जन विकल्प
बिहार की राजनीति का एक पक्ष
पिछले दिनों एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में बिहार के मुख्यमंत्री और जनतादल यूनाइटेड के अध्यक्ष नीतीश कुमार ने राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन पर चुटकी लेते हुए कहा है कि महागठबंधन तब था, जब मैं यानि जनतादल यूनाइटेड वहां था, अब तो वह केवल गठबंधन है। गनीमत है कि उनने उसे नापाक गठबंधन नहीं कहा। नीतीश कुमार ने अपनी चुनावी राजनीति का गणित भी समझाया। उनका कहना था जब भाजपा और वह साथ थे, तब 2009 में उन्हें 32 सीटें मिली थीं। अब तो रामविलास पासवान हमारे साथ हैं, इसलिए सीटें और बढ़ेंगी। कितनी बढ़ेंगी का खुलासा नीतीश ने नहीं किया है। लेकिन पासवान की सीटें अभी छह हैं और उनका इशारा महागठबंधन को जीरो पर ले जाने का भी हो सकता है।
प्रथम दृष्टया देखा जा सकता है कि नीतीश कुमार के वक्तव्य में थोड़ी अहमन्यता और थोड़ा ख्याली पुलाव है। वह शायद स्वयं को महान समझते हैं, इसलिए ही वह समझते हैं कि महागठबंधन से महान के अलग हो जाने के बाद अब वह केवल गठबंधन रह गया है। एक मुख्यमंत्री को स्वयं को महान समझने का पूरा अधिकार है, लेकिन इसकी घोषणा यदि वह खुद करता है, तब यह थोड़ी अशिष्टता और अहमन्यता लगती ही है। ख़ास कर तब ,जब यह बात नीतीश कुमार जैसा सधा और सुथरा राजनेता कह रहा हो, जिनका रिकार्ड वाचाल और अशिष्ट होने का नहीं रहा है। लेकिन प्रभुता पाकर किसी का भी दिमाग आसमान पर चढ़ जाता है। नीतीश अपवाद होने की जहमत क्यों उठायें?
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हां, उनके ख्याली-पुलाव का विश्लेषण जरुरी लगता है। नीतीश ख्याली-पुलाव बनाने में माहिर हैं। उनका राजनैतिक रिकार्ड देख कर कोई भी यह कह सकता है। 1994 में इसी तरह के पुलाव पकाते वह तब के जनता दल से जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में अलग हुए थे। कुछ ही समय पहले वैशाली लोकसभा का उपचुनाव हुआ था, जिसमें लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले जनता दल से उम्मीदवार रही, बिहार के धाकड़ राजपूत नेता सत्येंद्र नारायण सिंह की बीवी को नवोदित युवा राजपूत नेता आनंद मोहन की बीवी लवली आनंद ने पराजित कर दिया था। नीतीश इसी घटना से उत्साहित हुए थे। कुछ ही माह बाद बिहार विधान सभा के चुनाव हुए तब उन्हें बस छह सीटें और पांच फीसद वोट मिले। उनका उत्साह ठंडा पड़ गया। अवसाद से ऐसे घिरे कि भारतीय जनता पार्टी के मुंबई अधिवेशन में जाकर राजनीति का नया ठिकाना ढूंढा। कुछ इसी तरह के पुलाव उन्होंने 2010 में भी बनाने शुरू किये थे। 2010 के विधान सभा चुनाव में उन्होंने 140 सीटें लड़ कर 115 पर जीत हासिल कर ली थी। बिहार में यह बहुमत से केवल 7 कम था। चुनाव के दरम्यान नरेंद्र मोदी का नाश्ता रोक कर अपनी जानते उन्होंने सेक्युलर क्रांति कर डाली थी। उन्हें राजनीति के लालू बनने की लालसा थी। लालू ने आडवाणी का रथ रोका था, वे नरेंद्र मोदी का नाश्ता रोकेंगे। इसके बाद जब नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया, तब नीतीश ने स्वयं को एनडीए से अलग कर लिया। अपनी बूते 2014 का चुनाव लड़े और बुरी तरह पिट-पिटा गए। इतने नर्वस हुए कि मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा कर दिया। फिर अचानक पूरी ज्यामितिक मोड़ ली और पुराने राजनैतिक शत्रु लालू प्रसाद से चुनावी गठबंधन किया। 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में जीत किसकी थी, इसका आकलन आप पाठक ही करें तो अच्छा होगा।
