स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ (6 मई 1879 -20 जुलाई 1933)
कहावत है कि बारह साल में घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। किसी भी चीज को अधिक दिन तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। एक दिन वह सारे दबाव तोड़कर बाहर आती है। भारत में हजारों साल से एक बड़ी आबादी को दबाकर रखा गया। मनुष्यता की श्रेणी से उनका बहिष्कार कर उनसे उनके सारे मानवीय अधिकार छीन लिए गए। उनको गुलामों की जंजीरों में जकड़कर जानवरों से भी बदतर स्थिति में रखा गया। जैसे-जैसे युग पर युग बदलते गए और राजशाहियां बदलती गईं, उनकी गुलामी की अवधि भी बढ़ती चली गई। इस बीच उनके अन्दर क्रोध और विद्रोह की चिंगारियां फूटती रहीं, जो समय-समय पर बाहर भी आईं, पर उनको निर्ममता से दबा दिया गया। हालाँकि वो दबी रहीं, समाप्त नहीं हुईं। किन्तु, भारत के इतिहास में ऐसे दौर भी आए, जब उन पर गुलामी का दबाव कम हुआ[1], और उनका क्रोध और विद्रोह बाहर निकल कर आया। उसने संघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया और उस मार्ग ने बीसवीं सदी में क्रान्ति के एक विशाल राजमार्ग का निर्माण किया।
ब्रिटिश राज के लोकतंत्र ने दलित-पिछड़ी जातियों पर हजारों साल के दबाव को हटाने में एक बड़ी भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप दलित वर्गों में एक नए नेतृत्व का उदय हुआ। ऐसा ही एक नेतृत्व बीसवीं सदी में उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द के रूप में उदय हुआ। उनका जन्म 1879 में उत्तर प्रदेश में ग्राम उमरी, पोस्ट सिरसागंज, जिला मैनपुरी में हुआ था। उनके पिता मोती राम ने उनका नाम हीरा लाल रखा था। बेटे के जन्म के बाद ही मोतीराम और उनके छोटे भाई मथुरा प्रसाद छावनी में जाकर पटलन में भर्ती हो गए थे, और फिर सपरिवार छावनी में ही रहने लगे थे। इस प्रकार हीरा लाल की प्राम्भिक शिक्षा वहीँ पलटन के स्कूल में हुई। 14 वर्ष की आयु तक उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी में अच्छा अभ्यास कर लिया था।
मथुरा प्रसाद अविवाहित थे, और हीरालाल से बहुत स्नेह करते थे। एक तरह से हीरालाल का पालन-पोषण उन्होंने ही किया था। वह उसे नित्य कबीर के पद सुनाते थे, जिससे निर्गुण भक्ति के बीज हीरालाल में बचपन में ही पड़ गए थे। कबीर के पदों ने हीरालाल को अन्तर्मुखी बना दिया और उनमें बैराग पैदा कर दिया था। फलत: उन्हें संतों का सत्संग अच्छा लगने लगा। गाँव में जो भी साधु आता, वे उसकी आवभगत करते और सत्संग करते। एक बार वे घर छोड़ कर कबीर पंथी साधुओं के एक दल के साथ चले गए और उनके साथ जगह-जगह भ्रमण करते रहे। वे 24 साल की आयु तक घुमक्कड़ी करते रहे। उन्होंने धर्म, दर्शन और लोक-व्यवहार का बहुत सा ज्ञान अर्जित किया तथा गुरुमुखी, संस्कृत, बंगला, गुजराती और मराठी भाषाएँ भी इसी घुमक्कड़ी में सीख लीं।[2]
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इसी बीच वे आर्यसमाजी प्रचारक स्वामी सच्चिदानंद के सम्पर्क में आए और उनसे दीक्षा लेकर आर्यसमाजी स्वामी बन गए। उनके गुरु ने उनका नाम हरिहरानन्द रखा। आर्यसमाज में रहकर उन्होंने अध्ययन और भ्रमण खूब किया।[3] पर वह ज्यादा समय तक आर्यसमाज में नहीं रह सके। आर्यसमाज में रहकर उन्हें महसूस किया कि यहाँ भी अछूतों के साथ समानता का व्यवहार नहीं है। जिज्ञासु जी के अनुसार, ‘आर्यसमाज के भीतर घुसकर काम करने से आपको ज्ञात हुआ कि इसके भीतर तो बड़ी पोल है, और आपका मन आर्यसमाज से विरक्त होने लगा। कुछ ही दिनों में यह विरक्ति घृणा के रूप में परिणत हो गई। आपको ज्ञात हुआ कि आर्यसमाज एक बकवासी और प्लेटफार्मी धर्म का ढोंग है, जो ईसाईयों और मुसलमानों की नकल करके उनसे मोर्चा लेने के लिए गढ़ा गया है।[4] अत: वे आर्यसमाज से बाहर आ गए, परंतु साधु बने रहे, और पहले की तरह घुमक्कड़ी भी करते रहे। वे 1905 से 1912 तक आर्य समाज में रहे। इसी बीच उनके पिता ने इटावा के राथिन का नगला निवासी राम सिंह कुरील की पुत्री दुर्गाबाई के साथ उनका विवाह कर दिया, जिनसे उनकी तीन पुत्रियाँ हुईं।
