पिछड़े वर्ग के लिए राष्ट्रीय आयोग के पूर्व अध्यक्ष व आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ईश्वरैय्या मानते हैं कि गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार का विधेयक सुप्रीम कोर्ट में खारिज कर दिया जाएगा। इसकी वजह यह है कि संविधान में कहीं भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात नहीं कही गई है। उनका मानना है कि सामाजिक पिछड़ापन और आर्थिक पिछड़ापन दो अलग-अलग बातें हैं। प्रस्तुत है उनसे विस्तृत बातचीत का संपादित अंश :
फारवर्ड प्रेस : संसद ने 124वें संविधान संशोधन विधेयक को पारित कर दिया है। इसके लागू होने के बाद गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण का लाभ मिल सकेगा। इसे आप किस रूप में देखते हैं?
जस्टिस ईश्वरैय्या : देखिए, पहली बात तो यह है कि यह जो विधेयक संसद ने पारित कर दिया है, संविधान की मूल अवधारणा के खिलाफ है और सामाजिक न्याय के खिलाफ है। रही बात यह कि इससे गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण मिलेगा, पूरी तरह से गलत है। होगा यह कि इसका लाभ उन्हें नहीं मिलेगा, जो वाकई में गरीब हैं।
फा. प्रे. : कैसे?
ज. ई. : संविधान में जो विधेयक प्रस्तुत किया गया, उसके अनुसार अनुच्छेद 15 में एक और उपबंध जोड़ा गया है। इसके मुताबिक, केंद्र व राज्य सरकारों को आर्थिक आधार पर सामान्य वर्ग के पिछड़े लोगों के लिए नौकरियों एवं शिक्षा संस्थानों में प्रवेश हेतु 10 फीसदी तक आरक्षण का प्रावधान करने का अधिकार होगा। अब विधेयक में सवर्णों की गरीबी के जो मानक बताए गए हैं, जरा उन्हें देखिए। विधेयक के मुताबिक, जिनकी वार्षिक आय आठ लाख तक है, वे गरीब हैं। जिनके पास शहरी इलाके में 1000 वर्ग फुट तक में बना मकान है, वे गरीब हैं। विधेयक उन सवर्णों को भी गरीब मानता है, जिनके पास पांच एकड़ तक जमीन है।
फा. प्रे. : तब तो इसका लाभ वे नहीं उठा सकेंगे, जो वाकई में गरीब हैं?
ज. ई. : बिलकुल आप सही कह रहे हैं। एक बात तो साफ है कि सवर्णों की गरीबी के जो मानक बताए गए हैं, उसके अनुसार गरीब की श्रेणी में मध्यम आय वर्ग और उच्च आय वर्ग के सवर्ण भी शामिल हो जाएंगे। आरक्षण का लाभ तो उन्हें ही मिलेगा। लेकिन, जो सवर्ण वाकई में गरीब हैं, उन्हें इसका लाभ ही नहीं मिल सकेगा। यह बिलकुल ऐसा ही होगा जैसे कि एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण का लाभ संबंधित वर्गों के कमजोर तबकों को नहीं मिल पाया है।
- गरीब सवर्णों को भी नहीं मिलेगा कोई लाभ
- अमीर सवर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार ने बनाया कानून
- अपने पक्ष में सकारात्मक तथ्य जुड़वाने के लिए सवर्णों ने दी विधेयक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
- विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं करने के लिए राष्ट्रपति को लिखेंगे अनुरोध-पत्र
- राष्ट्रपति ने यदि स्वीकृति दी, तब खुद जाऊंगा सुप्रीम कोर्ट और दूंगा चुनौती
फा. प्रे. : क्या आपको नहीं लगता है कि यदि सुप्रीम कोर्ट नए विधेयक को मान लेता है और 50 फीसदी आरक्षण सीमा को समाप्त कर देता है, तब इसका लाभ ओबीसी को भी मिल सकेगा?
ज. ई. : सबसे पहले तो मैं यह कहता हूं कि सरकार ने सवर्णों की गरीबी के लिए जो मानक तय किए हैं, उतना ही इस देश के सभी एससी, एसटी और ओबीसी को दे दे; हम आरक्षण की मांग ही नहीं करेंगे। हर दलित, आदिवासी और ओबीसी की सलाना आय 8 लाख रुपए हो। शहरों में एक हजार वर्ग-फुट का मकान हो। पांच एकड़ जमीन हो। मैं एक बार फिर कहता हूं कि सरकार का फैसला पूरी तरह से संविधान के खिलाफ है। समाजिक न्याय के खिलाफ है। अभी आप यह देखिए कि 10 फीसदी आतिरिक्त आरक्षण से नुकसान किसका होगा? यह 10 फीसदी कोटा भी आरक्षित वर्गों के हितों को ही प्रभावित करेगा।
फा. प्रे. : आपको क्या लगता है कि सरकार द्वारा बनाए गए नए कानून को अदालत में चुनौती मिलेगी?
