ऐसा क्यों है कि हम एक विदेशी से यह अपेक्षा की जाती है कि वह हिमालय पर्वत की ऊंचाई का पता लगाए, जबकि हम यह दावा करते हैं कि हमने सात दुनिया ऊपर और सात नीचे की खोज कर ली है? ऐसा क्यों है कि हम भगवान नटराज के ब्रह्मांड नृत्य का विस्तार करने की क्षमता रखने का दावा करते हैं, पर इस सरल लाउडस्पीकर का निर्माण हमारे लिए पहेली बन जाता है? हमें वास्तव में इन पहलुओं पर विचार करना चाहिए। आपको अपने सामान्य ज्ञान को बढ़ाने के लिए तर्क का उपयोग करना आना चाहिए।
मनुष्य को इस दुनिया में अन्य प्राणियों से बेहतर माना जाता है, क्योंकि उसने ज्ञान का उपयोग करते हुए काफी उन्नति की है। लेकिन हमारे देशवासियों की स्थिति इस ज्ञान का उपयोग न करने के कारण बेहद खराब हो रही है। यह बताते हुए कि हमारी भूमि ज्ञान की भूमि है, हम टैंक और मंदिर बनाते हैं, जबकि अन्य देशों में, लोग अंतरिक्ष में उड़ते हैं और पूरी दुनिया को आश्चर्यचकित करते हैं।
अन्य देशों में, अकेले ज्ञान का सम्मान किया जाता है और उसी पर भरोसे किया जाता है. और उसी को हर खोज का मूल आधार माना जाता है। लेकिन इस देश में, लोग केवल ईश्वर में, धर्म में और इसी तरह के बकवास के अनुष्ठानों और समारोहों में विश्वास करते हैं।
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तर्कवाद से पैदा हुआ ज्ञान ही असली ज्ञान है। क्या महज किताबी ज्ञान, ज्ञान हो सकता है? क्या कोई रट्टा लगाकर प्रतिभाशाली हो सकता है? ऐसा क्यों है कि उच्चतम बौद्धिक प्रतिभा वाले शिक्षित व्यक्ति और वे भी, जो विशेष रूप से विज्ञान में डिग्री धारी हैं, एक पत्थर को देवता मानकर उसके आगे दण्डवत होते हैं? क्यों विज्ञान में महारत हासिल करने वाले विद्वान् भी अपने पापों को धोने के लिए खुद को गंदे पानी से मलते हैं? क्या उनके द्वारा पढ़े गए विज्ञान और गोबर तथा गोमूत्र के मिश्रण से अभिषेक करने के बीच कोई संबंध है?
रामायण और महाभारत से हवाई जहाज का संदर्भ दिया जाता है, लेकिन उसे जादू की शक्ति से चलाया जाता है। अंग्रेजी साहित्य में भी हवाई जहाज का अर्थ बताया गया है, लेकिन वह यांत्रिक शक्ति से उड़ता है। हमें अब क्या चाहिए? यांत्रिक ऊर्जा या जादुई शक्ति?