1910 के दशक में आर्य समाज के नेताओं ने दलित जातियों के लोगों को यह आश्वासन दिया था कि वे निम्न जातियों को सामाजिक रूप से ऊपर उठाने का काम करेंगे, उनके लिए स्कूल और छात्रावास स्थापित करेंगे और अछूत छात्रों को छात्रवृत्ति देंगे, किन्तु असल में उन्होंने शुद्धि के माध्यम से अछूतों को हिन्दू वर्णव्यवस्था में बनाए रखने की योजना बनाई थी। इसलिए 1920 के दशक की शुरुआत में ही शिक्षित आर्य समाजी अछूतों ने यह तर्क देकर कि अछूत जातियों के लोग आदि हिन्दू थे, आर्य समाज से नाता तोड़ लिया था। आर्य समाज ने असल में तुर्क साम्राज्य में पश्चिमी हस्तक्षेप का विरोध करने के लिए शुरू हुए खिलाफत आंदोलन के बाद मुस्लिमों के बीच उत्पन्न धार्मिक उन्माद की प्रतिक्रिया में शुद्धि आन्दोलन चलाया था, जिसका ध्येय उन अछूतों की शुद्धि करके उन्हें फिर से हिन्दू बनाना था, जो मुसलमान बन गए थे।[5] आर्य समाज की इस असलियत को दलित वर्गों के आर्य समाजी नेताओं ने शीघ्र ही समझ लिया था। वे जान गए थे कि आर्य समाज वास्तव में उच्च हिन्दुओं की सेना है, जिसका इरादा केवल हिन्दुओं को मुसलमानों के खिलाफ संगठित करना था और उसका दलितोत्थान उसकी इसी रणनीति का हिस्सा था।[6] स्वामी अछूतानन्द ने मेरठ में आर्य समाज की पोल खोलते हुए कहा था—
‘यह ईसाई और मुसलमानों के प्रहारों से ब्राह्मणी धर्म को बचाने के लिए गढ़ा गया वैदिक धर्म का एक ढोंग है। इसकी बातें कोरी डींग और सिद्धांत उटपटांग हैं। इसकी शुद्धि महज धोखा और गुण-कर्म की वर्णव्यवस्था एक झूठा शब्द जाल है। यह इतिहास का शत्रु, सत्य का हन्ता और झूठी गप्पें मारने में पूरा लपोड़संख है। इसकी दृष्टि दोषग्राही, वाणी कुतर्की, स्थापना थोथी और वेदार्थ निरा मनगढ़ंत है। यह जो कहता है, उस पर इसका अमल नहीं। इसका उद्देश्य ईसाई-मुसलमानों से शत्रुता करा कर हिन्दुओं को वेदों और ब्राह्मणों का दास बना देना है।’[7]
किन्तु आर्यसमाज में रहकर उन्होंने वेदशास्त्रों का खूब अध्ययन करके यह ज्ञान पा लिया था कि शूद्र-अतिशूद्र लोग भारत के आदि हिन्दू हैं।
1917 में, स्वामी जी एक विशाल अछूत सम्मेलन में भाग लेने के लिए दिल्ली गए। उस समय तक आर्य समाज के विरोधी के रूप में उनकी ख्याति हो गई थी। दिल्ली के सम्मेलन में आर्य समाज के एक विद्वान स्वामी अखिलानंद ने उनको शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। वे उससे शास्त्रार्थ करने लिए तैयाए हो गए। नियत समय पर शास्त्रार्थ हुआ, और स्वामी जी ने ऐसे-ऐसे प्रश्न किए कि अखिलानंद उत्तर नहीं दे पाए, और पराजित हो गए। इससे खुश होकर वहां के जाटव समुदाय के चौधरी जानकीदास, देवीदास और जगतराम आदि ने हरिहरानंद की जगह, जो ब्राह्मणवादी नाम था, उनका नाम अछूतानंद नाम प्रस्तावित किया और वह उसी समय से उत्तर भारत के अछूतों के प्रतिनिधि स्वामी अछूतानन्द बन गए। आर्य समाज के दिग्गज विद्वान् को पराजित करने के कारण विजेता रूप में स्वामी अछूतानन्द को श्री 108 की पदवी भी दी गई थी।[8]
यह विवरण डा. अंगने लाल ने अपनी किताब ‘उत्तर प्रदेश में दलित आन्दोलन’ में दिया है। किन्तु, चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने अपनी पुस्तक ‘आदि हिन्दू आन्दोलन के प्रवर्तक श्री 108 स्वामी अछूतानन्द जी ‘हरिहर’ : जीवनी, सिद्धांत और भाषण’ (1960) में शास्त्रार्थ और पदवी मिलने का वर्ष 1921 बताया है। उन्होंने उस घटना का वर्णन इस तरह किया है—
‘यहाँ यह बता देना चाहिए कि यह श्री 108 की उपाधि स्वामी जी को कहाँ और कैसे प्राप्त हुई, इसका इतिहास यों है—आगरे के श्री छेदीलाल जाटव के पुत्र के विवाह में स्वामी जी दिल्ली गए। वहां आपने चौधरी यादराम के यहाँ दिल्ली में ‘जाति सुधार अछूत सभा’ की बुनियाद डाली। उसके बाद चौधरी यादराम और छेदी लाल आर्य की कोशिश से चौधरी बाड़े की पंचायत द्वारा लालकिले के सामने एक विराट सभा हुई। इस सभा से दिल्ली में खलबली मच गई। इसके बाद ही शाहदरे में 22 अक्टूबर 1921 को कविरत्न पंडित अखिलानंद जी से शास्त्रार्थ ठन गया। इस शास्त्रार्थ में स्वामी जी की जीत हुई। इस विजय पर आर्य उपदेशक पंडित रामचंद्र के प्रस्ताव तथा शाहदरा समाज दिल्ली के मंत्री श्री नौबत सिंह एवं स्वामी दातानन्द के अनुमोदन-समर्थन पर सर्व सम्मति से स्वामी जी को ‘श्री 108’ की उपाधि प्रदान हुई, और ‘प्राचीन भारत’ दिल्ली के सम्पादक वीररत्न श्री देवीदास जी ने बड़ी शान के साथ इस समाचार को अपने पत्र में प्रकाशित किया। इसके बाद विजय पत्र को छपवाकर दिल्ली और दिल्ली से बाहर खूब बांटा गया।’[9]
