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कितना कारगर होगा आदित्यनाथ का ओबीसी को तीन फाड़ करने का मंसूबा

भाजपा उत्तर प्रदेश में ओबीसी के उपवर्गीकरण का लिटमस टेस्ट करने जा रही है। अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव के पहले वह उत्तर प्रदेश में आजमा लेना चाहती है कि यदि ओबीसी का उपवर्गीकरण हो तो इसके राजनीतिक नफा-नुकसान क्या होंगे

वैसे तो यह मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन चुका है। खासकर जब 2017 में केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों के लिए राष्ट्रीय आयोग को भंग कर दिया और दिल्ली हाईकोर्ट की सेवानिवृत्त न्यायाधीश जी. रोहिणी के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया गया। मकसद था कि ओबीसी का उपवर्गीकरण हो। इसका लक्ष्य यह बताया गया कि ओबीसी आरक्षण का लाभ ओबीसी में शामिल उन जातियों को मिले जो आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाते हैं। जाहिर तौर पर इसके राजनीतिक मायने भी हैं। संभावना यह जतायी जा रही है कि केंद्र सरकार इस मामले में अगले वर्ष लोकसभा चुनाव के ठीक पहले अपने पत्ते खोलेगी।

लेकिन इसके पहले इसके लिटमस टेस्ट की तैयारी उत्तर प्रदेश में की जा रही है। योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा ओबीसी आरक्षण में बंटवारे से संबंधित एक विधेयक लाये जाने की संभावना है। इसके मुताबिक ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण को तीन हिस्से में बांटे जाने की बात कही जा रही है। ये तीन हिस्से हैं पिछड़ा, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा। पहली श्रेणी को 7 फीसदी, दूसरी को 11 फीसदी और तीसरी श्रेणी को 9 फीसदी आरक्षण देने की बात है। इसका एक दूसरा पहलू यह है कि उत्तर प्रदेश में ओबीसी की अगड़ी तीन जातियों यादव, कुशवाहा और कुर्मी को 7 फीसदी में सीमित कर दिया जाएगा।

नजर सपा-बसपा गठबंधन की काट पर : योगी आदित्यनाथ, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री

सनद रहे कि ओबीसी के कोटे के अंदर कोटे की राजनीति पर योगी आदित्यनाथ की नजर तब पड़ी जब सपा और बसपा के गठबंधन ने फूलपुर और गोरखपुर में हुए उपचुनाव में करारी मात दी। भाजपा और इसके नेताओं का मानना है कि जबतक ओबीसी की अगड़ी जातियों को अन्य जातियों से अलग नहीं किया जाएगा तब तक सपा और बसपा के गठबंधन के प्रभाव से बचा नहीं जा सकता।

इस प्रकार उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव से पूर्व आरक्षण का खेल खेले जाने की तैयारी है। हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब ऐसा किया जा रहा है। इससे पहले 28 अक्टूबर 2000 को मुख्यमंत्री बने राजनाथ सिंह ने पहली बार कोटे में कोटा का प्रयास किया था। राजनाथ ने हुकुम सिंह के नेतृत्व में सामाजिक न्याय समिति बनाकर आरक्षण का बंटवारा किया ताकि आरक्षण का सबसे अधिक फायदा लेने वाली यादव, कुर्मी और जाट बिरादरी के लोगों की जगह उन जातियों को आरक्षण का फायदा मिल सके जो सामाजिक और आर्थिक रूप से उक्त जातियों से काफी कमजोर थीं। राजनाथ सिंह का प्रयास इससे पहले कि अमल में लाया जाता, इसके पहले ही उनकी सरकार के एक मंत्री अशोक यादव की याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने स्थगन आदेश दे दिया था। इस कारण  यह लागू नहीं हो सका। इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को हार का भी सामना करना पड़ा था।

राजनाथ सिंह ने ओबीसी के बंटवारे को लेकर 2000 में बनाया था सामाजिक न्याय समिति

इसमें दो राय नहीं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह भले ही सामाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण में आरक्षण की वकालत कर रहे थे, लेकिन उनकी नजर पिछड़ों के वोट बैंक पर थी। इसी प्रकार वोट बैंक की सियासत के तहत मुलायम सिंह यादव ने अपने शासनकाल के दौरान पिछड़ा वर्ग के तहत आरक्षण प्राप्त कर रही कुछ जातियों को अनुसूचित जाति/जनजाति की श्रेणी में डाल दिया था। मुलायम की इसके पीछे की मंशा यही थी कि पिछड़ा वर्ग में जातियों की संख्या जितनी कम रहेगी, उतना फायदा उनके वोट बैंक समझे जाने वाले यादव, कुर्मी और जाट को मिलेगा। मुलायम के इस कदम का एससी/एसटी आरक्षण एक्ट के तहत फायदा लेने वाली जातियों ने काफी विरोध किया था। वर्ष 2005 में मुलायम सरकार ने बिंद, केवट, मल्लाह आदि जातियों को पिछड़ा वर्ग से निकालकर अनुसूचित जाति का दर्जा दे दिया था, लेकिन मायावती की सरकार ने इसे खत्म कर दिया। 2012 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भी समाजवादी पार्टी (सपा) के तत्कालीन अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने वादा किया था कि चुनाव बाद राज्य में पार्टी की सरकार आने पर बीस अति पिछड़ी जाति को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाकर आरक्षण की सीमा में लाया जाएगा, लेकिन अखिलेश सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।

मुलायम सिंह यादव भी आजमा चुके हैं फार्मूला

वैसे कोटे में कोटा का मामला अकेले केवल उत्तर प्रदेश का मामला नहीं है। 11 अन्य प्रदेशों में अति पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त है। बिहार, हरियाणा, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, पांडुचेरी, पश्चिम बंगाल, केरल और जम्मू-कश्मीर में यह व्यवस्था लागू है। उत्तर प्रदेश में भी इसे काफी पहले लागू हो जाना चाहिए था। यहां सामाजिक न्याय का दंभ भरने वाली सपा−बसपा को पूर्ण बहुमत से सरकार चलाने का अवसर मिला, लेकिन अति पिछड़ा और अति दलित कभी इनके एजेंडे में नहीं रहा। जब सपा सत्ता में थी तब बसपा उस पर जाति विशेष को ही प्रत्येक स्तर पर अहमियत देने का आरोप लगाती थी।  इसमें अति पिछड़ा कहीं नहीं थे। बसपा सत्ता में थी तब सपा उस पर जाति विशेष की हिमायत का आरोप लगाती थी। बसपा की मेहरबानी अति दलितों के लिए नहीं थी। आज दोनों पार्टियां गठबन्धन को बेताब हैं, लेकिन उनकी चिंता में आज भी अति पिछड़ा और अति दलित नहीं हैं।

बहरहाल, अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पूर्व उत्तर प्रदेश में नये सिरे से कोटे में कोटा निर्धारित करने के लिये दलितों और पिछड़ों के आरक्षण में बंटवारे के लिए गठित सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट योगी सरकार के पास पहुंच गई है। योगी सरकार ने मंजूरी दे दी (जिसकी पूरी उम्मीद है) तो, एससी/एसटी और पिछड़ा वर्ग आरक्षण तीन बराबर हिस्सों में बंट जायेगा।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

कुमार समीर

कुमार समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने राष्ट्रीय सहारा समेत विभिन्न समाचार पत्रों में काम किया है तथा हिंदी दैनिक 'नेशनल दुनिया' के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक रहे हैं

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