आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास : पी.एस. कृष्णन की जुबानी, भाग – 10
(भारत सरकार के नौकरशाहों में जिन चंद लोगों ने अपने को वंचित समाज के हितों के लिए समर्पित कर दिया, उसमें पी.एस. कृष्णन भी शामिल हैं। वे एक तरह से आजादी के बाद के सामाजिक न्याय के जीते-जागते उदाहरण हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने सामाजिक न्याय संबंधी अपने अनुभवों को डॉ. वासंती देवी के साथ साझा किया। वासंती देवी मनोनमनियम सुन्दरनर विश्वविद्यालय, तमिलनाडु की कुलपति रही हैं। संवाद की इस प्रक्रिया में एक विस्तृत किताब सामने आई, जो वस्तुत : आजादी के बाद के सामाजिक न्याय का इतिहास है। फारवर्ड प्रेस की इस किताब का हिंदी अनुवाद प्रकाशित करने की योजना है। हम किताब प्रकाशित करने से पहले इसके कुछ हिस्सों को सिलसिलेवार वेब पाठकों को उपलब्ध करा रहे हैं। प्रस्तुत लेख ‘दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के लिए बने महत्वपूर्ण कानूनों व योजनाओं में पी.एस. कृष्णन की भूमिका’ शीर्षक लेख की दूसरी कड़ी है। इसमें पी.एस. कृष्णन वासंती देवी द्वारा पूछ गए सवालों का जवाब दे रहे हैं। पाठकाें की सुविधा के लिए हम इन्हें अलग-अलग किस्तों में प्रकाशित कर रहे हैं। आज पढ़ें मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करवाने में पी.एस. कृष्णन का योगदान और उनके समक्ष आई चुनौतियों के बारे में – संपादक)
ऐसे लागू हुईं मंडल कमीशन की सिफारिशें : पी.एस. कृष्णन
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वासंती देवी
वासंती देवी : क्या सामाजिक न्याय और कमजोरों के सशक्तिकरण से जुड़े मुद्दों के प्रति नौकरशाहों को संवेदनशील बनाने के लिए आप किन्हीं विशिष्ट उपायों को लागू करने का सुझाव देंगे? यह इसलिए, क्योंकि आपकी यह मान्यता है कि केवल ऐसा करके ही हमारे देश में सच्चे प्रजातंत्र का आगाज हो सकता है?
पी.एस. कृष्णन (गतांक से आगे) : भूतपूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के कार्यकाल में एक बड़ा कदम उठाया गया और वह था सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को सामाजिक रूप से वंचित ऐसे वर्ग के रूप में मान्यता देना, जिसे आरक्षण व सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए किए गए विशेष प्रावधानों का लाभ दिया जाना चाहिए। मंडल आयोग की सिफारिशें, जिन्हें इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकार को 31 दिसंबर 1980 को सौंपा गया था, जो 1990 तक ठंडे बस्ते में पड़ी रहीं। इन सिफारिशों को न तो राजनीतिज्ञ लागू करना चाहते थे और न ही प्रशासक। इस मुद्दे को टालने के लिए सचिवों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों की अतंहीन बैठकें आयोजित की गईं।
लटकाई जाती रही हर बार मंडल कमीशन की फाइल
मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने संबंधी फाइल केंद्रीय कल्याण सचिव और कैबिनेट सचिव के बीच झूलती रही। हर बार कैबिनेट सचिव फाइल में कुछ प्रश्न व आपत्तियां (जो कि अस्पष्ट होतीं थीं) लगाकर कल्याण सचिव को वापस भेज देते थे। उठाए गए प्रश्नों का जवाब बहुत देरी से दिया जाता था। हर प्रश्न इस बात का संकेत होता था कि मामले को लटकाए रखा जाना है और तदनुसार, कल्याण मंत्रालय इनका जवाब देने में महीनों लगा देता था। फाइलों में प्रश्न और आपत्तियां लगाने की संस्कृति, औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक-काल में प्रशासन के हाथों में एक ऐसा हथियार है, जिसके माध्यम से वह किसी भी मुद्दे पर निर्णय टालता है। यह हथियार विशेषकर ऐसे