ब्रिटिश सरकार द्वारा पेश 1919 के राजनीतिक सुधारों में विभिन्न धार्मिक वर्गों को संख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व देने को मान्यता दी गई थी। यह कानून मोंटेगु-चेम्सफोर्ड की रिपोर्ट पर आधारित था, जिसमें दलित वर्गों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था और उनके लिए सुरक्षा का प्राविधान किया गया था। नंदिनी गूप्तु लिखती हैं कि 1919 का यह कानून भी हिन्दुओं की संख्या बढ़ाने के लिए आर्य समाज के शुद्धि आन्दोलन का एक बड़ा कारण था।[10] दूसरी तरफ इस कानून ने दलित वर्गों के राजनीतिक अधिकारों का मार्ग प्रशस्त किया था। डा. आंबेडकर ने लिखा है कि दुर्भाग्य से, जब संविधान का विवरण तैयार किया गया, तो भारत सरकार के लिए दलित वर्गों की सुरक्षा के लिए किसी भी प्राविधान को तैयार करना मुश्किल हो गया, सिवाय इसके कि उन्हें नामांकन द्वारा विधान सभाओं में सांकेतिक प्रतिनिधित्व दिया जाए। ऐसी स्थिति में सबसे पहले यह जरूरी था कि हिन्दुओं के अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ दलित वर्गों की सुरक्षा के लिए उनके द्वारा आवश्यक सुरक्षा उपायों की मांग की जाए। यह काम डा. आंबेडकर ने गोलमेज सम्मेलन की अल्पसंख्यक समिति को ज्ञापन देकर किया। उन्होंने ज्ञापन में आठ मांगें रखीं, जिनमें समान नागरिकता का अधिकार, समान अधिकारों का उपभोग, भेदभाव के विरुद्ध संरक्षण, विधानसभाओं में समुचित प्रतिनिधत्व, सरकारी सेवाओं में समुचित प्रतिनिधत्व, पक्षपातपूर्ण कार्रवाई या हितों की उपेक्षा के विरुद्ध उपाय मुख्य थीं।[11]
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1919 का अधिनियम बनने के दो साल बाद, 1921 के अंत में, ब्रिटेन के राजकुमार प्रिंस ऑफ़ वेल्स भारत आए। कांग्रेस ने उनका बहिष्कार किया था। किन्तु 22 नवम्बर 1921 को बम्बई में और 14 फरवरी 1922 को दिल्ली में दलित वर्गों की विशाल संख्या ने उनका स्वागत किया था। दिल्ली में स्वामी अछूतानन्द के नेतृत्व में एक विशाल अखिल भारतीय अछूत सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें देश भर से हजारों की संख्या में दलित वर्गों के लोगों ने भाग लिया था। इसी सम्मेलन में प्रिंस ऑफ़ वेल्स का स्वागत किया गया था और उनको अपनी 17 सूत्री मांग-पत्र सौंपा गया था। इस अवसर का आँखों देखा रोमांचक वर्णन कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ में किया है, और प्रिंस ऑफ़ वेल्स का स्वागत करने वाले दलितों की संख्या 25 हजार लिखी है।[12] जिज्ञासु जी ने यह संख्या लाखों में बताई है। उनका वर्णन इस प्रकार है—
‘सन 1922 में असहयोग आन्दोलन के बाद भारत में इंग्लैंड के युवराज प्रिंस ऑफ़ वेल्स पधारे और कांग्रेस के लीडरों ने उनका बायकाट किया। स्वामी जी इस समय दिल्ली में थे। उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने इस अवसर पर दिल्ली में अछूतों का एक बहुत बड़ा जलसा करके उसमें घोषित किया, ‘भाइयों! हम लोग भारत के प्राचीन निवासी आदि हिन्दू हैं। आर्य द्विजातीय सब विदेशी हैं। इन लोगों ने हमें नीच, अछूत और गुलाम बना रखा है। हमें इन लोगों के फैलाए हुए भ्रमजाल से निकलकर अपने पैरों पे खड़े होकर अपने सारे मुल्की हकों को हासिल करना चाहिए। हमें ब्रिटिश सरकार के साथ विद्रोह नहीं करना चाहिए। हमें युवराज का स्वागत करना चाहिए और इंग्लैंड की सरकार से अपने राजनीतिक अधिकारों की मांग करनी चाहिए।’ कहना न होगा कि स्वामी जी की इस घोषणा का अछूत जनता पर जादू का सा प्रभाव पड़ा। लाखों अछूतों ने युवराज का शानदार स्वागत किया, और ‘आदि हिन्दू’ शब्द लोगों के कानों में गूँज उठा।’[13]
इसी अवसर पर दिल्ली में स्वामी अछूतानन्द ने आदिहिन्दू सभा की स्थापना की। इसके सिद्धांत इस प्रकार थे— हिन्दू आन्दोलन में दलित तथा पिछड़े वर्गों की भागीदारी, सहभोज का प्रचार। निर्गुण संत परम्परा में आस्था, विषमता के विरुद्ध संघर्ष क्रान्ति, सत्य ही देवत्व का साधन, और स्वयं के प्रयास से ही प्रकाश मिलेगा।[14]
जिज्ञासु जी लिखते हैं कि आदि हिन्दू शब्द समस्त भारत में गूँज उठा, यहाँ तक कि लन्दन की पार्लियामेंट में भी फ़ैल गया। न मालूम कितनी कांफ्रेंसें, कितनी सभाएं और कितने जलसे कहाँ-कहाँ इस नाम से हुए। 1930 में, इलाहाबाद में, अखिल भारतीय आदि हिन्दू कांफ्रेंस का आठवां अधिवेशन हुआ था, जिसकी रिपोर्ट में बताया गया था कि उस समय तक दिल्ली, बम्बई, हैदराबाद, नागपुर, इलाहाबाद, मद्रास, अमरावती और मेरठ में कुल मिलाकर ग्यारह अखिल भारतीय आदि हिन्दू कांफ्रेंसें हो चुकी थीं। इसी प्रकार कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, मेरठ, मैनपुरी, मथुरा, इटावा, गोरखपुर, फर्रुखाबाद, आगरा, इत्यादि स्थानों पर कुल मिलाकर 15 प्रांतीय सम्मेलन हो चुके थे। जिज्ञासु जी आगे बताते हैं कि जिला आदि हिन्दू सभाओं की संख्या 208 है, जो इस प्रान्त के विभिन्न स्थानों में हुई हैं। वह यह भी लिखते हैं कि यह विवरण नवम्बर 1930 तक का है। इसके बाद कितनी अखिल भारतीय, कितनी प्रांतीय और कितनी जनपदीय आदि हिन्दू सभाएं हुईं, इसकी कोई गणना नहीं है।[15]
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जिज्ञासु जी के अनुसार, ‘आदि हिन्दू आन्दोलन केवल ब्रिटिश भारत (वे राज्य, जो ब्रिटिश सरकार के अधीन थे) में ही सीमित नहीं रहा। पीछे देशी रियासतों में भी यह आन्दोलन व्याप्त हो गया। ग्वालियर, भोपाल, जयपुर, अलवर, हैदराबाद, भरतपुर, टिहरी गढ़वाल आदि अगणित रियासतों में आदि हिन्दू आन्दोलन व्याप्त हुआ और असंख्य सभाएं व जलसे हुए।’[16]
जिज्ञासु जी ने बड़े मार्के की बात लिखी है कि ‘यदि विचार-दृष्टि से देखा जाए तो आदि हिन्दू आन्दोलन ही मौलिक समाजवाद है, स्वामी अछूतानंद एवं बाबासाहेब आंबेडकर ही भारत के कार्ल मार्क्स और लेनिन हैं। आदि हिन्दू ही भारत के सर्वहारा हैं तथा द्विज-हिन्दू एवं उनके साथी भारतीय बुर्जुआ।’[17]
जब आदि हिन्दू आन्दोलन सर्वत्र फ़ैल गया, और जिले-जिले में आदि हिन्दू सभाएं होने लगीं, तो उच्चताभिमानी हिन्दू, खासकर आर्यसमाजी स्वामी अछूतानन्द के खिलाफ झूठा दोषारोपण करने लगे, और उनकी छवि को खराब करने वाली बातें फैलाने लगे। जिज्ञासु जी के अनुसार, किसी ने कहा, अछूतानंद ईसाई है, यह ईसाईयों से तनख्वाह पाता है, सबको ईसाई बनाएगा। कोई कहता, यह मुसलमानों का आदमी है। कोई कहता, यह अंग्रेजों का पिट्ठू है। कोई कहता, यह दुश्चरित्रता के कारण आर्य समाज से निकाल दिया गया है, तब से आर्य समाज की निंदा करता है। इस दुप्रचार से बहुत से अछूत लोग भी डरकर स्वामी जी की सहायता नहीं करते थे। किन्तु इसके बावजूद स्वामी जी ने हार नहीं मानी। जिज्ञासु जी लिखते हैं कि ‘कभी चना चबाकर और कभी भूखे ही रहकर उन्हें सो जाना पड़ता। और पैसा पास न होने से कभी बीसों कोस उन्हें पैदल चलना पड़ता। परन्तु अपने ध्येय और सिद्धांत से विचलित नहीं हुए। वह अपनी धुन के पक्के थे। उन्होंने अपने उपदेशों से सोतों को जगाया, गिरे हुओं को उठाया और मुर्दा कौम को जिन्दा कर दिया।’[18]
जब डराने, धमकाने और दुष्प्रचार से भी कोई आन्दोलन विचलित नहीं होता है, तो फिर उसके भीतर घुसकर उसका नेतृत्व हथियाने की चाल चली जाती है। उसमें घुसने के बाद वे उस आन्दोलन को ध्वस्त या विकृत कर देते हैं। बौद्ध धर्म, जैन धर्म, कबीर और रैदास आदि संतों के दर्शन को इसी तरह विकृत किया गया। आजीवक धर्म मको तो नष्ट ही कर दिया गया। आदिहिन्दू आन्दोलन का नेतृत्व भी सवर्णों ने हथियाने की बहुत कोशिश की, परन्तु वे उसमें कामयाब नहीं हो सके। इसी कारण से स्वामी जी आदिहिन्दू सभा के जलसे की अध्यक्षता भी किसी सवर्ण से नहीं कराते थे। इस सम्बन्ध में जिज्ञासु जी ने एक घटना का इस प्रकार उल्लेख किया है—
‘स्वामी जी कभी सत्ताधारियों, राजाओं और रईसों के हाथ बिके नहीं। उनकी निर्भीकता का एक उदाहरण दिया जाता है। आदि हिन्दू सिद्धांत का प्रचार करते हुए जिस समय वे भारत की प्राचीन राजधानी कन्नौज में आए। तो यह ठहरी कि यहाँ अछूतों की एक विराट सभा की जाए। इस सभा का शामियाना और प्लेटफार्म आदि के बनाने में तिरवा नरेश ने बड़ी सहायता की। सभास्थल खूब सज गया, तो कुछ अछूत भाइयों के मन में यह बात आई कि इस सभा का सभापति तिरवा के राजा साहेब को बनाया जाए। यहाँ तक कि कई मनचले, डरपोक और खुशामदी अछूत भाई तिरवा महाराज को सभापति का आसन ग्रहण करने का निमन्त्रण भी दे आए। किन्तु, यह बात जब स्वामी जी को मालूम हुई, तो उन्होंने निर्भीकभाव से इसका विरोध किया। उन्होंने साफ़ कह दिया कि अछूतों की सभा का सभापति कोई राजा-महाराजा नहीं हो सकता। उस सभा का सभापति कोई सुयोग्य अछूत ही होना चाहिए। फलत: राजा साहेब सभापति नहीं बनाए गए, और सभापति पद के लिए एक अछूत नेता महात्मा रामचरण कुरील को चुना गया। यह स्वामी जी के वंश गौरव और निर्भीकता का एक उज्ज्वल उदाहरण है।’[19]
