नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र ख़त्म होने के दो दिन पूर्व अर्थात 7 जनवरी 2019 को गरीब सवर्णों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के जिस बिल को मंजूरी दी, उसे आनन-फानन में 8 जनवरी को लोकसभा और 9 जनवरी को राज्यसभा में पास करवाने के बाद अब वह उसे लागू करवाने की दिशा में तेजी से आगे भी बढ़ चुकी है।
मोदी का गृह राज्य गुजरात इसे लागू करने वाला पहला राज्य बना। 12 जनवरी 2019 को गरीब सवर्णों को आरक्षण देने वाले कानून पर राष्ट्रपति का हस्ताक्षर होने के अगले ही दिन गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने एलान कर दिया था कि गुजरात में मकर संक्रांति के शुभ दिन अर्थात 14 जनवरी से गरीब सवर्णों को आरक्षण देने वाला कानून लागू हो जायेगा और ऐसा हो भी गया। गुजरात का अनुसरण करते हुए तेलंगाना,आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश के बाद उत्तर प्रदेश भी नया आरक्षण लागू करने वाले राज्यों में शामिल हो गया है। इस बीच जहां एक ओर इस आरक्षण को संविधान विरोधी बताते हुए इसके खिलाफ याचिका दायर हो चुकी है, वहीं दूसरी ओर दलित-पिछड़ों के कई संगठन सडकों पर भी उतर चुके हैं। किन्तु मोदी सरकार के मंत्री और विशेषाधिकारयुक्त तबके के बुद्धिजीवी इसे मोदी का मास्टर स्ट्रोक बताते हुए जश्न में डूब गए हैं।
बहरहाल, जिस आरक्षण को कभी संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया था कि चूंकि आरक्षण का आधार निर्धनता नहीं, सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है, अतः गरीब सवर्णों के लिए उठाती आरक्षण की मांग पर स्वीकृति दर्ज कराने की कोई युक्ति नहीं, मोदी राज में उस आरक्षण के लागू होने के बाद सवर्णों का जश्न में डूबना तमाम विवेकशील लोगों को विस्मित व परेशान कर रहा है। आज जो लोग गरीब सवर्णों के आरक्षण पर जश्न मना रहे हैं, उन्हें अपने विवेक से पूछना चाहिए कि क्या सवर्ण भी आरक्षण के पात्र हो सकते हैं?
आरक्षण का देश रहा है भारत
भारत हजारों वर्षों से आरक्षण का देश रहा है। यह सत्य न तो देश के अर्थशास्त्रियों और न ही समाजशास्त्रियों ने ही खुलकर बताया। जबकि सच्चाई यही है कि इस देश की सामाजिक व्यवस्था का केन्द्रीय तत्व आरक्षण ही रहा है। यह बात दुनिया के तमाम विद्वान ही मानते हैं कि भारत का सवर्ण समाज सदियों से ही वर्ण-व्यवस्था के द्वारा परिचालित होता रहा है। ऐसा मानने वाले यदि अपनी दृष्टि और प्रसारित किये होते तब पाठ्य पुस्तकों में यह लिखा मिलता कि भारतीय समाज सदियों से ही आरक्षण व्यवस्था के तहत परिचालित होता रहा है। तब सामान्य पढ़ा-लिखा या पंडित हर कोई आरक्षण के चरित्र से अवगत होता। तब न तो कोई दलित-पिछड़ों के आरक्षण के प्रति इर्ष्या का भाव रखता, न ही कोई वर्ण व्यवस्था के सुविधाभोगियों के नए आरक्षण की वकालत करता नजर आता।
मसलन, ब्राह्मणों के लिए आरक्षित रहे पठन-पाठन, पूजा-अर्चना, मंत्रोपचार, दान-ग्रहण, अस्त्र-शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण, आश्रम-मंदिरों का रख-रखाव, राज्य संचालन में मंत्रणादान इत्यादि कार्य। क्षत्रियों के लिए भू-स्वामित्व के अधिकार के साथ आरक्षित रहे सैन्यवृत्ति व शासन-प्रशासन से जुड़े सभी कार्य। वैश्यों के लिए आरक्षित रहा व्यवसाय व वाणिज्यादि कार्य। दूसरी ओर हिन्दू आरक्षण व्यवस्था में शुद्रातिशूद्र अर्थात दलित-आदिवासी-पिछड़ो के लिए आरक्षित हुई प्रधानतः तीन उच्चतर वर्णों अर्थात सवर्णों की सेवा, वह भी पारिश्रमिकरहित। परिवहन, मछली पकड़ना, चर्म कर्म इत्यादि निम्न कोटि की अलाभकर–वृत्तियां भी इन्हीं के हिस्से में आयीं। इसके अतिरिक्त उत्पादन से जुड़े सभी कार्य भी शुद्रातिशूद्रो के लिए निर्दिष्ट रहे। पर, उत्पादित फसल पर अधिकार रहा सवर्णों का ही।
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सारांश में कहा जाय तो वर्ण व्यवस्था अर्थात हिन्दू आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत (आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक, धार्मिक और सांस्कृतिक) ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के लिए आरक्षित कर उन्हें जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के रूप में विकसित होने का अवसर सुलभ कराया गया, जबकि दलित-पिछड़ों को शक्ति के समस्त स्रोतों से दूर धकेल कर एक ऐसे अधिकारविहीन अशक्त मानव समुदाय में तब्दील किया गया, जिनके लिए अच्छा नाम रखने व मोक्ष के लिए पूजा-पाठ करने तक का कोई अधिकार नहीं रहा।
