवाई जहाज का टिकट
8 दिसंबर 2011 की उस मुलाकात के शायद एक माह बाद ही अचानक एक दिन फोन आया। उन्होंने कहा- ‘‘दुसाध जी अन्ना आन्दोलन के खिलाफ हम लोग तीन दिन बाद एक बड़ी प्रतिवाद सभा करने जा रहे हैं, आपको हर हाल में आना है।’’ ‘‘सर, मैं बनारस में हूं, इतनी जल्दी ट्रेन का टिकट कन्फर्म होना मुमकिन नहीं दीखता, अतः …’’ इससे आगे कि मैं कुछ कहता, मेरी बात को काटते हुए उन्होंने कहा- ‘‘डोंट वर्री! मैं जहाज का टिकट भेजता हूं।’’ और उन्होंने भेजा तथा मैं दादर, चैत्यभूमि के पास आयोजित उस सभा में पहुंचा भी, किन्तु देर से। मौसम खराब होने के कारण फ्लाइट कुछ देर से पहुंची थी। जब सभा स्थल पर पहुंचा, उस समय वह ज्ञापन देने के लिए राज्यपाल हाउस जाने की तैयारियों में व्यस्त दिखे। हम लोग एक दर्जन से अधिक गाड़ियों के काफिले के साथ गवर्नर हाउस पहुंचे और ज्ञापन दिया।
दरअसल, पहली मुलाकात में मैंने जो उन्हें कई किताबें भेंट की थीं, उनमें मेरी दो किताबें अन्ना-केजरीवाल के ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ आन्दोलन पर थीं, जिनमें मैंने उन्हें बुरी तरह एक्सपोज कर दिया था। उस समय तक इनके खिलाफ कम से कम हिंदी में कोई किताब नहीं आई थी। इसलिए ही उन्होंने एक विशेषज्ञ के तौर पर उस सभा को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया था। उस दौरे में दो दिन मुंबई में रहा। इस बीच हमने एकाधिक बार लंबी बातचीत की। एक दिन उन्होंने इस बात के लिए अफसोस जताया कि हिंदी पट्टी में बाबा साहब पर इतना काम हो रहा है, पर वहां के लेखकों से मिलने का अवसर नहीं निकाल पाया। बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने हिंदी पट्टी के लेखकों से मिलवाने की जिम्मेवारी मुझ पर डाल दी। उन दिनों मैं 15 मार्च को आयोजित होने वाले ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ के स्थापना दिवस की तैयारियों में व्यस्त था। मैंने एक पंथ-दो काज के तहत मौका-माहौल देखकर उन्हें आयोजन में मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने सहजता से स्वीकार कर लिया। तय यह हुआ कि 15 मार्च को वे स्थापना दिवस में शामिल होंगे और अगले दिन शाम को दिल्ली के दलित लेखकों के साथ डिनर करेंगे।
ढसाल का पत्र दुसाध के नाम
उसके बाद दिल्ली आकर अतिरिक्त उत्साह के साथ स्थापना दिवस की तैयारियों में जुट गया। आयोजन स्थल के लिए हमने चयन किया, दिल्ली के जेएनयू को। इस बीच कई लेखक मित्रों को डिनर के लिए तैयार भी कर लिया था। किन्तु प्रोग्राम के तीन-चार दिन पहले से ही उनके स्वास्थ्य में और गिरावट की खबरें आने लगीं। और शेष में स्थिति ऐसी हो गई कि वे आने की हालात में नहीं रहे। ऐसी स्थिति में उन्होंने 14 मार्च, 2012 को यह पत्र फैक्स के जरिए भेजा और अनुरोध किया कि इसे उपस्थिति श्रोताओं के मध्य पढ़कर, न आ पाने के लिए मेरी और से खेद प्रकट कर दीजिएगा और मैंने वैसा किया भी।
उनका वह दुर्लभ पत्र कहीं खो गया था, जो 7 नवंबर, 2018 को लैपटॉप पर कुछ पुरानी सामग्री ढूंढते-ढूंढते अचानक मिल गया, जिसे मैंने 8 नवंबर 2018 को फेसबुक पर डाल दिया। फेसबुक पर प्राख्यात लेखक प्रो. चौथीराम यादव, डॉ. लाल रत्नाकर, कर्मेंदु शिशिर, सुदेश तनवर, चंद्रभूषण सिंह यादव सहित अन्य कई लोगों ने उनके इस पत्र को एक स्वर में ‘ऐतिहासिक दस्तावेज’ करार दिया।