ज. ई. : अदालत में यह टिकेगा ही नहीं। आप इसको ऐसे समझिए कि संविधान में कहीं भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात कही ही नहीं गई है। यहां तक कि रविशंकर प्रसाद राज्यसभा में बहस के दौरान जिस नीति निर्देशक तत्व का हवाला दे रहे थे; वह भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात नहीं कहता है। संविधान का अनुच्छेद-46 प्रावधान करता है कि राज्य समाज के कमजोर वर्गों में शैक्षणिक और आर्थिक हितों, विशेषत: अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का विशेष ध्यान रखेगा और उन्हें सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षित रखेगा। शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान अनुच्छेद 15(4) में किया गया है; जबकि पदों एवं सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 16(4), 16(4क) और 16(4ख) में किया गया है। विभिन्न क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के हितों एवं अधिकारों को संरक्षण एवं उन्नत करने के लिए संविधान में कुछ अन्य प्रावधान भी सम्मिलित किए गए हैं, जिससे कि वे राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ने में समर्थ हो सके।
यहां ध्यान देने की बात यह है कि इसमें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों को शोषण और सामाजिक अन्याय से बचाने के लिए उनके आर्थिक हितों को संरक्षित करने की बात कही गई है।
- अखिलेश-मायावती को सजा दें एससी, एसटी और ओबीसी
- राजद और ओवैसी ने रखा सामाजिक न्याय का पक्ष
मैं यहां आर चित्रलेखा बनाम राज्य मैसूर और अन्य 1964 का उद्धरण देना चाहता हूं। इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की अवधारणा को खारिज किया था। 1990 में ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू होने के बाद पी . वी. नरसिम्हा राव ने ऑफिस मेमोरेंडम जारी किया था; ताकि गरीब सवर्णों के लिए विशेष प्रावधान किए जाएं। लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने इसे सीधे तौर पर खारिज किया कि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है और यदि ऐसा कोई प्रावधान किया जाता है, तो वह संविधान के खिलाफ होगा।
फा. प्रे. : सवर्णों के आरक्षण के विधेयक को लगभग सभी दलों ने अपना समर्थन दिया। इसे आप किस रूप में देखते हैं?
ज. ई. : संसद में जो दृश्य था, उसकी तुलना मैं महाभारत के उस दृश्य से करना चाहता हूं, जब द्रौपदी का चीरहरण किया जा रहा था। सभी जानते थे कि जो रहा है, वह गलत हो रहा है। परंतु, फिर भी सब मौन थे। तमाम ओबीसी, एससी और एसटी सांसद यह जानते थे कि सवर्णों को आरक्षण देने के लिए सरकार बिना किसी तर्क के आधार पर मनमाने तरीके से विधेयक लेकर आई है। आप ही बताइए न कि कोई आंकड़ा है क्या उनके पास कि कितने सवर्ण गरीब हैं? जब कोई आंकड़ा ही नहीं है, तो फिर 10 फीसदी आरक्षण तय करने का मतलब क्या है? जैसा कि मैंने पहले कहा कि यह सभी जानते थे, फिर भी उन्होंने इसका समर्थन किया। मैं आपको बता दूं कि इस देश में केवल पांच फीसदी सवर्ण हैं, जो पूरे देश की राजनीति का ठेका लिए हुए हैं। वे वोकल हैं और दुर्भाग्यपूर्ण है कि अखिलेश यादव और मायावती की पार्टी भी उनका समर्थन करती है। मैं तारीफ करना चाहता हूं राष्ट्रीय जनता दल की, जिसने इसका खुलकर विरोध किया। मैं एमआईएम के नेता ओवैसी की भी तारीफ करता हूं, जिन्होंने सामाजिक न्याय के पक्ष में विधेयक का विरोध किया। मैं एससी, एसटी और ओबीसी लोगों का आह्वान करता हूं कि चुनाव के समय वे इस विधेयक का समर्थन करने वालों को सजा दें।
फा. प्रे. : सरकार के विधेयक को सवर्णों ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। इस पर आप क्या कहेंगे?
ज. ई. : वे दिखावा कर रहे हैं। जो सवर्ण विधेयक को चुनौती दे रहे हैं, उनकी मंशा यह नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट विधेयक को खारिज करे। बल्कि, वे इसमें अपने लिए और सकारात्मक तथ्य जुड़वाना चाहते हैं। मैंने तय किया है कि मैं इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट जाऊंगा। लेकिन, इसके पहले मैं राष्ट्रपति को एक अनुरोध पत्र आज ही लिखने जा रहा हूं कि वे इस विधेयक को अपनी मंजूरी नहीं दें। क्योंकि, यह विधेयक संविधान के खिलाफ है। सामाजिक न्याय के खिलाफ है। इसके बावजूद, यदि राष्ट्रपति विधेयक को अपनी मंजूरी देते हैं; तब मैं सुप्रीम कोर्ट में सरकार के इस निर्णय को चुनौती दूंगा।
(कॉपी संपादन : प्रेम/सिद्धार्थ)
(आलेख परिवर्द्धित : 13 जनवरी 2019, 11;45 AM)
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