पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमारे भारतीय राष्ट्रीय जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श का केंद्रीय विषय रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ तब इसे आरएसएस के शक्ति विस्तार के रूप में प्रचारित किया गया। संघ के संस्थापकों ने अपने लक्ष्य, यानि हिन्दू राष्ट्र की प्राप्ति के लिए सौ वर्ष की कालावधि तय की थी। कहा जा सकता है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति में वे बहुत अंशों तक सफल हुए।
संघ की सफलता कुछ मूल्यों की विफलता भी थी। यही कारण है कि संघ की इस सफलता ने हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक उथल-पुथल मचा दी है। जिस भारत का निर्माण महान दार्शनिकों, कवियों और संत-महात्माओं ने हज़ारों वर्षों में अपनी कठिन साधना से किया था; वह तार-तार होता महसूस हो रहा है। संघ हमेशा राष्ट्रीयता की वकालत करता है, भारतीयता की नहीं। यह इसलिए कि भारतीयता उसके अनुदार हिंदुत्व को सँभालने में अक्षम है, जबकि राष्ट्रवाद के पश्चिमी दृष्टिकोण में यह संभव दिखता है। संघ का मूल चिंतन उस यूरोपीय दर्शन से प्रभावित है जो नास्तिकता की जगह ईश्वर के मानने की उद्घोषणा करता है और महामानव अथवा सुपरमैन की अवधारणा के रूप में सोशल डर्विनिस्म अथवा सामाजिक योग्यतावाद की प्रस्तावना करता है। फ्रेडरिक नीत्शे इसका मुख्य उद्घोषक था, जिसने बुद्ध और ईसा को मानव जाति के विकास का अवरोधक माना था। यूरोप में इस दर्शन से प्रभावित होने वाली राजनीति मुसोलिनी और हिटलर की फासीवादी-नाजीवादी राजनीति थी। आवारा विकास और योग्यों के वर्चस्व की विचारणा इस राजनीति का केन्द्रक था। इसकी परिणति से हम सब परिचित हैं।

हाल के वर्षों में संघ के लोगों ने फुले-आंबेडकर के व्यक्तित्व और विचार की अनाप-शनाप व्याख्या की है। यह इसलिए कि लोकतान्त्रिक राजनैतिक ढाँचे में अपने वर्चस्ववादी सामाजिक दर्शन और राजनीति को बल देने के लिए उसे हिन्दू समाज के पिछड़े-दलित जन समूह के समर्थन की सख्त दरकार है। वे फुले-आंबेडकर की मूर्ति पर माला और उनके विचारों पर ताला डालने के लिए सक्रिय हुए हैं। ऐसे में आवश्यक था, इस पूरे सन्दर्भ की समीक्षा की जाय और वस्तुस्थिति को स्पष्ट किया जाय। यह मुश्किल काम था। विद्वान लेखक-चिंतक कँवल भारती ने अपनी किताब ‘आरएसएस और बहुजन चिंतन’ द्वारा इसे संभव किया है।
मैं चाहूंगा कि यह किताब उन सब लोगों द्वारा पढ़ी जाय जो समतामूलक और विवेकपूर्ण समाज-राष्ट्र बनाने के लिए सक्रिय हैं। जो हर तरह के वर्चस्व को नकारते हुए मनुष्यता, राजनीति और संस्कृति को नया आयाम देना चाहते हैं। दलित-पिछड़े तबकों से आये सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए यह किताब और भी जरुरी है क्योंकि इन तबकों से आये हुए अधिकांश पढ़े-लिखे लोग भी आंबेडकर को दलित घेरे में आरक्षण की अवधारणा तक सीमित रखना चाहते हैं। इससे आगे बढ़ना उन्हें असुविधाजनक महसूस होता है। संघ को आरक्षण और सीमित विशेषाधिकारों को स्वीकार लेने में कोई असुविधा नहीं है, बशर्ते विशाल बहुजन समुदाय उनके वर्चस्ववादी-ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक-राजनीतिक मिशन का हिस्सा बन जाय। इस किताब से गुजरते हुए ऐसे ही कुछ जरुरी सवालों और ख्यालों से हम रु-ब-रु होते हैं। यह अनुभव हमें वैचारिक तौर पर समृद्ध और संशयमुक्त बनाता है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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