बीती 14 फरवरी 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले में एक आतंकी हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 40 जवान शहीद हो गए। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सैनिकों को खुली छूट देने की बात कही। इस संबंध में मैंने फारवर्ड प्रेस के माध्यम से एक खुला पत्र प्रधानमंत्री को लिखा। मैंने अपने इस पत्र में उन बातों की ओर प्रधानमंत्री का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया, जिनसे सैन्य व अर्द्ध सैन्य बलों के जवान रोजाना जूझते हैं। मेरे खुले पत्र को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं और मैं यह चाहता हूं कि देश का हर आम और खास व्यक्ति अर्द्ध-सैन्य बलों के सैनिकों की समस्याओं के बारे में जाने। मकसद केवल इतना है कि परिस्थितियों में बदलाव हो, ताकि हमारे सैनिकों का हौसला बुलंद रहे। इस संबंध में हम लोगों ने 3 मार्च 2019 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर अपनी मांगों को सरकार के समक्ष रखने का फैसला किया है।
शुरुआत पहले भेदभाव से करते हैं। अपने पहले पत्र में मैंने यह बताया था कि भारत सरकार भारतीय सेना के जवानों और अर्द्ध-सैन्य बलों (जैसे कि सीआरपीएफ) के जवानों के बीच भेदभाव करती है। भेदभाव भी इस तरह का कि मानो अर्द्ध-सैन्य बलों के जवान दोयम दर्जे के हों। जबकि, लड़ाई चाहे सीमावर्ती राज्यों में हो या फिर उग्रवाद प्रभावित राज्यों में, जान हमारे जवानों की भी जाती है। हमारे घरों में भी मातम छाता है। हमारे बच्चों को भी पिता का प्यार नहीं मिलता है।
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फारवर्ड प्रेस के माध्यम से मैं आप सबको यह बताना चाहता हूं कि अर्द्ध-सैन्य बलों के जवानों के वेतन व पेंशन और भारतीय सेना के जवानों के वेतन व पेंशन में भारी अंतर है; जो किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं है। एक उदाहरण देखिए- अर्द्ध-सैन्य बल का एक डिप्टी-कमाडेंट, जो कि भारतीय सेना के मेजर के बराबर की रैंक का है; उसे केवल 35 हजार रुपए प्रतिमाह पेंशन मिलती है। जबकि, सेना का एक ऑनरेरी कैप्टन जो सूबेदार होने के बाद बनता है, जिसे सेना के ऑफिसर्स मेस में बैठना भी मना है और जो सीआरपीएफ के असिस्टेंट कमांडेंट के बराबर है; उसे प्रतिमाह 55 हजार रुपए पेंशन मिलती है।
इसी प्रकार अर्द्ध-सैन्य बल के एक सेवानिवृत्त हवलदार को प्रतिमाह 14 हजार रुपए पेंशन मिलती है, जबकि भारतीय सेना के सेवानिवृत्त हवलदार को 22 हजार रुपए। कहने का अर्थ है कि भारतीय सेना का हवलदार लगभग अर्द्ध-सैन्य बलों के इंस्पेक्टर के सामान पेंशन ले रहा है। अर्द्ध-सैन्य बलों का मनोबल इस कारण भी टूटता है, क्योंकि इनका जवान अपनी पेंशन बतलाने में शर्म महसूस करता है।
अंतर केवल वेतन और पेंशन का ही नहीं है। भारत सरकार सैन्य बलों और अर्द्ध-सैन्य बलों के बीच किस तरह का भेदभाव करती है, इसे समझने के लिए वीरता पुरस्कारों के मिलने पर मासिक भत्ते में होने वाली वृद्धि के अंतर को देखिए।
भारतीय सेना को मिलने वाले वीरता सम्मान मासिक भत्ते की राशि में वृद्धि
सम्मान | 1973 में मिलता था | 2018 के बाद मिलता है |
---|---|---|
परमवीर चक्र | 90 रुपए | 12 हजार रुपए |
महावीर चक्र | 75 रुपए | 10 हजार रुपए |
कीर्ति चक्र | 65 रुपए | 9 हजार रुपए |
वीर चक्र | 50 रुपए | 7 हजार रुपए |
शौर्य चक्र | 40 रुपए | 6 हजार रुपए |
अर्द्ध सैन्य बलों के जवानों को मिलने वाले वीरता सम्मान मासिक भत्ते की राशि में वृद्धि
सम्मान | 1973 में मिलता था | 2018 के बाद मिलता है |
---|---|---|