आइए हम एक ही माता-पिता के दो बच्चों को लेते हैं, एक को इंग्लैंड में पालते हैं और दूसरे को अपने देश में। इंग्लैंड वाला बच्चा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सबकुछ देखेगा, और अपने देश वाला दूसरा बच्चा सब कुछ धार्मिक दृष्टिकोण से सोचेगा।
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हमारे देश में वर्तमान अराजकता और पतन का कारण यह है कि हमें अनुसंधान और विचार करने से रोका गया है और तर्क का प्रयोग करने पर हमारा दमन किया गया है।
आप किसी भी तरह से ईश्वर को मानो और किसी भी तरह के अच्छे इरादों से धर्म को मानो, परिणाम वही होगा। एक सुधारवादी ईश्वर और एक तर्कसंगत धर्म से आप एक अंधविश्वासी ईश्वर और एक अंधे धर्म से ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर सकते।
जैसे ही मनुष्य के सामाजिक भले के लिए मशीनों का आविष्कार हुआ, मनुष्य को अतिरिक्त लाभ देने, उसका श्रम और समय बचाने के लिए, उन्हें पूंजीपतियों के नियंत्रण में– मजदूरों को भूखा रखने के लिए—सौंप दिया गया, और उन्होंने अपनी संतुष्टि और आराम के लिए लोगों को दुःख, गरीबी और चिंता में रखने के लिए गुलाम बना दिया।
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आदमी के पास विवेक है। यह उसे जांचने-परखने के लिए दिया गया है, न कि अंधा जानवर बनने के लिए। मनुष्य विवेक का दुरूपयोग करके खुद को बहुत सी परेशानियों में डाल लेता है। जैसे कि उसने अपनी परेशानियों के विरोध स्वरूप ईश्वर को बनाया है।
जीवन में अनिश्चितताएँ, अभाव के कारण असंतोष और व्यक्तियों के बीच स्वार्थी प्रतिस्पर्धा, यदि ये किसी देश में मौजूद हैं, तो यह स्पष्ट है कि उस देश के लोगों के पास विवेक की पूर्ण शक्तियां नहीं हैं। जिस देश में लोग स्वतंत्र रूप से और संतुष्टि में रहते हैं, उससे पता चलता है कि वहां के नियम विवेक-सम्मत हैं।
मनुष्य का मानना है कि उसे अपने बच्चों के लिए धन इकट्ठा करना चाहिए, उनके पास बुद्धि का उपहार है, इसीलिए वे अपने समाज को धोखा देकर भी धन इकठ्ठा करते हैं। लेकिन जानवरों और पक्षियों के पास बुद्धि का उपहार नहीं है, इसलिए वे अपने वंश के लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखते हैं, वे समय आने पर अपने बच्चों के लिए शिकार करते हैं, चोंच में भरकर लाते हैं और खिलाते हैं। वे उनकी परवाह नहीं करते हैं या बाद में उन्हें याद भी नहीं करते हैं।
दो हज़ार साल की अवधि के भीतर, लोगों ने अपनी बुद्धि का उपयोग करने का विशेषाधिकार खो दिया था। ज्ञान में वृद्धि नहीं हुई, और समाज में सुधार नहीं हुआ, क्योंकि लोगों को सवाल करने का अधिकार नहीं था कि चीजें क्यों और कैसे होती हैं; उन्होंने सिर्फ लिखे गए शब्दों को ही सुना और विश्वास किया। उन्हें बताया जा रहा था कि सोचना, बहस करना और संदेह करना पाप है।
ईश्वर, संतों, ऋषियों और अवतारों की बात को समझना मनुष्य की अपनी बुद्धि से परे है। जो भी विवेक और आत्म-सम्मान के अनुरूप नहीं है, उसे छोड़ दिया जाना चाहिए।
अगर अंधविश्वास हटा दिया जाए और धर्म को विवेक के प्रकाश में देखा जाए, तो कोई धर्म जीवित नहीं रहेगा।