28 अप्रैल 1930 को स्वामी जी ने अमरावती, बरार में आदिहिन्दू सामाजिक परिषद के सम्मेलन में बोलते हुए कहा था कि हिन्दुओं ने उन्हें मारने की धमकी दी है, जिसका समाचार 13-14 जुलाई 1927 के ‘अर्जुन’ अखबार में छपा था।[20] आगरा में भी उनपर हमला हो चुका था, जिसमें वह बाल-बाल बच गए थे। ये हमले और विरोध इस बात के प्रमाण थे कि स्वामी जी हिन्दुओं के बताए रास्ते पर नहीं चल रहे थे, बल्कि, उनकी धर्म व्यवस्था का खंडन कर रहे थे। दूसरा कारण यह था कि स्वामी जी ने आदिहिन्दू आन्दोलन को सामाजिक से राजनीतिक बना दिया था। अगर वे सामाजिक कार्य तक ही सीमित रहते, तो शायद कांग्रेसी और आर्यसमाजी उनके दुश्मन न बने होते। किन्तु उस दौर का राजनीतिक वातावरण दलितों के पक्ष में नहीं था। कांग्रेस का स्वराज आन्दोलन सिर्फ हिन्दुओं की बात कर रहा था, पर दलित वर्गों की मुक्ति की बात नहीं कर रहा था। इस तरह की परिस्थिति में आदिहिन्दू आन्दोलन का राजनीतिक होना जरूरी था। इसकी पृष्ठभूमि भी उस समय मौजूद थी, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती थी। डा. आंबेडकर का स्वराज के समानांतर अछूत-मुक्ति का आन्दोलन पहले से चल था। जब 1928 में बम्बई में आदिहिन्दू सम्मेलन आयोजित हुआ, तो उसमें डा. आंबेडकर भी उपस्थित थे। पहली बार वहीँ दोनों नेता एक-दूसरे से मिले, पर दोनों एक-दूसरे के कार्यों तथा संघर्षों से परिचित थे। डा. आंबेडकर से बातचीत के बाद स्वामी जी का झुकाव पूरी तरह राजनीति की तरफ हुआ, और वहीँ उन्होने डा. आंबेडकर के मुक्ति-संग्राम को पूर्ण सहयोग देने का निश्चय किया था। यह समय की मांग भी थी। क्योंकि, जैसा कि डा. अम्बेडकर ने कहा था कि अभी नहीं, तो कभी नहीं। वही एक समय था, जब ब्रिटिश सरकार पर अछूतों की मुक्ति का दबाव बनाया जा सकता था। उस अवसर को छोड़ने का अर्थ अछूतों को अछूत रूप में ही हिन्दुओं के अधीन छोड़ देना था।
हालाँकि, स्वामी जी आदिहिन्दू सभा बनने से पहले, 1922 में दिल्ली में ब्रिटेन के राजकुमार का स्वागत करके उन्हें अछूतों की मुक्ति के सम्बन्ध में मांग-पत्र दे चुके थे, पर आदिहिन्दू सभा की ओर से, स्वामी जी ने, जब साइमन कमीशन 29-30 सितम्बर 1928 को लखनऊ आया, तो चारबाग में हजारों लोगों के साथ गाजे-बाजे से उसका भव्य स्वागत किया था, और राजनीतिक अधिकारों के लिए मांगपत्र दिया था, जबकि कांग्रेस के नेताओं ने उसका विरोध और बहिष्कार किया था, डा. अंगने लाल के अनुसार, इस स्वागत-कार्यक्रम में सर्वाधिक योगदान भदन्त बोधानन्द का था।[21]
उसी समय की बात है, जब कांग्रेस के नेता लाला लाजपत राय ने स्वामी अछूतानन्द की काट के लिए उत्तर प्रदेश के हरिजन नेता चौधरी बिहारी लाल को तैयार किया। वह स्वामी जी के जलसों में जाकर विघ्न डालता था, और घूम घूम कर स्वामी जी के खिलाफ प्रचार करता था। उसने स्वामी जो को खूब बदनाम किया।[22]
यह वह दौर था, जब राजनीतिक सत्ता के दो दावेदार उभर रहे थे—कायदे आजम जिन्ना और महात्मा गाँधी। जिन्ना मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे और गाँधी हिन्दुओं का। गाँधी दलित और पिछड़े वर्गों को भी हिन्दू मानकर उनके नेता बन रहे थे। इसी समय डा. आंबेडकर ने दलितों को गैरहिन्दू और अल्पसंख्यक वर्ग घोषित कर, उनके अलग प्रतिनिधित्व का दावा किया, जिससे गाँधी का खेल बिगड़ गया। डा. आंबेडकर ने बहुत मजबूती से दलितों का पक्ष रखा और लन्दन जाकर गोलमेज सम्मेलन में दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की। उन्होंने जोरदार तर्कों से दलितों के संदर्भ में गाँधी के नेतृत्व का खंडन किया। डा. आंबेडकर के दावे को खारिज करने के लिए कांग्रेस और आर्य समाज के नेताओं ने हर तरह के षड्यंत्र किए, यहाँ तक कि दलितों की ओर से फर्जी तार लन्दन भिजवाए कि उनके नेता डा. अम्बेडकर नहीं, गाँधी हैं। किन्तु स्वामी जी ने उनकी इस चाल को कामयाब नहीं होने दिया। उन्होंने लगातार आदिहिन्दू सभाओं में गाँधी और कांग्रेस का खंडन और डा. आंबेडकर का समर्थन किया। उन्होंने कांग्रेस के फर्जी तारों के एवज में दलितों की ओर से ‘गाँधी के विरोध और आंबेडकर के समर्थन में भारी संख्या में असली तार लन्दन भिजवाए। इसका परिणाम यह हुआ कि डा. आंबेडकर के दावे को भरपूर समर्थन मिला, और ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपने साम्प्रदायिक निर्णय (कम्युनल अवार्ड) में दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग को स्वीकार कर लिया। किन्तु गाँधी ने इस निर्णय के विरुद्ध आमरण अनशन कर दिया और डा. आंबेडकर को जीती हुई