कहना अतिश्योक्ति नहीं कि हाल के वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने देश की सत्ता पर अपना कब्जा बनाए रखने के लिए समय-समय पर यह जताने की कोशिश की है कि वह दलित-बहुजनों का हितैषी है। साथ ही संघ यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि आंबेडकर उसके लिए पूजनीय हैं।। ऐसे में यह जानना महत्वपूर्ण हो जाता है कि आरएसएस के विचारों का बहुजनों के सवालों और उनके सरोकारों से क्या लेना-देना है? इसी विषय को केंद्र में रखकर दलित लेखक कंवल भारती ने इस पुस्तक का लेखन किया है जिसका फारवर्ड प्रेस बुक्स द्वारा प्रकाशन अंतिम चरण में है और जल्द ही पाठकों के बीच उपलब्ध होगी।
फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन के मुताबिक “दो सौ पृष्ठों की इस किताब के अजिल्द संस्करण की कीमत केवल दो सौ रुपए रखी जाएगी जबकि सजिल्द संस्करण की कीमत पांच सौ रुपए होगी। इसे हम आगामी 26 जनवरी 2019 को जारी करेंगे। पाठक इस किताब को अमेजन से सीधे खरीद सकेंगे। इसके अलावा हम शीघ्र प्रकाश्य अपनी किताबों के प्रकाशन के संबंध में न्यूज लेटर पर भी अपने पाठकों को अपडेट करते रहेंगे।”
इस किताब का कवर पृष्ठ आकर्षक तरीके से डिजायन किया गया है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण अशोक चक्र है जो बहुजन चिंतन को केंद्र में रखे जाने की पुष्टि करता है। साथ ही नागपुर स्थित दीक्षा भूमि की तस्वीर यह साफ बताती है कि इस किताब के जरिए आरएसएस के विचारों को बहुजन विचारों की कसौटी पर जांचा-परखा गया है।
कंवल भारती के शीघ्र प्रकाश्य इस किताब की भूमिका आनंद तेलतुबड़े ने लिखी है। वे लिखते हैं, “प्रस्तुत पुस्तक में मुख्य रूप से दलित-बहुजनों के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा वितरित आठ पुस्तकों पर उनके विचार शामिल हैं, जिनके अक्सर सीधे-सादे दलित शिकार हो जाते हैं। अब यह महज़ एक परिकल्पना नहीं रह गई है; यह पहले भी हुआ है और कुछ वर्षों से होता आ रहा है। 2014 के चुनाव से पहले दलितों को भरमाने की यह प्रक्रिया खतरनाक स्तर तक पहुंच गई थी। ज़्यादातर दलित नेता निर्लज्ज होकर भाजपा से जा मिले या आंबेडकर का नाम जपते हुए उस दल में शामिल हो गए।”
तेलतुंबड़े ने यह भी स्पष्ट किया है कि – “केंद्र में सत्ता प्राप्त करने के लिए हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा पहली लहर 1996 से 2004 तक अटल बिहारी बाजपेयी के प्रबंधन-काल में चलाई गई। पहले दो प्रयास अल्पकालिक रहे, मई 1996 में केवल 13 दिन और 1998-99 में 13 महीने। लेकिन अंतिम काल 1999 से 2004 तक पूर्ण हुआ। हालांकि बाजपेयी अपनी उदारता के लिए प्रसिद्ध थे और अपने नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) के तहत अन्य पार्टियों पर अनिश्चित रूप से निर्भर थे, फिर भी उन्होंने अपने बृहत् संगठन आरएसएस के ज़हरीले दांतों का ही प्रदर्शन किया।”
अपनी पुस्तक में कंवल भारती ने एक दर्जन लेखों के जरिये यह बताने का प्रयास किया है कि आरएसएस की विचारधारा कैसी रही है और किस प्रकार दलित-बहुजनों को भ्रम में डालने की साजिश रची गयी है। मसलन सबसे पहले कंवल भारती इसकी थाह लेते हैं कि हिंदू राष्ट्र का जागरण अभियान क्या है। वहीं अपने दूसरे लेख में वे ‘हिंदुत्व : एक मिथ्या दृष्टि और जीवन पद्धति’ के जरिए भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से पाठकों को रू-ब-रू कराते हैं। अपने अगले ही लेख ‘सच और मिथक’ में वह हिंदुवादी मिथकों का सच भी सामने रखते हैं।
कंवल भारती ने इसी पुस्तक में आरएसएस के गौरक्षा अभियान पर सवाल उठाया है। अपने इस लेख में उन्होंने गोवंश, रक्षण, पालन और संवर्द्धन के संबंर्धन में आरएएस के विचारों पर विस्तार से लिखा है।
अपने एक लेख ‘क्या वीर सावरकर दलित-उद्धारक थे?’ में वे आरएसएस के द्वारा फैलाए जा रहे प्रोपगेंडा के बारे में बताते हैं कि आरएसएस के विचारों में दलित और उनके मुद्दे शामिल ही नहीं हैं।
अपने अंतिम लेख में कंवल भारती ने खूबसूरती से यह बताने का प्रयास किया है कि वे आंबेडकर कौन हैं जिनकी आरएसएस आज पूजा कर रहा है।
इस प्रकार फारवर्ड प्रेस द्वारा शीघ्र प्रकाशित होने वाली कंवल भारती की यह किताब दलित-बहुजनों के लिए काफी उपयोगी साबित होगी। यह उन्हें आरएसएस के भ्रम से तो दूर करेगी ही, साथ ही उन्हें उस राह पर चलने की प्रेरणा भी देगी जो आंबेडकर द्वारा बहुसंख्यकों के हित में दिखायी गयी थी।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)
(आलेख परिवर्द्धित : 15 जनवरी 2019, 2 : 18 PM)
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