अगर लालच खत्म हो जाता है, तो कोई भी व्यक्ति विश्वास नहीं करेगा कि उसकी बुद्धि और अनुभव के विपरीत क्या है।
मुझे नहीं पता कि हमारे लोगों को विवेक और परिपक्वता प्राप्त करने के लिए अभी कितनी शताब्दियों का और इंतजार करना है। मुझे विश्वास है कि तमिलनाडु का तब तक उद्धार नहीं होगा, जब तक कि वह एक विनाशकारी जलप्रलय या तूफान या बाढ़ या भूकंप में नष्ट होकर एक नया निर्माण न हो जाए।
यह बुद्धिवाद के माध्यम से हुआ है कि मनुष्य की दीर्घायु में वृद्धि हुई है और उसकी मृत्यु दर में काफी कमी आई है।
जो ज्ञान रखता है, और प्रकृति से अवगत है, वह दुःख से मुक्त है। जब एक इंजेक्शन लगता है, तो दर्द होता है, पर वह अच्छे स्वास्थ्य के लिए दिया जाता है; लेकिन दर्द के बावजूद, हर कोई उसे इलाज की उम्मीद में बर्दाश्त करता है। वह ज्ञान की प्रकृति है।
यह सोचने की शक्ति ही है, जो मनुष्य को जानवरों और पक्षियों से अलग करती है। हालाँकि, यह इस कारण से है कि ये मनुष्य से ज्यादा मजबूत हैं, उसके द्वारा गुलाम बनाए गए हैं।
यह तर्क की शक्ति है, जो मनुष्य में किसी भी अन्य शक्ति से अधिक है, जो उसे अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ बनाती है, इसलिए, हम कह सकते हैं कि इसके उपयोग की सीमा के अनुपात में वह स्वयं को मानवीय गुणों से संचालित करता है।
जो अपने विवेक का उपयोग नहीं करता है, वह सिर्फ एक पशु है।
क्योंकि हमें लगातार बताकर यह मानने के लिए मजबूर किया जाता है कि तर्क करना या तर्क से किसी मामले की जांच करना पाप है, इसलिए हम अब किसी भी मामले का विश्लेषण करने में असमर्थ हैं। यदि हम साहस के साथ तर्क का इस्तेमाल करें, तो हम तेजी से प्रगति कर सकते हैं।
बर्बर कौन है? वह, जिसके पास दिमाग नहीं है; वह, जिसके पास विवेक नहीं है; वह, जो सोच और विवेक होने के बावजूद तर्क नहीं करता है; और वह, जो बिना सोचे-समझे दूसरों को दोष देता है; मैं इन सबको बर्बर मानता हूँ।
तर्कसंगत ढंग से सोचे बिना, अंधविश्वासों को मानते रहने से ही मजदूर गुलाम बनने की स्थिति में चले गए हैं।
इस नग्न भूमि में, जो खुद को ढकता है, उसे पागल समझा जाता है। क्या इसी तरह, बर्बर लोगों की भूमि में, तर्क करने वालों को पागल नहीं कहा जाता है?
जो कुछ भी किया गया है, जो भी घटना और मामला है, हमें पहले यह देखना चाहिए कि वे अनुभव और जांच के साथ क्यों और किन चीजों से मेल खाते हैं। तभी ज्ञान बढ़ेगा। इसके बजाय, यदि रिवाज, परंपरा और पैतृक प्रथा का पालन किया जाता रहेगा, तो केवल मूर्खता बढ़ेगी, बुद्धि नहीं।
किसी का केवल इसलिए अनुसरण मत करो कि किसी और ने ऐसा कहा है। दूसरों के सामने अपना ज़मीर मत बेचो। हर चीज में विश्लेषण और छानबीन करो।
आप अपने पैसे और गरिमा को खर्च करने और किसी भी हद तक अपनी स्वतंत्रता और समानता को छोड़ने के लिए तैयार हैं। लेकिन आप कुछ हद तक अपने विवेक का उपयोग करने में संकोच करते हैं। आप केवल इसी में इस तरह का संकोच क्यों दिखाते हैं? यदि यह स्थिति लगातार बनी रहती है, तो हम कब मनुष्य कब हुए?