कहना गैर वाजिब नहीं कि सवर्ण आरक्षण में शुद्रातिशूद्रों को कठोरतापूर्वक शक्ति के स्रोतों से दूर धकेलने के फलस्वरूप इस देश में हजारों साल तक मानव संसाधन की जो विपुलतम बर्बादी हुई, उसकी मिसाल मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में मुश्किल है।
सवर्ण : विदेशागत शासकों के रहे पार्टनर
कई सौ सालों तक भारत पर हुकूमत करने के बावजूद विदेशागत शासकों ने सवर्ण आरक्षण को कमजोर नहीं किया। क्योंकि सवर्ण उनके पार्टनर की भूमिका में रहे। यह अंग्रेज थे, जिन्होंने शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार जमाए सवर्णों के एकाधिकार को ध्वस्त करने का सबल प्रयास किया। उन्होंने आईपीसी द्वारा कानून की नज़रों में सबको एक बराबर करके शुद्रातिशूद्रों को भी नौकरियों व अन्यान्य लाभकारी पेशों में योग्यता आजमाइश करने का अवसर सुलभ कराया।
सबसे पहले जोतीराव फुले ने सवर्ण आरक्षणवादियों के वर्चस्व के खिलाफ न सिर्फ आन्दोलन चलाया, बल्कि उसकी काट के लिए एक नए विचार प्रणाली को भी जन्म दिया। इस विचार प्रणाली से ही जन्म हुआ प्रतिनिधित्व पर आधारित आधुनिक आरक्षण के सिद्धांत का। उन्होंने 1873 में अपने क्रान्तिकारी ग्रन्थ ‘गुलामगिरी’ द्वारा अंग्रेजों तक आरक्षण की यह अपील पहुँचायी कि सरकारी नौकरियों में वंचितों को हिस्सेदारी मिले।
फुले के सूत्र को आज से लगभग 145 साल पहले सामाजिक न्याय को जमीन पर उतारने के लिए कोल्हापुर के छत्रपति शाहू जी महाराज ने पहल की। उन्होंने अंग्रेजी सरकार के सहयोग से 26 जुलाई ,1902 को पहली बार कोल्हापुर में डिप्रेस्ड क्लास(पिछड़े वर्ग) के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया। शाहूजी महाराज द्वारा सवर्ण आरक्षण के विकल्प की बुनियाद रखे जाने के 27 साल बाद, रामासामी नायकर पेरियार ने भी 1929 में अपने राज्य तमिलनाडु में हिन्दू आरक्षण के वंचितों को 70 प्रतिशत आरक्षण लागू करवाया। किन्तु सवर्ण आरक्षण के विपरीत आधुनिक आरक्षण को व्यापकतर रूप तब मिला जब डॉ. आंबेडकर ने स्वाधीन भारत के संविधान में इसका प्रावधान कराया।
गौर तलब है कि आंबेडकर की नजर में आरक्षण और कुछ नहीं बल्कि शक्ति के स्रोतों से जन्मगत कारणों से बहिष्कृत किये गए तबकों को क़ानून की जोर से उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराने की व्यवस्था मात्र है। आजाद भारत में अस्पृश्य और आदिवासियों पर इसके सफल प्रयोग के बाद अमेरिका, इंग्लॅण्ड,कनाडा, फ़्रांस, मलेशिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका ने इस व्यवस्था को अपनाकर अपने-अपने देशों के अश्वेतों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं को शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी दी। दलित और आदिवासियों के बाद भारत में पिछड़ों के हित में इसका प्रयोग 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद हुआ, जिसके फलस्वरूप देश में आरक्षण पर संघर्ष का एक नया दौर शुरू हो गया।
मंडल के कारण सवर्णों को हुए नुकसान की भरपाई
जिस आरक्षण के चलते सवर्ण आरक्षण के सदियों के वंचितों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने का अवसर मिला, उसके प्रति सवर्णों में बराबर इर्ष्या का भाव रहा और जब मंडलवादी आरक्षण की घोषणा हुई, उनकी आरक्षण विरोधी भावना ज्वालामुखी बनकर फट पड़ी। इसके खिलाफ विशेषाधिकारयुक्त वर्ग के छात्रों,मीडिया, लेखकों, साधु-संतों एवं राजनीतिक दलों ने किस तरह अपनी भावनाओं का इजहार किया, वह एक इतिहास है, जिससे हर कोई वफिफ है।
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मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद शासकों ने दो मोर्चे पर काम शुरू किया। एक, आरक्षण को कागजों की शोभा बनाना और दूसरा सवर्णों को आरक्षण दिलाना। कहना न होगा 24 जुलाई ,1991 को गृहित नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर भारत के शासक वर्ग ने मंडल से हुई क्षति की भरपाई कर ली गई। इसमें पी.वी. नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह की विराट भूमिका रही। किन्तु इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तमाम पूर्ववर्तियों को मीलों पीछे छोड़ दिया है। इनके ही कार्यकाल में मंडल से हुई क्षति की कल्पनातीत रूप से भरपाई की गई है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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