यदि हमारे लोग जाति, धर्म, आदतों और रीति-रिवाजों में सुधार लाने को तैयार नहीं होते हैं, तो वे स्वतंत्रता, प्रगति और आत्म-सम्मान पाने की शुरूआत कैसे कर सकते हैं?
एक बड़ी आबादी आज अछूतों के रूप में बनी हुई है, और इससे भी बड़ी आबादी भूदासों, कुलियों, घरेलू नौकरों और गैरकानूनी बच्चों के रूप में शूद्रों के नाम पर मौजूद है। ऐसी आज़ादी किस काम की, जो इन भेदभावों को खत्म नहीं कर सकती? ऐसा धर्म, ऐसे धर्मशास्त्र और ऐसा ईश्वर किसे चाहिए, जो परिवर्तन नहीं कर सकता?
चूंकि इस देश में पार्टियां जातियों और समुदायों की चिंता से सम्बन्धित हैं, इसलिए राजनीति भी जनता के कल्याण की बजाए इन सांप्रदायिक दलों के लिए ही की जाती है।
स्वतन्त्रता की जमीन पर क्या नागरिक शूद्र (वेश्या के वारिस) हो सकते हैं? क्या नागरिकों को अछूत, दास, पापी और सेवक मानने वाले धर्म, महाकाव्य और कानून (स्मृतियां) हो सकते हैं? सोचो और कुछ करो।
कोई आदमी मुझसे कम नहीं है। इसी तरह, कोई भी मुझसे बेहतर नहीं है। मतलब यह कि हर व्यक्ति स्वतंत्र और समान है। इस स्थिति को पैदा करने के लिए जाति का उन्मूलन जरूरी है।
डॉक्टर रोगी को ठीक करते हैं, और रोग फिर रोगी को पकड़ लेता है. जब तक रोग को खत्म करने के लिए उसके मूल कारण को नहीं खोजा जायेगा, बीमारी खत्म नहीं होगी। इसलिए बीमारी होने पर हर बार एक ही तरह की दवाएं देते रहना असर करने वाला उपाय नहीं है। इसी तरह, जातिवाद की जो बीमारी हमारे समाज को नष्ट कर रही है, उसकी जब हम मूल जड़ का पता लगाएंगे, तभी उसे समाप्त किया जा सकता है।
जो जाति व्यवस्था जन्म के आधार पर ऊंच-नीच की शिक्षा देती है, उसे हर आधार पर नष्ट किया जाना चाहिए।
उस आदमी की लोग न निंदा करते हैं, और न उसे जाति से बहिष्कृत करते हैं, जो चोरी करता है, या झूठ बोलता है या बिना परिश्रम किए निठल्ला बनकर जीने का प्रयास करता है। लेकिन यदि वह अपनी जाति से बाहर खाना खाता है, या अपनी जाति के बाहर शादी करता है तो वह जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। यह है इन लोगों का चरित्र और जाति की हठधर्मिता।
यदि किसी क्षेत्र में, दो कुंए हैं, एक में खारा पानी है, जो पीने योग्य नहीं है, और दूसरे में पीने योग्य मीठा पानी है, तो उस पीने योग्य पानी का उपयोग किसी विशेष वर्ग द्वारा किया जाता है, और दूसरी तरफ खारे पानी वाले कुंए का उपयोग दूसरे वर्ग द्वारा किया जाता है, यानी एक वर्ग अकेले उस मीठे पानी को पीने के लिए योग्य है और दूसरा वर्ग उसे पीने के लिए योग्य नहीं है, जरा इस पर विचार करें कि यह क्रूरता कितनी दर्दनाक है। हमारी जाति व्यवस्था इतनी हद तक दर्द पैदा करने के लिए इतनी स्थापित की गई है। हमारी जाति व्यवस्था इतनी हद तक पीड़ा पहुंचाने के लिए स्थापित की गई है। जब तक कि इस जाति व्यवस्था का, जो थोड़े से ब्राह्मणों को आराम पहुंचाने और बहुतों को पीड़ित करने के लिए स्थापित की गई है, इस देश से उन्मूलन नहीं किया जायेगा, तब तक हम निश्चित रूप से इन अत्याचारों से कभी छुटकारा नहीं पाएंगे।
हमारे अतिरिक्त इन्द्रिय-ज्ञान का उपयोग क्या है? हालांकि जानवर एक अर्थ में जातिहीन हैं; पर हम जाति के कारण, अपने छठे इन्द्रिय-ज्ञान के बावजूद, अपमान का सामना करते हैं। क्या हमें इस पर विचार नहीं करना चाहिए?
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वर्तमान में भारत का संविधान जाति के उन्मूलन के लिए अनुकूल नहीं है। यह इसे मौलिक अधिकार के विपरीत मानता है, और साथ ही, यह सांप्रदायिक अनुपात को भी प्रतिबंधित करता है क्योंकि यह वर्ग-घृणा को मानता है। कहने के लिए कि जाति रह सकती है, लेकिन जाति के आधार पर विशेषाधिकारों का बना रहना सबसे बड़ी धोखाधड़ी है।
जाति संस्कृत भाषा का शब्द है। तमिल में जाति के लिए कोई शब्द नहीं है। तमिल में किसी का ‘संप्रदाय’ या ‘वर्ग’ पूछना एक रिवाज है। पर जन्म के आधार पर किसी के साथ जातीय भेदभाव नहीं किया जाता है। मानव जाति के बीच कोई जाति नहीं हो सकती है। एक ही देश के रहने वालों में जाति और जातीय भेदभाव की बात करना बहुत बड़ी शरारत है।
(यह लेख कलेक्टेड वर्क्स ऑफ पेरियार ई. वी. आर., संयोजन : डॉ. के. वीरामणि, प्रकाशक : दी पेरियार सेल्फ-रेसपेक्ट प्रोपगंडा इन्स्टीच्यूशन, पेरियार थाइडल, 50, ई. वी. के. संपथ सलाय, वेपरी, चेन्नई – 600007 के प्रथम संस्करण, 1981 में संकलित ‘’दि इरैडिकेशन ऑफ कास्ट’ का अनुवाद है)
(अनुवाद : कँवल भारती, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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