रामविलास पासवान का चेहरा केवल एक बार धूमकेतु की तरह क्षितिज पर उभरा था। वह जब उन्होंने गोधरा दंगे के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था। इसके बाद मुसलमानों के बीच भी उनकी लोकप्रियता बढ़ी थी। दलितों के बीच भी हीरो बन गए थे। इसके बाद जब 2004 के चुनाव में लालू से हाथ मिलाया, तब बिहार में एनडीए की खटिया खड़ी हो गयी। चालीस में उसे सिर्फ ग्यारह सीटें मिल सकीं। उन्तीस पर लालू-रामविलास-कांग्रेस रहे थे। अगले वर्ष विधान सभा चुनाव में लालू और रामविलास अलग हो गए। हारना लालू प्रसाद को था, क्योंकि उनकी सरकार थी। रामविलास फिर भी उन्तीस सीटें ला सके। इस चुनाव में उनका कमाल यही था कि वह लालू के हारने का कारण बने थे। इसके बाद इसी आधार पर 2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद ने पासवान से गठबंधन किया, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। पासवान का करिश्मा ख़त्म हो चुका था।
आज नीतीश ने उन्हें गले लगाया है, या परिस्थितियों ने उन्हें साथ किया है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि आज पासवान चुनाव को प्रभावित करने में असमर्थ हैं। पिछले वर्ष 2 अप्रैल को अनुसूचित जाति उत्पीड़न प्रसंग को लेकर देश भर में जो दलित गुस्से का इज़हार हुआ था, उसके बाद दलितों का राजनैतिक मूड समझना मुश्किल नही है। पुराने दलित चेहरे पझा रहे हैं, नए उभर रहे हैं। ऐसे में पासवान का एनडीए में होना, न होना बराबर है।
बिहार एनडीए में अभी नीतीश का जनता दल यूनाईटेड, भाजपा और पासवान हैं। उपेंद्र और मांझी वहां से बाहर हो चुके हैं। मैंने पहले भी कहा था कि राजग यानी एनडीए में नीतीश के आने से उसका वोट कम से कम पांच फीसद बढ़ेगा। इससे एनडीए चालीस फीसद वोट के पास पहुँचती दिख रही थी। उपेंद्र कुशवाहा के एनडीए से बाहर आने से वोट के लिहाजन एनडीए फिर पूर्व स्थिति में आ गया। राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन आज चालीस फीसद वोट शेयर करता दिख रहा है। ऐसे में जो नतीजे स्पष्ट हो रहे हैं उसमें एनडीए दस सीटों के ऊपर कहीं से नहीं दिखती। मैं कहता रहा हूँ कि पिछले कई लोकसभा चुनावों का ट्रेंड यही रहा है कि एनडीए और राजद गठबंधन में से एक को तीस के लगभग और दूसरे को दस के लगभग स्थान मिलता रहा है। 2004, 2009 और 2014 में यही हुए। इस बार भी यही होगा। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि बिहार में एनडीए की जमीन क्या है और उसे कितनी सीटें मिलने जा रही हैं।
बिहार में एनडीए की इस स्थिति का राष्ट्रीय स्तर का महत्व है। दरअसल हम यहां से 2019 के लोकसभा चुनाव का आकलन कर सकते हैं। यह एक वास्तविकता है कि देश भर में एनडीए यदि सबसे अधिक मजबूत कहीं है, तो वह बिहार में है। बिहार में इसकी मजबूती नीतीश कुमार के कारण बनी है। लेकिन इस बिहार में ही यदि उसकी स्थिति ऐसी है, तब देश भर का आकलन आसान होगा।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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