निर्णयों को टालने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो यथास्थितिवादियों को नहीं भाते। राजनीतिक नेतृत्व ऐसे मसलों में कोई रुचि नहीं लेता; न तो वह इनके बारे में कुछ पूछताछ करता है और न ही प्रकरण के जल्दी निपटारे के लिए कोई प्रयास करता है। इस तरह श्रीमती इंदिरा गांधी व श्री राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकारों ने 10 साल निकाल दिए। श्री राजीव गांधी को एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने इस आशय का पत्र लिखकर डरा दिया कि अगर सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को आरक्षण प्रदान किया गया, तो इससे बोतल में बंद जिन्न बाहर आ जाएगा।
मेरी व्यक्तिगत जानकारी में किसी मंत्री/प्रधानमंत्री को डराने के लिए इस धमकी के प्रयोग का यह दूसरा अवसर था।
जब मैं कल्याण मंत्रालय का सचिव बना
कल्याण मंत्रालय में सचिव का कार्यभार ग्रहण करने के बाद मैंने फाइल का गहराई से अध्ययन किया और यह पाया कि पिछले 10 वर्षों में जो भी प्रश्न उठाए गए थे, वे अप्रासंगिक थे। मैंने उन सबका उत्तर दे दिया। मैंने 01 मई, 1990 के अपने कैबिनेट नोट में लिखा कि मूल तथ्य यह है कि संविधान का अनुच्छेद 340 (1) एसईडीबीसी को मान्यता देता है और अब जो किया जाना बाकी है, वह केवल यह है कि इन वर्गों की पहचान की जाए और यह तय किया जाए कि उनकी बेहतरी के लिए आरक्षण सहित कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए। ठीक यही काम काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग ने राष्ट्रीय स्तर पर किया था। इस सिलसिले में कई राज्य सरकारों ने भी आयोग नियुक्त किए थे, जिनकी सिफारिशों को राष्ट्रीय आयोगों की सिफारिशों की तुलना में अधिक महत्व मिला।
कैबिनेट सचिव ने प्रश्न और आपत्तियां उठाने की पुरानी तकनीक का प्रयोग कर निर्णय को टालने के प्रयास शुरू कर दिए। मैंने हर प्रश्न का जवाब दिया और फाइल को 24 घंटे के भीतर कैबिनेट सचिव को लौटाया। एक अवसर पर निजी बातचीत में कैबिनेट सचिव ने मुझसे कहा कि मैं एसईडीबीसी को आरक्षण दिए जाने के संदर्भ में प्रधानमंत्री की दुविधा को दूर करूं। मैंने उनसे कहा कि प्रधानमंत्री स्वयं यह कदम उठाना चाहते हैं। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री इस संदर्भ में असहज हैं और निर्णय लेने से बचने का रास्ता ढूंढ रहे हैं। मैंने जवाब में कहा कि प्रधानमंत्री ने मुझसे कभी ऐसा नहीं कहा कि यह कदम न उठाया जाए। इसके बाद कैबिनेट सचिव ने इस मुद्दे पर निर्णय को टालने के अपने प्रयास बंद कर दिए। जब उनका प्रश्नों का खजाना खाली हो गया, तब उनके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा कि वे फाइल प्रधानमंत्री को भेजें। अगर उस समय कल्याण मंत्रालय का सचिव कैबिनेट सचिव की हां-में-हां मिलाने वाला व्यक्ति होता, तो यह निर्णय अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया जाता।
सिफारिशें लागू करने को वी.पी. सिंह थे तैयार
श्री वी.पी. सिंह मेरी सिफारिशों, जिन्हें कल्याण मंत्री श्री रामविलास पासवान का समर्थन भी प्राप्त था; को स्वीकार करने के इच्छुक थे। मुझे ऐसा लगा कि वे मेरे द्वारा प्रस्तुत तथ्यों और संवैधानिक स्थिति के सही होने के संबंध में आश्वस्त थे। संभवतः उन्हें निर्णय लेने में और समय इसलिए लगा, क्योंकि वे यह जानते थे कि इस कदम से उनकी सरकार के लिए गंभीर राजनीतिक परिणाम हो सकते थे। श्री पासवान और मैं उन्हें समय-समय पर इस संबंध में याद दिलाते रहते थे। सन् 1990 की 6 अगस्त को प्रधानमंत्री ने हम दोनों को बुलवाया और कहा कि उन्होंने हमारी सिफारिशों को स्वीकार कर एसईडीबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय लिया है। देर रात उन्होंने हमें फिर बुलवाया और कहा कि अगले दिन लोकसभा में इस निर्णय की घोषणा करते हुए उनके भाषण का मसौदा तैयार किया जाए। मैंने यह मसौदा तैयार किया, जिसे श्री रामविलास पासवान और श्री वी.