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जम्मू-कश्मीर में हिंसा और अशान्ति का गुनाहगार कौन?

कश्मीर की घटना से देश के सभी कट्टरपंथियों को सबक लेनी चाहिए। आज जो कश्मीर में हो रहा है, कभी पूरे हिंदुस्तान में हो सकता है। वर्चस्व और नफरत की सोच का यही नतीजा होता है

जन-विकल्प

14 फ़रवरी 2019 को कश्मीर घाटी के पुलवामा में हुई ह्रदय-विदारक घटना, जिसमें केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के 44 जवान शहीद हो गए, के बाद पूरा देश एक गुस्से में है। आतंकवादियों के खिलाफ मुल्क का यह गुस्सा स्वाभाविक है। लेकिन कश्मीर को लेकर लोगों की जानकारी थोड़ी कम है, इसलिए जब भी लोगों से इस विषय पर कुछ सुनता हूँ, तब निराशा होती है। तरह-तरह के जज़्बाती नारे और उटपटांग बातें सुनने का आदि हो चुका हूँ। पिछले दो दिनों में फिजूल की बातें सुनते-सुनते कान पक गए हैं। इसीलिए आवश्यक समझा कि इस विषय पर कुछ जानकारियां साझा करूँ। हालांकि मैं इस मामले का विशेषज्ञ बिलकुल नहीं हूँ। लेकिन सामान्य जानकारी तो है ही, और मैं समझता हूँ फ़िलहाल इतना भी शेयर किया जाना चाहिए। यह भी बतला दूँ, पूरे विषय पर यह एक विहंगम दृष्टि भर है।

धरती के स्वर्ग कश्मीर का अपना शानदार इतिहास है। भारत के उत्तर का यह प्रदेश अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता रहा है। हिमालय पर्वतमाला से घिरा हुआ यह प्रदेश कभी बौद्ध केंद्र था। शक राजा कनिष्क ने 100 ईस्वी में यहाँ चौथी बौद्ध संगीति या महापरिषद आयोजित की थी। कहा जाता रहा है कि महाकवि कालिदास यहां का शासक बना था। शंकराचार्य ने पंडितों के साथ यहाँ सत्संग किया था। कल्हण की प्रसिद्ध पुस्तक ‘राजतरंगिणी’ में कश्मीर का व्यवस्थित इतिहास दर्ज है। चौदहवीं सदी में यहाँ तुर्क आये और फिर बाद के दिनों में मुगलों के अधीन यह पूरा इलाका आ गया। फिर अफगान आये और अंततः सिक्खों ने 1819 ईस्वी में इसे अपने अधीन कर लिया। 1846 में कश्मीर को हिन्दू राजा गुलाब सिंह ने अपने नियंत्रण में लिया। अंग्रेजों की अधीनता स्वीकारते हुए वह वहां के राजा बन गए। उसी वंश के हरी सिंह 1925 में महाराजा बने। इसी हरी सिंह ने अक्टूबर 1947 में कश्मीर का भारत में विलय किया। इस विलय की एक अलग और दिलचस्प कहानी है।

जम्मू-कश्मीर के लद्दाख में बौद्ध धर्मावलम्बी पारंपरिक वाद्य यंत्र बजाते हुए व नृत्य करते हुए (तस्वीर साभार : सूचना व जनसंपर्क विभाग, जम्मू-कश्मीर का अधिकारिक वेबसाइट)

आजादी के बाद कश्मीर

कुछ प्राथमिक बातें हमें और जान लेनी चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने, 15 अगस्त 1947 को जो इंडिया या भारत हमें सौंपा था, उसमें जम्मू-कश्मीर नहीं था। यह पाकिस्तान में भी नहीं था। कई देशी रियासतों की तरह यह एक स्वतंत्र राज्य या रियासत था, जिसके तत्कालीन राजा अथवा प्रमुख हरी सिंह थे। कश्मीर पांच भौगोलिक हिस्सों में विभक्त है। ये हैं – जम्मू, कश्मीर घाटी, लद्दाख, गिलगित और बाल्टिस्तान। आज़ादी के वक़्त पूरी आबादी का 77 फीसदी मुसलमान और शेष हिन्दू,बौद्ध और सिक्ख थे। इस आधार पर ही पाकिस्तान के स्वप्नदर्शियों का मानना था कि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बनेगा। पाकिस्तान के रोमन हिज्जे में जो ‘के’ है,वह कश्मीर के लिए ही है। पंजाब, अफगानिस्तान-पश्चिमोत्तर प्रान्त, कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान के प्रथम और आखिरी लेटर अथवा अक्षर को लेकर 1930 के दशक में रहमत अली नाम के एक नौजवान ने पाकिस्तान शब्द बनाया था। मुस्लिम लीग ने इस शब्द को अपना लिया। इसलिए पाकिस्तान की नज़र शुरू से ही कश्मीर पर थी। लेकिन कश्मीर की हालत थोड़ी पेचीदा थी। एक तो यहाँ का राजा हरी सिंह हिन्दू था, दूसरे यहां की मुस्लिम आबादी ने मुस्लिम लीग से भिन्न मिज़ाज़ की राजनीति का पाठ पढ़ा था।