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इससे पहले कि हम मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्यपाल, गवर्नर जनरल या महात्मा बनें, सबसे पहले, हम सभी को मनुष्य बनना चाहिए; सबसे पहले, विवेक बढ़ना चाहिए, और सहज विचार प्रक्रिया पनपनी चाहिए, जिससे हम मनुष्य बन सकें।
यहां तक कि जब हम एक साड़ी खरीदते हैं तो पूरी सौदेबाजी के बाद खरीदते हैं, हम उसी दुकान से साड़ी खरीदते हैं, जिससे पहले खरीदी थी, और जो ईमानदार भी है और सेवा भी अच्छी करता है। हम ऐसे तुच्छ मामलों के लिए अपने विवेक का उपयोग करते हैं, पर महत्वपूर्ण मामलों में विवेक उपयोग करने में विफल रहते हैं। इसलिए हम काफी छले जाते हैं। इसलिए मेरा पहला कर्तव्य विवेक की आवश्यकता पर बल देना है।
आज हमें हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए ज्ञान की वृद्धि की आवश्यकता है। ज्ञान का बोलबाला होना चाहिए।
आज मनुष्य को पैसा, या आश्रय या परिवहन की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसे बुद्धि के विकास की आवश्यकता है। हमें किसी भी धन को अर्जित करने की अपेक्षा ज्ञान प्राप्त करने के लिए अधिक प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए।
आपकी अपनी चेतना आपको नियंत्रित करती है, ईश्वर या धार्मिक लोग नहीं। जो मैं कहता हूं उसे सीधे स्वीकार किए बिना, केवल वही स्वीकार करो, जो आपके विवेक को सही लगे, और बाकी को अस्वीकार कर दो।
विवेक मनुष्य का जीवन-रक्त है। सभी प्राणियों में, केवल मनुष्य के पास विवेक है। जिसकी विवेक की क्षमता जितनी कम होती है, वह अपेक्षाकृत उतना ही अधिक बर्बर होता है। वह जो परिपक्वता प्राप्त करता है, स्पष्टता रूप से विवेक के माध्यम से ही प्राप्त करता है। विवेक से सोचने की तीव्र क्षमता आती है।
मनुष्य को केवल विश्वास के आधार पर नहीं, बल्कि विवेक के आधार पर किसी बात पर विश्वास करना चाहिए। उसे देखना चाहिए कि जिस बात पर वह विशवास कर रहा है, वह विवेकसम्मत भी है या नहीं। तभी वह एक आदिम अवस्था से मानव कद की ओर बढ़ता है।
आपका मार्गदर्शक आपकी अपना विवेक है। इसका अच्छी तरह इस्तेमाल करें। दूसरों पर शक करने से बचें। क्योंकि आपका अपने विवेक में यह भर दिया गया है कि ज्ञान मूर्ख बनाता है। आपके पूर्वजों ने जो कहा है, उसमें न तो विविधता है और न ही चमत्कार। उन पुरखों को छोड़ दो; उनसे जुड़े बगैर, स्वयं को खोजने और कार्य करने का प्रयास करें। ज्ञान को प्राथमिकता दें।
संसार के सभी प्राणियों में, अकेले मनुष्य ही विवेक और बुद्धि रखता है। यदि वह उनका उपयोग करता है, तो वह महान कार्यों को प्राप्त कर सकता है।
हर चीज का विश्लेषण साहस और बुद्धिमत्ता के साथ करना चाहिए, और अवसर और आवश्यकता के अनुसार जो अस्वीकार्य हो, उसे अस्वीकार करना चाहिए, जो सही हो, उसको बढाने में योगदान देना चाहिए, सुधार के लिए, बिना डरे बदलाव करना चाहिए, यही अनिवार्य बौद्धिक कर्तव्य है।
(यह लेख कलेक्टेड वर्क्स ऑफ पेरियार ई. वी. आर., संयोजन : डॉ. के. वीरामणि, प्रकाशक : दी पेरियार सेल्फ-रेसपेक्ट प्रोपगंडा इन्स्टीच्यूशन, पेरियार थाइडल, 50, ई. वी. के. संपथ सलाय, वेपरी, चेन्नई – 600007 के प्रथम संस्करण, 1981 में संकलित ‘’रेशनलिज्म’ का अनुवाद है)
(अनुवाद : कँवल भारती, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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