पी. सिंह ने अनुमोदित कर दिया। अगला दिन, अर्थात 7 अगस्त, 1990 भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन था। उस दिन श्री वी.पी. सिंह ने यह घोषणा करते हुए अपना भाषण लोकसभा में पढ़ा। यह भाषण अत्यंत मर्मस्पर्शी और प्रभावशाली था। इस निर्णय का सबसे जोरदार विरोध विपक्ष के नेता श्री राजीव गांधी ने किया। उन्होंने अपने लगभग डेढ़ घंटे के भाषण में एसईडीबीसी को मान्यता देने और उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के लिए निर्णय को अनुचित ठहराया।
रामविलास पासवान ने दिया साथ
श्री पासवान व श्री वी.पी. सिंह ने मेरा यह सुझाव भी स्वीकार कर लिया कि पहले चरण में केवल उन जातियों/समुदायों को आरक्षण दिया जाए, जिनके नाम मंडल आयोग की संबंधित राज्य की सूची और राज्य की अपनी सूची दोनों में शामिल हों। ऐसी जातियों को ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल किया जाए। मैंने ऐसा इसलिए किया, ताकि मंडल आयोग की सूची में शामिल कुछ जातियों को लाभ से वंचित किया जा सके। पिछड़े वर्गों की केंद्रीय सूची को जस-का-तस स्वीकार कर लेने से सामाजिक दृष्टि से अगड़ी कई जातियों और वर्गों को भी आरक्षण का लाभ मिल जाता। ऐसी कुछ जातियां भी थीं, जो सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी नहीं थीं; परंतु वे दो या तीन राज्यों की पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल थीं। सौभाग्यवश वे मंडल आयोग की संबंधित राज्य की सूची में नहीं थीं। ऐसी जातियां, जिन्हें आरक्षण का लाभ देना अनुचित होता; उनकी संख्या मंडल आयोग की सूची की तुलना में राज्यों की सूचियों में काफी कम थी। मेरे फार्मूले से सामाजिक दृष्टि से अगड़ी ऐसी जातियों को केंद्रीय सूची से बाहर कर दिया गया, जो या तो केवल मंडल सूची में थीं, या केवल राज्यों की सूचियों में। मैंने जो फार्मूला तैयार किया था, उसमें यह प्रावधान था कि केंद्रीय सूची से बाहर कर दी गई जातियों/समुदायों के अभ्यावेदनों पर सरकार द्वारा विचार किया जाएगा। ऐसी जातियों/समुदायों को भी केंद्रीय सूची में अपना नाम जुड़वाने के लिए अभ्यावेदन प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान दिया जाएगा, जो न तो राज्यों की सूची में और न ही केंद्रीय सूची में शामिल थीं; बशर्ते वे अपने सामाजिक पिछड़ेपन के पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत कर सकें। इससे उन समुदायों/जातियों के हितों की रक्षा हो सकी, जो पहले चरण की केंद्रीय सूची में इसलिए शामिल नहीं की गईं। क्योंकि, वे मंडल सूची और संबंधित राज्य की सूची दोनों में शामिल नहीं थीं। उस समय तक देश के 14 राज्यों, जिनमें भारत की कुल जनसंख्या का 70 प्रतिशत हिस्सा निवास करता था; ने अपने राज्यों के पिछड़े वर्गों की सूचियां तैयार कर लीं थीं। ये सूचियां वी.पी. सिंह सरकार के मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करने के निर्णय से काफी पहले से मौजूद थीं। ऐसे राज्य, जो बड़ी आबादी वाले थे और जिन्होंने अपने राज्य के पिछड़े वर्गों की सूची नहीं बनाई थी; वे थे पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और राजस्थान।