बहरहाल यह पत्र एकाधिक कारणों से मेरे लिए बेहद महत्त्वपूर्ण था। पहला तो यह कि इस पत्र में उनकी लिखावट मुझे विस्मित की थी। मैं ही क्यों, कोई भी उनकी लिखावट देखकर मेरी तरह ही विस्मित हो सकता है। बहुतों को पता नहीं है कि उन्होंने ‘फाइन आर्ट’ में ग्रेजुएशन किया था। इस कारण उनकी लिखावट बेहद खूबसूरत हुआ करती थी, जिसका साक्ष्य है यह पत्र। उनकी विरल लिखावट के अतिरिक्त इसके महत्वपूर्ण होने का दूसरा कारण यह रहा है कि उनके जैसी ऐतिहासिक शख्सियत ने मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति के साथ मिलकर बाबा साहब के मिशन को आगे बढ़ाने का आह्वान किया था।
अंतिम समय तक बनी चिर-परिचित मुस्कान
ढसाल साहब बहुत ही डोमिनेटिंग व्यक्तित्व के स्वामी रहे, जिनके सामने आने पर बड़े से बड़े लोग भी निस्तेज हो जाया करते थे। किन्तु एक खास बात यह थी कि उनके चेहरे पर हर समय एक ऐसी मुस्कान रहती थी, जिसके नीचे एवरेस्ट सरीखा बुलंद आत्मविश्वास और करुणा का अपार सागर हिलोरें मारते रहता था। इस मुस्कान को पहली बार मैंने 8 दिसंबर, 20011 को साक्षात उनके फ्लोरिडा अपार्टमेंट में उनके चेहरे पर देखा था। 2013 के 8 दिसंबर को जब मरीन लाइन के बॉम्बे हॉस्पिटल में उन्हें आखिरी बार जिंदगी और मौत से जूझते देखा, तब भी वह खास मुस्कान उनके चेहरे से जुदा नहीं हुई थी। 15 फरवरी,1949 को अपने जन्म से दलित भारत को धन्य करने वाले ग्रेट पैंथर ने उसी हॉस्पिटल में लगभग सवा महीने जिंदगी और मौत से आंख-मिचौली करते हुए 15 जनवरी, 2014 को आखिरी सांस ली थी। 2013 के 6 दिसंबर को शिवाजी पार्क के लिए रवाना होने के सप्ताह पूर्व ही हमारे मध्य सेतु रहे सुरेश केदारे भाई से पता चल चुका था कि पैंथरों के ‘दादा’ अर्थात हमारे ढसाल बहुत ही गंभीर हालात में बॉम्बे हॉस्पिटल में एडमिट किए गए हैं। ऐसे में 6 दिसंबर को शिवाजी पार्क में किताबों का स्टाॅल लगाने के बाद अगले ही दिन हॉस्पिटल पहुंच गया। किन्तु उनकी हालत इतनी गंभीर थी कि डॉक्टर ने मिलने की इजाजत ही नहीं दी। ऐसा लगा उनसे बिना मिले ही वापस आ जाना पड़ेगा। किन्तु उनके प्रति मेरी अपार श्रद्धा को देखते हुए खुद मल्लिका मैडम सहित उनके सहयोगियों ने बहुत रिक्वेस्ट कर डॉक्टर से मेरे लिए इजाजत मांगी और 2011 के 8 दिसंबर की पहली मुलाकात के बाद फिर एक और 8 दिसंबर 2013 को उनसे मिल सका,जो आखिरी मुलाकात साबित हुई।
भारी सावधानी के बीच आईसीयू में पड़े ढसाल साहब के पास पहुंचा। वह आंखें बंद किए बेड पर पड़े हुए थे। ‘सर! मैं आया हूं’, यह सुनते ही उन्होंने धीरे से आंखें खोलीं और साथ ही उनके चेहरे पर उनकी चिर-परिचित स्वाभाविक मुस्कान फैल गई। उन्होंने मद्धिम आवाज में पूछा- ‘‘सब ठीक है न!’’ मैं स्तब्ध था। सिर हिलाकर हामी भरा। वह और कुछ कहना चाहते थे। मैंने डॉक्टर की हिदायत को ध्यान में रखते हुए चुप रहने का संकेत किया। वे मुस्कराकर खामोश हो गए। फिर धीरे से कहा- ‘‘डाइवर्सिटी रुकनी नहीं चाहिए।’’ यह सुनकर मेरी आंखें छलछला गईं, किन्तु मैं खुद को सामान्य बनाए रखा। लगभग डेढ़-दो मिनट तक स्तब्ध होकर निहारते रहने के बाद इजाजत लेकर आईसीयू से बाहर आ गया। मन बहुत उदास था। ऐसा लगा ग्रेट पैंथर को दोबारा दहाड़ते हुए नहीं देख पाऊंगा। ….और आखिर जिसकी आशंका थी, वह दुखद खबर आ ही गई।
दादा नहीं रहे…
मैं 14 जनवरी 2014 को कोलकाता से दिल्ली के लिए चला था। भयंकर ठंडी रात में कम्बल में दुबककर सो रहा था। अचानक मोबाइल घनघना उठा। देखा सुबह के तीन बजे हैं और उधर से भाई सुरेश केदारे की कॉल आ रही थी। मैं समझ गया, ग्रेट पैंथर जन अरण्य का परित्याग कर चुका है। कॉल उठाई, तो उधर से आवाज आई- ‘‘दादा नहीं रहे!’’