राष्ट्रपति पुलिस मेडल | 60 रुपए | 3 हजार रुपए |
पुलिस मेडल | 40 रुपए | 2 हजार रुपए |
जहां तक मेरी रैंक (कमाडेंट) का प्रश्न है; छठे वेतन आयोग में मेरा वेतन बैंड-चतुर्थ में था, जिसमें सेना के कर्नल को रखा गया था। और लेफ्टिनेंट-कर्नल वेतन बैंड-तृतीय में था। वर्तमान में सातवें वेतन आयोग में मेरा वेतन लेफ्टिनेंट-कर्नल से भी नीचे मेजर के बराबर कर दिया गया है। मैं इसे केवल अन्याय ही नहीं, बल्कि अर्द्ध-सैन्य बलों के साथ घोर अन्याय समझता हूं।
अर्द्ध-सैन्य बलों के जवानों को मिलने वाली पेंशन दूसरे केंद्रीय सिविल विभागों के साथ ही 2004 में बंद कर दी गई थी। हम मांग करते हैं कि सरकार इसे तत्काल प्रभाव से शुरू करे। हम मानते हैं कि अर्द्ध-सैनिक बलों के साथ सिविल विभागों के जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए।
सरकार ने सेना की ‘वन रैंक वन पेंशन’ की मांग तो पूरी कर दी, लेकिन अर्द्ध-सैन्य बलों की इस मांग को छोड़ दिया। सरकार का यह व्यवहार अर्द्ध-सैनिकों को हतोत्साहित करने वाला सौतेला व्यवहार है।
हम यह भी मांग करते हैं कि केंद्रीय अर्द्ध-सैन्य बलों के लिए भी कैंटीन की सुविधा लागू की जाए। ये कैंटीन जिलेवार हों। पहले अर्द्ध-सैन्य बलों व सेना के जवानों व अधिकारियों को वाहन खरीदने के लिए 10.5 प्रतिशत की छूट मिलती थी, जिसे जीएसटी लागू करने के बाद बंद कर दिया गया था। कुछ दिनों बाद ही सेना के सदस्यों को वाहन पर मिलने वाली छूट बहाल कर दी गई, लेकिन अर्द्ध-सैन्य बलों लिए मिलने वाली छूट अभी तक बहाल नहीं की गई है।
इतना ही नहीं, अर्द्ध-सैन्य बलों के परिवारों के लिए ‘फैमिली क्वार्टर’ की सुविधा भी पर्याप्त नहीं है। इसका विस्तार किया जाना चाहिए।
वर्तमान में अर्द्ध-सैन्य बलों की संख्या लगभग भारतीय सेना के सौनिकों की संख्या के बराबर पहुंच चुकी है। इसलिए, यह आवश्यक हो गया है कि इसके लिए एक पृथक मंत्रालय का गठन किया जाए; ताकि अर्द्ध-सैन्य बलों की समस्याओं का समय पर निवारण किया जा सके।
दरअसल, अर्द्ध-सैन्य बलों के वेतन व अन्य समस्याओं का निदान इसीलिए भी समय पर नहीं हो पाता है, क्योंकि इनके मुखिया अधिकारी आईपीएस अधिकारी होते हैं, जो कुछ ही समय के लिए आते हैं और समस्याओं को समझने से पहले ही सेवानिवृत्त हो जाते हैं या स्थानान्तरित कर दिए जाते हैं। इसका बड़ा उदाहरण सातवें वेतन आयोग का मामला है। इसे लागू करने से पहले सेना के तीनों प्रमुखों के वेतन के बारे में दो या तीन बार मीटिंग हुई, लेकिन अर्द्ध-सैन्य बलों के मुखिया इस बारे में बात करने के लिए कभी भी आपस में नहीं मिले। इसीलिए जो वेतन आयोग ने दे दिया, उसको वैसे का वैसा अर्द्ध-सैन्य बलों के सैनिकों के लिए लागू कर दिया गया गया; जो किसी प्रकार से भी न्याय-पूर्ण नहीं है। इसीलिए, हम मांग कर रहे हैं कि अर्द्ध-सैन्य बलों के प्रमुख भी अपनी-अपनी फोर्स कोरों से बनाए जाएं।
जहां तक अर्द्ध-सैन्य बलों के जवानों की बहादुरी का प्रश्न है, तो मैं यह कहना चाहता हूं कि उनका योगदान किसी भी प्रकार से सेना से कम नहीं है और इस संबंध में आंकड़े इकट्ठे किए जा सकते हैं। जहां तक इतिहास की बात है, तो सेना की कई रेजिमेंट दूसरे विश्व युद्ध के समय ही खड़ी की गई थीं; जबकि केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) का गठन 27 जुलाई 1939 को ही हो गया था। इसीलिए, फारवर्ड प्रेस के जरिए हम सरकार से मांग करते हैं कि वह अर्द्ध-सैन्य बलों का मनोबल बनाए रखने के लिए तुरंत पहल करे।
(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी/एफपी डेस्क)
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