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जब श्री वी.पी. सिंह सदन में अपना भाषण दे रहे थे और उसके बाद, सदस्यों द्वारा इस निर्णय की आलोचना का प्रभावी जवाब देने के लिए मैंने सदन की अधिकारी दीर्घा से उन्हें सामग्री उपलब्ध करवाई; जिनमें प्रामाणिक स्रोतों, जैसे- मार्क गेलेंटर की पुस्तक ‘कंप्यूटिंग इनइक्वालिटी : लाॅ एंड द बैकवर्ड क्लासेस ऑफ इंडिया’ से लिए गए उद्धरण शामिल थे। इसके बाद देश में जो बवाल मचा, उसकी चर्चा मैं नहीं करना चाहूंगा। इस बवाल को भड़काने में शासक दल और प्रतिपक्ष के कुछ नेताओं सहित श्री अरुण शौरी जैसे पक्षपाती पत्रकार शामिल थे; जिन्होंने सामाजिक रूप से अगड़ी जातियों, अर्थात जो एससी, एसटी या ओबीसी नहीं थीं; के युवाओं के मन इस तरह की भावना पैदा कर दी, मानों उनके लिए दुनिया का अंत हो गया हो। यह अतिशयोक्तिपूर्ण ही नहीं, बल्कि सफेद झूठ था।
सुप्रीम कोर्ट को जवाब
जब भी समाज के वंचित वर्गों को ऐसी सहायता उपलब्ध करवाई जाती है, जो पूर्णतः न्यायोचित हो, न्यायालयों में रिट याचिकाओं की झड़ी लग जाती है। उस समय श्री सोली सोराबजी एटार्नी जनरल थे। मैंने उन्हें इस निर्णय की पृष्ठभूमि से अवगत कराया। मैंने यह भी सुनिश्चित किया कि याचिकाओं की सुनवाई के दौरान न्यायालयों में सरकार द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले हलफनामों/जवाबी हलफनामों को या तो मैं स्वयं तैयार करूं अथवा वे मेरी देखरेख में तैयार किए जाएं; ताकि वे तथ्यात्मक हों और याचिकाओं में उठाए गए सभी मुद्दों का तार्किक उत्तर प्रस्तुत करते हों। इन हलफनामों में ओबीसी को आरक्षण दिए जाने की सामाजिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर भी मैंने जोर दिया। श्री वी.पी. सिंह की सरकार के नवंबर 1990 की शुरुआत में गिरने के पहले ये सभी दस्तावेज, अटार्नी जनरल के जरिए, उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत किए जा चुके थे। इन हलफनामों/जवाबी हलफनामों से मेरे सेवानिवृत्त होने के बाद भी सरकार को अपने निर्णय का बचाव करने में मदद मिली।
मेरी सेवानिवृत्ति के बाद
मैं 31 दिसंबर, 1990 को सेवानिवृत्त हो गया। परंतु, मैंने सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता की स्थापना व एससी, एसटी और ओबीसी की बेहतरी के लिए काम करना जारी रखा। कुछ समय बाद, 1991 में मुझे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आयोग का सदस्य नियुक्त किया गया। वहां मैं अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका; क्योंकि आंध्र प्रदेश के सुंदरू में दलितों (जिनमें से कुछ हिंदू और कुछ ईसाई थे और जो प्रमुख एससी जातियों के सदस्य थे) के विरुद्ध 06 अगस्त, 1991 को हुई हिंसा और अत्याचार के मामले में मेरे द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट कुछ शीर्ष राजनीतिज्ञों को पसंद नहीं आई। मैंने 11 अगस्त, 1991 को इस गांव का दौरा किया, जिसमें मेरी पत्नी भी मेरे साथ थीं। उनकी उपस्थिति के कारण मैं एससी की महिलाओं से संवाद कर सका और यह जान सका कि शौचालय आदि न होने के कारण उन्हें किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। मेरे ध्यान में यह भी आया कि सुंदरू उन गांवों में शामिल था, जहां दलितों के लिए श्मशान घाट नहीं था। मेरी रिपोर्ट और राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री जर्नादन रेड्डी से हुई मेरी चर्चा के कारण मुख्यमंत्री मुझसे नाराज हो गए और उन्होंने अपनी नाराजगी से प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिंहराव को अवगत कराया। श्री नरसिंहराव मेरे कार्यों के प्रशंसक थे; परंतु वे अत्यंत एहतियात से काम करने वाले व्यक्ति थे और किसी तरह की मुसीबत मोल लेना नहीं चाहते थे। इसी कारण सन् 1992 में मुझे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति व जनजाति आयोग की सदस्यता से हटा दिया गया।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