विश्व कवि नामदेव ढसाल
अब जहां तक ढसाल साहब की महानता का सवाल है, उस पर बहुत कुछ लिखा गया है। देश-विदेश के अनेक लेखकों और बुद्धिजीवियों ने उनका आकलन किया है। किन्तु मेरा मानना है कि जितना हुआ है, वह पर्याप्त नहीं है। डॉ. आंबेडकर के बाद दलित समाज को बदलने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले इस पैंथर का संपूर्ण आकलन अभी भी बाकी है। वह विश्व इतिहास के पहले कवि रहे, जिन्होंने दलित पैंथर जैसा एक मिलिटेंट (उग्र) संगठन स्थापित कर देश और महाराष्ट्र की राजनीति में बवंडर पैदा कर दिया। अधिकांश लेखक-कवि-शिल्पी समाज परिवर्तन के लिए पहले से स्थापित सामाजिक/राजनीतिक संगठनों में योगदान किए, किन्तु स्वतंत्र रूप में, खासकर लेखक नहीं, किसी कवि ने दलित पैंथर जैसा आक्रामक संगठन कहीं नहीं बनाया। विष्णु खरे के शब्दों में- ‘‘वह कवि के रूप में रवीन्द्रनाथ टैगोर से बड़े ऐसे कवि थे, जिन्होंने देश और महाराष्ट्र की राजनीति को गहराई से प्रभावित किया।’’ अंतर्राष्ट्रीय कविता जगत में भारतीय कविता के विजिटिंग कार्ड रहे ढसाल साहब ने भारत में कविता को परम्परा से मुक्त एवं उसके आभिजात्यपन को ध्वस्त करने के साथ दलित साहित्य को जो तेवर दिया, उससे मुख्यधारा का साहित्य करुणा का विषय बनकर रह गया। यह सब बातें मैंने अपनी दो प्रकाशित पुस्तकों- सितम्बर 2012 में ‘टैगोर बनाम ढसाल’ तथा उनके मरणोपरांत मार्च,2014 में प्रकाशित ‘महाप्राण नामदेव ढसाल’ में लिखी हैं। लेकिन पद्मश्री ढसाल एक कवि, संगठनकर्ता और राजनेता से भी बहुत आगे की चीज थे। वह विश्व के इकलौते कवि-लेखक थे, जिनके समक्ष साहित्य और राजनीति ही नहीं अंडरवर्ल्ड की हस्तियां भी झुकती थीं। उन्होंने जिस तरह अपार प्रतिकूलताओं को जय करते हुए विविध क्षेत्रों में विश्वस्तरीय छाप छोड़ी, उसके आधार पर वे सिकंदर और नेपोलियन जैसे योद्धाओं की पंक्ति में स्थान पाने के हकदार थे, यह बात सिद्ध करने के लिए उन पर मैंने 2015 में एक खास किताब लिखने की परिकल्पना की। इसके लिए काफी हद तक जरूरी सामग्री भी जुटा लिया था। किन्तु 2014 के बाद जिस तरह देश के हालात बद से बदतर होने लगे, मुझे उस लंबी परियोजना से विरत होना पड़ा। यदि 2019 के बाद बहुजन भारत विशेषाधिकारयुक्त तबकों, जिनके खिलाफ संग्राम चलाने के लिए ही ढसाल साहब ने खुद को साधारण से अति-असाधारण में परिणत किया था, के हाथ से मुक्त हो सका तो फिर विश्व इतिहास की सबसे अनूठी शख्सियत से जुड़े अधूरे काम को पूरा करने में खुद को झोंक दूंगा। यह मेरी ग्रेट पैंथर के गुणानुरागियों के समक्ष प्रतिश्रुति है।
(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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