लड़ाई हारनी पड़ी। पूना में डा. आंबेडकर और गाँधी के बीच समझौता हुआ, दलितों के लिए संयुक्त निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार कर लिया गया। कारण, अगर डा. आंबेडकर समजौता नहीं करते, तो हिन्दू ताकतवर थे, वे गाँव-गाँव और शहर-शहर में दलितों को गाजर-मूली की तरह काट देते, क्योंकि धर्म के लिए आर्यों की हिंसा हिंसा नहीं मानी जाती। जिज्ञासु जी लिखते हैं कि ‘जिस समय पूना समझौता हो रहा था, स्वामी जी बीमार थे। इस कारण वह उसमें अधिक योग नहीं दे सके। बाद में जब उस समझौते पर लोग उनकी राय जानने गए, तो उन्होंने हँसते हुए गंभीर वाणी में कहा, ‘जो हो गया, अच्छा ही है। अब उसे स्वीकार कर लेने में ही बुद्धिमानी है। एक तो इससे महात्मा गाँधी के प्राणों की रक्षा हुई, और हम कलंक से बच गए, दूसरे बड़े भैयों (हिन्दुओं) से मेल-जोल बना रहा। देखना है, अब हिन्दू किस तरह अपना प्रायश्चित और अपनी आत्मशुद्धि करते हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि इस समझौते से हमारा सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन बंद हो जाएगा। उसे तो अब और जोरों से चलना चाहिए। हमें हिन्दुओं के मन्दिरों में जाने की जरूरत नहीं। हमारे आत्मदेव का मन्दिर समस्त विश्व है और प्रत्येक घट मन्दिर है। यह जो कुछ हुआ है, सब हमारे आदिहिन्दू आन्दोलन का ही फल है।’[23]
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लन्दन की गोलमेज सभा में अछूतों के साथ हिन्दुओं के अमानवीय अत्याचारों पर चर्चा से दुखी और लज्जित होकर गाँधी जब भारत आए, तो उन्होंने अछूतों को ‘हरिजन’ नाम दिया। जिज्ञासु जी के अनुसार, गाँधी ने अपने ‘नवजीवन’ अखबार का नाम ‘हरिजन सेवक’ कर दिया, और उनकी इच्छानुसार एक ‘हरिजन सेवक संघ’ भी बन गया।’[24] हिन्दू प्रेस भी ‘हरिजन’ नाम का ही प्रयोग करने लगा। ‘किन्तु यह ‘हरिजन’ शब्द स्वामी अछूतानन्द को बहुत बुरा लगा। उन्होंने इस शब्द के खंडन में जोरदार भजन लिखा, जो ‘स्वामी अछूतानन्द रचना संचयिता’ में संकलित है। इस भजन में कहा गया है कि अन्त्यज, पतित, बहिष्कृत, पादज, पंचम, संकर, वर्णाधम और अछूत पद के बाद अब गाँधी ने हमें हरिजन पद दिया है। ‘हरि’ का अर्थ खुदा और ‘जन’ का अर्थ बन्दा होता है, तब हरिजन या खुदाएजन वह हुआ, जिसके माँ-बाप का पता-ठिकाना नहीं। अगर हम हरिजन हैं, तो तुम भी हरिजन कैसे नहीं हुए? या तुम शैतान के जन हो? यथा–
कियौ हरिजन पद हमैं प्रदान।
अन्त्यज, पतित, बहिष्कृत, पादज, पंचम, शूद्र महान।
संकर बरन और वर्णाधम पद अछूत उपमान।
हरि को अर्थ खुदा, जन बन्दा जानत सकल जहान।
बन्दे खुदा न बाप-माय का जिनके पता ठिकान।
हम हरिजन तौ तुम हूँ हरिजन कस न, कहौ श्रीमान?
कि तुम हौ उनके जन, जिनको जगत कहत शैतान?[25]
स्वामी जी आदिहिन्दू आन्दोलन के प्रवर्तक और प्रखर राजनीतिक वक्ता ही नहीं थे, बल्कि वे हिंदी दलित साहित्य और पत्रकारिता के उद्भावक भी थे। उन्होंने 1922-23 में दो साल दिल्ली से ‘प्राचीन हिन्दू’ और 1924 से 32 तक कानपुर से ‘आदिहिन्दू’ पत्र निकाला था। आदिहिन्दू नाम से ही उन्होंने कानपुर में 1925 में प्रिंटिंग प्रेस लगाया था, और उसी प्रेस से वे अपने पत्र और साहित्य का प्रकाशन करते थे। वे हिंदी के पहले दलित कवि थे, जिनकी कविता में हमें कबीर और रैदास की निर्गुणवादी वैचारिकी का विकास मिलता है। कविता में उनका उपनाम ‘हरिहर’ था। उनकी बहुत ही महत्वपूर्ण काव्य कृति ‘आदि खंड काव्य’ है, जिसे 13 मई 1929 को एच. एल. जटिया, म्युनिस्पल कमिश्नर तथा प्रधान, आदिहिन्दू सभा, कन्नौज के द्वारा प्रकाशित कराई गई थी। इसके मुख पृष्ठ पर लिखा है—‘श्री 108 अछूत स्वामी जी महाराज की बहुत पुरानी खोई हुई अपूर्व कविता को बड़ी तलाश से पाने की ख़ुशी में आदिहिन्दू (शूद्र, अछूत कहाने वाले) भाइयों को भेंट है।’[26]
इससे पता चलता है कि ‘आदिखंड काव्य’ की रचना 1929 से कई साल पहले हुई थी, जो छपने से पहले ही खो गयी थी। यह काव्य आल्ह धुन में लिखा गया है, जिसमें 63 पद और आठ पंक्तियों का एक कवित्त है। काव्य की अंतिम पंक्तियाँ दलित-पिछड़ी दोनों जातियों को संगठित करने का सन्देश देती हैं। यथा—
जो आज़ाद होन तुम चाहो, तो अब छांट देउ सब छूत।
आदिवंश मिल जोर लगाओ, पन्द्रह कोटि सछूत-अछूत।[27]
उनकी कविताओं, गजलों और भजनों का संग्रह ‘आदिवंश का डंका’ 1913-14 की रचना है, जो स्वामी जी के जीवनकाल में ही एक बार छपकर दुबारा नहीं छपी थी। बाद में उसका प्रकाशन बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ से हुआ था, जिसका 1960 में पांचवां और 1983 में ग्यारहवां संस्करण निकला था। इसी से इसकी लोकप्रियता का अनुमान लगाया जा सकता है। उनकी बहुचर्चित और लोकप्रिय कविता ‘मनुस्मृति से जलन’ इसी संग्रह में है, जो मनुवाद पर सम्भवत: पहली दलित कविता है। कव्वाली धुन में लिखी गई इस कविता की एक-एक पंक्ति विचारोत्तेजक है। कुछ पंक्तियाँ देखिए—
निशदिन मनुस्मृति ये हमको जला रही है।
ऊपर न उठने देती, नीचे गिरा रही है।
ब्राह्मण व क्षत्रियों को सबका बनाया अफसर
हमको पुराने उतरन पहनो बता रही है।
हमको बिना मजूरी, बैलों के साथ जोतें,
गाली व मार उस पर, हमको दिला रही है।
लेते बेगार, खाना तक पेट भर न देते,
बच्चे तड़पते भूखे, क्या जुल्म ढा रही है।
ऐ हिन्दू कौम सुन ले, तेरा भला न होगा,
हम बेकसों को ‘हरिहर’ गर तू रुला रही है।[28]
दलित साहित्य में नाटक लिखने की परम्परा भी स्वामी जी से ही आरम्भ होती है। उनके दो नाटक हमें मिलते हैं— ‘मायानंद बलिदान’ और रामराज्य न्याय’। पर, चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने लिखा है, ‘स्वामी जी के दिमाग में कई नाटकों के प्लाट थे। जिनके द्वारा वे आदिहिन्दू ज्ञान को साकार करना चाहते थे। किन्तु उनका जीवन इतना व्यस्त और चिंता ग्रसित था कि वे अपनी इच्छानुसार उन्हें लिख न सके। उनके मनोभिलषित नाटक थे—समुद्र-मंथन, बलि-छलन, एकलव्य एवं सुदास और देवदास।’ जिज्ञासु जी ने उनके मनोभिलषित नाटकों का परिचय देते हुए लिखा है, ‘‘समुद्र-मंथन’ का विषय आर्य देवों की प्रवंचना और धूर्तता एवं विष्णु की मोहनी औरत बनकर आदिवासी असुरों को धोखा देना था। ‘बलि-छलन’ का महादानी और महापराक्रमी आदिवासी असुर सम्राट महाराजा बलि को आर्य देवों और ब्राह्मणों के षड्यंत्र द्वारा बौने ब्राह्मण का रूप धरकर विष्णु का छलना था। ‘एकलव्य’ नाटक में अद्वितीय धनुर्धर निषाद-पुत्र एकलव्य का अत्यंत नीचता से अंगूठा कटवाना था तथा ‘सुदास और देवदास’ में यह दिखाना था कि वे दोनों भारत के आदिनिवासी राजा थे। इनमें देवदास विभिष्ण और जयचंद की तरह, आर्यों के सेनापति इंद्र से मिल गया तय, जिसकी साजिश से सुदास पराजित हुआ और सिंध एवं पंजाब प्रदेश पर आर्यों का प्रभुत्व कायम हो गया।’[29]
‘मायानंद बलिदान’ नाटक कानपुरी सांगीत शैली में लिखा गया नाटक है, जिसमें श्रीकृष्ण पहलवान का सांगीत साहित्य मिलता है। इसमें दोहा, चोबोला, दौड़, बहरतबील और गजल आदि छंद होते हैं। यह नाटक जुलाई 1926 में आदिहिन्दू आल इंडिया महासभा, कानपुर से प्रकाशित हुआ था। इसके मुख पृष्ठ पर सबसे ऊपर कबीर की यह पंक्ति है— ‘कहें कबीर ते छूत विवर्जित जाके संग न माया।’ उसके नीचे नाटक का नाम है। फिर लिखा है – ‘आदि हिन्दू साधु को नरमेध यज्ञ में बलि देना।’ इसके ठीक नीचे ये पंक्तियाँ हैं— ‘इतिहास की इस सच्ची प्रामाणिक घटना को हजार वर्ष बीते इस महात्मा ने आदिहिन्दू जाति पर जान देकर नगर में बसने, पहनने और ओढ़ने की आज़ादी दिलाई थी।’ नाटक में विक्रमी संवत ग्यारह सौ के गुजरात देश की सिद्धराज शासन के पाटन शहर की कहानी है। जहाँ पानी की कमी को पूरा करने के लिए सागर पर बाँध का निर्माण किया जा रहा था, परन्तु सफलता नहीं मिल रही थी। राजा ने ब्राह्मण पुरिहितों से उपाय पूछा, तो उन्होंने नरमेध यज्ञ करने की सलाह दी। बलि के लिए ब्राह्मणों ने एक वेदविरोधी अछूत संत मायानन्द को पकड़ा और राजा के पास ले गए। राजा के समक्ष मायानन्द ने अपना बलिदान देने से पहले राजा से कहा कि वह बलिदान देगा, जब यह राजाज्ञा जारी की जाए अब से अछूतों को नगर में बसने, पहनने, ओढ़ने और आजादी से रहने का अधिकार होगा। नाटक में कहा गया है कि राजा ने मायानन्द की इच्छा पूरी की और तुरंत राजाज्ञा जारी करवाई।[30]
‘राम राज्य न्याय’ नाटक में राजा राम द्वारा शूद्र ऋषि शम्बूक की हत्या किए जाने का चित्रण है। कायदे से यह रचना 1927 से भी पहले की होनी चाहिए। स्वामी जी ‘मनुस्मृति’ कविता इसी नाटक का अंश है, जो शम्बूक के द्वारा बोली गई है। यह नाटक मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। मूल नाटक को जिज्ञासु जी ने भाषा का संशोधन करके और उसमे अपने उपनाम ‘प्रकाश’ से गाने जोड़कर प्रकाशित किया था।[31] स्वामी जी का यह नाटक चौदह साल अमुद्रित रहने पर 1964 में दूसरी बार प्रकाशित हुआ, और 1995 में इसका ग्यारहवां संस्करण निकला था।[32]