क्रीमी लेयर का खेल
कुछ समय पश्चात मुझे पिछड़े वर्गों के लिए विशेषज्ञ समिति का सदस्य नियुक्त किया गया। इस समिति को ओबीसी के सामाजिक रूप से अगड़े व्यक्तियों/तबकों (जिन्हें सामान्य भाषा में क्रीमी लेयर कहा जाता है) की पहचान करने की जिम्मेदारी दी गई थी; ताकि उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुरूप ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने के पहले क्रीमी लेयर को आरक्षण व अन्य लाभों से वंचित किया जा सके। उच्चतम न्यायालय ने मंडल मामले में 16 नवंबर, 1992 को दिए गए अपने ऐतिहासिक निर्णय में वी.पी. सिंह सरकार के एसईडीबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के आदेश को वैध ठहराया और पहले चरण में केवल उन जातियों एवं वर्गों को, जो मंडल आयोग व राज्य सरकारों दोनों की पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल थे; ओबीसी की केंद्रीय सूची में स्थान देने के निर्णय को भी उचित बताया। इस समिति का गठन 22 फरवरी, 1993 को किया गया था।
समिति ने निर्धारित समय सीमा- दो सप्ताह -के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। सरकार द्वारा नियुक्त समितियां शायद ही कभी इतनी तेजी से काम करती हैं। समिति अपना काम निर्धारित समय-सीमा में इसलिए पूरा कर सकी, क्योंकि मैंने उसे अनावश्यक विस्तार में जाने से बचने का रास्ता दिखाया; ताकि उच्चतम न्यायालय के निर्देश का जल्दी-से-जल्दी पालन कर ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था को लागू किया जा सके। मुझे यह पता चला कि तत्कालीन कैबिनेट सचिव को इस बात से बहुत निराशा हुई कि विशेषज्ञ समिति ने निर्धारित समय-सीमा में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। कुछ लोगों को आशा थी कि समिति अपना काम पूरा करने में वर्षों लगा देगी और इससे एसईडीबीसी को आरक्षण देने के निर्णय को हमेशा के लिए नहीं, तो कम-से-कम अनिश्चितकाल के लिए टाला जा सकेगा।
इसके बाद विशेषज्ञों की समिति को तुलनात्मक पिछड़ेपन के आधार पर एसईडीबीसी का वर्गीकरण करने का काम सौंपा गया। उच्चतम न्यायालय ने मंडल मामले में अपने निर्णय में इस तरह के वर्गीकरण की अनुमति दी थी और यह भी कहा था कि 27 प्रतिशत आरक्षण में से कुछ हिस्से को अधिक पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किया जा सकता है। हम यह काम कर ही रहे थे कि बीच में हमसे इसे बंद करने को कह दिया गया। शायद इसका कारण ऐसे समुदायों और जातियों का दबाव था, जिन्हें यह डर था कि अगर पिछड़े वर्गों का वर्गीकरण हो जाएगा; तो उन्हें अति पिछड़ा वर्गों की कीमत पर आरक्षण के अधिक हिस्से का लाभ उठाने का अवसर नहीं मिल सकेगा।
इसके पश्चात समिति को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह ऐसी जातियों की सूची तैयार करे, जो मंडल आयोग की संबंधित राज्य की सूची और उस राज्य की अपनी सूची; दोनों में शामिल हों। यह एक कठिन और काफी लंबा समय लेने वाली प्रक्रिया थी; परंतु इसे भी मेरे मार्ग-निर्देशन में निर्धारित तिथि अर्थात जून, 1993 तक पूरा कर दिया गया। अब एसईडीबीसी को आरक्षण दिए जाने की राह में कोई बाधा नहीं थी। सरकार को केवल हमारी सिफारिशों पर अंतिम निर्णय लेना था। प्रधानमंत्री श्री पी.