जम्मू-कश्मीर के अंतिम राजा हरी सिंह (23 सितंबर 1895 – 26 अप्रैल 1961)

पाकिस्तान शब्द के गढ़नेवाले रहमत अली और अब्दुल रहमान जैसे नौजवान जब पाकिस्तान के सपने बुन रहे थे, तब कश्मीर घाटी का एक नौजवान कश्मीर की राजशाही के खिलाफ एक राजनीति संगठित कर रहा था। यह नौजवान था शेख अब्दुल्ला, जिसने 1932 अथवा 1934 में वहां मुस्लिम कांफ्रेंस बनाई। उसी साल जब कांग्रेस के भीतर समाजवादियों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई। शेख अब्दुल्ला भारतीय समाजवादियों से प्रभावित थे। इन नेताओं से उनके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध भी थे। 1938 में उनका मुस्लिम कॉन्फ्रेंस, नेशनल कॉन्फ्रेंस बन गया। लेकिन उनका नेशनल कश्मीरी नेशनल था, इंडियन नेशनल नहीं।

आम अवाम के बीच जम्मू-कश्मीर के प्रथम मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला (5 दिसंबर 1905 – 8 सितंबर 1982)

कश्मीर का है अपना लाल झंडा

भारतीय उपमहाद्वीप से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की विदाई-बेला में जब पाकिस्तान की गिद्ध -दृष्टि कश्मीर की तरफ थी और महाराजा हरी सिंह अपना राज स्वतंत्र रखने पर आमादा थे, तब शेख ने राजा के खिलाफ बगावत की और कश्मीर के भारत के साथ गठजोड़ का एक प्रस्ताव दिया। इन सबके बीच 22 अक्टूबर 1947 को पख्तून कबायलियों के साथ पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में घुसपैठ कर दी। लूट-पाट और अफरा-तफरी के बीच 25 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना ने हस्तक्षेप किया और हरी सिंह ने भारतसंघ में कुछ शर्तों के साथ विलय किया। इन शर्तों का ही उल्लेख भारतीय संविधान की धारा 370 में है। इसके अनुसार रक्षा, विदेश और संचार के अलावा सभी मामलों में कश्मीर को स्वायत्ता होगी। संसद में पारित भारतीय संविधान का कोई भी विधान वहां की विधानसभा की सहमति के बिना वहां लागू नहीं किया जा सकेगा। राष्ट्रीय झंडे के साथ वहां कश्मीर का भी झंडा लगेगा। जानने की बात यह भी है कि कश्मीर ही है, जहाँ का झंडा लाल है; लाल जमीन पर मिहनतक़श किसानों का प्रतीक हल। यह नेशनल कॉन्फ्रेंस के शेख का सपना था। समाजवादी सपना। लेकिन यहीं से उनकी कठिनाई भी शुरू होती है।

जम्मू-कश्मीर का अधिकारिक लाल झंडा। इस झंडे को 1952 में स्वीकार किया गया। इसमें तीन सफेद पट्टियां बनी हैं। ये तीनों पट्टियां जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख को निरूपित करती हैं। झंडे में हल का निशान है और लाल रंग समाजवाद का प्रतीक है।

कश्मीर घाटी पर पाकिस्तानी कबायली हमले और परिणाम स्वरुप हरी सिंह के भारत में विलय-फैसले के बाद कश्मीर की राजनीति और भूगोल दोनों में बदलाव आया। राजशाही समाप्त हो गयी। गिलगित और बाल्टिस्तान के अलावा घाटी का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया। जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख के साथ पुराने कश्मीर का तकरीबन साठ फीसद हिस्सा भारत के पास, तीस फीसद पाकिस्तान के पास और दस फीसद अक्साईचीन के नाम पर चीन के पास चला गया। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को दुनिया के सामने पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहता है। लेकिन दरअसल आज वही इलाका आतंकवाद का गढ़ बना हुआ है। पाक अधिकृत कश्मीर की कश्मीरियत ख़त्म कर दी गयी है। मैं ऐसा नहीं कहूंगा कि भारतीय कश्मीर में यह नहीं हुआ है। बस मात्रा-भेद है।


शेरे कश्मीर शेख अब्दुल्ला की दिलेरी

हम एकबार फिर बीते दौर में लौटें। मार्च 1948 में शेरे-कश्मीर के नाम से मशहूर शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री (वजीरे-आला) बनते हैं। (1937 के चुनाव के बाद प्रांतीय शासन में सभी भारतीय प्रांतों में प्रधानमंत्री ही बने थे।) इस पर हिन्दू महासभाइयों ने खूब चिल्ल-पों की। लेकिन अगली कठिनाई तब जाकर शुरू हुई, जब शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर में बिना किसी मुआबजे के ज़मींदारी ख़त्म कर दी। बंगाल में जिस तरह हिन्दुओं के पास ज़मींदारी थी और खेतों में काम करने वाले किसान मुस्लिम थे, वैसी ही स्थिति कश्मीर में थी। ज़मींदारी हिन्दू पंडितों और राजपूतों के पास थी। ये खुद से खेती नहीं करते थे। खेती किसान करते थे, जो भूमिहीन थे। धर्म के स्तर पर वे मुसलमान थे। शेख अब्दुल्ला किसानों के सवाल उठाते थे। लेकिन पंडित उसे मजहबी करार देते थे, क्योंकि वे पंडितों के निजी स्वार्थ पर हमला करते थे।

1988 में शेख अब्दुल्ला की स्मृति में भारत सरकर द्वारा जारी डाक टिकट

इस लड़ाई ने धीरे-धीरे ज़मींदारों और किसानों को एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया। यह संघर्ष अंततः पंडित-मुस्लिम संघर्ष में तब्दील हो गया। पंडितों और दूसरे जमींदार हिन्दुओं ने शेख को भारत विरोधी कहना शुरू किया। इतना तो सच है कि शेख ने शांत कश्मीर में भूमिहीनों को आवाज़ दी, उनकी बगावत का नेतृत्व किया और अंततः ज़मींदारी ख़त्म कर दी। इस तरह वह हिन्दू ज़मींदारों की आँखों की किरकिरी बन गए। लेकिन वह शेख ही थे जिन्होंने कश्मीर का भारत में विलय संभव कराया था। उन्ही के नेतृत्व में 1952 में वहां चुनाव हुए और वहां की असेम्बली ने भारत विलय पर मुहर लगा दी। यही वहां का जनमत संग्रह था। लेकिन वहां के हिन्दू जमींदार शेख के जानी-दुश्मन बन गए। अंततः शेख की गिरफ़्तारी हुई। 1953 से 1964 तक वह जेल में रहे। 1964 से 1968 तक नज़रबंद रखे गए। समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण की पहल पर 1973 में वह पुनः भारतीय राजनीति में सक्रिय हुए और दो दफा कश्मीर के मुख्यमंत्री हुए। उनके बाद उनके बेटे फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री हुए। फिर ऐसा लगा कि कश्मीर की स्थिति सामान्य हो गयी। हालांकि इस बीच उथल-पुथल भी कम नहीं रहे, लेकिन हिंसा का कोई स्थान नहीं था। भारतीय सैलानियों और नवविवाहित जोड़ों की पहली पसंद कश्मीर होती थी। हर सिनेमाकार अपनी फिल्म में वहां की ख़ूबसूरत वादियों को दिखलाना चाहता था।

कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा

लेकिन 1990 में स्थिति गड़बड़ होने लगी। श्रीनगर क्षेत्र से पंडितों को खदेड़ा जाने लगा। यह आर्थिक नहीं, मजहबी लड़ाई थी। इन सबके कारण क्या थे और इसकी शुरुआत कैसे हुई यह कहना मेरे लिए मुश्किल होगा। लेकिन यह पंडितों के लिए मुश्किल घडी थी। एक-एक करके उन्हें खदेड़ दिया गया। उनके घर-कारोबार विनष्ट कर दिए गए अथवा हड़प लिए गए। इसमें एक से एक विद्वान और कलाकार लोग थे। महिलाओं के साथ बदसलूकी हुई। यह सब लम्बे समय तक हुए दुष्प्रचार का नतीजा था। लेकिन यह सब हुआ। तब से अब तक कश्मीर सुलग रहा है। राष्ट्रवादी होने का दम भरने वाले भारतीय समझते हैं कि धारा 370 ख़त्म कर देने से सब ठीक हो जायेगा। यह मांग उस लुटेरे तबके से होती है जो कश्मीर की धरती को हड़प लेने के लिए उत्सुक हैं, उनके लालची जीभ लपलपा रहे हैं। वह उसी तरह वहां की आबादी पर छा जाना चाहते हैं, जैसे पाक अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तानी सेठ-सामंत भर गए हैं। मैं नहीं समझता कि यह समस्या का समाधान है।

सबक लें दोनों मजहबों के कट्टरवादी

कश्मीर की सांस्कृतिक-सामाजिक और राजनैतिक हालात समझने के लिए हमें और गहराइयों में उतरना होगा। कश्मीरी पंडितों की आज जो दुर्दशा हो रही है, उस पर मेरी हमदर्दी है; लेकिन उन्हें स्वयं भी अपने भीतर झांकना होगा। बहुत हद तक इन पंडितों के पूर्वज इनकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। इस घाटी में काश्तकार और दस्तकार हिन्दू आबादी नगण्य है। क्यों? ये काश्तकार और दस्तकार हिन्दुओं के पिछड़े और दलित होते हैं। ये वहां की हिन्दू जनसंख्या के हिस्सा क्यों नहीं है? इस बात पर आरएसएस या हिन्दू संगठनों ने कभी सोचा है? शायद सोचने की कुव्वत ही उनके पास नहीं है। जो समाज का नेतृत्व कर रहे थे, वो खुदगर्ज होते चले गए। नतीजा हुआ कामगार जनता ने सांस्कृतिक विद्रोह कर दिया। कश्मीर के मुसलमान 99 फीसद वहीं के हैं। पूर्व में वे बौद्ध या हिन्दू थे। हिन्दुओं की सामाजिक कुरीतियों और मनुवादी ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था ने उन्हें इस्लाम की तरफ धकेल दिया। आज उन सब का नतीजा वे खुद भोग रहे हैं। उन्हें अपने घरों से उजड़ना पड़ा। आज स्वयं दलितों से अधिक पीड़ा भुगत रहे हैं। कश्मीर की घटना से पूरे देश के द्विजों को सबक लेनी चाहिए। आज जो कश्मीर में हो रहा है, कभी पूरे हिंदुस्तान में हो सकता है। वर्चस्व और नफरत की सोच का यही नतीजा होता है। इस्लामी कट्टरतावादियों के लिए भी वहां सबक है। आज की दुनिया मिलजुल कर चलने की है। नफरत की बुनियाद पर न कोई समाज चल सकता है, न मजहब। वे दुनिया से मिट जायेंगे। आज कोई भी विचार या धर्म हज़ार साल पहले के रिवाजों और नियमों के अनुसार नहीं चल सकता।

14 फरवरी 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले में आतंकी हमले के बाद का दृश्य। इस हमले में सीआरपीएफ के 42 जवान शहीद हो गए

पुनश्च

कश्मीर के बारे में मेरी जानकारी अभी भी बहुत कम है। मैं कवि अग्निशेखर के पोस्ट और दूसरे लेख उत्सुक-भाव से पढता हूँ। वहां के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहता हूँ। कश्मीरी पंडितों ने ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में जो योगदान दिया है, उसका लोहा मानता हूँ, अभिनन्दन करता हूँ, लेकिन यह भी कहता हूँ कि उनसे गलतियां भी हुई हैं। अपने निर्वासन में वह इन गलतियों पर भी विचार करें और पूरे मुल्क को बतलावें। कश्मीरी परंपरा महान रही। वहां की कश्मीरी जुबान में पर्सियन और संस्कृत ऐसे गंसे-गुंथे है कि उनकी मिठास सुनकर ही महसूस किया जा सकता है। सुकत गच्छ अर्थात कहाँ जा रहे हो – यह जुबान कैसे और क्यों मिट रही है? हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रवाद के विचार ने कश्मीर की रवायत को ख़त्म कर दिया। कश्मीर पहले कश्मीरी रहे वह हिंदुत्व और इस्लाम की प्रयोगशाला न बने। जाफरान और मेवों का कश्मीर आज खूनी खेल का अखाडा बन गया है। यह दुखद है। वह दुनिया का स्वर्ग हुआ करता था, आज नरक बन गया है। हम उसके फिर से ख़ूबसूरत और खुशहाल होने की कामना करते हैं।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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