स्वामी जी ने यश तो खूब पाया था, पर धन और सेहत उनके पास नहीं थी। हर समय काम करते रहने से उनकी सेहत गिरने लगी थी। इधर उनके पैर में चक्कर था, जो उन्हें लगातार यात्रा में रखता था। वे अपने पास में एक झोला रखते थे, जिसमें कॉपी-कलम के साथ-साथ आदिहिन्दू सभा का पूरा दफ्तर रहता था। यात्रा में रहते, तो यहाँ भी समय मिलता, कॉपी-कलम निकालकर लिखने लगते थे। उनका अधिकांश साहित्य यात्राओं में ही लिखा गया। 1932 की ग्वालियर के विराट आदिहिन्दू सम्मेलन के बाद उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। धनाभाव था ही, इसलिए उनका उनका ठीक से बेहतर इलाज नहीं हो सका। नीम-हकीम डाक्टरों से इलाज होता रहा, जो घातक ही था। अत: रोग बढ़ता गया, और 54 वर्ष की अल्पायु में ही 20 जुलाई 1933 को प्रात: साढ़े 9 बजे कानपुर के बिना झाबर ईदगाह में उनका निधन हो गया। उत्तर भारत में दलित वर्गों में आज़ादी की आकांक्षा जगाने वाला सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो गया था। जिज्ञासु जी ने लिखा—
एक आला दिमाग था, न रहा।
आदिवंशी चिराग था, न रहा।
स्वामी जी के निधन के बाद आदि हिन्दू आन्दोलन का एक तरह से पतन ही हो गया। उसके कुछ लोग बेहतर जीवन की तलाश में कांग्रेस में चले गए और कुछ ने आन्दोलन के साथ एकनिष्ठ बने रहकर बाबासाहेब डा. आंबेडकर की शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन में विलय कर लिया।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
संदर्भ :
[1] भारत के इतिहास में ऐसे तीन दौर उल्लेखनीय हैं—बुद्ध काल, मध्य काल का मुस्लिम दौर और आधुनिक काल का अंग्रेजी दौर.
[2] चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ग्रंथावली, खंड 2, संपादक : कँवल भारती, दि मार्जिनालाइज्ड पब्लिकेशन, दिल्ली, 2017, पृष्ठ 346.
[3] उत्तर प्रदेश में दलित आन्दोलन, डा. अंगने लाल, गौतम बुक सेंटर, शाहदरा, दिल्ली, 2011, पृष्ठ 22.
[4] चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ग्रंथावली, खंड 2, उपर्युक्त, पृष्ठ 346.
[5] स्वामी अछूतानन्द एंड दि आदि हिन्दू मूवमेंट, नंदिनी गूप्तु, क्रिटिकल क्वेस्ट, नई दिल्ली, 2006, पृष्ठ 12.
[6] वही, पृष्ठ 13.
[7] चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ग्रंथावली, खंड 2, उपर्युक्त, पृष्ठ 347.
[8] डा. अंगने लाल, उपर्युक्त, पृष्ठ 23.
[9] चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ग्रंथावली, खंड 2, उपर्युक्त, पृष्ठ 351.
[10] नंदिनी गूप्तु, उपर्युक्त, पृष्ठ 13.
[11] डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेस, वाल्यूम 9, किताब- व्हाट कांग्रेस एंड गाँधी हैव डन टू दि अनटचेबिल्स, एजुकेशन डिपार्टमेंट, गवर्नमेंट ऑफ़ महाराष्ट्र, बम्बई, 1990, पृष्ठ 40-52.
[12] ‘ऐसा था उनका उत्साह! उनमें से बहुत से किसी तरह दिल्ली चलकर आए थे. वह 25 हजार अछूतों की भीड़ थी. जो प्रिंस के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. उन्हें देखने के लिए सभी दिशाओं से अछूत लोगों का रेला आया था’—कैंथरीन मेयो, मदर इंडिया, हिंदी अनुवाद : कँवल भारती, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ 155.
[13] चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, उपर्युक्त, खंड 2, पृष्ठ 348.
[14] डा. अंगने लाल, उपर्युक्त, पृष्ठ 24-25.
[15] चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, उपर्युक्त, खंड 2, पृष्ठ 357.
[16] वही, पृष्ठ 357-358.
[17] वही, पृष्ठ 359.
[18] वही, पृष्ठ 349.
[19] वही, पृष्ठ 349-350.
[20] वही, पृष्ठ 412.
[21]डा. अंगने लाल, उपर्युक्त, पृष्ठ 26-27.
[22] स्वामी अछूतानन्दजी ‘हरिहर’ और हिंदी नवजागरण, कँवल भारती, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृष्ठ 269-277
[23] चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, उपर्युक्त, पृष्ठ 374.
[24] वही, पृष्ठ 423.
[25] स्वामी अछूतानन्द हरिहर संचयिता, सं. कँवल भारती, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृष्ठ 139.
[26] वही, पृष्ठ 112.
[27] वही, पृष्ठ 120.
[28] वही, पृष्ठ 128.
[29] वही, पृष्ठ 39-40.
[30] वही, पृष्ठ 63-78.
[31] वही, पृष्ठ 82.
[32] स्वामीजी ….और हिंदी नवजागरण, उपर्युक्त, पृष्ठ 255.
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