वी. नरसिंहराव ने क्रीमी लेयर के संबंध में सिफारिशों पर चर्चा के लिए संबंधित मंत्रियों और विशेषज्ञ समिति की एक बैठक बुलवाई। इस बैठक में मुख्यतः मेरे और प्रधानमंत्री के बीच संवाद हुआ; क्योंकि मैं इस मुद्दे के सभी पहलुओं और बारीकियों से वाकिफ था और श्री नरसिंह राव की सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण, वे इन मुद्दों को ठीक से समझने में सक्षम थे। बैठक समाप्त होने पर हमें महसूस हुआ कि प्रधानमंत्री हमारी सिफारिशों से संतुष्ट और सहमत थे। इसके बाद सरकार ने विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया और केंद्र सरकार के अधीन पदों और सेवाओं में सीधी भर्ती में एसईडीबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर दिया। हमारी सिफारिशों में से केवल एक को स्वीकार नहीं किया गया। इस तरह भारत सरकार के अंतर्गत पदों और सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की शुरुआत 8 सितंबर, 1993 से हो गई। यह इतिहास का एक नया मोड़ था। वैसे तो यह कदम बहुत पहले उठा लिया जाना चाहिए था; परंतु अगर उच्चतम न्यायालय के मंडल मामले में निर्णय के 10 माह के भीतर इसे लागू किया जा सका, तो इसका कारण यह था कि विशेषज्ञ समिति ने उसे सौंपे गए कार्य को त्वरित गति से पूरा किया और उच्चतम न्यायालय द्वारा लगाई गई शर्तों को पूरा करने में भारत सरकार की मदद की। इसके बिना पिछड़े वर्गों को आरक्षण देना संभव नहीं हो पाता।
विशेषज्ञ समिति द्वारा अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करने के बाद जब सरकार उन पर विचार कर रही थी, उसी दौरान राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) का गठन किया गया। इसका गठन मंडल आयोग प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुपालन में किया गया था और मुझे इसका सदस्य-सचिव नियुक्त किया गया। इस पद पर रहते हुए मैं इस स्थिति में था कि मैं आयोग की ऐसी प्रक्रिया अपनाने में मदद कर सकूं; जिससे उन जातियों को आरक्षण का लाभ दिया जा सके, जो वास्तविक रूप से सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी थीं; और उन समुदायों/जातियों को आरक्षण की परिधि से बाहर रखा जा सके, जो इसके लिए पात्र नहीं थीं। पटेल/पाटीदार, मराठा, जाट आदि समुदायों द्वारा स्वयं को एसईडीबीसी की सूची में शामिल किए जाने की मांग नई नहीं है। आजकल मीडिया में जो कुछ प्रकाशित/प्रसारित हो रहा है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि ये समुदाय ऐसी मांग अब कर रहे हैं। परंतु, सच यह है कि उन्होंने उस समय भी यह मांग उठाई थी। इस अवधि में मेरा मुख्य कार्य यह था कि वास्तविक रूप से पिछड़ी जातियों को जल्द-से-जल्द सूची में शामिल किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि जो जातियां पिछड़ी नहीं हैं, वे सूची में स्थान न पा सकें। मैंने इस अवसर का इस्तेमाल कई महत्वपूर्ण सिफारिशें करने के लिए भी किया जैसे :-
अ. एनसीडीसी को यह अधिकार दिया जाए कि वह सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं और कार्यक्रमों और उनकी बेहतरी के लिए बनाए गए कानूनों के क्रियान्वयन का पर्यवेक्षण कर सके और एसईडीबीसी की शिकायतों को सुनकर व उनका परीक्षण कर सरकार के समक्ष अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कर सके।
ब. सरकार यह व्यवस्था करे कि सन् 2001 की जनगणना- जो इस सहस्राब्दी की पहली जनगणना थी- के दौरान एसईडीबीसी की आबादी के संबंध में उसी तरह के आंकड़े इकट्ठे किए जाएं, जैसे कि एससी-एसटी के मामले में सरकार के पास पहले से उपलब्ध थे।
चिदंबरम कर रहे थे जातिगत जनगणना का विरोध
इन दोनों सिफारिशों पर सरकार ने अब तक गंभीरता से ध्यान नहीं दिया है। (इस बीच, 123वें संविधान संशोधन विधेयक, 2017 -जिसके कुछ सकारात्मक पक्ष हैं, परंतु जिसमें कई महत्वपूर्ण कमियां भी हैं; जिन्हें दूर किया जाना आवश्यक है- के जरिए कुछ हद तक इन सिफारिशों को स्वीकार किया गया है।) सन् 2011 की जनगणना के पहले मैंने व्यक्तिगत तौर पर इस दिशा में काफी प्रयास किए कि दूसरी सिफारिश के अनुरूप पिछड़े वर्गों की गणना भी की जाए, परंतु तत्कालीन गृहमंत्री थिरू चिंदबरम, जनगणना आयुक्त जिनके मंत्रालय के अधीन थे; ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था कि एसईडीबीसी के संबंध में आंकड़े इकट्ठा करना जनगणना की प्रामाणिकता से समझौता करना होगा। मुझे नहीं मालूम कि ‘समझौता‘ और ‘जनगणना की प्रामाणिकता’ से उनका क्या आशय था? मेरे विचार में इस तर्क में कोई दम नहीं था। थिरू चिदंमबरम, जो अब अखबारों में विविध विषयों पर लगातार लेखन कर रहे हैं; शायद जनता और विशेषकर एसईडीबीसी को यह बताना चाहेंगे कि जनगणना के फार्म में किसी व्यक्ति के एससी या एसटी होने संबंधी काॅलम के बगल में एसईडीबीसी के संबंध में एक नया काॅलम बना देने से किस तरह ‘जनगणना की प्रामाणिकता‘ के साथ ‘समझौता‘ होता। मैंने यह सुझाव इस आधार पर दिया था कि एसईडीबीसी को यह दर्जा समुचित कानूनी प्रक्रिया अपनाकर दिया गया है। अतः उनके संबंध में आंकड़े एकत्रित करने में कुछ भी गलत नहीं है। देश के पिछड़े वर्गों को यह अधिकार है कि वे चिदंबरम से इस संबंध में स्पष्टीकरण मांगें। यहां यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि कुछ नेताओं व अध्येताओं ने पिछड़े वर्गों की जनगणना के बजाय ‘जाति जनगणना’ किए जाने की मांग रखी थी। इससे थिरू चिदंबरम को एसईडीबीसी की जनगणना के बारे में मेरे द्वारा दी गई व्यावहारिक सलाह को नकारने का अवसर मिल गया। थिरू चिदंबरम के इस नकारात्मक रुख के कारण एसईडीबीसी को केंद्र सरकार द्वारा मान्यता प्रदान किए जाने के 25 वर्ष बाद भी, उनकी आबादी के संबंध में प्रामाणिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हो सके हैं। इस बीच दो दशकीय जनगणनाएं हो चुकी हैं; परंतु एसईडीबीसी को आज भी यह नहीं पता कि देश में उनकी कुल आबादी कितनी है? विभिन्न राज्यों और जिलों में वे कितनी संख्या में निवासरत हैं और उनके जीवनयापन के साधन क्या हैं? इसके विपरीत एससी-एसटी के मामले में स्वतंत्रता के बाद, सन् 1951 में हुई पहली जनगणना से ही ये सभी आंकड़े एकत्रित किए जा रहे हैं। ये आंकड़े इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनसे पिछडे़ वर्गों के समग्र विकास के लिए बेहतर योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी। यह आवश्यक है कि एसईडीबीसी और उनके हितार्थ काम कर रहे सभी व्यक्ति और संगठन एक होकर यह मांग करें कि सन् 2021 की जनणगना में केंद्रीय सूची में शामिल एसईडीबीसी की आबादी के संबंध में आंकड़े इकट्ठे किए जाएं और यह न करने के लिए किसी तरह के बहाने तलाश न किए जाएं। इस बीच चिदंबरम ने सामाजिक, आर्थिक व जाति जनगणना (एसईसीसी) का संचालन करने का कार्य दो अलग-अलग मंत्रालयों को सौंप दिया। इनमें से एक को ग्रामीण क्षेत्रों और दूसरे को शहरी क्षेत्रों में ये आंकड़े एकत्रित करने थे। इन मंत्रालयों को जनगणना का कोई अनुभव नहीं था। इसके विपरीत जनगणना आयुक्त और उससे जुड़ी संस्थाओं ने कई जनगणनाओं का सफल संचालन कर इस सिलसिले में गहन अनुभव और विशेषज्ञता हासिल कर ली है।
(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी/एफपी डेस्क)
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मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया